अक्षय स्मृति की रचनाकार

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– शिवप्रसाद जोशी

 

इस वर्ष की नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी लेखक एनी अर्नो में ऐसी कौनसी खासियत या खूबी है कि लोग उनकी किताबों के दीवाने बन जाते हैं और फ्रांस में उन्हें बेशुमार लोकप्रियता हासिल है। क्या किसी का निजी जीवन दूसरे व्यक्ति के लिए या एक लेखक का जीवन गाथा पाठक में कोई उत्सुकता जगा सकती है, रोमांचित या आल्हादित या उद्वेलित कर सकती है? वह निजी वृत्त के अनुभव और स्मृति को एक सार्वभौव व्यथा-कथा में तब्दील कर पाती हैं।

 

मेरी जिंदगी में जो औरतें रही हैं उन सबकी आवाजें बहुत भारी थीं, उनके शरीर मैले-कुचैले थे, वे बहुत मोटी थीं या बहुत सपाट। उनकी अंगुलियां खुरदुरी थीं। चेहरों पर मेकअप का कोई निशान न था या वह चेहरे पर बिखरा हुआ रहता था, गालों और होंठों पर रंग के बड़े बड़े धब्बे पड़े रहते थे। खाना पकाने का उनका हुनर खरगोश को उबाल लेने और चावल पका लेने से ज्यादा आगे नहीं जाता था। वे नहीं जानती थीं कि धूल-गंदगी को रोज साफ करना होता था, वे खेतों मे काम करती थीं या कर चुकी थीं, फैक्ट्रियों में काम करती थीं और छोटी मोटी दुकानें चलाती थीं जो पूरे दिन खुली रहती थीं… कहानियों की किताबों की उन चिकनी-चुपड़ी शक्कर जैसी दादियों-नानियों से उनका कोई वास्ता न था जो अपने बर्फ जैसे सफेद बालों को साफ सुथरे जूड़े में बांध कर रखती थीं और अपने नाती पोतों से परिकथाएं सुनते हुए उन्हें दुलारती पुचकारती थीं। मेरी बूढ़ी स्त्रियां, मेरी दादी और फूफियां और मौसियां, ऐसी मिलनसार और घुलने मिलने वाली नहीं थीं और उन्हें जरा भी पसंद न था, बच्चों का अपने आगे पीछे कूदना, मचलना, इतराना. ये आदत उनमें नहीं थीं. गाल को जरा सा चपत लगा दी बस इतना ही और वह भी आने के समय और जाने के समय…थोड़ा और बड़े दिख रहे हो, स्कूल में पढ़ाई ठीक से कर रहे हो ना! मेरे लिए कहने को उनके पास कुछ होता नहीं था। माता-पिता से बातों में मशगूल रहती थीं, बढ़ते खर्चों, रोजी-रोटी के झंझट, किराया, रहने की जगह की कमी, आस पड़ोस – यही सब बातें होती थीं। बीच बीच में कभी हंसते हुए मेरी ओर नजरे उठाकर देख लेती थीं” (अ फ्रोजन वुमन, पृष्ठ 6)

एक नजर में यह लग सकता है कि आखिर पाठक के लिए एनी अर्नो के पास क्या है। क्यों कर कोई उनका जीवन वृत्तांत पढ़े, उसमें भला हमारी दिलचस्पी क्यों हो, वे तो सब एक लेखिका की निजी बातें, निजी यंत्रणाएं और निजी यथार्थ है, भला हमसे, शेष दुनिया से उसका क्या लेना देना, फिर एनी अर्नो में ऐसी कौन सी खासियत या खूबी है कि लोग उनकी किताबों के दीवाने बन जाते हैं और फ्रांस में उन्हें बेशुमार लोकप्रियता हासिल है। हाथों-हाथ उनकी किताबें बिक जाती हैं। क्या किसी का निजी जीवन किसी दूसरे व्यक्ति के लिए या एक लेखक का जीवन गाथा क्या पाठक में कोई उत्सुकता जगा सकती है, रोमांचित या आल्हादित या उद्वेलित कर सकती है? एनी अर्नो इसी महीन रेखा को बखूबी पार करती हैं बल्कि उस पर बखूबी आवाजाही कर लेती हैं। यह उनका लेखकीय कौशल या टेक्नीक नहीं, बल्कि सृजनात्मक सामथ्र्य भी है जिसके बूते वह निजी वृत्त के अनुभव और स्मृति को एक सार्वभौव व्यथा-कथा में तब्दील कर पाती हैं। वह फिर पाठक के अंत:स्थल को भेदती हुई मानो उसकी अपनी दास्तान का रूप ग्रहण कर लेती है। इस तरह से निजी स्मृति को एक सामूहिक स्मृति में बदल देने का एनी के लेखन का जादू है। इस तरह वह इतिहास के एक आयाम को अपने लेखन में दर्ज कर लेती हैं।

 

स्मृतियों की पुनर्खोज

पाठक ‘एकांत के सौ वर्ष’ (वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉल्टिट्यूड) से बखूबी वाकिफ होंगे। गाब्रियल गार्सिया मार्केस का वह उपन्यास स्मृतियों की पुनर्खोज का विराट दस्तावेज माना जाता है। ओरहान पामुक के यहां स्मृतियों के साथ साथ परंपराओं की भी पुनर्खोज है। नेरुदा, काफ्का, बोर्हेस, सारामायो, लुईस ग्लिक, नॉयपाल, रुश्दी, गुरमाह, ओल्गा तोकारचुक, लेसिंग, स्वेतलाना अलेक्सयेविच और दुनिया के विभिन्न हिस्सों, भूगोलों, संस्कृतियों के बहुत से अन्य लेखक, कलाकार भी अपने अपने ढंग से स्मृतियों को ‘डिकोड’ (अर्थ भेद) करते आए हैं।

समकालीन लेखकों में अर्नो की विशिष्टता अपनी स्मृति संयोजन को एक कथात्मक विस्तार देते हुए भी उसे गल्प से दूर और तथ्यों के करीब रखने में निहित है। कल्पनाशीलता वहां तथ्यों को बरतने, परखने और उन्हें एक साथ पिरोने में है, फिर वे सपाट बयान नहीं रह जाते हैं या घटनाओं का स्थूल विवरण- वह गल्प के बंध को तोड़ते हुए सहसा एक ऐसे आयाम में कांपती झूलती भाषा बन जाती है जहां सारे फर्क, सारे भेद विलीन हो जाते हैं और स्मृति का अपना धुंधलापन और अपनी स्पष्टता ही बची रह जाती है। एक तस्वीर एक तथ्य या तारीख ही नहीं बताती है, जीवन की एक त्रासदी का चित्रण भी बन जाती है। और निजी त्रासदी, सार्वभौव तकलीफ का आकार ग्रहण कर हम सबकी सामूहिक वेदना का ब्यौरा बन जाती है। उन तस्वीरों में पाठक के रूप में हम ही झांक रहे होते हैं। या फिर वह खाने की मेज हो या वह कोई मुलाकात हो या वे आपस में बात कर रहे कुछ लोगों की स्मृति हो या ये कहीं से लौटना हो या कहीं जाना हो या ये किसी का इंतजार हो। या दावत हो या मातम, मिलना हो या बिछुडऩा, या फिर वह सेक्स ही क्यों न हो – हर पल, हर अनुभव औपन्यासिक आत्मकथात्मक आख्यान में दर्ज होने चले आते हैं। यह सामथ्र्य है एनी अर्नो के लेखन की। वह कहती आई हैं कि स्मृति उनके लिए कभी न खत्म होने वाली चीज है, अटूट और अक्षय।

साहित्य के सबसे ज्यादा पुरस्कार फ्रांस के हिस्से आए हैं। लेकिन 16 फ्रंसीसी लेखकों में एनी अर्नो नोबेल पाने वाली पहली महिला लेखक हैं। उनकी किताबों को देश के कई पुरस्कार मिल चुके हैं। इनमें प्रतिष्ठित प्री रिनोदो पुरस्कार भी शामिल है। उनकी किताबें लाखों-करोड़ों की संख्या में बिक चुकी हैं और फ्रांस के स्कूलों में भी समकालीन क्लासिक्स के तौर पर पढ़ाई जाती हैं। एनी की कई रचनाएं अंग्रेजी में अनूदित हैं। वे पतली-पतली किताबें, संस्मरण, आत्मकथा, गल्प का एक मिलाजुला अप्रतिम संसार है। ‘द ईयर्स’ (वे साल, 164 पृष्ठ) ही शायद उनकी सबसे ज्यादा पृष्ठों वाली रचना होगी। एनी अर्नो को अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी इसी किताब से मिली।

हिंदी कवि-कथाकार और पत्रकार प्रियदर्शन ने एनडीटीवी इंडिया वेबसाइट में अर्नो के रचनाकर्म पर एक त्वरित लेकिन भावपूर्ण, सरल, मर्मस्पर्शी टिप्पणी में लिखा कि नोबेल पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते बल्कि बड़े लेखकों से हमारा परिचय करा देते हैं। फ्रांस में एनी अर्नो की लोकप्रियता और फ्रांस में साहित्यिक और पाठकीय अभिरुचि की संपन्नता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अर्नो के 70 से ज्यादा इंटरव्यू फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित हैं। और पांच-छह साक्षात्कार अंग्रेजी में हैं। नोबेल के बाद और अपनी शारीरिक अवस्था के लिहाज से तथा आंखों की लगभग लाइलाज-सी बीमारी- एआरएमडी (एज रिलेटड मॉक्युलर डिजनरेशन) से जूझते हुए एनी अब कितने साक्षात्कार दे पाएंगी, कहना कठिन है।

उनका पहला उपन्यास ‘लेज आमवा वीड्अ’ (खाली अल्मारियां) 1974 में आया था। यह उपन्यास उन्होंने शादी हो जाने के बाद लिखा था। लॉरा कापेल ने ‘न्यू यार्क टाइम्स’ में 2020 के अपने लेख में बताया कि एनी के पति को उपन्यास रास न आया। वह उनके लिखने से भी बहुत खुश नहीं थे। फिर एनी ने पीएचडी थीसिस लिखने की आड़ में उपन्यास पूरा किया। ये कामगारों, मजदूरों, कारीगरों के समाज में अपने उबड-खाबड़ और संघर्षपूर्ण बचपन की दास्तान तो है ही, उस गर्भपात की कहानी भी है, जो उन्हें उस समय कराना पड़ा था जब फ्रांस में वह अवैध था। पांडुलिपि को जब फ्रांस के प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह गालिमार्ड छापने के लिए तैयार हुआ तो एनी ने यह बात अपने पति को बताई, इसी पांडुलिपि का मजाक उड़ा चुके पति महोदय ने कहा, ”जब तुम मेरे पीछे चुपके चुपके किताब लिख सकती हो तो मुझे धोखा भी दे सकती हो।” यह उपन्यास एनी की दुनिया बदलने वाला साबित हुआ। आगे चलकर पति-पत्नी अलग हो गए। एनी स्वतंत्र मिजाज की लेखिका रही हैं और नैतिक पहरेदारियों से घृणा करती हैं। पाठकों की याद दिहानी के लिए और उन्हें मुस्तैद करने के लिए, ‘एनी द इयर्स’ में लिखती हैं :

”जिंदगी की अंतिम छवि का रास्ता अख्तियार करता हुआ यह एक नाजुक और फिसलन भरा आख्यान होगा, अनवरत अपूर्ण काल में गुंथा हुआ, सख्त, बेचैन, स्वच्छंद और संपूर्ण, और अपने रास्ते में वर्तमान को चाव से खाता हुआ। वह एक उद्गार या बहाव है, लेकिन नियमित अंतरालों पर उन तस्वीरों और उन फिल्मों के दृश्यों से बाधित, जो उसके वजूद के सिलसिलेवार दैहिक आकारों और सामाजिक अवस्थितियों को दर्ज करते हैं – स्मृतियों के जड़ फ्रेम। इसी दौरान वे उसके वजूद के विकास की रिपोर्टे भी हैं, वे चीजें जिन्होंने उस वजूद को विलक्षण और अकेला बनाया है…” (पृ. 155)

 

सारी छवियां गायब हो जाएंगी’

एनी बताती हैं कि हमारे जैसे ऊबड़-खाबड़, बेतरतीब, बेढंगे, अशिष्ट लोग जो खाना खाते हुए आवाजें करते थे, बात करते हुए खाते थे या खाते हुए बात करते थे। प्लेटें पूरी चाट जाते थे। बर्तन बजाते थे। चम्मच से आवाज करते थे। होंठो से बाहर खाना लग जाता था। उसे यूं ही पौंछ लेते थे। कहीं भी हाथ पौंछ लेते थे। जोर जोर से बोलते थे। चलने, फिरने, उठने, बैठने में जरा भी सभ्य या तमीजदार न दिखते थे। दरवाजे खोलते थे तो जोर से, बंद करते थे भड़भड़ाकर, वे सब जैसे एक समाज के भीतर अनेपक्षित, अवांछित से लोग थे। फिर भी वे थे तो थे ही। उनका अस्तित्व अपनी जिंदगियों के खुरदुरेपन और धूलधूसर में निहित था।

”वे छवियां, वास्तविक या आभासी, जो हमें ले जाती हैं नींद तक – एक पल की छवियां, सिर्फ अपनी ही रौशियनों में नहायी हुई। वे तभी गायब भी हो जाएंगी, उन लाखों छवियों की तरह जो दादा-दादी के माथों के पीछे पड़ी हैं, जिनका इंतकाल हुए आधा सदी ही, और माता-पिता के माथों के पीछे भी, वे भी मर चुके हैं। वे छवियां जिनमें हम एक छोटी बच्ची की तरह होते हैं उन लोगों के बीच जो हमारे पैदा होने से पहले मर गए, जैसे कि हमारी अपनी स्मृतियों में हमारे छोटे बच्चे हमारे माता-पिता और स्कूली सहपाठियों के बगलगीर हैं। और एक रोज, हम भी अपने बच्चों की स्मृतियों में प्रकट होंगे, उनके नातिनों-पोतियों, नाती-पोतों के बीच और उन लोगों के बीच जो अभी पैदा नहीं हुए हैं। यौन इच्छा की तरह स्मृति कभी थम नहीं जाती है। वो मृतक को जोड़ देती है जीवित के साथ, वास्तविक को काल्पनिक व्यक्तियों के साथ, सपनों को इतिहास के साथ।” (‘द ईयर्स’,पृ. 8)

‘द ईयर्स’ के बारे में कहा जाता है कि वह एन्नी अर्नो की सबसे अलहदा किताब है। इस आत्मकथात्मक आख्यान में कई सारे पर्यावरण, शैलियां और लयें दर्ज हैं। बहुत सारी हलचल है और किताब में कई अलग-अलग रफ्तार है। अपने जन्म से लेकर किताब 66वें वर्ष तक की दास्तान एनी सुनाती हैं। उन्होंने किताब में, ”मैं” संबोधन की बजाय हम या वो या वे संबोधन इस्तेमाल किए हैं। आत्मकथा में आमतौर पर ऐसा नहीं देखा जाता। इसके जवाब अर्नो ने एक इंटरव्यू में दिया है। 2019 में जब ‘द इयर्स’ मैन बुकर इंटरनेशनल पुरुस्कार के लेकर नामित हुई, तो द गार्जियन में किम विलशर के साथ बातचीत में अर्नो ने बताया, ”अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हुए मैं बचपन से लेकर आज तक की अपनी कहानी को देखती हूं, लेकिन मैं उसे उस दुनिया से अलग नहीं कर सकती जिसमें मैं जियी हूं। मेरी कहानी मेरी पीढ़ी के साथ घुलीमिली है और उन घटनाओं से घुलीमिली है जो हमने भुगती हैं। आत्मकथात्मक परंपरा में हम लोग अपने बारे में बोलते हैं और घटनाएं पृष्ठभूमि में होती हैं। मैंने इसे उलट दिया है। यह घटनाओं और प्रगति और हर उस चीज की कहानी है जो एक व्यक्तिगत अस्तित्व के 60 साल में बदल गई है लेकिन ‘हम’ और ‘वे’ के जरिए प्रेषित या संचारित हो रही है। मेरी किताब में घटनाएं हर किसी से जुड़ी है, इतिहास से, समाजशास्त्र से जुड़ी हैं।”

‘द इयर्स’ को मिली अपार लोकप्रियता का जिक्र करते हुए अर्नो ने बताया कि अंग्रेजी भाषी दुनिया के अलावा जर्मनी, इटली और चीनी भाषाओं के अनुवादों में यह किताब खासतौर पर सराही गई, तो इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि सिर्फ फ्रांस के इतिहास की झांकी दिखाने से कहीं ज्यादा बड़ी अपील इसमें पाठकों को महसूस हुई होगी। ”मैंने प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा है तब भी यह एक निजी जीवन के हवाले से इतिहास तो है ही, मेरा जीवन, और मेरी स्मृति के हवाले से। मैं इस सामूहिक इतिहास को अपनी भावनाओं और अनुस्मरण के जरिए याद कर रही हूं. इसमें मुख्य किरदार समय है। और वो बीत रहा है. और अपने साथ सब कुछ लिए जाता है, हमारी जिंदगियां भी।”

1988 में अंग्रेजी में अनूदित होकर आई किताब ‘अ वुमन्स स्टोरी’ एनी अर्नो की मां की मार्मिक कहानी है। वह लिखती हैं, मैं उसे ज्यादा से ज्यादा उस तरीके से देखती हूं जिसकी मैं कल्पना करती हूं कि अपने बचपन में देखा करती थी : ”एक विशाल, सफेद परछाई, मेरे ऊपर मंडराती हुई। वह सिमोन द बुवा से आठ दिन पहले मरी। उसने हर किसी को देना ही बेहतर समझा, किसी से कभी कुछ लिया नहीं। क्या लिखना भी एक तरह का देना नहीं है?”

इस तरह एनी अपनी मां के लिए स्मृति कथा लिखती हैं और उनके अटूट प्रेम को याद करती हैं। फ्रांसीसी समाज विज्ञानी और उपन्यासकार क्रिस्टीन डेट्रेज का कहना है कि ”अर्नो की रचनाएं, स्त्री अनुभवों को ‘डि-पार्टिकुलराइज’ यानी विस्तृत विवरणों से अलग-थलग करती हैं, स्वयं खुद को पहचानने से डरती हैं, क्योंकि तब आपको अपने खुद के नतीजे बनाने होंगे, लेकिन वह ऐसा करती हैं।”

क्रिस्टीन यह भी मानती हैं कि फ्रांस की औरतों की जिंदगियों पर अर्नो के प्रभाव की तुलना पूर्ववर्ती स्त्री पीढिय़ों पर सिमोन द बुवा के प्रभावों से की जा सकती है। उनके मुताबिक, ”इस तुलना से मदद भी मिलती है क्योंकि इसका मतलब ये है कि आप जो अनुभव करती हैं वो एक साझा स्थिति का नतीजा है।” अपने लेखन पर सिमोन द बुवा के प्रभावों को वह बेहिचक स्वीकार करती हैं।

एक व्याख्यान में उन्होंने बताया कि सिमोन का उनके जीवन पर गहरा असर रहा है, ”मैं सिमोन द बुआ से कभी नहीं मिली थी। और मैंने कभी मिलने की कोशिश भी नहीं की। क्योंकि एक तो दूरी का मसला था – मैं बहुत दूर पेरिस में रहती थी। लेकिन प्रमुख वजह यह है कि मैं इस बात को हमेशा से मानती आई हूं कि लेखक या कलाकार को व्यक्तिगत रूप से देख लेने या मिल पाने से आपके काम में कुछ नहीं जुड़ता है। हजारों औरतों की तरह, मैं भी सिमोन द बुवा की किताबों और प्रतिबद्ध लेखक के रूप में उनकी सार्वजनिक छवि के जरिए ही उनसे अपने रिश्ते या जुड़ाव का अनुभव करती हूं।”

अर्नो ने स्त्रीवाद के सबक सिमोन द बुवा से ग्रहण किए तो सामाजिक संरचनाओं की पेचीदगी और सामाजिक विभेद और अलगाव से जुड़े सबक उन्हें प्रख्यात फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बॉर्दियु से मिले। ‘हैपनिंग'(घटना) नाम की संस्मरण पुस्तक में वह लिखती हैं, ”पता नहीं क्यों मुझे लगता था कि मेरी सामाजिक पृष्ठभूमि और मेरी मौजूदा स्थिति के बीच में कोई संबंध था। मजदूरों और स्टोरकीपरों के परिवार में पैदा हुई थी, उच्च शिक्षा हासिल करने वाली अपने परिवार की मैं पहली थी, लिहाजा फैक्ट्री के काम और किराने की दुकान के हिसाब-किताब से अलग रखी गई थी। फिर भी न तो मेरी पढ़ाई-लिखाई, न लिबरल आर्ट्स (साहित्य और समाज विज्ञान जैसे विषयों के समुच्चय का अध्ययन) विषयों में मेरा बीए – श्रमिकों और कामगारों के उस वर्ग की अपरिहार्य विपत्तियों और बरबादियों से निजात पा सकने में मेरे काम आया- वो गरीबी की विरासत थी- जो गर्भवती और नशाखोर हो चुकी लड़की में सन्निहित थी। दुर्भाग्य ने मुझे जकड़ लिया था। और जो चीज मेरे भीतर पनप रही थी उसे मैं सामाजिक विफलता के दाग की तरह देखती थी।” (पृ. 17)

मां के संघर्ष भरे जीवन, पिता की बेटी को आगे बढ़ाने और एक अभिजात जीवन दे पाने की कामना में झुलसते देखना, अपने जीवन में आए पुरुषों को देखना, अपने से बहुत कम उम्र के लड़के को दिल दे बैठना, एक उम्रदराज और शादीशुदा आदमी के प्यार में पड़ जाना, पहले सेक्स के अनुभव पर कांपना, सिहरना लेकिन उसे बलात्कार न कह पाना- कुलीन समाजों के बीच एक शर्म में पड़े रहना- एनी अर्नो ने एक जीवन की इतनी ज्यादा स्मृतियों और घटनाओं से अपनी किताबें बुनी हैं कि मानो वे जैसे उनकी मुक्ति की छोटी-छोटी झंडियां हैं, खुली हवा में लहराती हुईं, एक तार में बंधी रंग-बिरंगी पत्तियां।

अंग्रेजी में ‘पोजीशन्स’ नाम से 1991 में आए उपन्यास में अर्नो अपने पिता के निधन को याद करते हुए लिखती हैं, ”सोमवार को गंध पसर गई। कुछ ऐसा हुआ जिसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी। पहले बेसुध और फिर जकडऩे वाली जमे हुए पानी से भरे फूलदान में सडऩे के लिए छोड़ दिए गए फूलों की बदबू। मेरी मां ने सिर्फ अंतिम विदाई के लिए दुकान बंद की थी। वरना उसके ग्राहक टूट जाते और वह ऐसा नहीं होने दे सकती थी। मेरे पिता का शव ऊपर के कमरे में रखा था, नीचे वह ग्राहकों को पेस्ट्री और रेड वाइन सर्व कर रही थी। विशिष्ट समाजों में, अपने प्रियजन की मृत्यु का दुख, आंसुओं, चुप्पी और गरिमा के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। लेकिन मेरी मां की सामाजिक परंपराओं में और उस नाते बाकी पड़ोस की मान्यताओं में भी इस शिष्टता या कथित गरिमा की कोई जगह नही थी।” (पृ. 6-7)

 

खुद से गुजरता समय

यूं तो एक के बाद एक सभी किताबें अर्नों के बेमिसाल लेखकीय अंधेरे-उजाले की नुमायंदा हैं, पर ‘द ईयर्स’ के बाद, अर्नो की जो किताब सबसे ज्यादा ध्यान खींचती है और जिसे उन्होंने एक तरह से अपना सर्वस्व लुटाकर लिखा है, वह है ‘सिंपल पैशन’ (सहज आवेग)। वह लिखती हैं, ”मुझे लगा कि यौन संसर्ग जो असर या छाप छोड़ता है, लेखन का लक्ष्य वैसा भी होना चाहिए- बेताबी और अचरज की एक भावना, नैतिक समझ का निलंबन।” (पृ.7) ‘सिंपल पैशन’ के आमुख की शुरुआत भी परिपाटी के लिहाज से विस्फोटक कही जाएगी और उससे एनी अर्नों के साहित्यिक किरदार को भी समझा जा सकता है कि वह अपने अंदाज में कितनी बेबाक और बेहिचक हैं। आमुख में पोर्न फिल्म को देखते देखते उसका वर्णन करते हुए, उन्माद, वासना और जुनून जैसी भावनाओं की छानबीन करती हैं। और जब कहानी शुरू होती है तो पहला वाक्य है : ”पिछले साल सितंबर के शुरू में एक आदमी के इंतजार के सिवाय मैंने कुछ नहीं किया था।” एक तरह का एकालाप उस आदमी के इर्दगिर्द घूमता है, उसकी याद में सिहरता, भटकता, डांवाडोल होता। यहां ‘सेक्सुअल ऑब्सेशन’ (वासना की अदम्यता) कोई शर्म का विषय नहीं बल्कि उद्दाम भावना के विमर्श, एक गंभीर बौद्धिक फलसफे की तरह जाहिर किया जाता है। प्रेम और वासना को एनी अर्नो ने जैसे एक नई ऊंचाई इस संस्मरण में हासिल करा दी। ‘सिंपल पैशन’ में एक शादीशुदा आदमी के साथ अपने शारीरिक संबंधों का एक बिंदास और व्याकुल बारीकी में वर्णन करते हुए एनी अर्नो लिखती हैं, ”हम कुछ ही घंटे साथ बिताने वाले थे। मैं अपनी घड़ी कभी नहीं पहनती थी। उसके आने से जरा पहले ही मैंने उतार दी थी। वह पहने रहता था और मैं उस पल से खौफ खाती थी जब वह चुपके से उसकी ओर निगाह डालेगा। जब मैं बर्फ लेने रसोई में गई तो मैंने दरवाजे के ऊपर टंगी घड़ी की ओर देखा : बस दो घंटे और”, ”सिर्फ एक घंटा और”, या ”एक घंटे में (सूई) यहां होगी और वह जा चुका होगा” चौंकते हुए मैंने खुद से पूछा: ‘वर्तमान कहां है?’

”वह जाने से पहले धीरे-धीरे कपड़े पहनता। मैं उसे शर्ट के बटन लगाते देखती, जुराबें पहनते, अपना अंडरवीयर पहनते, अपनी पैंट और फिर आईने की ओर मुड़कर टाई कसते हुए। वो जैसे ही जैकेट डालता, ये मुलाकात पूरी हो चुकी होती।

”अब मैं खुद से ही गुजता बस एक वक्त रह गई थी।”(पृ 10)

बताया जाता है कि यह व्यक्ति, तत्कालीन सोवियत संघ का, फ्रांस में तैनात एक राजनयिक था। करीब तीन महीने दोनों का संबंध रहा। अर्नो ने उससे प्यार का इजहार किया, लेकिन वह कभी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। नवंबर, 1989 में, बर्लिन की दीवार ढहने के एक सप्ताह बाद, वो राजनयिक, एनी को बगैर बताए, अचानक ही पेरिस से रवाना हो गया। इस शारीरिक रिश्ते की दास्तान एनी अर्नो ने अपनी पुरानी डायरी में दर्ज की थी, जो ‘द पेरिस रिव्यू’ के बसंत 2022 अंक में ‘डायरी 1988’ शीर्षक से प्रकाशित है।

खुद को फटकारने का साहस, खुद की छानबीन करने की बेचैनी, अपनी वासना और वेदना की निस्पृह अभिव्यक्ति, लेकिन खुद को आत्मदया के हवाले न करने की जिद से भरा है अर्नो का लेखन। इसकी एक मिसाल है अर्नो का एक और संस्मरण- ‘शेम’ यह किताब भी बेस्टसेलर रही और पहले ही साल उसकी एक लाख 40 हजार से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी थीं। इस किताब की रचना की धुरी वह स्मृति है जिसमें एक रोज एनी अपने माता-पिता को झगड़ते हुए देखती-सुनती है। इस घटना में भी एक दृश्य उनकी स्मृति पर अटका रह गया है, जब उनकी हड़काने और चीखने चिल्लाने वाली मां का गला, शांत मिजाज और चुपचुप से रहने वाले पिता पकड़ रहे हैं और लग रहा है कि वह मां को मार ही डालेंगे। इस घटना का खुर्दबीनी वर्णन करती हुई अर्नो बचपन, स्कूल और मित्रताओं और पिता के साथ कुछ यात्राओं के किस्से सुनाती हैं, जीवन की कहानी के साथ-साथ सामाजिक संरचना और सामाजिक विभाजन की कहानी भी उद्घाटित होती जाती है।

”…महीना खत्म होते-होते, सड़ता दांत मुझे तकलीफ दे रहा था तो अपनी जिंदगी में पहली बार मां मुझे डेनटिस्ट के पास लेकर गई। मेरे मसूड़ों में इंजेक्शन लगाने के लिए ठंडे पानी की बौछार डालने से पहले, उसने मुझसे पूछा : ‘जब तुम साइडर (सेब से बनी कच्ची शराब) पीती हो तो क्या यह दुखता है?’ मजदूरों और देहातियों के बीच यह आम ड्रिंक था, बड़े हों या बच्चे। घर पर मैं पारनी पीती थी, अपने स्कूल की लड़कियों की तरह, कभी-कभार उसमें हम ग्रेनाडीन की कुछ बूंदे मिला दिया करते थे। (समाज में हमें हमारी जगह याद दिलाने वाले हर एक वाक्य पर बोल पडऩे के लिए के लिए क्या मैं अभिशप्त थी?)” (पृ. 108, ‘शेम’)

ये सारे संस्मरण मानो एक साथ विलय होकर एक विशाल महाकाव्यात्माक आत्मकथात्मक आख्यान का रूप ले लेते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जुड़ती आ रही कडिय़ों जैसी, और फिर इसमें विश्व की तमाम रचनाओं का भी समावेश होता जाता है और लगता है कि ये विकट, अद्भुत अभूतपूर्व आख्यान भी एक ग्रह है। एक भूमंडल, एक अलग पृथ्वी, अपनी पृथ्वी को धारण करती और उसी पृथ्वी में निवास करती।

एनी अर्नो का जन्म (1 सितंबर,1940) फ्रांस के नॉरमैंडी प्रांत में हुआ था। वह लेखन में भले ही अपने निजी संसार को खंगालती हैं, लेकिन लेखन से इतर सार्वजनिक बुद्धिजीवी के तौर पर भी सक्रिय और मुस्तैद रही हैं। खासतौर पर फलिस्तीनी मामलों पर उनकी गहरी रुचि और सरोकार देखे जाते रहे हैं। महिला शोषण के खिलाफ एनी हमेशा मुखर रहती आई हैं और ‘मीटू’ आंदोलन में उन्होंने प्रखरता और दृढ़ता के साथ भागीदारी की थी। कामगारों के प्रति और मजदूर वर्ग के प्रति एनी के सरोकारों के पीछे ऐतिहासिक और पारिवारिक स्मृति रही है। वह उन्हीं वंचित समाजों का हिस्सा रही हैं जो पूरी दुनिया में अलग-अलग पहचानों, रूपों, आकारों, और चेहरों के साथ शोषण का शिकार हैं। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख ‘हर स्टोरी इज अवर स्टोरी’ (उसकी कहानी हमारी कहानी है) में भारत में फ्रांस के राजदूत इमानुएल लेनेन ने एनी अर्नो को रचनाकर्म और फ्रांसीसी चेतना पर उनके प्रभाव को परिलक्षित करते हुए लिखा है कि दुनिया की उत्पीडि़त जनता से एनी के लेखकीय तार सीधे जुड़ते हैं। इस सिलसिले में उन्होंने प्रख्यात दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की विश्वप्रसिद्ध आत्मकथा ‘जूठन’ का खासतौर पर उल्लेख भी किया।

 

स्मृतियों की एक विरल यात्रा

एनी अर्नो ने 1970 के दशक में ही अपनी पहचान बना ली थी। उनके तीन आत्मकथात्मक उपन्यास हैं। 1974 में उनका पहला उपन्यास ‘लेज आमवा वीड्अ’ (खाली अल्मारियां) आया। इसकी कड़ी का दूसरा उपन्यास 1977 में ‘दिजोन उवां’ (वे जो कहते हैं या कुछ नहीं)। तीसरा उपन्यास था ‘ला ऑक्युपांत्सो’ (पेशा)। इसके बाद एनी संस्मरणों में चली गईं, लेकिन उनमें इतनी सारी विधाएं घुलीमिली हैं कि उन्हें ठीक-ठीक संस्मरण कहना भी नहीं सुहाता। खुद एनी अर्नो यह कह चुकी हैं कि उनकी किताबें किसी एक साहित्यिक विधा की मोहताज नहीं हैं। अपने उपन्यास छापने वाले प्रकाशक को जब उन्होंने संस्मरणात्मक मिजाज वाली किताबों दीं, तो साथ में उसे हिदायत दी कि किताब में विधा (जॉनर) न छापें।

गैर कथात्मक विधा में उन्होंने 10 किताबें लिखी हैं। और सब एक से बढ़कर एक मानी जाती हैं। संस्मरणात्मक और आत्मकथात्मक अंदाज में लिखी ये किताबें कहानियां हैं, लेकिन असल जिंदगी की। इन किताबों को दुनिया भर में न सिर्फ सराहा गया बल्कि एनी अर्नो स्त्री चेतना की नई आवाज के तौर पर भी पहचानी जानें लगीं। ऐसे बहुत कम लेखक विश्व साहित्य में हुए हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी और अपने लोगों के वृत्तांत को ही लेखकीय कसौटी पर रख दिया और एक असाधारण निस्पृहता के साथ इन दास्तानों का वर्णन किया।

उन्होंने बड़े पैमाने पर निबंध भी लिखे हैं और व्याख्यान दिए हैं। एनी अर्नो की रचनाओं पर बड़ी संख्या में थियेटर और रेडियो प्रस्तुतियां तैयार की गई हैं। उनके तीन उपन्यासों पर फिल्में भी बनी हैं। ‘हैपनिंग’ के ही नाम से अंग्रेजी में बनी और ऑद्रे दीवान निर्देशित इस फिल्म ने 2021 के वेनिस फिल्म महोत्सव में गोल्डन लॉयन पुरस्कार हासिल किया। ‘सिंपल पैशन’ और ‘ला ऑक्युपांत्सो’ (पेशा) और ‘द अदर वन’ फिल्म बनाई गई थी।

अपने माता और पिता की मृत्यु, उनके जीवन और मां की बीमारी और अल्जाइमर रोग के दृश्यों और स्मृतियों को उजागर करने वाली एनी अर्नो कहती हैं कि ”शोक से इतर, उन्हें दुनिया में वापस ले आने की मेरी बारी थी।वह अपनी निजी क्षतियों का वर्णन एक समाजशास्त्रीय वस्तुनिष्ठता के साथ करती हैं। ‘द पेरिस रिव्यू’ के स्प्रिंग 1988 अंक में एक साक्षात्कार (थॉमस फ्रिक) में उनसे जब इस बारे में पूछा गया कि उन्होंने कहा, ”हां, उनके बारे में अलग अलग लिखती भी तो कैसे। मां की जिंदगी तो पिता की जिंदगी के लिए समर्पित थी।” कमोबेश यही घुलीमिली स्मृतियां और वृत्तांत, एनी अर्नो के लेखन में भी मिलते हैं।

उनके लेखन को अक्सर ‘ऑटोफिक्शन’ भी कहा जाता रहा है। यह आत्मकथा और गल्प का संकर लेखन हुआ। 1977 में फ्रांसीसी लेखक उपन्यासकार जूलिएं सर्ज डाउब्रोवस्की (1928-2017) ने ‘ऑटोफिक्शन’ शब्द गढ़ा था। लेकिन अर्नो अपने लेखन को ऐसा नहीं मानतीं तो इसकी भी कुछ वजहें दिखती हैं। उनका लेखन अनुभवजन्य सत्य के इर्दगिर्द घूमता है। वह चाहे कोई भी रूप या आकार ग्रहण कर ले, उससे फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए आत्मकथा या पारंपरिक संस्मरण जैसा नहीं है उनका लेखन, बिल्कुल अलहदा है। वहां तथ्य हैं और जस-के-तस हैं। कहानी को भंग नहीं करते हैं।

इन पंक्तियों का लेखक, लंबे अरसे से नोबेल साहित्य विजेताओं की शख्सियत और उनकी रचनाओं को टटोलता, खंगालता, पढऩे और समझने की कोशिश करता आया है। यह सिलसिला ओरहान पामुक से शुरू हुआ था। जिनकी एक रचना का अंश और एक साक्षात्कार का अनुवाद ‘पहल’ के लिए किया गया था। इस पूरे सिलसिले में कहना यह है कि अर्नो ऐसी लेखिका रही हैं जिनके बारे में लिखने के लिए अलग से बहुत सारे शब्द खर्च करने या खंगालने की जहमत नहीं महूसस होती। उनकी किताबों को पढि़ए और सबसे ज्यादा मर्मस्पर्शी और अर्थपूर्ण अंशों को अनूदित कर या जस-का-तस रख दीजिए। वही जैसे उनके रचना कौशल की व्याख्याएं हैं। उनके रचना संसार में दाखिल होने के दरवाजे, उनके लेखन की गुत्थियों को डिकोड करने वाले सूत्र। क्या ये इस लेखक का अपना जुनून है, मोह है, प्रभाव है, क्या ये कोई जादू है या एक सबक है?

 

(लेख में एनी अर्नो की रचनाओं के अंश, अंग्रेजी में अनूदित किताबों से साभार अनुवाद किए गए हैं।)

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