प्रतीक बनाम राजसत्ता : प्रतीकों का अभिप्राय कला-कर्म या ललित कलाओं से

Share:

– गोपाल नायडू

 

हर काल में राजसत्ता प्रतीकों को लेकर खेल खेलती है और अपने हित में, अपनी सुविधा से उनका इस्तेमाल करती है। कई दफा उनका संदर्भ बेहतर होता है, तो कई बार बदतर। मौजूदा दौर के सत्ताधीश जनसंघर्ष, कला/स्थापत्य, साहित्य, इतिहास आदि में जन भागीदारी से स्थापित प्रतीकों को उलट-पलट रहे हैं, ताकि इन प्रतीकों से जुड़े  काल, नामों और उनके महत्व व औचित्य को भुला दिया जाए।

 

अनायास नहीं कि एक लंबे अंतराल के बाद फिर से कला, साहित्य और इतिहास, आदि के प्रतीकों के इस्तेमाल पर काफी चर्चा हो रही है। यह चर्चा सिर्फ अभिजात गलियारों में नहीं, जनता के बीच तक पहुंच गई है। इन प्रतीकों के इस्तेमाल को लेकर कई संदर्भ उभर रहे हैं। यह नई बात नहीं है, क्योंकि हर काल में राजसत्ता प्रतीकों को लेकर खेल खेलती है और अपने हित में, अपनी सुविधा से उनका इस्तेमाल करती है। कई दफा उनका संदर्भ बेहतर होता है, तो कई बार बदतर। मौजूदा दौर के सत्ताधीश जन संघर्ष, कला/स्थापत्य, साहित्य, इतिहास, आदि में जन भागीदारी से स्थापित प्रतीकों को उलट-पलट रहे हैं, ताकि इन प्रतीकों से जुड़े काल, नामों और उनके महत्व व औचित्य को भुला दिया जाए। सीधा-सा गणित है कि जो प्रतीक जन संघर्ष और जन भागीदारी से अस्तित्व में आए हैं, उनके काल या महत्व को लोक स्मृति से ओझल करने के लिए प्रसंग से परे ‘नई’ कथाएं गढ़ी जाएं। लिहाजा, छलावे की तरकीबों से प्रतीकों के करतब में जनमानस को उलझाया जा रहा है।

पूरी दुनिया की तरह हमारे देश में भी ऐतिहासिक प्रसंगों से प्रतीक उभरे, जिनमें जनता की सीधी भागीदारी थी। चाहे वह कला हो, साहित्य या इतिहास; ये प्रतीक अस्तित्व में आए। विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, संस्थानों, म्यूजियम, मैदानों, सड़कों, दीवारों समेत जगह-जगह पर ये प्रतीक लोक समझ के वितान थे। यह कहने की बात नहीं कि नामों, तस्वीरों, शिल्प अथवा किसी अन्य रूप में ये प्रतीक तत्कालीन समय और स्थान (टाइम एंड स्पेस) में ले जाते हैं, ताकि समाज उसकी मीमांसा और आत्मावलोकन कर सके। प्रतीकों के मार्फत हम जानते हैं कि कैसे अंतत: मानवता का परचम बुलंद रहा है, विद्रोही रूमानीवाद और यर्थाथवाद भी उनके अंदर जीवित बचा है। प्रतीकों की यात्रा ने समाज में जारी महत्वपूर्ण परिवर्तनों में ऐतिहासिक भूमिका अदा की है।

 

प्रतीकों की लड़ाई

प्रतीकों की लड़ाई में हमेशा सत्ता एक बड़ा कारक रही है। हर ‘समय और स्थान’ में सत्ता का चरित्र कैसा है, यह प्रतीक के जरिये देखा जा सकता है। इससे पैदा होने वाला विमर्श तय करेगा कि आने वाला समाज कैसा होगा? यह भी तय करेगा कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दिशा क्या होगी। लिहाजा, कहा जा सकता है कि यह प्रश्न जितना राजनीतिक है, उतना ही नैतिक और सांस्कृतिक भी है।

8 सितंबर, 2022 को दिल्ली में जिस वाकये को इतिहास के प्रतिबिंब की तरह पेश किया जा रहा है, वह मामूली घटना नहीं है। राजधानी में दो महत्वपूर्ण प्रतीक सड़कों के नाम के तौर पर थे। इनमें एक का नाम ‘राजपथ’ और दूसरी का ‘जनपथ’ था। सत्ताधीशों ने राजपथ का नाम बदलकर ‘कर्तव्यपथ’ कर दिया। उसी राजपथ पर पत्थर से निर्मित खाली छतरी थी, जिसमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा लगा दी गई। उस छतरी के नीचे कभी ब्रिटेन के सम्राट की प्रतिमा हुआ करती थी। आजादी पाने के बाद उस प्रतिमा को हटा दिया गया, क्योंकि स्वतंत्र भारत में वहां रखने का कोई औचित्य नहीं था। लेकिन, छतरी को खाली रखने का मकसद था कि आने वाली पीढ़ी को मालूम हो सके कि हमने आजादी किससे, कैसे हासिल की है। कभी-कभार उस छतरी में महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित करने की बात होती रही, तो उसे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर उनके उत्तराधिकारी तक खारिज करते रहे। उस खाली छतरी को औपनिवेशिक यादगार के रूप में देखे-समझे जा सकने के ख्याल से ही यह किया गया। उस छतरी को देखकर भारतीय समाज हमारे आजादी के संघर्ष से रू-ब-रू होता कि कैसे हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया, कैसे आजादी हासिल की और किसे बेदखल करके हमने आजाद देश पाया है। वह इतिहास का प्रतीक थी, औपनिवेशिक दुनिया की प्रतीक थी। लेकिन, उसी छतरी के भीतर उस सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा लगा दी गई, जिन्होंने पूरे साम्राज्य के खिलाफ सैन्य उभार खड़ा कर दिया था। इस सत्ता ने नेताजी की आड़ में नई कथा के साथ नए प्रतीक का निर्माण किया। प्रधानमंत्री ने इसे गुलामी को तोडऩा करार दे दिया, पर नेताजी के विचारों की कोई चर्चा नहीं की। यह बदलाव कितना नृशंस है कि यह तथ्य दफन कर दिया गया कि सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के नेता थे।

 

अंधी सुरंग और बर्बरता का रास्ता

पुराने प्रतीक की जगह नए को रखने का मकसद साफ है कि कैसे इतिहास के साथ जंग लड़ी जा रही है। इस घटना से ऐसी अंधी सुरंग खुली है, जो हमें बर्बरता की ओर ले जा रही है। वह समय आ गया है, जब खूंखार ठग हिंसा का आनंद लेते हैं। उनके कारिंदे अपनी सनक के बल पर हत्या, मानसिक और शारीरिक उत्पीडऩ करते हैं। यह हिंदुत्व की प्रयोगशाला का नया उत्पाद है, जिसका धर्मध्वज और राजध्वज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में मौजूदा राजसत्ता लेकर चल रही है।

किसी प्रतीक के ध्वंस और स्थापना से पहले होना यह चाहिए कि इतिहास को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए, समझा जाए, बातचीत की जाए। लेकिन मौजूदा सत्ताधीशों का मानसिक स्तर सभ्यता के उस पड़ाव पर नहीं पहुंचा है। नतीजतन नई पीढ़ी इसे प्रतीक के बजाय एक मूर्ति समझकर आगे बढ़ जाएगी, बिना किसी चिंतन के। वे प्रधानमंत्री की पार्टी और उसके पितृ संगठन की राजनीतिक कार्रवाई के बजाय इसे गुणगान का जरिया समझेंगे। वे नहीं समझ पाएंगे कि कैसे इस प्रतीक के ध्वंस के जरिये फासीवादी निजाम ने लोकतांत्रिक संस्थानों और सत्ता में जनता की भागीदारी को दरकिनार करने का सिलसिला जारी रखा है।

राजपथ को ‘कर्त्तव्य पथ’ करने की मंशा को समझना होगा। यह प्रतीक भगवद गीता से लिया गया है। गीता में कहा गया है ‘कर्म ही कर्तव्य’ है। यहां प्रतीक की पहचान और स्थिति बदल जाती है। कर्तव्य को कर्म से जोड़ दिया गया है। उसे एक ‘हिंदू प्रतीक’ का रूप दे दिया गया है। यह समझना होगा कि यह प्रतीक क्यों स्थापित किया गया है? इसके पीछे क्या उद्देश्य है। यह देश और जनता के मानस को सनातनी युग में ले जाने की प्रक्रिया का प्रतीक है। प्रतीक इतिहास के वाहक हैं। उनके मार्फत लोग इतिहास को जानते-समझते हैं। उनकी अतीत को लेकर समझ बनती है। इतिहास अच्छे और बुरे, सही-गलत की समझ देता है। उससे जुड़े प्रतीक को अतार्किक कारण देकर नष्ट कर देना किसी भी देश के भविष्य पर बुरा प्रभाव डालता है।

इस संदर्भ में एक घटना याद हो आती है। जब रूस आजाद हुआ, तो लोगों ने कहा कि जार के समय की पुरानी मूर्तियां तोड़ दी जाएं। तब लेनिन ने कहा, ”उन्हें कैसे हटाया जा सकता है? क्रांति के दौर में हम लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, इसकी जानकारी आने वाली पीढ़ी को कैसे होगी? इतिहास को संजोये रखने के लिए लेनिन ने उन मूर्तियों को संग्रहालय में रखा, ताकि इतिहास की झांकी भविष्य में भी रहे। वह संग्रहालय अब भी मौजूद है, जो नई पीढिय़ों को जार युग तक ले जाता है।

लेकिन, हमारे देश के नए सत्ताधीशों का मंसूबा इतिहास को बदलना है। वे उसे मिटाकर नया इतिहास रचने के कोई सबूत नहीं छोडऩा चाहते। हिंदू राष्ट्रवादियों कि सोच और तर्क यही है कि भारतीय समाज में रहने वाले औसत नागरिक को मनु को इतिहास का प्रथम पुरुष मानना चाहिए। वे मनवाना चाहते हैं कि भारतीय मनु की संतान हैं और उसकी वर्ण-व्यवस्था आदर्श समाज व्यवस्था है। इस आदर्श व्यवस्था को दूषित करने वाले मुसलमान और ईसाई हैं। यह प्रतीक हिंदू राष्ट्रवादियों ने अरसा पहले गढ़ दिया था। मसलन, विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी एक पुस्तक ‘भारत के छह शानदार युग’ में साफ-साफ कहा है, ”मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करना उचित है। लेकिन जब ऐसा अवसर आए, पर ऐसा नहीं किया जाता है, तो वह सदाचार या उदारता नहीं, कायरता होगी। बलात्कार को औजार के रूप में देखा जाए।” मौजूदा दौर में यह औजार खूब अमल में लाया जा रहा है। नया इतिहास रणभूमि के बजाय बलात्कार के मार्फत लिखा जा रहा है। बेहतर दुनिया के लिए गढ़े गए प्रतीकों को हिंदूवादी सत्ता गिरा देना चाहती है, क्योंकि प्रतीकों से ही सभ्यता बनती है।

सैमुअल हंटिंगटन ने कहा है, ”प्रत्येक सभ्यता का अपना अनोखा प्रजातिगत समूह और सांस्कृतिक पहचान होती है, इसलिए सभ्यताओं का संघर्ष इतिहास के अनिवार्य प्राथमिक संघर्ष होते हैं।”

हमें मानकर चलना चाहिए कि नव हिंदूवादी प्रतीकों के खिलाफ संघर्ष नहीं किया गया तो नतीजा फासीवाद के रूप में निकलेगा। मौजूदा सरकार प्रतीकों को लगातार बदल रही है। सड़कों के नाम बदलना, नई प्रतिमाएं स्थापित करना, आदि बदस्तूर जारी है। इसका अर्थ जनता को विशेष वर्ग की सेवा में बनाए रखना है। ये प्रतीक हमें ‘मनुस्मृति’, ‘गीता’ की ओर ले जाते हैं। ये सोचे-समझे कदम हैं, जो हिंदू राष्ट्रवादी वर्ण श्रेष्ठता के आधार तय करते हैं और उन्हें सही ठहराते हैं। संसद भवन के ऐन सामने बन रहा ‘सेंट्रल विस्टा’ देश की सर्वोच्च पंचायत के बजाय राष्ट्रवादी श्रेष्ठता का प्रतीक है, जिसका काम औपनिवेशिक भाषा और स्थापत्य के बिना नहीं चलता है। उसमें लगाए गए राष्ट्रीय प्रतीक यानी अशोक की लाट (स्तंभ) के त्रिआयामी सिंह अब ‘भाव’ के हिसाब से शांति के बजाय युद्ध के प्रतीक बन गए हैं।

कलिंग युद्ध में हुई घोर हिंसा के बाद सम्राट अशोक ने उन्हें अहिंसा का प्रतीक बनाया था। अशोक की लाट देश में कई जगहों पर स्थापित की गईं। सेंट्रल विस्टा के सिंह सारनाथ के सिंहों से अलग हैं। वे शांति के बजाय हिंसा के प्रतीक बन गए हैं।

इस पर कुछ प्रश्न लाजिमी हैं, जो कला से संबंधित हैं।

मसलन कला के क्षेत्र में ‘प्रतीकों की प्रतिकृति’ और ‘प्रतीकों में रचनात्मक मूल्यों’ की मीमांसा की गई है। प्रतिकृति और प्रतीकों में रचनात्मक मूल्यों का अंतर और विभेद पर विमर्श है। इससे देश की जनता को अवगत होना चाहिए। कोई कलाकार अगर किसी ऐतिहासिक प्रतीक की प्रतिकृति बना रहा है तो उसे, उसे गढऩे में कोई रचनात्मक आजादी नहीं मिल सकती। वह प्रतीक के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता। प्रतीक का निर्माण हु-ब-हू वैसा ही होना चाहिए, जैसा इतिहास में रचा गया है। तब प्रतीक के साथ रचनात्मक मूल्यों का सृजन हुआ होता है। प्रतीक के गुणधर्म को देखना जरूरी है और समझना भी। प्रतीक की प्रतिकृति के निर्माण और प्रतीक के रचनात्मक मूल्यों के विभाजन के कई स्तर हो सकते हैं। लेकिन, जरूरी आयाम कुछ इस तरह हैं।

आम तौर पर प्रतीकों का अभिप्राय कला-कर्म या ललित कलाओं से है। कुछ लोग प्रतीकों को आस्था या भावना से जोड़ देते हैं। लेकिन, वे यह स्वीकार नहीं करते की वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष राजनीति के साथ-साथ भी सांस्कृतिक कर्म भी है। यह एक प्रतीक है। लेकिन इस संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण और जटिल रूप सभ्यताओं के संघर्ष में नहीं, बल्कि विचारधाराओं के संघर्ष में अभिव्यक्त होता है। विचारधाराओं से निर्मित प्रतीकों की बानगी ‘प्रेरक तत्व के रूप’ में देखी जा सकती है। वहीं फासीवादी राजनीति की भी एक बौद्धिक संस्कृति है। वे इसके मार्फत प्रतीकों की मीमांसा करते हैं। उसका सबसे विकृत रूप हमारे देश में जाति और धर्म है। यह मानवद्वेषी विचारधारा है। वे मानकर चलते हैं कि कुछ मानव जातियां दूसरों के मुकाबले हीन और कमजोर हैं। ऐसे लोग हमेशा उन प्रतीकों को सामने लाते हैं, जिससे विशेष धर्म और जाति का वर्चस्व बना रहे। इस वर्णवादी अथवा हिंदू राष्ट्रवादी आंच में पके प्रतीक लूट और कत्लेआम, जनता के जीवन, उनके संघर्षों और भविष्य की अभिव्यक्ति को खत्म कर देते हैं। यही तर्क हिंदू राष्ट्रवादियों का है। यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की फासीवादी प्रवृत्ति का प्रतीक है। ऐसे विचारधारा के लोग एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति, एक प्रजाति और एक राष्ट्र जैसे मुद्दों को विमर्श का केंद्र बनाते है। फिर चाहे झूठ का सहारा लेना क्यों न पड़े।

विख्यात शिल्पकार रामकिंकर बैज और गुजरात में निर्मित सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी, के शिल्प में हम रचनात्मक प्रतीक और प्रतीकों की प्रतिकृति का भी अवलोकन कर सकते हैं। शांति निकेतन में रामकिंकर बैज ने ‘गांधीजी’ की विशाल प्रतिमा बनाई है। गांधीजी चल रहे हैं और उनके पैर के नीचे एक मानव का सिर है। बैज पर सुप्रसिद्ध फिल्मकार ऋत्विक घटक ने वृतचित्र भी बनाया है। उस वृतचित्र में बैज गांधीजी की प्रतिमा के संदर्भ में कहते हैं, ”गांधी के पैर के नीचे एक मानव सिर को भी उकेरा है…वह इसलिए की महापुरुष आंधी की तरह आते हैं और तूफान की भांति आगे कूच कर जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि शोषित-दमित लोग वहीं के वहीं गुजर-बसर करते रहते हैं।” गांधीजी की कलाकृति में इस तरह का प्रतीक विचार की ओर ले जाता है और आम लोगों को सोचने पर विवश करता है। इस कृति को देखकर डॉ. आंबेडकर के गांधीजी बारे में कहे वे वाक्य याद आ जाते है, ”गांधीजी जैसे महापुरुष तूफान की तरह आते हैं और अपने पीछे धूल उड़ाकर चले जाते हैं। आम लोग की स्थिति जस की तस बनी रहती है।” यही आकलन प्रतीकों की प्रतिकृतियों के संदर्भ में भी किया जा सकता है। जैसे सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी, जिसे देखकर यह आभास होता है कि वह सरदार पटेल की किसी प्रतिमा या तस्वीर की प्रतिकृति है। कलाकार ने प्रतिमा को हू-ब-हू गढ़ा है और अहसास होता है कि सरदार पटेल आपके समक्ष जीवित रूप में उपस्थित हैं। यह प्रतिकृति है। फिर भी शिल्पकला की अप्रतिम निशानी है। लेकिन, अशोक की लाट के सिंहों की सेंट्रल विस्टा में रची गई प्रतिकृति हू-ब-हू नहीं है।

रचनात्मक प्रतीक और प्रतीकों की प्रतिकृति के इतिहास की परिकल्पना को विज्ञान और प्रौद्योगिकी (कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर) के परिप्रेक्ष्य के आधार पर देखना चाहिए। मसलन, आज से 100 साल पहले कलाकार जब किसी कृति को बनाते थे तो हू-ब-हू रचते थे। आज के दौर में वहीं कलाकार उस कृति के निर्माण के दौरान आधुनिक विचार, मनोविज्ञान, समाज और राजनीति शास्त्र को भी ध्यान रखकर सृजन करता है। हम इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं : अगर ‘शक्कर’ को कैनवास पर उकेरना है, तो राजा रवि वर्मा के समय में कलाकार शक्कर के हू-ब-हू दाने कैनवास पर उकेर देगा। लगेगा कि सामने शक्कर रखी है। आधुनिक दौर में कलाकार शक्कर के दाने का गुण-धर्म और उसके रंग को आधार बनाकर पेंटिंग को रचेगा। यानी सफेद रंग और शक्कर के गुण को तवज्जो देगा। सफेद रंग शांति का प्रतीक है। शक्कर का गुण मिठास है। वह इसे आधार बनाएगा। इसीलिए सुप्रसिद्ध पेंटर पाब्लो पिकासो ने शांति के प्रतीक के रूप में सफेद कबूतर को उकेरा था। इस तरह ‘आकार’ की जगह ‘गुण’ और ‘स्थूलता’ के स्थान ‘सूक्ष्मता’ ने ले ली है। जाहिर है रचनात्मक प्रतीक और प्रतीकों की प्रतिकृति में बदलते समय और काल का ठहराव और परिवर्तन है। यह पल सृजनशीलता की ऊंचाई और कल्पनाशीलता का समय है। प्रतीक सामाजिक संघर्ष का एक हिस्सा है। इस संघर्ष में वह आनंद, आक्रामकता, इच्छा, कोमलता, शक्ति, सनकीपन, भय, रीति-रिवाज आदि को अन्य गुणों/भावों के साथ साझा करता है। कला का स्वरूप सुंदर, मनोरंजक या रोमांचक, परिवर्तन, आदि के रूप में है। यह सोच गलत और अस्वीकार्य भी हो सकती है। यह सामाजिक संदर्भ पर निर्भर करेगा. यह देखना होगा कि प्रतीक से प्राप्त होने वाले अनुभव क्या हैं? क्या प्रतीक जीवन में मूल्यवान है? क्या प्रतीक जीवन में गहरा और व्यापक आयाम दे सकता है? यह प्रक्रिया बहुत धीमी गति से चलती है और नजर नहीं आती है।

यह महत्वपूर्ण है कि कलाकार सही राजनीति और सामाजिक स्थितियों के संदर्भों को कैसे उकेरता और साथ ही किस तरह गैरजरूरी चीजों से बचने के लिए संकेत देता है। चूंकि, मौजूदा स्थिति अजीब और भयावह है। हम देख सकते हैं कि कई समुदायों के बीच भयंकर टकराहट है। यह अलग-अलग जगह धर्म, जाति, भाषा, भौगोलिक के आधार पर श्रेष्ठता के लिए हो सकती है। जाहिर है, प्रतीक के आनंद की स्थिति कब, कैसे, किन लोगों के साथ और किस रूप में, कीमत पर पनपेगी या पनप रही होगी, ठीक-ठीक से इसका अंदाज लगाना जटिल है, लेकिन असंभव नहीं है। इसी वजह से प्रतीक को ‘द्वंद्व’ का संघर्षस्थल’ भी कहा जा सकता है।

रचनात्मक अवधारणाओं की चिंताओं के विभिन्न पहलू हो सकते हैं। इसे चिह्नित भी किया जा सकता है। मसलन, दर्शन, विज्ञान, राजनीति,समाजशास्त्र, रीति-रिवाज, संस्कृति, कला-साहित्य आदि; और इन सबके बीच मनुष्य की चिंता ऐसे प्रतीकों की तलाश करती है, जो बताए कि कैसे जिया जाए या जीने के लिए लगातार आ रही चुनौतियों का समाधान कैसे खोजा जाए? उसकी चिंता एक भरोसेमंद सिद्धांत को हासिल करने की होती है, जिसमें वह एक सही तस्वीर देख सके। जरूरी नहीं कि उनकी इस सहज कोशिश से कुछ ठीक-ठाक नतीजा मिले। लेकिन, यह सच है कि जीवन न तो शून्य में जिया जा सकता है और न ही इसके बीच सृजन किया जा सकता है और न ही इस प्रक्रिया से किसी प्रकार का ‘प्रतीक’ अस्तित्व में आता है। लिहाजा, जीवन की व्याख्या और मूल्यांकन जरूरी है। तभी जीवन का अनुभव और रसास्वादन संभव है। क्या इसका मूल्य और अर्थ खास है? अगर है तो किस विचारधारा में अभिव्यक्त करना चाहिए, जो जीवन की जरूरतों को पूरा कर सकें। इन जरूरतों की संतुष्टि के लिए विचारधारात्मक प्रतीकों की अभिव्यक्ति की जरूरत है। समस्या जो भी हो, उससे दूर भागना ठीक नहीं होगा। सवाल किए जाने चाहिए, वरना हमारे सामने ये प्रश्न बार-बार उभरकर आते रहेंगे. उनसे रू-ब-रू होकर ही जीवन के अनुभव जगत में उपस्थित संशय, संदेहों और अपने पूर्वग्रहों से विमर्श की संभावना बनी रहेगी, ताकि हम अभिव्यक्त हो सकें जरूरतों के प्रति, अभाव के प्रति; और विचारधारा से निर्मित प्रतीकों को और उसे लागू करने की भूल अथवा भ्रम को समझने का प्रयास कर सकें।

Visits: 216

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*