फासीवाद की बढ़ती छाया

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– जितेंद्र गुप्त

इतालवी और योरोपीय समाज में सतह के नीचे मौजूद फासीवादी विचारधारा के प्रभाव को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध इतालवी उपन्यासकार और निबंधकार अम्बर्तो इको ने लिखा था, ”उर-फासीवाद (आंतरिक फासीवाद) लगातार हमारे आस पास है, कई बार तो बिल्कुल ही सादे कपड़ों में। यह हमारे लिए बहुत ही सामान्य बात होगी कि कोई व्यक्ति इस परिदृश्य में हमारे सामने आए और कहे, मैं आउशवित्स को फिर से खोलना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि इटली के चौराहों पर काली कमीज वाले लोग परेड करें।

 

इतिहास के बारे में सबसे महान वाक्य शायद यही है कि ”इतिहास पहले त्रासदी के रूप में और फिर विद्रूप के रूप में खुद को दोहराता है।” त्रासदी बीत चुकी है, विद्रूप से हमारा सामना है।

28 अक्टूबर, 1922 को बेनितो मुसोलनी ने रोम की तरफ मार्च करना शुरू किया था। इस ऐतिहासिक घटना के सौ साल बीत चुके हैं और इसके साथ में मनुष्यता के आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी से सीखे गए सबक को भी मनुष्यता भूल चुकी है। इस बात को इस वर्ष 25 सितंबर को हुए चुनावों में इटली में ब्रदर्स ऑफ इटली (फ्रैटिली दी इतालिया) पार्टी की जीत ने यह साबित कर दिया है। लोकतंत्र से जनता के मोहभंग ने नव-फासीवादियों को मौका दिया है कि वे त्रासदी को विद्रूप में तब्दील कर पाए।

हालिया चुनाव में महज 63 फीसदी जनता ने वोट दिया और इसमें जार्जिया मेलोनी की पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली (एफडीआई) को महज 26 फीसदी वोट मिले, लेकिन दूसरे दक्षिणपंथी दलों के सहयोग से मेलोनी ने इटली की सत्ता की दावेदार हुई हैं। मेलोनी ने पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी और अन्य दक्षिणपंथी दलों के साथ गठबंधन किया है। इस तरह वह इटली की प्रधानमंत्री निर्वाचित हुई हैं। यह भूलना नहीं चाहिए कि मेलोनी की पार्टी का बेनितो मुसोलनी की नेशनल फासिस्ट पार्टी (बाद में रिपब्लिकन फासिस्ट पार्टी) से सीधा रिश्ता है। मुसोलनी की पोती रेचेल मुसोलनी ब्रदर्स ऑफ इटली की उभरती हुई नेता हैं और रोम की नगर परिषद में सदस्य हैं।

1945 में मुसोलनी की मौत के लगभग तुरंत बाद ही संयुक्त राज्य अमेरिका ने कम्युनिस्टों को सत्ता से दूर रखने के लिए फासिस्ट पार्टी के सदस्यों को फिर से वैध रूप से राजनीतिक गतिविधियों के लिए अनुमति दे दी (जिन्हें युद्ध अपराध के लिए दंडित किया जाना चाहिए था)। लेकिन उस समय इटली में कम्युनिस्ट पार्टी (पीसीआई) सबसे शक्तिशाली राजनीतिक दल के रूप में उभरी जिसके नेता अंतोनियो ग्राम्शी के करीबी दोस्त पामीरो तोग्लियाती थे। पश्चिमी देशों और खासतौर से संयुक्त राज्य अमेरिका ने कम्युनिस्ट पार्टी से मुकाबले के लिए इतालवी माफिया को भी बहुत सहायता दी थी। नेशनल फासिस्ट पार्टी के प्रतिबंधित हो जाने पर इसके सदस्यों ने ‘मोवमेंटो सोशियेली इतालियानो’ (एमएसआई) की स्थापना की। बाद में ‘इतालवी सोशियेल मूवमेंट’ के नेता जियानफ्रैंको फिनि ने 1995 पार्टी को नया स्वरूप दिया और इसका नाम ‘नेशनल अलायंस’ (एएन) रखा। 2009 में ‘नेशनल अलायंस’ का विलय ‘द पीपुल ऑफ फ्रीडम’ (पीडीआई) में विलय हो गया और 2012 में ‘द पीपुल ऑफ फ्रीडम’ से अलग होकर मेलोनी ने ‘ब्रदर ऑफ इटली’ की स्थापना की, जिसे हालिया चुनाव में सफलता मिली है।

संयुक्त राज्य अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद इटली, जापान और दूसरे देशों में, जहां कम्युनिस्ट ताकतवर राजनीतिक हैसियत में थे, दक्षिणपंथी अतिवादियों और माफिया समूहों की मदद की, ताकि जिससे कम्युनिस्टों को सत्ता से दूर रखा जा सके। युद्ध अपराधियों को आम माफी दे दी गई और उन्हें नए भेष में राजनीतिक गतिविधियों के लिए प्रोत्साहित किया गया। इस तरह से फासीवादी विचारधारा इटली और दूसरे देशों में सतह के नीचे मौजूद रही और संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग से पल्लवित भी होती रही। इतालवी और यूरोपीय समाज में सतह के नीचे मौजूद फासीवादी विचारधारा के प्रभाव को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध इतालवी उपन्यासकार और निबंधकार अम्बर्तो इको ने ‘उर-फासिज्म’ शीर्षक से निबंध लिखा था, जिसमें उन्होंने सवाल किया था कि क्या योरोप पर फासीवाद का प्रेत मंडरा रहा है?

इसके बाद अम्बर्तो ने उस भयावह आशंका के बारे में लिखा था, जिसका उन्होंने शायद पूरी तरह से अंदाजा लगा लिया था। ”उर-फासीवाद (आंतरिक फासीवाद) लगातार हमारे आस-पास है, कई बार तो बिल्कुल ही सादे कपड़ों में। यह हमारे लिए बहुत ही सामान्य बात होगी कि कोई व्यक्ति इस परिदृश्य में हमारे सामने आए और कहे, ‘मैं आउशवित्स को फिर से खोलना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि इटली के चौराहों पर काली कमीज वाले लोग परेड़ करें।’ जीवन सरल नहीं रहा है। फासीवाद की बीमारी बहुत ही मासूम तरीके से हमारे सामने आ सकती है। हमारा दायित्व यह है कि हम इसे बेनकाब करें और दैनंदिन की घटनाओं से लेकर दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली उस हर एक घटना की ओर इशारा करे, जो इसकी वापसी का संकेत देती है।” आज ढाई दशक बाद उनकी आशंका सही साबित हुई है। इटली के चौराहों पर काली कमीजें पहनकर परेड करने वालों की सत्ता में वापसी हो चुकी है। यह न भूलने वाली बात है कि दुनिया के सारे फासीवादी एक जैसे ही होते हैं।

 

षडयंत्र सिद्धांत

जार्जिया मेलोनी कट्टर तरीके से ‘महान स्थानापन्न सिद्धांत’ (ग्रेट रिप्लेसमेंट थ्योरी) जैसे ‘षडयंत्र सिद्धांत’ पर भरोसा करती हैं। इस सिद्धांत पर भरोसा करने वाले योरोपीय लोगों का दावा है कि श्वेत नस्ल के लोगों की संख्या में लगातार कमी हो रही है और इन लोगों की जगह गैर-ईसाई अफ्रीकी और दूसरे लोग योरोप में बसते चले जा रहे हैं। इस षडयंत्र सिद्धांत की समानता डोनाल्ड ट्रंप के दावों से है, तो इसमें कोई विस्मय नहीं। देश और समाज के बारे में मेलोनी के विचारों को उनके इस वक्तव्य से आसानी से समझा जा सकता है, जिसे उन्होंने स्पेन की दक्षिणपंथी पार्टी वोक्स के एक कार्यक्रम में इसी साल के आरंभ में दिया था। मेलोनी के शब्द थे, ”स्वाभाविक परिवारों के लिए हां, एलजीबीटी समूह के लिए ना, लैंगिक पहचान के लिए हां, लैंगिकता की सामाजिकता (जेंडर) की विचारधारा को ना… इस्लामी हिंसा को ना, सुरक्षित सीमाओं के लिए हां, व्यापक अप्रवासन को ना… भीमकाय अंतरराष्ट्रीय वित्त को ना… ब्रेसेल्स के नौकरशाहों को ना!”

फासीवादियों का सबसे मजबूत अस्त्र ‘नियंत्रण’ होता है और नियंत्रण के लिए ‘भय’ के सामाजिक मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। भय की सामाजिक मनोसंरचना लिए सबसे अनुकूल तरीका कल्पित शत्रु को ‘निर्मित’ करना होता है। इटली में मेलोनी और दूसरे दक्षिणपंथी समूहों ने इसी तरीके को अपनाया है। पारंपरिक परिवार (स्त्री व पुरुष और उनकी यौनिक उत्पादकता) के नष्ट होने का कल्पित भय दिखाकर इतालवी समाज को प्रेरित किया गया कि वे इन चुनावों में अपने राजनीतिक विश्वासों की बजाय देश और समाज को बचाने के लिए मत देने जा रहे हैं। ब्रितानी इतिहासकार पियर्स ब्रेंडोन ने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच के समय के योरोप के बारे अपनी शानदार किताब ‘द डार्क वैली’स : द पैनोरमा ऑफ 1930’स’ में बताया है कि किस तरह उस समय भी इस तरह का प्रचारयुद्ध इतालवी समाज में जोरों पर था कि यौनिक उत्पादकता (जनसंख्या) कम हो रही है और वे पुरुष बेकार और बहुत निकृष्ट हैं जो बच्चे नहीं पैदा कर पाते हैं और वे औरतें भी निकृष्ट है जो पेरिस के फैशन के प्रेरित होकर बच्चे नहीं पैदा करना चाहती हैं। मातृत्व को उस दौर में सबसे बड़ी देशभक्ति के रूप में रेखांकित किया जाता था। गर्भनिरोध के साधनों को इस बहाने से प्रतिबंधित कर दिया गया था कि इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हो रही हैं। यहां तक कि मुसोलनी ने पार्टी की महिला ईकाइयों को निर्देशित किया था कि वे घर-घर जाकर महिलाओं को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करें।

1996 में जब जार्जिया मेलोनीजब केवल 19 साल की थीं तब एक फ्रांसीसी टेलीविजन चैनल पर उन्होंने कहा था, ”मेरा ख्याल है कि मुसोलनी एक अच्छे राजनेता थे। उन्होंने जो कुछ किया, वह इटली के लिए किया था। पिछले पचास सालों में उनके जैसा कोई राजनेता नहीं हुआ।” हालांकि, प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के साथ उन्होंने अपने विचारों को उदारतावाद के दायरे में पेश करने की कोशिश की है। इस दावेदारी के बाद उनका कहना है, ”फासीवाद को पैदा करने वाला इतालवी दक्षिणपंथ दशकों पहले की बात है जिसकी बिना किसी शक-शुबहों के लोकतंत्र की गैर-मौजूदगी और कुख्यात यहूदी-विरोधी कानून के लिए निंदा की जाती है।” बिल्कुल इसी तरह से अगस्त के महीने में उन्होंने अपनी पार्टी के ढांचे और विचारधारा को फासीवादी होने के बजाए ब्रितानी कंजरवेटिव, संयुक्त राज्य अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी और इजराइल की लिकुड पार्टी के सदृश्य बताया था। लेकिन इस सबके बावजूद मलोनी की पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली ने अपनी फासीवादी प्रेरणाओं को छिपाया भी नहीं है! पार्टी का प्रतीक चिन्ह अभी भी वही ही है, जो एमएसआई का था।

 

आर्थिक मुद्दों पर दिग्भ्रमित प्रचार

बिल्कुल इसी तरीके से आर्थिक मुद्दों पर भी दिग्भ्रमित करने वाला प्रचार भी 1930 के दशक के इटली में जोरों पर था। इसमें सबसे प्रमुख बात अर्थव्यवस्था (उत्पादन) के इतालवीकरण की थी। यह राष्ट्रवाद और आर्थिक नीतियों का ऐसा घालमेल था जिसके नतीजे बहुत घातक रहे, लेकिन इतालवी जनता इसके मोहपाश में रही। इस समय मेलोनी बिल्कुल वही कुछ कर दिखाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देती हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और योरोपीय संघ के प्रति मेलोनी के असंतोष का अगर कोई सार्थक मतलब है, तो केवल यह कि आर्थिक स्तर पर योरोपीय देश बड़ी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। इस संदर्भ में ब्रितानी उदाहरण सबसे सार्थक है जो न केवल योरोपीय संघ से अलग हो चुका है, बल्कि आर्थिक नीतियों को लेकर मौजूद संकट के कारण महज दो ही महीनों के भीतर अपने तीसरे प्रधानमंत्री की प्रतीक्षा में है।

इतालवी आर्थिक संकट की बानगी ऐसे दी जा सकती है कि इतालवी अर्थव्यवस्था योरोप की दूसरी सबसे बड़ी ऋणग्रस्त अर्थव्यवस्था है। योरोपीय संघ के बारे में मेलोनी के बयान ने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि वैश्वीकरण की नीतियां किस तरह से वैचारिक रूप से दिवालिया थी और हैं। वैश्वीकरण की नीतियों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत छोटे से समूह को समृद्ध किया है। इसके साथ ही पूंजीपतियों को हर किस्म के राष्ट्रीय नियंत्रण से मुक्त करके उनके लाभ क्षेत्र को तो विस्तृत किया है, लेकिन उनकी जिम्मेदारियों के क्षेत्र को शून्य कर दिया है। भारी पैमाने पर पूंजीपतियों को दी गई और दी जा रही कर-रियायतों के कारण यूरोपीय, संयुक्त राज्य अमेरिका और एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं बदहाल हैं और इसके साथ महामारी के उपजे हालतों के कारण इसका सारा बोझ आम जनता पर पड़ रहा है।

यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध ने पूरी दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक संकट पैदा कर दिया है। इस संकट की बुनियाद में देखें तो संयुक्त राज्य अमेरिका की आर्थिक व राजनीतिक वर्चस्व की नीतियां स्पष्ट रूप से दिखाई देंगी। संयुक्त राज्य अमेरिका नाटो के जरिए अपनी इन नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। सोवियत विघटन के बाद से ही रूसी नेताओं का लगातार आरोप रहा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी देश पूर्व की ओर नाटो का प्रसार न करने के वादे को तोड़ रहे हैं जिसका परिणाम यूक्रेन-रूस युद्ध के रूप में दिखाई दे रहा है। यह याद रखना चाहिए कि ऊर्जा और खाद्यान्न के संदर्भ में पश्चिमी देशों की निर्भरता पूर्व के देशों पर है।

संयुक्त राज्य अमेरिका इस युद्ध में यूक्रेन की भरपूर सहायता कर रहा है। इसके साथ पश्चिमी देशों की भी सहायता यूक्रेन को मिल रही है। अंतरराष्ट्रीय समाचार माध्यमों ने संघर्षरत क्षेत्रों में भाड़े के लड़ाकों की मौजूदगी की पुष्टि की है। इसके साथ ही युद्धक साजो-सामान पर नाजी (जर्मनी) प्रतीक स्वास्तिक के देखे जाने के भी सबूत सामने आए हैं। यूक्रेन की सरकार में अतिवादी-दक्षिणपंथियों का गहरा प्रभाव है। युद्ध-क्षेत्र में आजोव रेजीमेंट ने अपना प्रतीक चिन्ह ही स्वास्तिक को बना रखा है। अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों सहित राष्ट्रपति जो बाइडन सरकार के अधिकारियों ने इस आजोव रेजीमेंट के अधिकारियों की आधिकारिक यात्रा में औपचारिक स्वागत किया था।

संयुक्त राज्य अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रति झुकाव रखने वाले रिपब्लिकन पार्टी के समूह में मेलोनी की जीत को लेकर बहुत उत्साह दिखाया गया है। माइक पोंपियो ने कहा भी है कि इटली ‘मजबूत रूढि़वादी नेतृत्व का अधिकारी’ है। रिपब्लिकन की तरफ से दिखाया जा रहा यह उत्साह बहुत ही स्वाभाविक है, क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप हर एक तरह के रूढि़वादी और दक्षिणपंथी समूह के लिए ‘अनुकरणीय नायक’ हैं।

 

योरोप पर काली छायाएं

योरोप में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव स्वीडन के मामले में देखने को मिल रहा है। स्वीडन ऐतिहासिक रूप से सैन्य रूप से निरपेक्ष रहा था। दूसरे विश्वयुद्ध में भी वह किसी भी समूह के साथ नहीं रहा। लेकिन स्वीडिश समाज के समतावादी और निरपेक्षता जैसे मूल्यों में तब्दीली हुई है। अगस्त में हुए चुनावों के बाद उल्फ क्रिस्टेरसन ने स्वीडन डेमोक्रेट्स के बाहरी समर्थन से प्रधानमंत्री पद के लिए बहुमत पाया है। स्वीडन डेमोक्रेट्स अतिवादी दक्षिणपंथी राजनीतिक समूह है, जो दूसरे दक्षिणपंथियों की ही तरह अप्रवासन-विरोधी है और इस्लामी हिंसा की अवधारणा पर यकीन करता हैं। महत्वपूर्ण यह है कि पहली बार मत डाल रहे 18-21 साल के युवाओं में से 22 फीसदी का समर्थन स्वीडन डेमोक्रेट्स को मिला है। वहीं, दूसरी ओर स्वीडन ने ‘निरपेक्षता’ की अपनी पुरानी ऐतिहासिक नीति छोड़ते हुए जुलाई में ही औपचारिक रूप से नाटो में शामिल होने के लिए आवेदन किया है। यह स्वीडिश समाज में पैर पसारते नव-फासीवाद का ही संकेत है, यह संकेत हैं कि किस तरह अतिवादी विचार स्वीडिश समाज में ‘वैधता’ अर्जित करते जा रहे हैं। स्वीडन भी अब हंगरी और पोलैंड के रास्ते पर है जहां इस्लामी हिंसा जैसे विचार का समर्थन किया जाता है और प्रवासियों को लेकर सख्त कानून बनाने पर लगभग आम-सहमति दिखाई देती है। पड़ोस के राज्य फिनलैंड की हालत भी वही है, जहां अति-दक्षिणपंथियों का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है और प्रवासियों को लेकर किसी तरह की कोई भी सहनभूति नहीं है। फिनलैंड ने भी स्वीडन की तरह ही नाटो की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन किया है।

यदि गरीबी और अतिवादी दक्षिणपंथ के बीच संबंध देखना हो तो चेक गणराज्य इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हो सकता है। फ्रीडम एंड डायरेक्ट डेमोक्रेसी (एसडीपी) की विचारधारा हंगरी में सत्ताधारी फिडेस्ज पार्टी के ही अनुरूप है और यह चेक गणराज्य में तेजी से जनसमर्थन पा रही है। लगातार बढ़ती मुद्रास्फीति और बेरोजगारी के कारण गरीबी की शिकार हो रहे लोग, जो पहले प्राय: वामपंथी पार्टियों को वोट देते थे, वे दक्षिणपंथी प्रचारयुद्ध के वजह से दक्षिणपंथी पार्टियों के समर्थक हो गए हैं। इसमें शिक्षा, सामाजिक पृष्ठभूमि जैसे अहम सामाजिक कारकों की भूमिका नगण्य दिखाई देती है। फ्रांस इसका जबरदस्त उदाहरण हैं। इसी साल की शुरुआत में फ्रांस में हुए राष्ट्रपति चुनावों में इमानुएल मेक्रोन को बड़ी मुश्किल से सफलता मिल पाई है। उनके दक्षिणपंथी प्रतिद्वंदी मेरीन ली पेन मतदान के पहले दौर में महज दो फीसदी के अंतर से पीछे रहीं और बाद में दूसरे दौर में मैक्रोन ने 58 फीसदी मत पाकर जीत हासिल की, जबकि मेरीन ली पेन को 41 फीसदी मत मिले। इस तरह से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी तरह फ्रांस में भी धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारों को सार्वजनिक स्वीकृति मिलती जा रही है। यहां दोहराना जरूरी है कि ली पेन भी दूसरे फासीवादियों की तरह विजातीयों (मुसलमान) के प्रति घृणा, अति-राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय (फ्रांसीसी) उत्थान जैसे विचारों को प्रचारित करती रही थीं। ली पेन का इतिहासबोध इतना ही है कि वे फ्रांस पर नाजी जर्मनी के आधिपत्य की तुलना सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढऩे से कर इसे मुस्लिम आधिपत्य कहती हैं।

स्पेन की चर्चा पहले भी की गई है। इटली की नव-निर्वाचित प्रधानमंत्री जार्जिया मेलोनी की वोक्स पार्टी से गहरी मित्रता है। वोक्स स्पेन की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। अधिकतर राजनीतिक पर्यवेक्षकों को यही लगता है कि वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब स्पेन के राजनीतिक मंच पर वोक्स सबसे ज्यादा प्रभावशाली होगी। बिल्कुल इसी तरह से जर्मनी में अल्टरनेटिव ऑफ जर्मनी (एआईडी) के तार नव-नाजीवाद से जुड़े हुए हैं। ये सभी पार्टियां इस्लाम के प्रति घृणा, विजातीयों के प्रति उन्माद, अंधराष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को छिपाती नहीं है, बल्कि इन्हीं कुतर्कों से जनता को अपनी प्रति आकर्षित कर रही हैं।

योरोप के नव-फासीवादियों ने अपना ‘कल्पित दुश्मन’ चुन लिया है : इस्लाम, अप्रवासन, रूस व चीन। अब फासीवादियों को किसी दूसरे ‘यहूदी’ की जरूरत नहीं रह गई है। ये नए ‘यहूदी’ भिन्न धर्म को मानने वाले और भिन्न लैंगिक अभिरूचियां रखने वाले लोग हैं। और जनता के दिलो-दिमाग पर इन्होंने हमला कर दिया है और यह विचार उनकी अस्थि-मज्जा तक में प्रविष्ट करा दिया है कि उसकी बदहाली का कारण ये ‘कल्पित दुश्मन’ हैं। इसमें दृश्य-माध्यम (मीडिया) अपनी गोएबल्सीय भूमिका पूरी ईमानदारी से निभा रहा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका भले ही खुद को मानवाधिकार के रक्षक के रूप में पेश करता रहे, लेकिन आज के वक्त की सच्चाई यही है कि दुनिया में फासीवादी विचारधारा को प्रसारित करने में इसकी सबसे बड़ी भूमिका रही है। दूसरे और भी कारण रहे हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर सोवियत विघटन के बाद ‘एकध्रुवीय दुनिया के शंहशाह’ होने के उन्माद में संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूरी दुनिया में इस्लामी हिंसा-आंतकवाद के विचार को प्रचारित किया है। मध्य एशिया के देशों के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने और वहां अपनी रणनीतिक हथियारों की पैठ बनाने के लिए ‘महा-विध्वंसक हथियार’ के झूठ को गढ़ा। वहीं, दूसरी ओर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए दूसरी और तीसरी दुनिया को पूरी तरह से तबाह कर दिया। एक छोटे से अमीर वर्ग को पैदा करके बाकी सभी को अथाह गरीबी और भुखमरी में डुबो दिया। यही कुछ अब योरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के साथ हो रहा है। इस अर्जित असमानता ने ही फासीवाद विचारों को पैदा किया है जो अब धीरे-धीरे आम जनता के दिलो-दिमाग पर हावी होते जा रहे हैं।

 

इतिहास का सबक

इतिहास का सबक उसी के लिए होता है, जो उसे सीखना चाहता है। बीसवीं शताब्दी से सीखने के लिए बहुत कुछ है। स्पेनी गृह युद्ध मिसाल है कि यदि समाजवादी शक्तियां आपस में संघर्षरत होंगी तो उसका फायदा हमेशा दक्षिणपंथियों को मिलता है। इतालवी इतिहास भी यही सिखाता है। लेकिन एशिया और योरोप में वामपंथी ताकतें अभी जोसेफ स्तालिन के अपराधों का हिसाब पूरा नहीं कर पाई हैं! उन्हें भी इतिहास से बदला लेना है!

नव-फासीवाद की सबसे बड़ी दृश्यमान विशेषता यदि कोई है तो यह कि फासीवाद के इस नए संस्करण में नेतृत्वकारी की भूमिका में महिलाएं हैं, कट्टर राष्ट्रवादी महिलाएं! इसे अस्मिता आंदोलन पर टिप्पणी के तौर पर भी देखा जा सकता है। वैसे इसके लिए तैयार जवाब यही होगा कि ये महिलाएं कथित नारीवाद के दायरे में नहीं आती, लेकिन हर एक राजनीतिक-दार्शनिक विचार अपने सरलतम रूप में ही आम-जनता तक पहुंचता है, जिसका यहां मतलब केवल ‘स्त्री-सशक्तिकरण’ ही है, भले ही किसी भी रूप में हो। गंभीर बात यह है कि इसके लिए एक नया शब्द ही गढ़ लिया गया है, ‘फेमोनेशनलिस्ट’।

फासीवाद का हर एक कदम आधुनिक त्रि-सिद्धांतों के ध्वंस के लिए होता है। इसका मुकाबला स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व के त्रि-सिद्धांत से ही हो सकता है।

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