निरालाः पुनर्विचार और नए नतीजे

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– कृष्णमोहन

 

रामविलास शर्मा की प्रतिष्ठा का आधार उनकी पुस्तक निराला की साहित्य साधना (भाग दो )है। यहां तक कि अक्सर निराला को स्थापित करने का श्रेय भी इस किताब को मिल जाता है। यह पहली बार 1972 में प्रकाशित हुई थी। इस तरह इस के प्रकाशन के 50वें साल में इस पर दुबारा नजर डालना अनुपयुक्त न होगा। प्रस्तुत है तीन अंकों में प्रकाशित होने वाले इस लेख की दूसरी किस्त।

 

सन 1930 का वर्ष निराला के वैचारिक रूपांतरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस साल उन्होंने वैचारिक-दार्शनिक स्तर पर अपनी खुद की राह बनानी शुरू कर दी थी। इससे पहले का वेदांती-वैष्णव दृष्टिकोण, जिसमें जगत और ब्रह्म के बीच खींचतान दिखाई पड़ती है, अब जगत की ओर अधिकाधिक उन्मुख होने लगता है। इस दृष्टि से उनके दो निबंध खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। पहला है ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ (1929, चाबुक और रचनावली भाग 6 में संकलित) और दूसरा ‘वर्तमान हिंदू समाज’ (1930, प्रबंध-प्रतिमा और रचनावली भाग 6 में संकलित)। पहले निबंध में जाति-पांति तोड़क मण्डल को जवाब देते हुए निराला ने वर्णव्यवस्था-समर्थक तर्क दिए थे, लेकिन 1930 के निबंध में मानो वे अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करते हैं, और नए नतीजों पर पहुंचते हैं। पहले 1929 वाले लेख का आलोचक द्वारा दिया गया हवाला देखें…

उस समय ब्राह्मण का उत्कर्ष और शूद्र का उत्कर्ष बराबर न था। इसलिए दोनों के लिए दण्ड भी अलग-अलग थे। इसके सिवा ‘लघु दण्ड से शूद्रों की बुद्धि भी ठिकाने न आती।’ (‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’; चाबुक, पृ. 73) शूद्रों ने समाज की सेवा अवश्य की किंतु उनके ”जरा से उपकार पर सहस्र-सहस्र अपकार होते थे।” अपकार यह था कि द्विजों के शुद्ध समाज को शूद्रों के शरीर से निकले हुए दूषित परमाणु प्रतिक्षण अस्वस्थ करते थे। शूद्रों द्वारा किए हुए इस उत्पीडऩ को सहते हुए ब्राह्मणों ने समाज की रक्षा के लिए कुछ कठोर नियम बना दिए तो कौन-सा वज्रपात हो गया!” ( साहित्य साधना, पृष्ठ 101)

यहां प्रसंग जाति-पांति तोड़क मंडल के नेता संतराम को दिए निराला के जवाब का है। इसमें उन्होंने शंकराचार्य की वर्णाश्रम-व्यवस्था का औचित्य बताते हुए कहा था कि शूद्रों के बीजाणु ब्राह्मणों के लिए घातक थे, इसलिए शंकर ने शूद्रों पर कठोर अनुशासन का समर्थन किया था। निराला ने अपने समाज से प्राप्त बहुत सारे वर्णाश्रमवादी संस्कारों के साथ लेखन की शुरुआत की थी। लेकिन अपनी सीमाओं के बावजूद सामाजिक मसलों पर उनका आत्मसंघर्ष खरा और तीखा था। यह लेख वर्णाश्रम धर्म का औचित्य प्रतिपादन करने के मामले में संभवत: अंतिम है। इसके बाद उन्होंने वर्णव्यवस्था की अप्रासंगिकता, और दलित-शूद्र जातियों के उत्थान और समाज की अगुवाई करने की उनकी अपरिहार्य भूमिका की पेशीनगोई की। अगले ही साल लिखा उनका लेख ‘वर्तमान हिंदू समाज’ इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन रामविलास शर्मा जानबूझकर उनके इस पहलू पर पर्दा डालते हैं, और उनके हवाले से वर्णव्यवस्था का समर्थन मुदित भाव से करते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि जो उद्धरण वे दे रहे हैं, वह निराला की वैचारिक यात्रा के आरंभिक दौर का है। इस यात्रा में 1930 के बाद आए बदलाव से वे बखूबी परिचित हैं और एक भिन्न संदर्भ में लिखते भी हैं कि ”सन् ’30 के बाद की रचनाओं में यह फासला प्राय: खत्म हो जाता है। क्रांति करना क्रांतिकारियों का ही काम नहीं है; क्रांति जनता करती है, तभी वह सफल होती है ।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 158) लेकिन इस लेख में व्यक्त हुए निराला के वर्णव्यवस्था-समर्थक विचारों को ही उनके वास्तविक विचार सिद्ध करने के लिए वे इसके बाद व्यक्त हुए वर्णव्यवस्था-विरोधी विचारों को खुलेआम तोड़ते-मरोड़ते हैं। आप स्वयं ही देखें…

” ‘शंकर का महान् मस्तिष्क धर्म’ यहां स्थायी न रह सका क्योंकि ‘उनका आदर्श इतना ऊंचा था कि उस समय की क्रमश: क्षीण होती हुई प्रतिभा उस उज्ज्वलता को धारण नहीं कर सकी।’ (उप., पृ. 232) ” (साहित्य साधना, पृष्ठ 103)

यह अंश निराला के 1930 में लिखे गए लेख ‘वर्तमान हिंदू समाज’ से है। खास बात यह है कि रामविलास शर्मा जब पहले निबंध से उद्धरण देते हैं (साहित्य साधना, पृष्ठ 101) तो उनके संग्रह के साथ लेख का नाम बाकायदा उद्धरण के स्रोत के रूप में देते हैं। जबकि दूसरे निबंध से उद्धरण देते समय (साहित्य साधना, पृष्ठ 103) उसका नाम तो नहीं ही देते हैं, संग्रह के नाम को लेकर भी गलत संकेत कर देते हैं। इस उद्धरण के साथ इसके स्रोत का संकेत किताब में यह दिया गया है…'(उप. पृ. 232)’। उसका आशय है कि इससे पहले का उद्धरण जहां से लिया गया था, यह उद्धरण भी उसी पुस्तक के पृष्ठ 232 से लिया गया है। इससे पहले का उद्धरण (पेज 102 की अंतिम पंक्ति में) ‘प्रबंध पद्म’ से लिया गया है। इस हिसाब से ऊपर दिया उद्धरण ‘प्रबंध पद्म’ का होना चाहिए, लेकिन यह ‘प्रबंध प्रतिमा’ से लिया गया है। यह सामान्य मानवीय भूल भी हो सकती है, लेकिन इस किताब में यह एक प्रकार का ढर्रा बना हुआ दिखता है कि सुविधाजनक उद्धरणों के स्रोत के रूप में उस निबंध के नाम का उल्लेख किया गया है, जहां से वह लिया गया है, और असुविधाजनक उद्धरणों के स्रोत के रूप में केवल संग्रह के नाम के साथ पृष्ठ संख्या का उल्लेख कर दिया गया है। जिस समय रामविलास शर्मा की किताब छपी थी, निराला की मृत्यु को दस साल हो गए थे, उनके निबंध-संग्रह आसानी से उपलब्ध नहीं थे। निबंध के नाम और उसके प्रथम प्रकाशक पत्र-पत्रिका की जानकारी होने से उसका पता लगाना अपेक्षाकृत आसान हो सकता था। इसके अभाव में उनके किसी उद्धरण को मूल से मिलाकर उसकी जांच करना खासा मशक्कत का काम था। उनके तमाम उपलब्ध-अनुपलब्ध लेखन की तलाश करके यह छानबीन करने से कहीं आसान था रामविलास शर्मा की बौद्धिक ईमानदारी पर विश्वास करना। अफसोस की बात है कि उसमें कमी नजर आती है।

किताब के छपने के बाद लगभग तीन दशक तक रामविलास शर्मा क्रियाशील रहे। उनके सामने किताब की अनेक आवृत्तियां हुईं, लेकिन इतनी स्पष्ट गलती को दुरुस्त नहीं किया जा सका। इससे यह भी पता लगता है कि किसी ने इसकी तरफ हिंदी जगत का ध्यान भी नहीं खींचा, क्योंकि तब ऐसी स्थितप्रज्ञता कायम रखना मुश्किल होता। इसी तरह, संदर्भ से कटे हुए वाक्यों के सहारे उन्होंने निराला को अद्वैत का अनुयायी घोषित कर रखा है। अब जरा मूल उद्धरण को भी देख लें, जिसमें निराला ने, एक तरह से, बुद्ध से लेकर अब तक के सांस्कृतिक विकास का निचोड़ प्रस्तुत किया है…।

पर कुछ काल बाद फिर ब्राह्मणों के मस्तिष्क में स्पर्धा ने प्रचण्ड रूप धारण किया। भगवान् बुद्ध आए। अब की ब्राह्मणों के शास्त्र-शस्त्र भी उड़ा दिए गए। वैदिक सभ्यता ही न रह गई। उन्होंने अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान की ज्योति फैलायी। शिक्षा का माध्यम रहा उसी समय की प्रचलित भाषा। साधारण जनों को यह बात बहुत पसंद आई। कुछ काल के लिए फिर भारत में सुख-शांति का साम्राज्य हुआ। पर इसके बाद ही आचारवान् ब्राह्मणों ने फिर सिर उठाया। भगवान् शंकर ने बौद्धों को परास्त कर वेदों का उद्धार किया। बौद्धों के शून्यवाद का सच्चिदानंदके अस्ति, भाति, प्रियद्वारा खण्डन किया। बुद्ध के विशाल हृदय के कारण जो अधिकारियों का भेद न रह गया था, वह शंकर के समय घोर अधिकार-भेद को लेकर खड़ा हुआ। अधिकारियों का भेद न रखने से बौद्ध-धर्म शीघ्र ही नष्ट हो गया, सब वर्णों तथा उभय लिंगों के एकत्र वास के कारण आचरण शुद्ध नहीं रह सके । इधर ब्राह्मणों में आचार-निष्ठा थी। वे आस्तिक थे पर हृदयहीन थे, जैसा कि मस्तिष्क और हृदय से कुछ वैषम्य रहता है। ब्राह्मणों के आचारवान् होने के कारण भगवान् शंकर ने उन्हें ही सर्वोत्तम अधिकारी चुना। यही कारण है कि आज नए सुधारक, जिन्हें शूद्रों का पक्ष लेना होता है, शंकर पर शूद्र-विरोध का लांछन लगाते हैं। पर शंकर किसी के विरोधी और किसी के मददगार नहीं थे। उन्होंने मार्जन को देखकर अधिकारियों का निर्वाचन किया है। शंकर की दृष्टि केवल चमक पर थी, और वह धर्म की रक्षा अधिकारियों में ही समझते थे। इसलिए उनके नियम बड़े कठोर हुए। वैदिक ज्ञान की मर्यादा तथा महत्त्व को स्थिर रखने के लिए शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन बड़े कठोर हैं। यही कारण है कि शूद्र उन्हें अपना शत्रु समझते हैं। कुछ हो, शंकर का महान् मस्तिष्क-धर्म भी अधिक काल तक यहां स्थायी नहीं रह सका। उनका आदर्श इतना ऊंचा था कि उस समय की क्रमश: क्षीण होती हुई प्रतिभा उस उज्ज्वलता को धारण नहीं कर सकी। शंकर का आगमन जैसे वैदांतिक प्रतिष्ठा के लिए ही हुआ हो, जैसे ज्ञानकाण्ड की स्थापना तथा बौद्धों के उच्छेद के लिए ही वह आए हों। शंकर के बाद भारत को शीघ्र ही एक ऐसे धर्म की आवश्यकता पड़ी, जिसमें हृदय-जन्य सुख तथा अनुभूतियों का आधिक्य हो। फिर रामानुज आए। इनके बाद अब तक हृदय-धर्म का ही प्राबल्य रहा। वैष्णव-धर्म के अंतर्गत भी जाति-पांति का भेद नहीं रहा।” (‘वर्तमान हिंदू समाज’, 1930, रचनावली, भाग 6, पृष्ठ 120-21)

इस उद्धरण से कोई भी आसानी से यह समझ सकता है कि निराला अपने ढंग से बुद्ध और शंकर को अलग अलग सामाजिक-ऐतिहासिक आवश्यकताओं की उपज बता रहे हैं। जातिगत-श्रेष्ठता पर आधारित अधिकार-भेद को स्वीकार न करने के कारण बौद्धों का अवसान हुआ। शंकर के ‘महान मस्तिष्क-धर्म’ की व्यावहारिक सचाई यही है कि उनकी ‘दृष्टि केवल चमक पर थी’। जाहिर है कि आचार की श्रेष्ठता को निराला केवल बाहरी चमक-दमक मानते हैं। किसी कथित ज्ञानी के लिए यह कहा जाए कि उसकी नजर केवल बाहरी चमक-दमक तक जाती है तो इसका अर्थ है कि उसका नजरिया सतही है। यहां शंकर के बारे में उनके वास्तविक विचार प्रकट हुए हैं। बाकी जो प्रशंसा उनके ज्ञान और मस्तिष्क की हुई है, उसे रस्मी शिष्टाचार समझना चाहिए। वैसे भी इस विचार-प्रणाली का जैसा वर्चस्व भारतीय चिंतन-पद्धतियों पर रहा है, और शासकवर्गीय सामाजिक शक्तियों का जैसा समर्थन इसे इसके उद्भवकाल से ही मिला हुआ है, इससे अधिक कुछ कहने की बात शायद निराला सोच भी नहीं सकते थे। ध्यान रखें कि शंकर का समय बुद्ध के लगभग बारह शताब्दी बाद का है। इस बीच बौद्धों के योगदान को निराला अत्यंत उत्साह के साथ स्वीकार करते हैं। लेकिन समय के साथ जब बौद्धों में कुछ आचारगत शिथिलता आई तो उसका फायदा ‘अधिकार-भेदवादियों’ ने उठाया। लेकिन उनकी बाहरी चमक-दमक अधिक नहीं टिक सकी क्योंकि उसमें मनुष्य-मात्र के प्रति हार्दिक संवेदना का अभाव था। इसी वजह से शंकर के धर्म का भी विलोप हो गया। रामानुज के वैष्णव धर्म की समायानुकूलता के कारण ही वह अब तक प्रबल बना हुआ है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता जाति-पांति भेद का न होना है।

गौरतलब है कि अब से लगभग हजार वर्ष पूर्व रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरुद्ध विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया था। उन्होंने शंकर के विपरीत ईश्वर की भक्ति के मार्ग में दलित-उत्पीडि़त तबकों के भी समानता के अधिकार को किसी हद तक स्वीकार किया था, और इसके लिए संघर्ष किया था। यह अपने समय का एक महान सुधारवादी कदम था, जो आगे चलकर भक्ति-आंदोलन की एक प्रमुख प्रेरणा बना। लेकिन रामविलास शर्मा जिस तरह निराला को उद्धृत करते हैं, पूरी बात ही उलट जाती है।

आलोचक के मंतव्य को और साफ करने के लिए इसी प्रसंग का एक और उद्धरण देखें…वैष्णव धर्म के साथ ‘भारतवर्ष में दुर्बलता खूब फैली’; लोग मस्तिष्क धर्म अर्थात् ज्ञान भूल गए; ‘हृदय-धर्म के कारण यहां के लोग सुखों की कल्पना में भूल गए। चारित्रिक पतन हुआ।’ शूद्र ब्राह्मणों की बराबरी करने लगे। ‘अपढ़ रैदास भी जब ईश्वर प्राप्त करने लगा, और नाम की महत्ता का प्रचार हुआ, तब बस फिर क्या, माला जपना मुख्य और अध्ययन गौण हो गया।’ (उप., पृ. 233) ” (‘वर्तमान हिंदू समाज’, 1930, प्रबंध प्रतिमा, पृष्ठ 233, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121, साहित्य साधना में उद्धृत पृष्ठ 103)

यह अंश ऊपर दिए इसी पृष्ठ के उद्धरण के तुरंत बाद का है। इसके साथ भी स्रोत का गलत संकेत बना हुआ है। इन पंक्तियों से आलोचक महोदय ने यह जाहिर करने का प्रयत्न किया है कि रामानुज आदि के वैष्णव धर्म के, भक्ति के क्षेत्र में, सभी वर्णों को समान मानने, और कबीर तथा रैदास जैसे निम्न वर्णों से आए संत कवियों के उभार के कारण समाज में झूठी बराबरी का प्रचलन हुआ। विद्याध्ययन की जगह माला जपने जैसे बाहरी कर्मकांडों ने ले ली। दूसरे शब्दों में, वैष्णव धर्म से प्रेरित संत कवियों के उत्थान से समाज में ढोंग और पाखंड बढ़ा। अब इस अंश को सही ढंग से समझने के लिए निराला-लिखित मूल प्रकरण भी देख लें ताकि आलोचक महोदय की योजना का पता चल सके…।

वैष्णव-धर्म की उदारता के साथ ही भारतवर्ष में दुर्बलता खूब फैली। हृदयधर्म के कारण यहां के लोग सुखों की कल्पना में भूल गए। चारित्रिक पतन हुआ। अनेक देव-देवियों की उपासनाएं फैल गईं। साधारण कोटि के लोगों में विचारों की उच्चता न रही। वे उपन्यासों के पाठकों की तरह पुराणों के उपाख्यानों में आ पड़े। ज्ञान का विस्तार सीमा में बंध गया। अपढ़ रैदास भी जब ईश्वर प्राप्त करने लगा, और नाम की महत्ता का प्रचार हुआ, तब बस फिर क्या, माला जपना मुख्य और अध्ययन गौण हो गया। संसार की असारता तो भारतवर्ष में आज भी प्रबल है। फल यह हुआ कि द्विजाति भी विद्या से रहित, दुर्गुणों से भरे-पूरे होने लगे। इधर विश्वास भी रहा कि एक ही डुबकी गंगा में लगावेंगे, जन्म-जन्मांतर के पातक-पुंज को डुबा देंगे, और फिर ब्रह्म की ही तरह चमकते हुए निकलेंगे। …पुराणों के उपाख्यानों का भीतरी रहस्य लोग भूल गए, उन्हें इतिहास के रूप से पढऩे लगे। उन्हीं पर उनका विश्वास हो गया, जैसा कि अशिक्षितों का अंधविश्वास होता है। चारित्रिक पतन के कारण समाज में शिथिलता आई, और हेकड़ी, हठ, अभिमान, अहंकार आदि ने सिर उठाया, स्वामिजनों का सेवकों तथा शूद्रों पर अनुचित दबाव पडऩे लगा।” (‘वर्तमान हिंदू समाज’, 1930, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121-22)

इस उद्धरण के अंतिम वाक्य से स्पष्ट है कि निराला, दरअसल, ‘बराबरी’ की नहीं ‘गैरबराबरी’ यानी शूद्रों और सेवकों पर अनुचित दबाव डालने वाले हठी और अहंकारी स्वामियों की कारस्तानियों की शिकायत कर रहे हैं। इधर रामविलास शर्मा ‘चारित्रिक पतन’ वाले वाक्य के बाद अपनी तरफ से लिखते हैं कि ‘शूद्र ब्राह्मणों की बराबरी करने लगे’। पूरे प्रसंग से स्पष्ट है कि मसला बराबरी का नहीं, ‘द्विजातियों के विद्यारहित होने’ का है। इन द्विजातियों ने रैदास आदि औपचारिक शिक्षा से वंचित संतों के उदाहरण का यह अर्थ लगाया कि अब विद्याध्ययन की जरूरत नहीं है। इससे ब्राह्मणों में अध्ययन की कमी हुई और उसकी जगह माला फेरने की प्रथा ने ले ली। संतों ने तो पोथी-पत्रा वाले रास्ते को छोड़कर ‘एक ओंकार सतनाम’ को अपना लिया था। उसीको नियमित और अनुशासित रूप से जपने और गिनने के लिए उन्होंने मनकों का प्रयोग किया, और इस प्रकार मन की गति और दिशा को नियंत्रित करके आध्यात्मिक अनुभव पाने की राह खोजी। लेकिन विद्याध्ययन और ज्ञान का अपना महत्व था, जिससे पारंपरिक रूप से शिक्षित समाज विमुख हुआ। लेकिन रामविलास शर्मा ने इसका अभिप्राय जिस तरह प्रस्तुत किया है उससे लगता है कि अनपढ़ रैदास की देखादेखी समाज में झूठे कर्मकांडों और पाखंडों की बाढ़ आ गई थी, खासकर ‘ब्राह्मणों की बराबरी करने’ के चक्कर में पड़े शूद्रों के अंदर, जिसकी निराला निंदा कर रहे हैं।

जहां तक शूद्रों द्वारा ब्राह्मणों की बराबरी करने की बात है तो इससे तकलीफ किसे हो रही थी, निराला को या रामविलास शर्मा को, इसे जानने के लिए उसी लेख का यह अंश भी देखते चलें…रैदास की शिष्या रानी भी थी। सदन कसाई का नाम आज भी प्रात:काल उठकर बड़े-बड़े ब्राह्मण बड़े चाव से जपते हैं। अधिक क्या, प्रत्येक समाज से उतने ही बड़े महापुरुष निकले हैं, जितने बड़े ब्राह्मण समाज में हो सकते हैं। जो आत्मिक उत्कर्ष मण्डन मिश्र ने वेदाध्ययन से प्राप्त किया था, वही उत्कर्ष व्याध मांस बेचकर प्राप्त करता है। पर योरप में किसी जूते गांठनेवाले अपढ़ की मर्यादा ऐसी नहीं कि वह लॉर्ड-खानदान के साथ बराबरी का व्यवहार करे। यहां की सामाजिक प्रणाली दूसरी ही थी।” (‘वर्तमान हिंदू समाज’, 1930, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121)

इस समूचे प्रकरण में आलोचक की मंशा पर शक करने के कारण इतने अधिक हैं कि शिष्टाचार के नाम पर उनका जिक्र न करना बेईमानी होगी। मसलन उपरोक्त उद्धरणों को देने के बाद प्रस्तुत इस टिप्पणी को ही देखें, जिसे वे अत्यंत मुदित भाव से करते हैं…’चाहे जिस रास्ते से चलिए, पहुंचिएगा इसी नतीजे पर कि शूद्रों पर द्विजों के शासन के बिना अध्यात्मवाद की रक्षा नहीं हो सकती! जो विचारधारा इस वर्णव्यवस्था और अन्य सामंती अवशेषों का विरोध करती है, वह पश्चिम से प्रभावित है, अभारतीय है।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 103)

 

विचारों को विकृत करना

इस तरह रामविलास शर्मा ने निराला के वक्तव्य को पूरी तरह से तोड़मरोड़कर यह साबित करने का प्रयास किया कि उनके मुताबिक जो वर्णव्यवस्था का विरोधी है, वह विचार, दरअसल, भारतीय हो ही नहीं सकता। वे यहीं पर नहीं ठहरते। निराला के विचारों को पूरी तरह से विकृत करके उसका अनर्थ करने के बाद वे यहां-वहां की उक्तियों और कुतर्कों के सहारे एक बार फिर निराला को वेदांत के माध्यम से अद्वैत का समर्थक साबित करने पर तुल जाते हैं। अपने इस पराक्रम से वे किसका हित साधते हैं और वर्णव्यवस्था का समर्थक कौन है, इस पर हम काफी कुछ कह चुके हैं। आइए देखें, खुद उनका इस पर क्या कहना है…-

वेदांत की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है, स्वयं निराला ने की है। यहां उस व्याख्या की चर्चा है जो शुद्ध अध्यात्मवादी है, जो ब्रह्म को अगोचर ज्ञानमय और संसार को मिथ्या और मायारूप मानती है। यह दृष्टिकोण भारत को अध्यात्मवादी और यूरोप को भौतिकवादी कहने के बाद भारतीयता के नाम पर उस राजनीतिक कार्यवाही का विरोध करता है जिसका उद्देश्य सामंती व्यवस्था को बदलना है। व्यवहार में यह अध्यात्मवाद वर्णव्यवस्था का समर्थक, उच्च वर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व का समर्थक सिद्ध होता है। राजनीति के साथ वह भौतिक विज्ञान और इतिहास का विरोध करता है। वैज्ञानिक इतिहास लेखन को जड़ बताकर स्वयं पुराण-कथाओं को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। वेदों के बाद का सारा इतिहास उसे पतन का इतिहास मालूम होता है, आधुनिक भारतीय भाषाएं संस्कृत का विकृत रूप, भक्ति आंदोलन ज्ञानच्युत जनता का भावुकतापूर्ण आंदोलन लगता है। साहित्य में इस दृष्टिकोण की मांग है कि पाप पर पुण्य की विजय दिखाई जाए । मनुष्य की भावनाओं को दैव और आसुर भावों में बांटकर वह प्राचीन साहित्य को भी इसी पाप-पुण्य की कसौटी पर परखता है। इस सारे चिंतन का केंद्र है शंकराचार्य जिन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य कहा और शूद्रों के प्रति कठोर नियम भी बनाए।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 103-04)

निस्संदेह ‘ब्रह्म को अगोचर ज्ञानमय और संसार को मिथ्या और मायारूप मानने वाली यह शुद्ध अध्यात्मवादी विचारधारा’ शंकराचार्य की है। तमाम शीर्षासन करने के बाद आलोचकप्रवर को भी यह मानना पड़ा कि शंकराचार्य के विचारों का वास्तविक आशय क्या है। लेकिन इससे यह समझ लेना भूल होगी कि वे सही राह पर लौट आए हैं। वैचारिक मामलों में लचीलापन वर्णाश्रमवादी प्रवृत्ति की बहुत बड़ी ताकत रहा है। अपने बुनियादी मसले पर दृढ़ता के साथ-साथ ब्यौरों के मामले में नमनीयता उसकी खासियत है। ध्यान दें कि यहां रामविलास शर्मा ने एक अपरिहार्य नतीजे को स्वीकार करके अपनी तर्कप्रक्रिया में कोई हार नहीं मानी है, बल्कि एक बढ़त और पहलकदमी ली है। ‘वेदांत’ की उनकी जैसी अवधारणा है उसमें वे किसी भी विचार को फिट कर सकते हैं। यहां उन्होंने सोचे-समझे ढंग से कदम पीछे हटाए हैं। एक कदम पीछे हटकर वे वेदांत के सहारे दो कदम आगे बढऩे का प्रयास करेंगे। आखिर में तो वेदांत के खोल में से गिरी अद्वैत की ही निकलेगी। उपरोक्त अंश के तुरंत बाद की पंक्तियों में वे शंकराचार्य के प्रति निराला की ‘आस्था’ की बिना शर्त स्थापना करने के बाद उनके विरोध को ‘वेदांत की भिन्न प्रकार की व्याख्या’ घोषित कर देते हैं…

निराला के मन में ज्ञान के प्रति, शंकराचार्य के प्रति परम आस्था थी। उनका देश-प्रेम उन्हें वेदांत-ज्ञान पर, शंकराचार्य पर गर्व करना सिखाता था। साथ ही अपने सामाजिक परिवेश, पारिवारिक किसान-संस्कारों और अपने जीवन संघर्ष से उन्हें क्रांतिकारी चिंतन की प्रेरणा भी मिल रही थी। देश-प्रेम की भावना उन्हें सिखाती थी कि पुरानी जर्जर समाज-व्यवस्था को मिटा दिया जाय, इस देश को आधुनिक शक्ति-संपन्न राष्ट्र बनाया जाय जिसमें अन्य समुन्नत देशों की तरह साहित्य और विज्ञान का विकास हो। इस भावना से प्रेरित होकर उन्होंने वेदांत की भिन्न प्रकार की व्याख्या भी प्रस्तुत की।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 104)

गौर करें कि यहां पहले वाक्य से ही वेदांत को शंकराचार्य के मत के पर्याय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हां, निराला को इस बात का श्रेय जरूर दिया गया है कि उन्होंने वेदांत की भिन्न व्याख्या की। आइए देखें कि यह मामला भिन्न व्याख्या का ही है या इससे कुछ अलग है।

साहित्य साधना के अगले अध्याय का शीर्षक है ‘वेदांत और विकासवाद’। इसका पहला पैराग्राफ देखें,            ” ‘भारतमें प्रकाशित विख्यात वर्तमान धर्मलेख में निराला ने पहले वेदांत की वह व्याख्या की जिसके अनुसार भारत अपने नाम से ही धर्मात्मा है अर्थात् प्रकाश मय, ज्ञानमय, आध्यात्मिक सत्ता है। दूसरी व्याख्या को विरोधी पक्षकी संज्ञा देते हुए उन्होंने यों प्रस्तुत किया- दूसरा विरोधी पक्ष जो सृष्टि को सिद्ध करता है, उसमें भले और बुरे का संस्थान देखता है, या प्रतिभा अथवा ज्ञान के साथ अज्ञान का संयोग करता है जैसे पूरे एक रूप के लिए दिन और रात का जोड़ा, एक ही व्योम या शंकर में पृथ्वी के दो गोलार्द्ध जुड़कर एक, अलग-अलग दिन और रात में प्रसन्न।‘ ”(साहित्य साधना, पृष्ठ 104)

निराला ने ‘वर्तमान धर्म’ में यह नहीं कहा कि वे वेदांत की व्याख्या कर रहे हैं, लेकिन रामविलास शर्मा ने पहले वाक्य से ही भारत की ज्ञानवादी व्याख्या को ‘वेदांत की वह व्याख्या’ कहा सो कहा, उसके ‘विरोधी पक्ष’ को भी ‘दूसरी व्याख्या’ (जाहिर है, वेदांत की ही) कहकर संबोधित किया। शैली ऐसी है कि पंचों का फैसला सर माथे, लेकिन पनाला यहीं गिरेगा। निराला को जो कहना हो कहते रहें, लेकिन रामविलास शर्मा उसे वेदांत की पहली, दूसरी या तीसरी व्याख्या ही मानेंगे। बहरहाल, जिसे निराला ‘विरोधी पक्ष’ कहते हैं, आइए देखें कि वह क्या है। निराला द्वारा की गई अपनी उपरोक्त पंक्तियों की टीका को उद्धृत करते हुए आलोचकप्रवर लिखते हैं…

” ‘साहित्यिक सन्निपात् या वर्तमान धर्म’ लेख में ऊपर उद्धृत किए हुए वाक्यों की टीका करते हुए उन्होंने लिखा, ‘दूसरा विरोधी पक्ष भी एक है। वह केवल ज्ञान नहीं मानता। ‘विरोध’ शब्द के द्वारा… सा तु निर्वीज: इस अज्ञान-रहित एकमात्र ज्ञान का विरोध प्रदर्शन हुआ, एकमात्र ज्ञान से बहिर्मुख होना हुआ;… बिना इस विरोध के इस सृष्टि-तत्व में उतरा नहीं जा सकता; कुछ कहा नहीं जा सकता। सृष्टि तत्व तब है जब भला और बुरा दोनों हैं। इसलिए दूसरा पक्ष एक मात्र ज्ञान का विरोधी हुआ, जो सृष्टि को सिद्ध करता है। इसका काम सृष्टि में भले और बुरे का प्रदर्शन, ज्ञान के साथ अज्ञान को जोडऩा है। यह पक्ष ज्ञान और अज्ञान दोनों को मिलाकर पूरे एक की व्याख्या करता है… बात यह कि सृष्टि में भला और बुरा दोनों होते हैं- ‘जड़-चेतन गुण दोषमय विश्व कीन करतार।” (‘ प्रबंध प्रतिमा’, पृ. 63-64)’ (साहित्य साधना, पृष्ठ 104-5)

इन पंक्तियों में निराला का कहना है कि ‘यह पक्ष ज्ञान और अज्ञान दोनों को मिलाकर पूरे एक की व्याख्या करता है’। यह धारणा दर्शन के क्षेत्र में शंकर और उन जैसे सभी भाववादियों को बुनियादी तौर पर चुनौती देने वाली थी। भाववाद मानता है कि मूलतत्व एक और अविशुद्ध है, उसी का कोई अंश संसार के रूप में अभिव्यक्त होता है। जबकि भौतिकवाद की द्वंद्ववादी व्याख्या के अनुसार मूलतत्व ही नहीं संसार का हर पदार्थ परस्पर निर्भर और विरोधी तत्वों के मेल का परिणाम होता है। इस दृष्टि से निराला का संसार को अच्छे और बुरे, ज्ञान और अज्ञान के मेल का परिणाम बताते हैं, तो भाववाद से भौतिकवाद की दिशा में एक लंबी छलांग लगाते हैं। गौरतलब है कि यह लेख 1933 का है। अब तक निराला ने अपने वैष्णव-वेदांती विचारों के विकल्प के रूप में यथार्थवादी चेतना विकसित करते हुए सांख्य और आधुनिक विज्ञान की अनेक मान्यताओं को अपना लिया था, हालांकि खुलकर उनके समर्थन का दावा करने योग्य समझ और आत्मविश्वास संभवत: वे नहीं जुटा सके थे। यह आसान भी नहीं था। सांख्य जैसे विचारों पर वर्णाश्रमवादी प्रवृत्तियों के दबाव के इतिहास से जिसका भी परिचय होगा, वह इस संकोच के कारण को बखूबी समझ सकता है। इसीलिए वे प्राय: वैष्णव-वेदांत के साथ-साथ सांख्य और कुछ आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं को बहस के केंद्र में लाने का संघर्ष करते हैं। बहरहाल, यहां हमारे लिए जो बात प्रासंगिक है वह यह कि उनकी वैचारिक यात्रा भाववाद से भौतिकवाद की ओर, यानी अद्वैत के विपरीत दिशा में जारी थी। लेकिन रामविलास शर्मा ने हर मुमकिन जोड़तोड़ करके उन्हें अद्वैत के पाले में खींच लाने का प्रयास किया।

अद्वैत को निराला ने ज्ञानमार्ग कहा तो यह इसलिए भी उचित था कि शंकर ने एकमात्र ज्ञान के माध्यम से ही मोक्ष पाने की बात कही थी। लेकिन वे यहां ज्ञान के साथ अज्ञान को, गुण के साथ दोष को, दिन के साथ रात को संसार के अस्तित्व के लिए आवश्यक मानते हैं। यही वजह है कि रामविलास शर्मा बार-बार यह कहने पर बाध्य हो रहे हैं कि निराला ने वेदांत की कुछ ‘भिन्न प्रकार की’ व्याख्या कर दी है। इस विषय पर कुछ और कहने से पहले निराला के इस गद्यांश को उद्धृत करके रामविलास शर्मा उसपर जो टिप्पणी करते हैं, उसे देखते चलें…

अगोचर ब्रह्म का प्रतिपादन ही वेदांत नहीं है। गोचर सृष्टि का प्रतिपादन भी वेदांत है। इस सृष्टि में ज्ञान के साथ अज्ञान, धर्म के साथ अधर्म, पाप के साथ पुण्य जुड़ा हुआ है। इन दोनों के संघर्ष से ही प्रगति सम्भव है। इस धारणा को विरोधी पक्ष कहकर निराला ने ‘वर्तमान धर्म और उसकी टीका में विस्तार से प्रतिपादित किया किंतु यह धारणा उनके लिए नई नहीं थी वरन् उनके साहित्यिक जीवन के आरंभ से उनके साथ थी। ‘समन्वय’ के पांचवें अंक में भारत में श्री रामकृष्णावतार’ जो लेख छपा, उसमें भारत को नाम से ही धर्मप्राण विज्ञापित करने के बाद उन्होंने लिखा, ‘परंतु, धर्म को मानते हुए हमें अधर्म को भी मान लेना चाहिए क्योंकि सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं, ऐसा कोई शब्द नहीं, जिसका विरोधी गुण न हो अमृत का गुणगान कीजिए तो विष को भी अपनी तान छेड़ते हुए देखिए।’ ” (साहित्य साधना, पृष्ठ 105)

‘समन्वय’ वाला लेख 1922 का है, यानी रामविलास शर्मा का यह कहना सही है कि निराला प्रकृति की द्वंद्वात्मकता के बारे में बहुत पहले से यह सब कहते आ रहे हैं। हालांकि यह भी गौरतलब है कि उन्होंने यह याद दिलाना जरूरी समझा कि निराला ने यह द्वंद्व सिद्धांत प्रतिपादित करने से पहले भारत को धर्मप्राण देश ‘विज्ञापित’ किया है। यानी, भूल से भी इन विचारों को ‘धर्मप्राण’ भावना से अलग न समझें। इसी अध्याय में थोड़ा आगे चलकर रामविलास शर्मा लिखते हैं…वर्तमान धर्म की टीका में निराला ने दार्शनिक स्तर पर उसी द्वंद्व सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या की। यह सिद्धांत जड़ विज्ञान में है, वेदांत में भी। एक जगह जड़ विज्ञान और वेदांत का भेद मिट जाता है जब वे संसार की सत्ता स्वीकार करके उसकी गति और परिवर्तन का अध्ययन करते हैं।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 106)

ध्यान दें कि वेदांत भाववादी है, और विज्ञान भौतिकवादी। इसके नाम के साथ लगे ‘जड़’ विशेषण से भी यह पर्याप्त स्पष्ट होता है। ‘जड़ विज्ञान’ और ‘वेदांत’ का भेद दो तरीके से मिट सकता है। या तो जड़ विज्ञान बुनियादी तौर पर वेदांत की किसी मान्यता को स्वीकार कर ले। या फिर वेदांत ही वैज्ञानिक-भौतिकवादी मान्यता को मूलभूत स्तर पर स्वीकार कर ले। दोनों ही स्थितियों में दोनों की सत्ता पूर्ववत नहीं रह जाएगी। अगर वेदांत विज्ञान की मान्यता को स्वीकार करेगा तो वह विज्ञान में बदले या न बदले, वेदांत नहीं रह जाएगा। यही बात विज्ञान के मामले में भी होगी।

यहां आए वाक्यांश ‘उसी द्वंद्व सिद्धांत’ और ‘संसार की सत्ता को स्वीकार करके उसकी गति और परिवर्तन के अध्ययन’ पर गौर करें। आलोचक महोदय निराला के वेदांत के अनुकूल पूर्ववर्ती विचारों को ‘द्वंद्व सिद्धांत’ के सहारे इस नए भौतिकवादी रुझान से जोडऩे को उतावले हो रहे हैं। इसके लिए उन्होंने ‘संसार की सत्ता’ को स्वीकारने के अलावा ‘जड़ विज्ञान’ का समर्थन भी जुटा लिया है। लेकिन क्या सचमुच ये दोनों विचार एक ही श्रेणी के हैं। ‘वर्तमान धर्म’ के जिस विचार से रामविलास शर्मा यहां टकरा रहे हैं, क्या वह वेदांत के अनुरूप ही ब्रह्म और संसार की समझ रखता है? इसके बाद वे संसार और ब्रह्म की चर्चा लगातार करते हुए बताते हैं कि निराला के मुताबिक कैसे जड़ चेतन में और चेतन जड़ में बदल जाता है। उनके अनुसार यह निराला का ‘द्वंद्व सिद्धांत’ है, जिसके सामने जड़-चेतन, आस्तिक-नास्तिक, सुर-असुर एक ही सत्ता के दो अपरिहार्य रूप साबित होते हैं। विरोधी गुणों के संघर्ष से ही संसार की प्रगति होती है। इस प्रकार वे एक बार फिर जड़-चेतन में से किसी को प्राथमिक माने बगैर अपनी अवसरवादी-सारसंग्रहवादी थीसिस प्रस्तुत करते हैं, और उसे द्वंद्ववाद कहते हैं। इस तरह वे निराला के भौतिकवाद की ओर उन्मुख विचारों को वापस भाववादी दायरे में खींच लाने के लिए द्वंद्ववादी पद्धति का इस्तेमाल करते हैं।

इसके बाद वे संसार की प्रगति और ह्रास की चर्चा करने लगते हैं। लेकिन इनमें से ‘संसार की गति और परिवर्तन’ से जुड़ी हुई कोई ऐसी बात नहीं है जिसका ‘जड़ विज्ञान’ से भेद मिट जाता हो। निराला के ‘साहित्यिक सन्निपात या वर्तमान धर्म’ नामक लेख पर फिर से गौर करें तो इस हिस्से पर रुकना पड़ता है…।

प्रकृति ने गणेश को जीवत्व में बांधा था। प्रकृति ने ही फिर मुक्ति दिलायी। मृत्यु के बाद जो जीवन मिला, यह ज्ञान-जीवन है। यहां कपिल सांख्य और पतंजलि योग दोनों दर्शन सिद्ध होते हैं। जब गणेशजी एक तीसरे हैं तब योगदर्शन की तृतीया शक्ति, ईश या जीव की सिद्धि है, जब नहीं, काट दिए गए तब केवल पुरुष प्रकृति, सांख्य की सिद्धि।” (रचनावली भाग 6, पृष्ठ 172)

स्पष्ट है कि ‘प्रकृति-पुरुष’ के उल्लेख को निराला सांख्य का क्षेत्र मानते हैं। अब इसी लेख का एक अंश और देखें…चित्रवाले काव्य में (ब्रजभाषावाले चित्र-काव्य में नहीं) शिव और पार्वती आधे-आधे में दिखलाये गए हैं, जो जड़ और चेतन का जुदा न किया गया एक पूरा रूप है। (यही बात पहले दिन और रात की उपमा देकर कह चुका हूं कि दोनों-भले और बुरे के मिलने पर एक पूर्ण बनता है; सृष्टि के अंदर रहकर जो लोग आलोचना करते हैं वे ऐसा ही कहते हैं; यही सत्य काली और शिव, सियाह और सफेद को रूप देकर प्रकट किया गया है।) पत्नी और पति प्रकृति और पुरुष एक-दूसरे से मिले हुए हैं (पत्नी और पति भोग-अर्थ में, दिन और रात संधि में, प्रकृति और पुरुष मुक्ति में), फिर भी जुदा-जुदा हैं। तुलसीदासजी ने इसी विचार से लिखा है— तनु अर्द्ध भवानी (रामायण में, इस उक्ति से, स्थलविशेष के कारण सीताजी का सौंदर्य बढ़ाने का उद्देश्य लेकर गोस्वामीजी ने दोष दिखलाया है), जिनके अंक में, कहीं-कहीं पाठानुसार श्लोक का अर्थ है बायीं तरफ गिरिजा शोभा पा रही। तत्वपूर्ण अर्थ के अनुसार बायां अंग ही पार्वती और दाहिना शिव है, तभी ‘तनु अर्द्ध भवानी’ स्पष्ट होगा। हिमालय का यही दिव्य शरीर है— वह शिव और पार्वती का सम्मिलित रूप है, इसी सर्वोच्च आधार पर गौरीशंकर कहा जाता है; वहां जल है और जड़ भी (जल और जड़ का एक ही रूप संस्कृत में होता है)… गति है और स्थिति भी— चेतन है और जड़ भी— इसलिए शिव हैं और पार्वती भी।’ (रचनावली भाग 6, पृष्ठ 169)

आशय यह है कि सफेद-सियाह, दिन-रात, स्त्री-पुरुष, शिव-पार्वती, गुण-दोष, चेतन-जड़ आदि का प्रयोग निराला पुरुष-प्रकृति की सहयोगी श्रेणियों के रूप में कर रहे हैं। इससे यह खयाल आता है कि यह प्रकरण वेदांत की किसी नई व्याख्या का नहीं है, बशर्ते सांख्य को ही वेदांत का पर्याय न मान लिया जाए। हम जानते हैं कि सांख्य वेदांत से बहुत पुराना भौतिकवादी दर्शन है। भाववादी अद्वैत का उससे आत्यंतिक विरोध का रिश्ता है। आइए देखें कि रामविलास शर्मा ने सांख्य की विशेषताओं को दरकिनार करके उसे वेदांत की एक और व्याख्या कहने की वजह क्या थी। ‘साहित्य-साधना’ के अगले अध्याय ‘ब्रह्म और प्रकृति’ में वे लिखते हैं…

निराला के चिंतन में जो अंतर्विरोध है वह यह कि एक ओर वह शक्ति को ब्रह्म से अभिन्न मानकर उसे ब्रह्म के बराबर दर्जा देते हैं, दूसरी ओर वह उसकी सीमा पार करके ब्रह्म में लीन होने की कल्पना द्वारा उसे ब्रह्म से भिन्न, सीमित और घटकर मानते हैं। ‘वर्तमान धर्म’ की व्याख्या करते हुए ज्ञान और शक्ति को समकक्ष बतलाते हुए निराला कहते हैं, ‘ज्ञान और शक्ति, दोनों का परिणाम अनादि है, दोनों बराबर हैं, रूपकों में आकर अपना-अपना अर्थ प्रकट कर ब्रह्म की तरह निर्लिप्त।’ यहां अभिन्नता की जगह भिन्नता है, अद्वैत की जगह द्वैत है, एक अनादि की जगह अनादि हैं। इस अंतर्विरोध से निकलने का एक अन्य मार्ग है… प्रकृति अद्वैत। सत्ता एक है…प्रकृति। वही अनादि, अनंत और निरंतर परिवर्तनशील है। ब्रह्म वगैरह कुछ नहीं।” (साहित्य साधना, पृष्ठ 115)

यहां सबसे पहले तो लेखक निराला के सुसंगत वेदांती-वैष्णव विचारों को जानबूझकर अद्वैत से ‘कंफ्यूज’ करता है। उसकी शैली ऐसी है जैसे शंकर के अद्वैत, रामानुज के विशिष्टाद्वैत, मध्व के द्वैत, निम्बार्क के द्वैताद्वैत और वल्लभ के शुद्धाद्वैत के बीच के अंतर को वह कोई महत्व ही नहीं देता। उपरोक्त उद्धृत अंश में भी इस तरह वह शंकर के इन तमाम विरोधी विचारों को उन्हीं का बौद्धिक उपनिवेश बना देता है। वर्णव्यवस्था की समर्थक शक्तियों की अपने वर्चस्व को स्थापित करने की यह बहुत पुरानी शैली है। वे कल, बल, छल से आपको अपने दायरे में कैद कर लेते हैं, और इसे समन्वय या समाहार करना कहते हैं। इस दौरान वे आपकी वैचारिकता को कोई महत्व नहीं देते, हालांकि खुद को बहुत विचारवान और ज्ञानी बताते हैं।

बहरहाल, वेदांत की सभी धाराओं में कम से कम यह एकता है कि वे सब उपनिषदों के भाववाद पर आधारित हैं। इसीलिए उन्हें अद्वैत के दायरे में समेटना अधिक आश्चर्य नहीं पैदा करता। लेकिन यहां रामविलास शर्मा ने भारतीय परंपरा के सबसे प्रमुख भाववादविरोधी दर्शन सांख्य को अद्वैत की ही कोई बहकी हुई शाखा घोषित करने का असाधारण पराक्रम किया है। पहले उन्होंने निराला के वेदांती विचारों में इस आधार पर अंतर्विरोध की कल्पना की कि वे अद्वैत की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसके बाद उन्होंने इस अंतर्विरोध के ‘आरोप’ से निराला को कृपापूर्वक मुक्त करते हुए उनके सांख्य संबंधी विचारों को ‘प्रकृति अद्वैत’ घोषित कर दिया। हम पहले कह चुके हैं कि यह एक ऐसा दार्शनिक प्रतिपादन है जिसकी कोई ध्वनि न इसके पहले सुनाई पड़ती है, न इसके बाद। हमेशा की तरह उनकी शैली यही है कि किसी विषय पर संगत-असंगत हर तरह की बातों को इकठ्ठा करके पूरी दीदादिलेरी के साथ उन्हें अद्वैत की ही कोई न कोई अभिव्यक्ति बता दी जाए। इस बात की पुष्टि किताब की उन भूमिकाओं से भी होती है, जो उन्होंने विभिन्न मौकों पर लिखी थी।

साहित्य साधना के पहले संस्करण की 1971 में लिखित भूमिका में लेखक रामविलास शर्मा का कथन है कि ”उन पर शंकराचार्य और विवेकानंद की विचारधारा का ही नहीं, उनके काव्य का, उनकी भावधारा का भी प्रभाव है। कहीं लगता है कि विचारधारा से भी अधिक यह भावधारा का प्रभाव महत्वपूर्ण है।” 1993 में तीसरे संस्करण की भूमिका की शुरुआत करते हुए वे कहते हैं…निराला का प्रसिद्ध गीत है – कौन तम के पार… रे कह! संभव है, इसकी मूल धारणा उन्होंने ऋग्वेद से प्राप्त की हो। जब न सत् था, न असत् था, न लोक था, न परम व्योम था. किमावरीव-… तब सबको कौन ढंके था? आगे मानो इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है – तम आसीत् तमसा गूळ् हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वदा इदम् -पहले अंधकार था, अंधकार से सब कुछ ढंका था, वह सब केवल अव्यक्त जल था। (10.129.1.3)। निराला के गीत में तम है और जल है, इसके साथ प्रश्न है; कौन तम के पार? अर्थात् आरंभ में केवल अंधकार था।”

 

भूमिका की समापन पंक्तियां भी देखते चलें-

अपने साहित्यिक जीवन के आरंभ में निराला ने धर्म का महत्व स्वीकारते हुए लिखा था – ‘परंतु, धर्म को मानते हुए हमें अधर्म को भी मान लेना चाहिए । क्योंकि सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं, ऐसा कोई शब्द नहीं, जिसका विरोधी गुण न हो… अमृत का गुणगान कीजिये तो विष को भी अपनी तान छेड़ते हुए देखिए।’ ईशावास्योपनिषद् में मंत्र है-

विद्यां चा विद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ 11

जो विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करता है और विद्या से अमृत को भोगता है। उपनिषदों की प्रचलित व्याख्याओं में विद्या के साथ अविद्या का यह महत्व अस्वीकृत है। इन व्याख्याओं के विरुद्ध चलते हुए निराला कहते हैं – सृष्टि में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसका विरोधी गुण न हो। शंकराचार्य से अलग हटकर निराला का चिंतन औपनिषदिक परंपरा के अनुरूप है। समूची परंपरा ऐसी नहीं है परंतु उसकी एक धारा ऐसी अवश्य है।

उपनिषदों का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है, नए सिरे से ऋग्वेद का अध्ययन और विवेचन आवश्यक है। निराला साहित्य में ऐसे सूत्र हैं जो इस कार्य मे हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं।”

कुल मिलाकर यही रामविलास शर्मा की शैली है। पहले कहा कि शंकराचार्य का प्रभाव है। फिर जब इस कथन को प्रमाणित करने में खुद को ही समस्या महसूस हुई तो कह दिया कि शंकराचार्य से अलग हटकर औपनिषदिक परंपरा के अनुरूप है। अब पता है कि न शंकराचार्य के अनुरूप है न औपनिषदिक परंपरा के, इसलिए यह भी जोड़ दिया कि पूरी परंपरा ऐसी नहीं है, लेकिन एक धारा जरूर है। किसी को लग सकता है कि इस बात के समर्थन में प्रमाण तो दिया है। फिर उस प्रमाण की असलियत भी देख लें।

तीसरे संस्करण की भूमिका के आरंभ में उन्होंने संभावना व्यक्त की है कि निराला के गीत की प्रेरणा ऋग्वेद से मिली हो सकती है, क्योंकि दोनों में ‘तम’ और ‘जल’ है। बेशक ये मिलती-जुलती विषयवस्तु है लेकिन सृष्टि के आरंभ को लेकर यह ऋग्वेद की कोई अनूठी धारणा नहीं है। वे स्वयं भी आगे चलकर इसे आरंभिक विकासवाद के अनुरूप मानते हैं। इसलिए इस संभावना को पुष्ट न मानते हुए भी खारिज नहीं किया जा सकता। अब जरा देखें कि इस प्रसंग के तुरंत बाद वे क्या कहते हैं…

यदि निराला ने ऋग्वेद के सूक्त के आधार पर गीत रचा था तो उन्हें इस बात का श्रेय है कि ब्रह्मसंबंधी प्रचलित विचारधारा से अलग हटकर उन्होंने सृष्टि के बारे में प्राचीन विकासवादी मान्यता को पुनर्जीवित किया था। यदि उन्होंने अपनी कल्पना से वह सब लिखा था तो मानना चाहिए, उनका सृष्टिसंबंधी चिंतन उतना ही उदात्त और गंभीर था जितना ऋग्वैदिक कवियों का।”

यहां पहली संभावना को मानें तो निराला ने ब्रह्मसंबंधी प्रचलित विचारधारा यानी उपनिषद-वेदांत की विचारधारा से अलग हटकर विकासवादी विचार का पल्लवन किया, जिसके बीज ऋग्वेद में भी मिलते हैं। अगर दूसरी संभावना को मानें तो निराला ने स्वतंत्र रूप से विकासवाद का समर्थन किया। इस संबंध में यह बात कतई महत्वहीन है कि उन्होंने किन विचारधाराओं के समान उदात्त और गंभीर चिंतन किया। ऋग्वेद को बलपूर्वक हर बात का प्रस्थानबिंदु बनाने का आग्रह यहां साफ देखा जा सकता है। जहां ऋग्वेद को लाना संभव नहीं वहां उपनिषद या वेदांत को लाते हैं। अंतत: शंकर को किसी न किसी बहाने केंद्र में लाते हैं। जो बात साफ तौर पर शंकर की विरोधी है उसकी भी विशेषता यही है कि वो ‘शंकराचार्य से अलग हटकर’ है।

एक गौरतलब बात यह है कि निराला के तथाकथित ‘प्रकृति अद्वैत’ को रामविलास शर्मा ने उनके वेदांत से बेहतर माना था। ‘ब्रह्म और प्रकृति’ शीर्षक अध्याय की अंतिम पंक्तियां हैं…निराला का यह प्रकृति-अद्वैत उनके ब्रह्म वाले अद्वैत से ज्यादा भरा-पूरा, अधिक विज्ञानसम्मत, सामाजिक और साहित्यिक प्रगति को समझने के लिए अधिक उपयोगी है। माया और ब्रह्म के चिरंतन अंतर्विरोध से वह मुक्त है। समाज और साहित्य के प्रति निराला के क्रांतिकारी दृष्टिकोण को वह तर्कसंगत ढंग से सार्थक सिद्ध करता है।” (‘साहित्य साधना’, पृष्ठ 122)

सब कुछ के बावजूद इन आलोचक महोदय को तो पता ही है कि निराला के प्रकृति संबंधी विचारों का किसी भी प्रकार ‘अद्वैत’ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। रणनीतिक दृष्टि से, कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने उसकी श्रेष्ठता की बात लिख तो दी है लेकिन अगले ही अध्याय में, जिसका शीर्षक है ‘सामाजिक परिवर्तन और साहित्य’, में वे ‘प्रकृति अद्वैत’ से कैसे हिसाब बराबर करते हैं, आइए देखें। इस अध्याय के पहले पैराग्राफ में रामविलास शर्मा कहते हैं…

‘सामाजिक क्षेत्र में धार्मिक भेदभाव, वर्णव्यवस्था का उत्पीडऩ आदि सामंती अवशेष खत्म करके जैसे प्रगतिशील विचारक एक नए भारत का निर्माण करना चाहते थे, वैसे ही साहित्यिक क्षेत्र में दरबारी काव्य-परम्परा की सीमाएं तोड़कर लेखक आधुनिक साहित्य को नए युग की विचारधारा के अनुसार समृद्ध और समर्थ बना देना चाहते थे।’ (‘साहित्य साधना’, 122-23)

आगे बढऩे से पहले नोट कर लें कि ‘वर्णव्यवस्था के उत्पीडऩ’ को खत्म करना है। वर्णव्यवस्था को खत्म करना जरूरी नहीं है। वर्णव्यवस्था का बदतरीन शिकार कौन है, उत्पीडऩ किसका होता है, इसके बारे में लेखक आमफहम विचारों से विचलित होने वाला नहीं है, यह हम पहले ही देख चुके हैं। दूसरी महत्वपूर्ण स्थापना ‘दरबारी काव्य’ से संबंधित है। साहित्य के क्षेत्र में सामंती चेतना का अर्थ है दरबारी साहित्य। इस प्रकार के साहित्य का विरोध, देखिए किन मुद्दों पर होता है…

नए साहित्य के विरोधी कहते थे, ये सब संसार के माया-मोह में फंसे हुए हैं, शृंगार की कविताएं लिखते हैं, इनमें कुछ दुश्चरित्र भी हैं, फिर भी ब्रह्मज्ञान छांटते हैं। वास्तव में ये सब भारतीयता के विरोधी हैं, कविता में ये जो भाव और विचार व्यक्त कर रहे हैं, वे यूरोप से उधार लिए हुए हैं या फिर बंगला की नकल हैं और चूंकि बंगलावालों ने खुद अंग्रेजी से बहुत सा माल उधार लिया है, इसलिए हिंदी की छायावादी कविता नकल की नकल है।” (‘साहित्य साधना’,पृ. 123)

यानी, नए साहित्य के उन्नायकों पर ‘शृंगार की कविताएं लिखने’ की अगली कड़ी के रूप में ‘दुश्चरित्र’ होने का आरोप लगाया गया है। यहां लेखक ‘चरित्र’ का जैसा सीमित और दकियानूसी अर्थ लगाता है उससे पता चलता है कि उसके भावजगत में चरित्रवान होने का एक ही अर्थ है…लंगोट का पक्का होना। पोंगापंथी भावबोध की यह अचूक पहचान है। आगे भी हम इस पहचान का परिचय प्राप्त करेंगे। अब सवाल यह है कि यहां लेखक केवल जानकारी दे रहा है या नए साहित्य के उन्नायकों पर होने वाले इस हमले में खुद भी शामिल है। आगे देखें…

निराला ने इस विरोध का जवाब दिया। जिन मान्यताओं के आधार पर उन्होंने यह जवाब दिया, उनका गहरा संबंध उनके दार्शनिक चिंतन से है। रूप-रस-गंध वाला संसार सुंदर है। कवि इसके सौंदर्य का चित्रण करे या उसे माया समझकर उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा ले? निराला ने साहित्य में शृंगार-वर्णन का औचित्य सिद्ध करने के लिए वैष्णव कवियों का सहारा लिया हिंदी और बंगला के ये कवि भक्त थे, फिर भी उन्होंने नारी के सौंदर्य की पूजा करके सिद्धि प्राप्त की। निराला मानते हैं कि उनकी यह शृंगार-साधना संन्यासी की साधना से भिन्न है, फिर भी ‘किसी अंश में भी इस शृंगार के साहित्य को वेदांत साहित्य के उपलब्ध ज्ञान के मुकाबले में न्यून नहीं रखा।’ (‘सुधा’, नवम्बर 26; संपा. टि…. 1) यह तर्क उनके लिए था जो भक्तों की नैतिकता के कायल थे किंतु निराला उस शृंगार के समर्थक न थे जो भोगमुक्त हो । भक्त कवि राधा-कृष्ण के शृंगार का वर्णन करते थे किंतु प्रत्यक्ष रूप में स्वयं भोगी होने का दावा न करते थे। निराला की स्थिति इन भक्तों से भिन्न थी। वह स्वयं भोगी थे और भोग को उचित ठहराने के लिए उनके पास दार्शनिक युक्ति भी थी। संसार में विजय प्राप्त करने के लिए वीरता आवश्यक होती है। शृंगार भाव वीरता का विरोधी है। किंतु संसार में विरोधी गुण के अस्तित्व के बिना प्रगति असंभव है। इस तरह जो भाव वीरता का विरोधी जान पड़ता है, वह उसका प्रेरक और समर्थक भी बन सकता है।” (साहित्य साधना,पृ.123)

गौरतलब है कि ‘नए साहित्य के विरोधियों’ ने जिसे ‘दुश्चरित्रता’ कहा था। रामविलास शर्मा के अनुसार यहां निराला उसे भोग कहते हैं। एक बात और भी है कि जिन बातों को उन्होंने कहा था भोग-त्याग वगैरह की शब्दावली में व्यापक परिप्रेक्ष्य में उनका उत्साही समर्थक होने का अभिनय करते हुए लेखक उनपर व्यक्तिगत रूप से ‘भोगी’ होने का एलान ऊंचे स्वरों में कर देता है। इस प्रकार उसके ‘वह स्वयं भोगी थे’ वाले वाक्य में ‘भोग को उचित ठहराने’ के पहले एक शब्द ‘अपने’ अलिखित रूप में मौजूद दिखाई पड़ता है। यहां निराला के वैचारिक संघर्ष का चालाकी से अवमूल्यन करते हुए लेखक रामविलास शर्मा ने उसे उनके व्यक्तिगत जीवन की आवश्यकता करार दे दिया है, मानो निराला खुद अपने आचरण का औचित्य स्थापित करने के लिए ‘भोग’ के पक्ष में बोल रहे हों। निराला के तर्कों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करना जारी रखते हुए वे कहते हैं…

गृहस्थ संत-साहित्य से प्रभावित हुए किंतु मुग्ध सर्प की तरह उन्होंने स्वतन्त्रता खो दी। इसका कारण यह है कि लोग ज्ञान रहित कर्मों को गृहस्थ धर्म समझने लगे जैसे ‘आग में घी जलाकर वायु-शोधन’ करना। नवीन साहित्य ‘जीवनोपाय को सरल तथा सुगम’ करता है; वह ‘संसार के लोगों को एक ही पदार्थ तथा ज्ञान के सूत्र से बांध सकता है।’ स्वभावत: वह संत-साहित्य से भिन्न होगा। ‘संतों के जितने परित्यक्त विषय रहे हैं, उनमें भी सत्य तथा शिव को प्रत्यक्ष कर उनका चित्र अंकित कर सकता है।’ ( ‘सुधा’, जुलाई ’30; संपा. टि.- 4)।” (‘साहित्य साधना’, पृ.124)

संत-साहित्य जिसने हर तरह के कर्मकांड की कठोरतम भत्र्सना की, उस पर रामविलास शर्मा का आरोप है कि उसने गृहस्थों को हवन आदि के कर्मकांडों में उलझा दिया। हवन-होम की प्रथाएं वैदिक यज्ञादि कर्मकांडों की अवशेष थीं, लेकिन अगर किसी के विचारों को विकृत करना ही मकसद हो तो संगति की परवाह कौन करता है। बहरहाल, निराला के ‘नए साहित्य’ को वैष्णव, भक्त, संत साहित्य-परंपरा से काटकर रामविलास शर्मा सतर्क मुद्रा में उसकी ओर बढ़ते हैं— ”द्वंद्व सिद्धांत को अपनाकर उन्होंने जो साहित्य संबंधी मान्यताएं स्थिर कीं, वे उनके प्रकृति-अद्वैत के अनुकूल हैं। प्रकृति ही विभिन्न अवस्थाओं और रूपों में एकमात्र सत्य है, उसके सत्य होने से ही मनुष्य की समस्त सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यवाही सार्थक होती है। उनके इस प्रकृति अद्वैत से साहित्य संबंधी दो मान्यताएं फूटती हैं। एक यह कि भाषा, साहित्य और सामाजिक जीवन में मनुष्य को ऐश्वर्य चाहिए, उसे पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए; दूसरी यह कि साहित्य और सामाजिक जीवन का लक्ष्य है मनुष्य के दुख दूर करना, सुखी मानव समाज की स्थापना करना। ये दोनों मान्यताएं परस्पर विरोधी हों, यह आवश्यक नहीं। मनुष्य के दुख दूर किए जाएंगे तो समाज भौतिक रूप से समृद्ध होगा ही। किंतु निराला के चिंतन में ये दोनों मान्यताएं परस्पर विरोधी होकर ही सामने आती हैं। कारण यह कि वह जानते हैं कि वह जिस ऐश्वर्य की बात कर रहे हैं, वह भावी समाज में प्राप्त होने वाला लक्ष्य नहीं, वर्तमान समाज-व्यवस्था में सुलभ होने वाला ऐश्वर्य है। यह ऐश्वर्य बड़े-बड़े राजाओं और जमींदारों को प्राप्त है। वर्तमान समाज में ऐश्वर्य प्राप्त करना है तो उन मानव-संबंधों का औचित्य स्वीकार करना होगा जिनके रहते हुए ही यह ऐश्वर्य कुछ व्यक्तियों को सुलभ होता है। निराला का मन यह स्वीकार नहीं कर पाता, इसीलिए दोनों मान्यताएं परस्पर टकराती हैं।” (‘साहित्य साधना’, 127)

एक बात बहुत साफ है कि अगर कोई व्यक्ति या विचार मौजूदा मानव-संबंधों के तहत ही राजाओं और जमींदारों को मिलने वाले ऐश्वर्य की कामना करता है तो आम जनता के दुख-दर्द को दूर करने की उसकी इच्छा कोरा पाखंड बनकर रह जाएगी। इन दोनों बातों को परस्पर विरोधी कहना भी अपनी निष्पक्षता को दिखाने का एक तरीका भर है। कोई व्यक्ति एक ही साथ दंगाई और लोकतांत्रिक दोनों नहीं हो सकता। रामविलास शर्मा की मंशा भी यहां यही दिखाने की है। इसीलिए वे यह भूमिका बांधते हैं। आगे देखिए…

वर्तमान धर्म’ की टीका में निराला ने प्रकृति को ‘ऐश्वर्य शक्ति’ भी कहा है। (प्रबंध प्रतिमा, पृ. 109) जो ऐश्वर्यशक्ति है, उससे मनुष्य को ऐश्वर्य प्राप्त होना ही चाहिए। इस ऐश्वर्य में राज्यभोग प्रमुख है। वैष्णव कवियों वाले लेख में उन्होंने भोग की चर्चा करते हुए राज्यभोग का नाम लिया, वह इसी ऐश्वर्य शक्ति की ओर संकेत करता है। निराला की कल्पना में शृंगार-रस प्रतिक्रिया रूप से जिन नायकों में वीर रस को सजग किए रहता है, वे सब राजा हैं, ‘दो-एक आदर्श पुरुष महावीर और भीष्म की बातें और हैं।’ बंगला साहित्य में उच्च वर्गों के वैभव का चित्रण किया गया है। निराला कल्पना से वह सब साहित्य में लिखते हैं, उसी के अनुरूप भाषा में जगमगाहट पैदा करते हैं लेकिन हिंदीवाले कहते हैं, साहित्य जनता के लिए होना चाहिए, भाषा ऐसी होनी चाहिए कि सबकी समझ में आए। निराला तर्क करते हैं कि बड़े आदमियों के घर के साज सामान, विलास के उपकरण गरीबों को सुलभ नहीं, फिर भी साहित्य में उनका वर्णन किया जाता है। ये सब ‘देश को उन्नत साबित करने के लिए सबसे जरूरी हो रहे हैं।’ (‘सुधा’, अक्तूबर 32; संपा. टि.- 1) साहित्य गरीब जनता का चित्रण करके समृद्ध नहीं हो सकता। निराला कहते हैं, ‘इतिहास में सम्राट और राजे-महराजे ही रहते हैं, सर्व साधारण नहीं फिर भाषा-साहित्य के लिए सर्वसाधारण वाला कारण कहां तक सर्वमान्य कहा जा सकता है?’ (उप.) ऐश्वर्यशक्ति वाले अद्वैत से जो भोग संबंधी मान्यता फूटती है, उसकी यह चरम परिणति है। यह मान्यता इतिहास में भ्रांतियां पैदा करने वाली, साहित्य में यथार्थवाद का विरोध करने वाली है।” (‘साहित्य साधना’, पृ. 127-8)

निराला को सामंती ‘ऐश्वर्य’ से प्रभावित होकर जनसाधारण के बजाय उसके चित्रण का पक्षधर साबित करने के लिए रामविलास शर्मा ने यह लंबी चौड़ी पेशबंदी की है। उनके मुताबिक निराला ने जिन नायकों में वीर रस देखा है, वे सब ‘राजा’ हैं। अब जरा इसकी असलियत समझने के लिए उस मूल उद्धरण को पूरा देखते हैं, जिसके आधार पर निराला को मानो राजतन्त्रवादी घोषित कर दिया गया है…

दूसरे, वीररस की कुछ घटनाओं पर विचार कीजिए। रामायण के लंकाकाण्ड के मूल में है शृंगारमयी श्रीसीतादेवी। श्रीरामचंद्र की, शृंगार की मूर्ति हर गई—कोमल भावना में वीर रस की प्रतिक्रिया होने लगी… उन्होंने अपनी शृंगार की मूर्ति का उद्धार किया। महाभारत के मूल में इस तरह द्रौपदी विराजमान हैं। न पाण्डवों की शृंगार-मूर्ति द्रौपदी का अपमान हुआ होता—न उनकी कोमलता की जगह को चोट पहुंची होती, न कीचक के वध से आरंभ कर दु:शासन के रुधिर से द्रौपदी के बालों के बांधने और दुर्योधन की जंघाओं के भग्न करने की प्रतिज्ञा हुई होती। यहां भी वीर को उत्तेजना शृंगार से ही मिल रही है। फिर देखिए महारानी पद्मिनी का इतिहास। एक शृंगार-मूर्ति की प्रतिक्रिया से कितना बड़ा वीर पैदा होता है। महावीर अमरसिंह ने भी यदि दूसरा विवाह न किया होता, अपनी शृंगार मूर्ति की उपासना में छुट्टी से कुछ दिन अधिक न गुजार दिए होते, तो शाही दरबार में अपूर्व वीरत्व को प्रदर्शित करने का उसे शायद ही मौका मिला होता। जो वीर है, वह भोगी अवश्य होगा। दो-एक आदर्श पुरुष महावीर और भीष्म की बातें और है, अस्तु।” (‘निराला रचनावली’, राजकमल प्रकाशन, भाग 5, पृ. 256)

कोई अंधा भी इसे देखकर बता सकता है कि अपनी परंपरा से, विशेषकर रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों से वीरता और शृंगार की परस्पर संबद्धता का उदाहरण निराला ने यहां दिया है। परंपरावादियों से बहस के दौरान इन्हीं ग्रंथों के उदाहरण प्रासंगिक हो सकते थे, क्योंकि आधुनिक रचनाशीलता पर तो आरोप ही लगाया गया था। अगर राम को वीरता का आदर्श बताने का अर्थ जनसाधारण के मुकाबले किसी ‘राजा’ का गुणगान करना है तो तुलसी के बारे में रामविलास शर्मा के विचारों से अवगत होना चाहिए। निराला के उद्धरण में आए कथित राजाओं में एक बात जो सबमें पाई जाती है, वह है उनका अन्याय के विरोध में उतरना और तकलीफें सहना। लेकिन आलोचक महोदय ने ठान रखा है कि वे निराला को उनके ‘भोग’ का दंड अवश्य देंगे।

इसी प्रकार ऊपर दिए अंश के एक अन्य उद्धरण में रामविलास शर्मा ने साफ तौर पर, जानबूझकर निराला के कथन को विकृत किया है। उन्होंने उद्धरण प्रस्तुत करके उसका जो स्पष्टीकरण दिया है उससे यह प्रतीत होता है कि निराला विलास के उपकरणों का वर्णन साहित्य में इसलिए कर रहे हैं ताकि ‘देश को उन्नत साबित किया जा सके’। एकबारगी यह लगता है कि निराला ने यहां लचर तर्क दिया है और किसी न किसी प्रकार सामंती विलासितापूर्ण साहित्य की वकालत की है। लेकिन इस नतीजे पर पहुंचने से पहले क्या हमें निराला के मूल कथन को एक बार नहीं देखना चाहिए? देखें…

बड़े आदमियों के घर के साज-सज्जावाले सामान आज तक भी गरीबों के दैन्य के कारण नहीं फूट सके, और इतिहास, पुरातत्व की एक साहित्य-शक्ति ने समय के वर्षा-शीत और धूप-छांह से इन्हें बचाने के लिए अपनी एक बांह भी इधर फैला दी है, अर्थात् सभ्यता के प्रमाण के लिए ये विलासोपकरण-घर-द्वार-मूर्ति-कृति- साजोसामान आदिदेश को उन्नत साबित करने के लिए सबसे जरूरी हो रहे हैं। इतिहास में सम्राट और राजे-महाराजे ही रहते हैं, सर्वसाधारण नहीं। फिर भाषा साहित्य के लिए सर्व-साधारणवाला कारण कहां तक सर्वमान्य कहा जा सकता है? हमारी हिंदी की इस दीनता की जड़ में भाषा की ही प्रथा की कमी है। यदि अधिकांश दरिद्रों के पास धन नहीं, तो धनिकों से जिस तरह यह कहना होता है कि तमाम दरिद्रों के बराबर धन रक्खो, बाकी उन्हीं में बांट दो, उसी तरह वैषम्य की दुनिया में बराबर समझ रखनेसमान भाषा का प्रयोग करने के लिए कहना है। इसे शक्ति का अपमान कहते हैं। ऐसी भाषा कोई भी साहित्यिक नहीं लिख सकता, जिसके शब्द कोष में न हों, जिसका शब्द-बंध व्याकरण-सम्मत न हो।‘’ (‘निराला रचनावली’, राजकमल प्रकाशन, भाग 5, पृ. 491)

इस मूल उद्धरण से यह बात असंदिग्ध रूप से जाहिर होती है कि साहित्य में अपनी मान्यता के समर्थन में निराला इतिहास-पुरातत्व जैसे भिन्न अनुशासनों की प्रणाली का उदाहरण दे रहे हैं। उनका आशय है कि अगर इतिहास के क्षेत्र में किसी देश के अतीत को उन्नत साबित करने के लिए उत्खनन आदि में मिले सुखभोग के उपकरणों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो वर्तमान के लिए सर्वसाधारण के नाम पर दैन्य और विपन्नता के आग्रह को कैसे स्वीकार किया जा सकता है। ध्यान दें कि यह पूरा विमर्श भाषा को लेकर है और निराला का तर्क वस्तुत: यह है कि सरलता और जनसुलभता के नाम पर साहित्य के भाषिक सौंदर्य और संश्लिष्टता की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती। उनका कहना है कि भाषा की उन्नत शक्तियों को जनता के लिए निषिद्ध करने के बजाय जनता को उसे हस्तगत करने के लिए आगे बढऩे की प्रेरणा देनी चाहिए। साहित्य का लक्ष्य अगर जनता की चेतना का विकास करना है तो यह लेखन के जनता की मौजूदा समझ और चेतना के अनुरूप होने के लोकप्रियतावादी आग्रह से कैसे हो सकता है। एक जगह वे इस आग्रह को गुलाम मानसिकता की देन मानते हुए कहते हैं…

आज हिंदोस्तान के वे गौरव के दिन नहीं रहे, इसलिए सिर उठाते वक्त सिर पर रक्खा हुआ सदियों की दासता का बोझ नीचे दबा देता है, और दुर्बल मनुष्य, शक्ति के अभाव के कारण, शक्तिवालों की बराबरी नहीं कर पाता— सिर झुका लेता है— वे कमजोरियां फिर उस समुदाय पर सवार हो जाती हैं।” (‘निराला रचनावली’, राजकमल प्रकाशन, भाग 5, पृ. 475, उद्धृत ‘साहित्य साधना’, पृ. 128,)

 

सरलता बनाम संश्लिष्टता की निरर्थक बहस

वास्तव में, प्रगतिवाद ने हिंदी में सरलता बनाम संश्लिष्टता की निरर्थक बहस को जन्म दिया है। सरलता पर इसका जोर इतना अधिक है कि लोग अब इस पर चुप रहना ही उचित समझते हैं। लेकिन निराला उनमें से नहीं थे। वे समझते थे कि सरलता का अतिरिक्त आग्रह जनसाधारण को उन्नत भाषाई और कलात्मक रचनाओं से दूर ले जाएगा और उनकी चेतना की अनुरूपता के आग्रह के चलते भाषा की शक्ति से उन्हें वंचित होना पड़ेगा। निराला गद्य को जीवनसंग्राम की भाषा कहते थे। वे इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते थे। ‘साहित्य और भाषा’ नामक निबंध उन्होंने इसी विषय पर लिखा था। इसकी शुरुआती पंक्तियां हैं…

भाषा-क्लिष्टता से संबंध रखनेवाले प्रश्न हिंदी की तरह अपर भाषाओं में नहीं उठते। हिंदी को राष्ट्रभाषा माननेवाले या बनानेवाले लोग साल में तेरह बार आर्त चीत्कार करते हैं…भाषा सरल होनी चाहिए, जिससे आबालवृद्ध समझ सकें। मैंने आज तक किसी को यह कहते हुए नहीं सुना कि शिक्षा की भूमि विस्तृत होनी चाहिए, जिससे अनेक शब्दों का लोगों को ज्ञान हो, जनता क्रमश: ऊंचे सोपान पर चढ़े।” (‘रचनावली’ भाग 5, पृ. 372)

जनता के नाम पर किया जाने वाला यह घोर मिथ्याचार है। वास्तव में जनता की समझ मे आ जाने, और उसे पसंद आ जाने को ही साहित्य का पैमाना बनाने का अनिवार्य नतीजा होगा… जनता को गीतों की अतीतोन्मुखता के हवाले करके उच्चवर्ग को हर प्रकार के उन्नत और संश्लिष्ट कलारूप का एकमात्र हकदार स्वीकार कर लेना। यह रवैया जनवाद के नाम पर व्यवहार में अभिजनवाद का पोषण करता है। रचनाकार के कोण से देखने पर यह अभिव्यक्ति को संप्रेषण के मातहत रखने की वकालत करता जो स्वयंसिद्ध रचनाविरोधी दृष्टिकोण है। इसी निबंध में तुलसी, सूर, कबीर, बिहारी, गालिब आदि महाकवियों की काव्यगत क्लिष्टता का उदाहरण देते हुए निराला आगे कहते हैं…

बड़े-बड़े साहित्यिकों ने प्रकृति के अनुकूल ही भाषा लिखी है। कठिन भावों को व्यक्त करने में प्राय: भाषा भी कठिन हो गई है। जो मनुष्य जितना गहरा है, वह भाव तथा भाषा की उतनी ही गम्भीरता तक पैठ सकता है, और पैठता है। साहित्य में भावों की उच्चता का ही विचार रखना चाहिए। भाषा भावों की अनुगामिनी है। जनता को तरह-तरह की अहितकर अनुकूल सीख न देकर कुछ परिश्रम करने के लिए ही कहना ठीक होगा।” (‘रचनावली’ भाग 5, पृ. 374)

इस प्रकार हमने देखा कि सर्वसाधारण के नाम पर दैन्य और विपन्नता के आग्रह को निराला बिल्कुल जायज वजहों से ठुकराते हैं, और इसके पीछे किसी प्रकार का सामंती दबाव नहीं है। लेकिन रामविलास शर्मा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने पहले ही ‘प्रकृति और ऐश्वर्य शक्ति’ को एक दूसरे का पर्याय घोषित कर रखा है। अब उन्होंने ऐश्वर्य को सामंती या दरबारी विलास का समर्थक घोषित कर दिया है। इस तरह उन्होंने अपने तथाकथित प्रकृति अद्वैत की पोल खोल दी है। इस प्रकार आलोचकप्रवर ने ‘ऐश्वर्यशक्तिवाले प्रकृति अद्वैत’ का संबंध भोगवाद के माध्यम से सामंती शक्तियों से जोड़ दिया है। सवाल यह है कि अगर यह ‘प्रकृति अद्वैत’ ‘अधिक वैज्ञानिक और क्रांतिकारी’ था तो अचानक सामंती और दरबारी कैसे हो गया। रामविलास शर्मा इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं देते। हम जानते हैं कि आधुनिक युग में समाज पारलौकिकता से इहलौकिकता की ओर, भाववाद से भौतिकवाद की ओर, तथा धर्म से विज्ञान की ओर उन्मुख होता है। निराला के विचारों में यह परिवर्तन ब्रह्मकेंद्रित विचारधारा से संसारकेंद्रित विचारधारा की ओर अग्रसर होने के रूप में दिखाई पड़ा था। आधुनिक साहित्य के केंद्र में पहले देवता अपना देवत्व छोड़कर सामान्य मानवीय गुणों से युक्त होकर आते हैं, फिर वे सचमुच के मनुष्यों के लिए जगह खाली कर देते हैं। तभी सामान्य मानवीय इच्छाओं और क्रियाकलापों को वह महत्व मिलता है जो कभी दैवी कृत्यों को मिला करता था। साहित्य का एक शाश्वत विषय स्त्री-पुरुष का प्रेम है। सामंती युग में इसका चित्रण वायवीय या ‘प्लैटोनिक’ प्रेम के रूप में ही हो पाता था। लेकिन आधुनिक युग में इसकी भावप्रवणता के साथ-साथ इंद्रिय-संवेदनात्मक रूपों के चित्रण को ही यथार्थ और मानवीय कला कहा जा सकता है। इहलौकिकता और भौतिकता की तरह ऐंद्रियता भी कला के क्षेत्र में आधुनिकता के प्रोजेक्ट का अविभाज्य अंग है। इनमें से किसी भी एक चीज को छोडऩे का मतलब है पूरे प्रोजेक्ट को छोड़कर सामंती प्रवृत्तियों की तरफदारी करना।

यहां रामविलास शर्मा ठीक यही काम कर रहे हैं। निराला घनघोर भाववादी दबाव के बावजूद अपने कठोर आत्मसंघर्ष के माध्यम से, भोग और त्याग की पुरानी शब्दावली में ही सही, मानवीय प्रेम के यथार्थ शारीरिक रूप तक पहुंचते हैं, लेकिन रामविलास शर्मा बिल्कुल नाजायज तरीके से, साहित्य में भाषा और भाव की उन्नति के लिए दिए गए उनके उचित तर्क की मनमानी विकृत व्याख्या करते हुए सामंती भोग-विलास का समर्थक सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। प्रश्न है, ऐसा करना उनके लिए क्यों आवश्यक था। क्योंकि ऐसा करना वर्णव्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक था। पिछले अध्याय में निराला के संसार-प्रकृति-केंद्रित विचारों को निस्तेज करने के लिए उन्होंने उसे ‘प्रकृति अद्वैत’ जैसा फर्जी नाम दिया था। अब वे अनेक कुतर्कों के सहारे उस विचार को सामंती, और अद्वैतवाद को आधुनिक साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। खास बात यह है कि ऐसा वे प्रगतिवादी मान्यताओं के माध्यम से कर रहे हैं। एक और उद्धरण देखें…

इसके विपरीत दूसरी मान्यता है जो प्रकृति अथवा माया का संबंध मानव करुणा से जोड़ती है, जिसके अनुसार इतिहास में राजाओं का ऐश्वर्य तो है किंतु उसका आधार जनसाधारण का उत्पीडऩ है, इस मान्यता के अनुसार प्रगतिशील विचारक का लक्ष्य होना चाहिए सामाजिक क्रांति और उसी के अनुरूप साहित्य का विकास।।” (‘साहित्य साधना’, पृ. 128-29)

रामविलास शर्मा यहां कहना चाहते हैं कि कथित ‘प्रकृति अद्वैत’ की एक शाखा सामंती प्रवृत्तियों के प्रति मोहग्रस्त करती है, और दूसरी शाखा समंतवादविरोधी बनाती है। हमने पहले यह देखा है कि जिन तर्कों के आधार पर वे निराला को राजाओं के भोगविलास के प्रति मोहग्रस्त बताते हैं, वे उनकी कुटिलता के नमूने हैं। वे खुद सामंती वर्णव्यवस्था के समर्थक हैं और निराला के आधुनिकता की ओर उन्मुख विचारों को लांछित करने के लिए उन्होंने ये सारे शीर्षासन किए हैं। पूरा मसला संश्लिष्ट आधुनिक युग के अनुरूप उतने ही संश्लिष्ट मनोभावों को कला में व्यक्त करने की अनिवार्यता, और इसके अनुरूप कलारूपों की ओर जनता को उन्मुख करने का है। निराला के संघर्षपूर्ण जीवन का यह भी एक महान वैचारिक उद्देश्य था, जिसके लिए वे आजीवन सन्नद्ध रहे। इस मामले पर थोड़ा ठहरकर विचार करने की जरूरत है। पहले रामविलास शर्मा के पक्ष को देख लें। निराला की कथित सामंती प्रवृत्ति के विरोध में उन्हीं की ‘दूसरी’ तर्कप्रणाली की सूचना देते हुए आलोचकप्रवर ने उनको उद्धृत किया है…

मजदूर और साधारण लोगों का पक्ष क्यों लिया जाए, जब हम यह विचार करेंगे, तब इसी से उच्चता साबित हो जाएगी। मजदूरों का पक्ष इसीलिए तो लिया जाएगा कि मजदूरों के साथ न्याय हो. उन्हें पेट भर खाने को मिले, कष्ट के दिनों के लिए कुछ रखने को भी बच जाए, वे शिक्षित हों, समाज, देश, जाति तथा संसार के साथ मिलें, उससे सौहार्द करें। यहां इतने से ही देखिए, कला चढ़ती जा रही है—विकसित होती जा रही है, और बड़ी से बड़ी विशालता में परिणत। फिर यदि आज का कोई कवि या साहित्यिक प्रकृति की किसी साधारण वस्तु या विषय को इसी प्रकार परिपुष्ट करता हुआ कला का विकास दिखलाए, तो क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि इस कार्य से आपके उस कार्य का साम्य न हुआ ? ” (‘सुधा’, 16 जून, ’34 संपा. टि.- 1 ),” (‘साहित्य साधना’, पृ. 130)

कोई भी देख सकता है कि यहां निराला कला के विकास की अपनी मूल अवधारणा के समर्थन में सिर्फ एक और तर्क दे रहे हैं। रामविलास शर्मा की तर्कप्रक्रिया में पुरातात्विक उत्खनन में मिलनेवाले विलासिता के उपकरणों के माध्यम से कला के विकास की आवश्यकता की चर्चा करना सामंती भोग-विलास का समर्थक बना देता है, और मजदूर के जीवन के उदाहरण से उसी बात को कहना जनवादिता का झंडाबरदार बना देता है।

बहरहाल, यह पेशबंदी कर लेने के बाद रामविलास शर्मा के सामने कोई दुविधा नहीं रह जाती। निराला के लेखन में जनजीवन के समर्थन में जो कुछ भी है, उसे वे ‘ऐश्वर्यशक्ति वाले अद्वैत’ के विरुद्ध संभवत: ‘प्रगतिवादी’ अद्वैत के रूप में प्रदर्शित कर सकते हैं। इस तरह अपने मनचाहे निष्कर्ष तक पहुंचकर, और उसे बार-बार दुहराकर वे उसे अपने पाठकों के दिमाग में कूटकूट कर बिठाने का प्रयत्न करते हैं। इसके कुछ उदाहरण इसी प्रसंग से देखते चलें…

साहित्यकारों के सामने दो ही रास्ते हैं, स्वयं झोपडिय़ों में रहते हुए वे दूसरों के विलास-वैभव के सपने देखें या फिर उनसे नाता जोड़ें जो उन्ही की तरह अभावग्रस्त और अपमानित हैं। निराला इन दोनों रास्तों पर चले थे और उनकी जागरूकता का यह प्रमाण है कि वे इन दोनों रास्तों के बीच में जो फासला है, उसे पहचानते थे।

‘’अंतर्विरोध तो बहुत साहित्यकारों में होते हैं किंतु उन्हें देखने वाली निराला की सी साफ दृष्टि कम ही में होती है। उचित है कि भारत के अभावग्रस्त, स्वाधीनचेता साहित्यकार क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलनों का साथ दें। …यह सही है कि समाज में ऐश्वर्य नहीं है, कम से कम उनके पास नहीं है जो दैनिक जीवन की साधारण आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर सकते। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि लेखक कल्पना जगत् में घूमे और वहां विलास-वैभव के महल खड़े करे क्योंकि ‘उपन्यास वास्तविक जीवन के चित्र रखता है।’ …क्रांति की ओर उन्मुख प्रकृति-अद्वैत से जो दूसरी साहित्य संबंधी मान्यता फूटती है, वह यह है।’ (‘साहित्य साधना’, पृष्ठ 131-32)

कुलमिलाकर यह कि निराला के इन दो पक्षों की बात करके उनमें से एक को सराहनीय घोषित करना कुछ वैसी ही बात है जैसे किसी के बारे में यह कहा जाए कि वे अपने जीवन में अधिकांशत: तो लोकतांत्रिक रहते हैं लेकिन कभी-कभी जातिवाद कर लेते हैं, या वे प्राय: देशभक्त रहते लेकिन कभी कभी देशद्रोह भी कर लेते हैं।

रामविलास शर्मा कैसे अवसरवादी ढंग से निराला के विचारों का उपयोग करते हैं, इसका बस एक नमूना और देखते चलें, जहां वे जनता की भौतिक समृद्धि की मांग करने वाले निराला का समर्थन करते हुए उन्हें ‘अन्य वेदांतियों’ से अलग बताते हैं—”निराला और अन्य वेदांती क्रांतिकारियों में अंतर यह है कि निराला भौतिक समृद्धि को वांछनीय समझते हैं। व्यापार, उद्योगीकरण, अन्य देशों से आर्थिक संबंध ये सब निराला के चिंतन में सफल क्रांति के अंतर्गत हैं। उनका एक गीत है-

जागो, जीवन-धनिके !/ विश्व-पण्य-प्रिय वणिके ! (गीतिका, पृ. 15)

धनिका, वणिका, विश्व-पण्य …गीत के ये शब्द सार्थक हैं। समृद्धि की इस देवी से निराला की प्रार्थना है कि यह जनता के लिए ‘बहु जीवनोपाय’ प्रस्तुत करे। जीवनोपाय जुटाने के लिए विश्व पण्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है। लोग कहते हैं कि सरस्वती और लक्ष्मी में वैर है किंतु निराला इस वैर-भाव की धारणा को स्वीकार नहीं करते।” (‘साहित्य साधना’, पृ. 159)

यानी हैं तो वेदांती ही, हां, दूसरों से भिन्न हैं। यहां आकर वे निराला के विज्ञान को भी वेदांती मानने में सफल हो जाते हैं—”आधुनिक विज्ञान से पूर्ण लाभ उठाते हुए भारत का विकास हो, निराला की यह धारणा विश्व-पण्य वाली कल्पना के अनुरूप है- औद्योगिक विकास न होगा, दुनिया से व्यापार संबंध कैसे कायम होंगे ?” (वही)

गांधीवाद से निराला का मतभेद वैज्ञानिक साधनों के उपयोग को लेकर है। साथ ही वह वैज्ञानिक साधनों का उपयोग ‘सब के लिए’ चाहते हैं, मु_ीभर पूंजीपतियों के लिए नहीं। उनका यह विचार कि सारी संपत्ति देश की हो—इस धारणा के अनुरूप है। निराला पूंजीपतियों को जनता की संपत्ति का संरक्षक नहीं मानते। वह संपत्ति के—बड़े उद्योग-धंधों के… राष्ट्रीयकरण के पक्ष में हैं – देश को मिल जाय वह पूंजी तुम्हारी मिल में है। (‘बेला’, पृ. 75)” (‘साहित्य साधना’, पृ. 161)

निराला को नए युग का अनूठा चिंतक कवि घोषित करते हुए रामविलास शर्मा उन्हें ‘सामंती-पूंजीवादी वर्ग-उत्पीडऩ’ का विरोधी तो बताते हैं, लेकिन इस प्रसंग में वर्ण-उत्पीडऩ का जिक्र करना ‘भूल’ जाते हैं—”निराला का क्रांतिकारी दृष्टिकोण उन संकीर्ण राष्ट्रवादियों से भिन्न है जो भारत की उपासना करते हुए भारतीय जनता का दुख-दर्द भूल जाते हैं, जिन्हें सामंती-पूंजीवादी उत्पीडऩ दिखाई नहीं देता, जो देश के विकास के लिए समाजवाद को अनावश्यक समझते हैं। निराला जिस क्रांति का स्वप्न देखते हैं, उसकी परिणति वर्ग-उत्पीडऩ को समाप्त करके समाजवादी व्यवस्था की रचना में है। स्वभावत: संकीर्ण राष्ट्रवादी न होकर निराला रंग, जाति, भाषा से परे मनुष्यमात्र के बंधुत्व की घोषणा करते हैं।”

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