आप्रवासियों के देश में भारतवासी

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– रामशरण जोशी

राष्ट्रपति बाइडेन ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि अमेरिका आप्रवासियों का राष्ट्र है। इसके मायने हैं कि अमेरिका श्वेतों का ही नहीं है, अन्य नस्ल के आप्रवासियों का भी है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों के नस्लजातिरंगधर्मभाषासंस्कृति के लोगों ने आधुनिक अमेरिकी राष्ट्र का निर्माण किया है। इस विशाल राष्ट्र पर कोई एक समुदाय आधिपत्य का दावा नहीं कर सकता। ट्रंप शासन के दौर में इस तानेबाने के छिन्नभिन्न होने का खतरा पैदा हो गया था। ऐसा संकट फिर से पैदा हो, अमेरिकी सावधान दिखाई देते हैं।

 

राष्ट्रवाद शैशवकालीन बीमारी है, मानवजाति की चेचक है।‘’

-अलबर्ट आइंस्टीन

 

छब्बीस अगस्त की सुबह। मन और काया, दोनों पुलकित थे। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट से अमेरिका उड़कर जा रहा था। बिटिया के परिवार के साथ। सात समंदर पार जाना हो रहा था, कोविड-19 की लंबी कैद के बाद। अगर मैं ‘वीर’ होता तो मयूर विहार के अपने सीमेंटी घोंसले से रोज सुबह किसी बुलबुल के पंखों पर सवार होकर उड़ान भरता, पहाड़ों, महासागरों और देशों को पार कर बोस्टन पहुंच जाता। सांझ ढले लौट आता। पर मैं ‘वीर’ कहां! बिरले थे सावरकर जो करीब एक सौ दस साल पहले अंग्रेजों की पोर्ट ब्लेयर जेल से रोज सुबह अज्ञात बुलबुल के पंखों पर सवार होकर देश की मुख्यभूमि पहुंचा करते, शीश नवाते और फुर्र से संध्या-वंदन के समय लौट आते! पर मैं ठहरा पांच फीट पांच इंच का हाड़-मांस की मन-काया वाला पासपोर्ट+टिकटधारी यात्री। मुझे तो विमान से ही जाना था। सो पहुंच गया।

करीब छह वर्ष बाद बोस्टन के लोगन हवाई अड्डे पर उतरा। बीच में लंदन के हवाई अड्डे हिथ्रो पर कुछ घंटों के लिए ट्रांजिट में रुके। दिल्ली से बोस्टन तक पहुंचने के तीनों हवाई अड्डों पर कुछ अनुभव हुए। यात्रियों का प्रवाह सामान्य होता जा रहा था, बल्कि हिथ्रो पर तो यात्रियों की बाढ़ थी। लग रहा था पूरा योरोप कोविड की कैद से आजादी का उत्सव मना रहा हो! अभूतपूर्व सुरक्षा थी। लेकिन, इस दफा एक बड़ा अंतर और नजर आया। कोविड/मास्क की बात चली है तो देखने में आया कि तीनों ही अड्डों पर हिजाब या अद्र्ध बुर्का का प्रचलन बढ़ा है। दिल्ली को छोड़ भी दें, हिथ्रो और लोगन अड्डों पर ‘पहचान प्रतीक’ अधिक दिखाई दिए जो कि पिछली यात्राओं में आकर्षित करने वाली मात्रा में नहीं थे। पिछली सदी से विकसित दुनिया के देशों में आ-जा रहा हूं, लेकिन अस्मिता बोध का ऐसा उभार मेरे अनुभवों में नया शुमार हुआ।

लोगन विमानतल पर ऐसा देखा हो, यह बात भी नहीं है। मैं बोस्टन से 45 -50 किमी के फासले पर जिस टाउन में रुका हुआ हूं, वहां भी कुछ ऐसे ही अनुभव हुए हैं। पिछले बीस-पच्चीस दिनों में मैं पार्क व रेस्त्रां गया, टेनिस कोर्ट देख चुका हूं, ग्रोसरी स्टोर और सब्जी शॉप जा चुका हूं। विशिष्ट या धार्मिक पहचान वस्त्रों के प्रयोग का अनुभव इस यात्रा में लगभग पहली दफा हुआ। पिछली यात्राओं में न्यूयॉर्क, न्यूजर्सी, बोस्टन, वाशिंगटन, फिलिडेलफिया, मिनिपोलिस, एथेंस और कुछ अन्य शहरों में जाने के अवसर मिले थे। शायद ही ऐसे पहचान-प्रतीकों का प्रदर्शन दिखाई दिया हो, मुझे याद नहीं। जहां निम्न या गैर-कौशल कामों से जुड़े स्त्री-पुरुष ऐसे प्रतीकों का प्रयोग कर रहे थे, वहीं ऐसे भी व्यक्ति दिखाई दिए जो आकार-प्रकार से ‘प्रोफेशनल’ प्रतीत हो रहे थे। यह दृश्य मुझे सहसा 2012 से 16 तक की यात्राओं के अनुभवों की याद दिला देता है। इत्तफाक से, 2016 के राष्ट्रपति के चुनाव के समय मैं इसी देश में था। डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप के बीच मुकाबला था। समयांतर  में इसकी रपटें छप चुकी हैं। तब पहचान के संकट के दृश्य नहीं दिखाई दिए थे। हालांकि, आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं कि यदि ट्रंप की जीत होगी, तो आप्रवासी समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम, के सामने ‘पहचान का संकट’ पैदा हो सकता है। ट्रंप के शासन काल (2017-21 ) की नीतियां और घटनाएं सर्वविदित हैं। ट्रंप शासन के निशाने पर मुस्लिम रहे हैं। ऐसा लगा कहीं परोक्ष रूप से हंटिंग्टन की अवधारणा – सभ्यताओं का टकराव : नई विश्व व्यवस्था का जन्म – को व्यवहार में लागू तो नहीं किया जा रहा है! यदि न्यायपालिका का हस्तक्षेप नहीं रहता तो स्थितियां कोई भी मोड़ ले सकती थीं। चूंकि पिछले दो वर्षों से डेमोक्रेट सत्ता में हैं इसलिए स्थितियां बदली भी हैं।

लेकिन लोगों के दिल-दिमागों में पूर्व शासन की लोकतंत्र विरोधी विरासत अभी तक जमी हुई है। मजहबी प्रतीकों के उभार के पीछे पहचान के संकट का भय हो तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। जहां ऐसे प्रतीक व्यक्ति में पहचान या समुदाय की विशिष्टता के सुरक्षित होने का विश्वास पैदा करते हैं, वहीं ये प्रतिरोध की नुमाइंदगी भी करते हैं। भारत में ही देख लीजिए; हिजाब का मुद्दा गरमाए हुए है, विशेष रूप से कर्नाटक राज्य में। यद्यपि, इसके पीछे राजनीतिक कारण भी हैं। राज्य विधानसभा के चुनाव नजदीक ही हैं। यही स्थिति अमेरिका की भी है। दो वर्ष बाद राष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। इससे पहले दूसरे चुनाव होंगे। जाहिर है, चरम दक्षिणपंथी शक्तियां ट्रंप शासन की विरासत को धुंधली नहीं पडऩे देंगी।

 

आतंकी सियासत का भूत

बोस्टन पहुंचे करीब पच्चीस दिन हो चुके हैं।

इस अवधि में एक ही प्रभाव मुझ पर हुआ है और वह यह है कि लोगों के दिल-दिमाग से पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आतंकी सियासत का भूत अभी तक उतरा नहीं है। इसकी भी वजह है। इस समय का ईश्वर है मीडिया। लोक चेतना और लोकमत को गढऩे में गोदी मीडिया या आभासी तटस्थ मीडिया ईश्वर से कम भूमिका नहीं निभाते हैं। आज भी चैनलों में ट्रंप को लेकर आए दिन बहसें होती हैं, विवादास्पद खबरें चलती हैं और ट्रंप के वक्तव्यों को मिर्च-मसाले के साथ उछाला भी जाता है। ट्रंप का चर्चित आरोप कि 2021 के चुनाव में उनकी हार नहीं हुई है, चुनावों को चुराया गया है अर्थात डेमोक्रेट ने उनकी जीत को चुरा लिया है। ऐसी ही अन्य अनर्गल बातें हैं जिनके माध्यम से ट्रंप को प्रचार में जीवित रखा जाता है और दो साल बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपनी दावेदारी की जमीन को पुख्ता किया जाता है। पिछले ही दिनों भारत के अंग्रेजी समाचार चैनल ‘एनडीटीवी’ ने डोनाल्ड ट्रंप का लंबा इंटरव्यू लिया था। जहां भारत में इस इंटरव्यू प्रसारण किया गया था, वहीं यहां के कतिपय चैनल में भी इसके अंशों को दिखाया गया। स्वयं यह लेखक किसी चैनल पर इसे देख चुका है। जाहिर है, ऐसे प्रसारणों से हवा बनाई जाती है, चाहे भारत में बने या अमेरिका में। अमेरिका के भारतीय डायस्पोरा, विशेषत: गुजराती व दक्षिण भारतीय, में ट्रंप के अच्छे-खासे समर्थक अब नहीं हैं, ऐसा सोचना गलत होगा। जब हमारे बड़बोले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सितंबर, 2019 में अमेरिका की भूमि (हूस्टन, टेक्सास) पर नारा लगाया था ”अब की बार, ट्रंप सरकार’, तब करीब 50 हजार की भीड़ से खचाखच भरा सभास्थल गूंज उठा था। भीड़ ने भी इसी नारे को दोहराया। वहीं एक और नारा लगा था ‘Howdy, Modi’ ट्रंप ने भी लगाया। दोनों की दोस्ती परवान चढ़ रही थी, एक बारगी लगा, कहीं खिलंदड़ी ट्रंप साहब भारत से तो चुनाव नहीं लडऩे जा रहे हैं! ‘अब की बार मोदी सरकारÓ, ऐसे नारे भारत में पंचम स्वरों में गूंज चुके हैं, इसी तर्ज पर।

‘पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को उनकी करतूतों के लिए दंडित किया जाना चाहिए या नहीं?’, देश के प्रमुख चैनलों पर यह मुद्दा भी छाया हुआ है। बहसें हो रही हैं। एक पक्ष का मत है कि ट्रंप के विरुद्ध कार्रवाई की जाना चाहिए। उन्होंने कई अपराध किए हैं। अपने समर्थकों को भड़का कर कैपिटोल स्थित कांग्रेस की ईमारत (संसद भवन) पर हमला कराया गया। व्हाइट हाउस को छोड़ते समय ट्रंप अपने साथ कई संवेदनशील दस्तावेज लेकर चले गए। इसीलिए एफबीआई (फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन) ने ट्रंप के निजी निवास पर छापा भी मारा था। यदि ट्रंप को उनके गैर-संवैधानिक कार्यों के लिए सजा नहीं दी गई तो देशवासियों में सकारात्मक संदेश नहीं जाएगा। इतिहास में यह एक उदाहरण के रूप में दर्ज होगा। भविष्य में किसी भी पार्टी का राष्ट्रपति निरंकुश ढंग से काम करेगा। निर्वाचित तानाशाही का खतरा बना रहेगा।

इसके विपरीत दूसरे पक्ष का मत है कि ट्रंप के खिलाफ मुकदमा चलाने से देश विभाजित होगा। दक्षिण के प्रांतों में जनता का ध्रुवीकरण होगा। ट्रंप समर्थक आक्रामक होने लगेंगे, सड़कों पर उतर आएंगे। किसी भी सीमा तक चरम दक्षिणपंथी तत्व जा सकते हैं; केकेके (कुल क्लुक्स क्लान) जैसी चरमपंथी संस्था सक्रिय हो सकती है; अश्वेतों और आप्रवासियों को अपनी हिंसा का निशाना बना सकती है। तीसरा मत यह भी है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जाएं ताकि भविष्य में ट्रंप राष्ट्रपति का चुनाव न लड़ सकें। लोगों का मानना है कि वर्तमान सत्तारूढ़ डेमोक्रेट अपने वोटों को ध्यान में रख कर ही पूर्व राष्ट्रपति के खिलाफ कानूनी कदम उठाएंगे। नवंबर में ही राज्य विधायिकाओं के लिए सीनेटर चुने जाएंगे। इसलिए सियासी नाप-तोल के बाद ही बाइडेन शासन ट्रंप के संबंध में कोई अंतिम फैसला करेगा। जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाएगा। ऐसी धारणा आम लोगों में है। ऐसा ही भारत में होता है; इसकी ज्वलंत मिसाल हैं जांच एजेंसियों के कारनामे, विपक्षी नेताओं के घरों पर छापे।

दूसरी ओर, डोनाल्ड ट्रम्प, जो बाइडेन शासन को आए दिन ललकारते भी रहते हैं। उनका आरोप है कि उनके विरुद्ध प्रतिशोध की कार्रवाई की जा रही है। उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिला है। सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया जा रहा है। वह फिर से चुनाव लड़ेंगे। अपने समर्थकों और विरोधियों को सावधान करते रहते हैं। मीडिया में खुद को जीवित रखने के लिए ट्रंप हर जुगत करते रहते हैं। यही वजह है कि वह लोगों के जेहन से पूरी तौर पर उखड़े नहीं हैं।

 

गुजराती मित्र से वार्तालाप

ताजा अनुभव शेयर कर रहा हूं। हमारे पड़ोस में कुछ भारतीयों के घर हैं। सबसे पुराना निवासी एक गुजराती परिवार है। सत्तर के दशक में मुंबई से आकर इस क्षेत्र में बसा था यह परिवार। परिवार के मुखिया 85 पार हैं और खुद फर्राटे से कार चलाते हैं। मीलों लंबा सफर तय करते हैं। वैष्णवी संप्रदाय के हैं। वैसे चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, आदि के परम भक्त हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी भक्त हैं। परिवार की मोदी भक्ति सोशल मीडिया, विशेषत: व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी द्वारा प्रसारित पाठ्यक्रमों पर आधारित है। इसके साथ ही भारत और अमेरिका के विभिन्न राज्यों में बसे सगे-संबंधी मेरे वरिष्ठ मित्र को अपडेट करते रहते हैं।

हम रोज शाम को पैंतालीस मिनट की पदयात्रा करते हैं। इस यात्रा में जमाने भर की चर्चा होती रहती है; राहुल गांधी की पदयात्रा से लेकर मोदी-शाह की विकास यात्रा तक। जाहिर है चर्चाओं में मोदी जी का आना रामचरितमानस-गायन के समान है। ताजा से ताजा जानकारियां रहती हैं इनके पास। जब मैं तथ्यों व तर्कों के साथ उनकी गलत जानकारियों के जाले साफ करता हूं तो उन्हें हैरत होती है। पुराने परिचित हैं। इस बार एक अंतर जरूर महसूस हुआ। पिछली यात्राओं में मोदी जी के विरुद्ध एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं था। इस यात्रा में ऐसा नहीं है। अब धैर्यपूर्वक सुनते हैं और मेरे तर्कों को काटते नहीं हैं। लेकिन, ट्रंप के समर्थक हैं। वैसे हैं डेमोक्रेट।

प्रसंगवश, न्यू इंग्लैंड क्षेत्र के अधिकांश राज्यों में डेमोक्रेट पार्टी का वर्चस्व है। चर्चित समाजवादी डेमोक्रेट नेता बर्नी सेंडर्स भी इस क्षेत्र के वेरमॉन्ट राज्य से सीनेटर हैं। वह लगातार 2007 से यहीं से चुने जा रहे हैं। इस लेखक ने वेरमॉन्ट राज्य की यात्रा भी सितंबर में ही की है।

तो मेरे गुजराती मित्र डेमोक्रेट समर्थक होते हुए भी मोदी-ट्रंप दोस्ती के प्रशंसक हैं। वैसे इस देश में दलों के नेता, सदस्य और समर्थक आसानी से निष्ठां परिवर्तन नहीं करते हैं। यदि कोई करता भी है तो वह लोगों की नजर में गिर जाता है। आम समर्थक भी दल प्रतिबद्धता को निभाते हैं। भारत में तो दल-बदल ‘राष्ट्रीय राजनीतिक धर्म’ बन चुका है। अब विधायकों की खरीद-फरोख्त और विरोधी सरकारों के पतन की खबरें बाजार भाव के उतार-चढ़ाव के समान हैं। जब इसकी सिलसिलेवार जानकारी वरिष्ठ मित्र को दी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, पर हैरत हुई। इसका अर्थ यह है कि भारत के घटनाक्रम की सही जानकारी का कितना अभाव प्रवासी समाज में है। सूचना क्रांति के बावजूद चयनित व नियंत्रित या प्रायोजित खबरें ही प्रवासी लोगों तक पहुंचती हैं। राहुल गांधी का ‘पप्पू’ नामकरण तो लोकप्रिय है, लेकिन मोदी के ‘फेंकूÓ तमगा से लोग लगभग अपरिचित हैं। जब मित्र को मोदी के इतिहास के अभूतपूर्व ज्ञान का विवरण दिया तो वे सन्न रह गए। विश्वास नहीं कर पाए। इससे से अंदाज लगाया जा सकता है कि समुद्रपारीय भारतीय समाज में कैसी सूचना क्रांति की जरूरत है। गोदी मीडिया या स्वतंत्र मीडिया में से किसे चुना जाए, इस क्रांति की जरुरत है।

तो मेरे मित्र मोदी-ट्रंप जोड़ी के प्रशंसक हैं। लेकिन ट्रंप की हरकतें उन्हें भी पसंद नहीं हैं। अंतिम दिनों की हरकतें तो बिलकुल ही नापसंद हैं। अलबत्ता वह ट्रंप के मुस्लिम विरोधी रवैये के विरोधी नहीं हैं। ट्रंप ने अपने सलाहकारों में हिंदू भारतियों को भी रखा है, मित्र को ट्रंप की यह उदारता भाती है। लेकिन मित्र को यह संदेह भी है कि ट्रंप को दोबारा राष्ट्रपति चुना जा सकता है! लोगबाग पूर्व राष्ट्रपति को पसंद नहीं करते हैं। उन्हें लोकतंत्र विरोधी माना जाता है। चरमपंथी जरूर चाहते हैं।

जब कतिपय युवा श्वेतों से बात की, तो लगा कि उन्हें डोनाल्ड ट्रंप कतई पसंद नहीं है। यदि वह फिरसे राष्ट्रपति बनते हैं, तो अमेरिका में कई प्रकार के संकट पैदा हो जाएंगे। अमेरिकी समाज गहरे तक विभाजित हो जाएगा। ट्रंप बर्बर पूंजीवाद के समर्थक हैं। आम अमेरिकी उन्हें फिर से राष्ट्रपति बनाना नहीं चाहेगा। यद्यपि, अमेरिका के दक्षिण राज्यों में ट्रंप के कट्टर समर्थक हैं। वे उन्हें ही चुनना पसंद करेंगे। इसकी एक वजह यह भी है कि दक्षिण राज्यों में अब भी पिछड़ापन है। विषमता है। उत्तरी राज्यों की तुलना में इन राज्यों में लोगों की आय कम है। धार्मिकता, रूढ़ीवादिता, कट्टरता जैसी प्रवृत्तियां अधिक उग्र हैं। इसलिए इन राज्यों में रिपब्लिकन पार्टी का बोलबाला है। डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं के लिए यह क्षेत्र ‘मतों की खेती’ है। क्या भारत में भी ‘मत हरित क्रांति’ के लिए व्याप्त पिछड़ापन, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, धार्मिक-मजहबी कट्टरपन, अंधविश्वास, राज्य जातिवाद जैसे तत्व खाद-बीज की भूमिका नहीं निभा रहे हैं? इसकी बम्पर क्रॉप को भाजपा काट भी रही है, पहले इसकी उगाई व कटाई कांग्रेस करती थी। शायद इसीलिए कुछ हिंदी राज्यों पर अभी तक ‘बे मारू राज्यÓ का तमगा चस्पा हुआ है।

 

चीनी प्रवासी की कथा

मैं पार्क से निकल रहा था। चलते-चलते एक चीनी आप्रवासी टकरा गया। उसकी कथा सुनें।

दिलचस्प है यह चीनी। इसने बेतकुल्लफी से मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया मिलाने के लिए। आमतौर से श्वेत ऐसा कम करते हैं। लेकिन, शायद एशियाई होने की वजह से यह अनौपचारिकता जगी हो दूसरे एशियाई को देख कर। कह नहीं सकता। चंद ही मिनटों में उसने अपनी प्रवासी सफर का खुलासा कर दिया। उसने बताया कि वह मूलत: चीनी है। मलेशिया में बस गया। वहां से उखड़ कर अपने परिवार समेत अमेरिका में आकर बस गया है। अब वह यहीं का हो गया है, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है। इसीलिए उसने चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग की नीतियों का समर्थन भी किया। वह बोला कि पूर्व के राष्ट्रपतियों ने चीन में पूंजीवाद को खुली छूट दी जिससे विषमता बढ़ी। अब राष्ट्रपति शी विषमता की खाई को मिटा रहे हैं। उन्होंने ‘कॉमन सोशल गुड’ का नारा दिया है। दुनिया के सामने साम्यवाद की नई अवधारणा रखी है। पूंजीपतियों के विरुद्ध सख्त कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन पश्चिमी मीडिया सत्य को सामने नहीं आने दे रहा है। शी की नीतियों को तोड़-मरोड़ कर दुनिया के सामने रख रहा है। एक दिन शी की नीतियां रंग लाएंगी। उसने शिद्द्त के साथ राष्ट्रपति शी की वर्तमान नीतियों को उचित ठहराया। मेरी कुछ बातों से असहमति जाहिर की। भारत-चीन संबंधों में भी दिलचस्पी दिखलाई। मैंने इस चीनी अमेरिकी को बतलाया कि अब दोनों देशों की सेनाएं विवादित क्षेत्रों से पीछे हट रही हैं। दोनों के बीच समझौता हो गया है। उसने संतोष व्यक्त किया।

संक्षिप्त बातचीत डोनाल्ड ट्रंप पर आ कर ठहर गई। इस चीनी प्रवासी के मत में ट्रंप की वापसी की संभावना ‘बिग जीरोÓ है। उसने अपनी उंगलियों की खास गोल मुद्रा बनाकर ट्रंप की वापसी की संभावना पर विराम लगा दिया। लेकिन, यह भी कहने लगा कि डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन को चाहिए कि वह ट्रंप के मामले में नरमी न दिखाएं, सख्त निर्णय लें। ट्रंप की वापसी का अर्थ है अमेरिका में ‘पहचान का संकट’ का खड़ा होना। इसलिए आम उदारवादी अमेरिकी ट्रंप की वापसी के पक्ष में नहीं है। इस बिंदु पर आकर हम दोनों ने अपनी-अपनी राहें पकड़ीं।

 

जड़ों की पहचान की प्यास

कहीं रहें, किसी देश में बसें, नागरिक में जड़ों को पहचान की प्यास रहती है। अमेरीकियों के लिए ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्विवतीय का निधन कोरी घटना नहीं थी, जड़ों से जुडऩे का अवसर भी था। अमेरिकी मीडिया ने महारानी के 8 सितंबर को निधन से लेकर 19 सितंबर को अंतिम क्रिया तक के घटनाचक्र को इसी भाव को पूरी भव्यता के साथ प्रसारित किया। एहसास कराया गया कि अमेरिकी आप्रवासियों की जड़ें कहां से हैं। इस कवरेज के माध्यम से शाही विगत, भव्यता और परम्परा की याद कराई गई।

प्रसंगवश, जब किसी आप्रवासी को नागरिकता प्रदान की जाती है तब उसे शपथ दिलाने से पहले उससे कुछ सवाल भी पूछे जाते हैं। एक सवाल यह भी रहता है कि अमेरिका के मूल निवासी कौन थे? करीब 22 जनजातियों की लिस्ट में से किसी एक नेटिव का नाम बताना होता है। शपथ के बाद राष्ट्रपति का प्यारा-सा पत्र भी प्राप्त होता है। इस बार, राष्ट्रपति बाइडेन ने जहां अपने पत्र में यह संकेत दिया है कि उनका परिवार भी यहां आकर बसा था, वहीं उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि अमेरिका आप्रवासियों का राष्ट्र है। उनका संदेश बिलकुल साफ है।

इसके मायने हैं कि अमेरिका श्वेतों का ही नहीं है, अन्य नस्ल के आप्रवासियों का भी है। दुनिया के विभिन्न हिस्सों के नस्ल-जाति-रंग-धर्म-भाषा-संस्कृति के लोगों ने आधुनिक अमेरिकी राष्ट्र का निर्माण किया है। इस विशाल राष्ट्र पर कोई एक समुदाय अपने आधिपत्य का दावा नहीं कर सकता। ट्रंप शासन के दौर में इस ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने का खतरा पैदा हो गया था। ऐसा संकट फिर से पैदा न हो, अमेरिकी सावधान दिखाई देते हैं। अब दुनिया के राष्ट्र बहुल पहचान और अस्मिता के कोलाज बनते जा रहे हैं। एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पहचान का समय लद चुका है।

इस सच्चाई को हम भारतीय जितना जल्दी समझ लेंगे, देश को उतना ही सुरक्षित और सुदृढ़ बना सकेंगे।

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