वैश्विक जनमत संग्रह उद्योग और चिले के सबक

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– जितेंद्र गुप्त

 

चिले में नए संविधान की स्वीकृति के लिए ऐतिहासिक जनमत संग्रह हुआ जिसे जनता ने अस्वीकृत कर दिया! नए संविधान को अस्वीकारने वालों का आंकड़ा लगभग 62 फीसदी है, वहीं इस के पक्ष में लगभग 38 फीसदी जनता ने मत दिया। जनमत के ये आंकड़े विस्मित करते हैं, क्योंकि लगभग दो साल पहले अक्टूबर, 2020 में चिले की जनता ने क्रूरता, बर्बरता और अमानवीय उत्पीडऩ के खिलाफ नए भविष्य के लिए अगोस्ते पिनोशे के दौर के संविधान को रद्द कर नया संविधान बनाने के लिए  80 फीसदी से ज्यादा मतों से स्वीकृति दी थी।

 

मार्च (2022) में ग्राबियल बोरिक ने चिले के राष्ट्रपति के रूप में जब शपथ ली थी, यह केवल लातिन अमरीका ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के देशों के लिए भी बड़ी उम्मीद भरी खबर थी। बोरिक की इस जीत ने वामपंथ के कार्यकर्ताओं से लेकर हाशिये के वंचित समूहों को बहुत उत्साहित किया था, क्योंकि इसने दुनिया भर में लगातार बढ़ते हुए कट्टरपंथ और रूढि़वादी विचारधाराओं से संघर्ष के लिए एक नई रणनीति को सामने रखा था। लेकिन छह माह बीतते-बीतते यह बात ज्यादा साफ हो गई है कि वामपंथ और नागरिक अधिकार समूहों को आसान जीत की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि बर्बरताओं से संघर्ष का रास्ता ज्यादा मुश्किल है।

4 सितंबर को चिले में नए संविधान की स्वीकृति के लिए ऐतिहासिक जनमत संग्रह हुआ जिसे जनता ने अस्वीकृत कर दिया! नए संविधान को अस्वीकार ने वालों का आंकड़ा लगभग 62 फीसदी है, वहीं इस संविधान के पक्ष में लगभग 38 फीसदी जनता ने मत दिया। जनमत के यह आंकड़े विस्मित करते हैं, क्योंकि लगभग दो साल पहले अक्टूबर, 2020 में चिले की जनता ने क्रूरता, बर्बरता और अमानवीय उत्पीडऩ के खिलाफ एक नए भविष्य के लिए अगोस्ते पिनोशे के दौर के संविधान के रद्द करके नए संविधान को बनाने के लिए 80 फीसदी से ज्यादा मतों से स्वीकृति दी थी। चिले में सल्वादोर अलेंदे की लोकप्रिय सरकार का संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोग से तख्तापलट करने वाले अगोस्ते पिनोशे के दौर में निर्मित (1980) संविधान इस समय लागू है। यह संविधान भी जनमत संग्रह से ही लागू हुआ था, लेकिन इस जनमत संग्रह की शुचिता हमेशा संदिग्ध रही है।

इसमें कोई संशय नहीं है कि पिनोशे के दौर में लागू हुए मौजूदा संविधान को जनता अपनी तकलीफों का स्रोत मानती रही है। यही कारण है कि 2019 में बढ़ती हुई महंगाई, जरूरत की चीजों की कमी के चलते जनता ने जब बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया, तब इन विरोध प्रदर्शनों की अगुआई करने वाले लोगों और सरकार के बीच इस बात पर सहमति हुई कि चिले के मौजूदा संविधान को बदला जाए और जनमत संग्रह से इसकी स्वीकृति ली गई। पिनोशे के दौर का मौजूदा संविधान बाजार समर्थक कानूनी दस्तावेज है, जो निजी क्षेत्र को शिक्षा, स्वास्थ और पेंशन जैसे मसलों में वरीयता देता है और राज्य की भूमिका को न्यूनतम रखता है। यह कोई छिपी बात नहीं कि इस कानूनी दस्तावेज के वैचारिक आधार ‘शिकागो ब्यॉयसÓ ने उपलब्ध कराया था कि जिससे चिले की आदिवासी जनता का दमन करके अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों की कानूनी तरीके से लूट की जा सके।

मई, 2021 में नई संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ। लैंगिक समानता को सुनिश्चित करने के लिए संविधान सभा के सदस्यों में आधी संख्या पुरुषों की और आधी संख्या स्त्रियों की थी। इसके साथ चिले के स्थानीय समुदाय जैसे मापुचो, आयमारा, कोला जैसे समुदायों का भी सापेक्षिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया। भिन्न लैंगिक रूझान रखने वालों के लिए भी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया। इस तरह से चिले में निर्वाचित हुई इस संविधान सभा में उन सभी राजनीतिक आवाजों को शामिल किया गया, जिसे आज सामाजिक समग्रता के लिए अनिवार्य माना जाता है।

नया संविधान 1980 के संविधान से सैद्धांतिक रूप से एक भिन्न राजनीतिक लक्ष्यों और उसूलों पर आधारित था। मोटे तौर पर ये तीन क्षेत्र नियम (सिद्धांत), अधिकार और संस्थाओं के मामले में थे। राज्य की नीतियों और सिद्धांतों को लैंगिक समानता, पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं, स्थानीय निवासियों के अधिकारों के साथ लोकतंत्र के प्रसार के आधार पर निर्मित किया गया और इन प्रतिबद्धताओं को संविधान के लिखित प्रारूप में राज्य की परिभाषा से लेकर नागरिक अधिकारों तक के क्षेत्र में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

संविधान के सबसे पहले अनुच्छेद में राज्य को ”कानून के अंतर्गत सामाजिक, लोकतांत्रिक…बहु-जातीय (प्यूरिनेशनल), बहु-सांस्कृतिक, प्रादेशिक और जैव क्षेत्र’’ के रूप में परिभाषित किया गया। कानूनी तौर पर इसके मायने यह थे कि राज्य व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर बहु-जातीय, बहु-सांस्कृतिक, प्रादेशिक और जैविकता (पर्यावरण और मनुष्य का पारस्परिक अंतर्संबंध) के स्तर पर अनुलंघनीय अधिकारों की प्रतिश्रुति करता था। लैंगिकता के आधार पर समानता को सुनिश्चित करता था और इसके लिए कानूनी अधिकार प्रदान करता था। इस तरह से चिले ‘भ्रातृत्व पर आधारित गणतंत्र’ के कानूनी आधार पर परिभाषित होता था। यह नया संविधान नागरिकों के लिए केवल समानता को सुनिश्चित नहीं करता था, बल्कि यह लोकतंत्र ‘समावेशी समानता’ को सुनिश्चित करता था। इसी तरह से अनुच्छेद 187 चिले के प्रदेशों और स्थानीय समुदायों के भी व्यापक अधिकार सुनिश्चित करता था कि जिससे विकेंद्रीकृत राजनीति सुनिश्चित हो पाए और उपनिवेशीकरण के कारण देश के विभिन्न इलाकों और सामुदायिक क्षेत्रों को उनके साथ होते रहे ऐतिहासिक अन्याय से मुक्त किया जा पाए।

संविधान के दूसरे अध्याय में नागरिक अधिकारों की बड़ी व्यापक व्याख्या की गई थी। आधुनिक वैश्विक मानकों के अनुरूप नागरिक अधिकारों को इस रूप में सुनिश्चित किया गया था कि जिससे अराजक राज्य या दक्षिणपंथी शासन भी नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित न कर सके। 1980 का संविधान इस मामले में कुख्यात मिसालें लिए हुए है, जहां राज्य की सुरक्षा के लिए नागरिक अधिकारों का वापस लिया जा सकता है। नए संविधान में नागरिक अधिकारों की कोई अमूर्त अवधारणा नहीं शामिल की गई थी, बल्कि नागरिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वतंत्रता के अर्थों में परिभाषित किया गया था। चिले की बहु-सांस्कृतिक सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लड़कियों, लड़कों, आदमियों, औरतों, भिन्न लैंगिक रूझानों के व्यक्तियों, वृद्ध लोगों के साथ विभिन्न जातीयताओं (राष्ट्रीयताओं) के लोगों के साथ जानवरों और मूल रूप से प्रकृति के अधिकारों को भी संवैधानिक रूप से संरक्षित किया गया था। शिक्षा, स्वास्थ, पेंशन, आवास, लैंगिकता और आजीविका के संदर्भ में भी इन अधिकारों को इस रूप में सुनिश्चित किया गया था कि राज्य सार्वजनिक वित्तपोषण के आधार पर एक ऐसी सार्वजनिक व्यवस्था का निर्माण करेगा कि जिसमें इन अधिकारों के लिए व्यवहारिक आधार प्राप्त हो सके।

 

पिनोशे की विरासत

पिनोशे के दौर में नव-औपनिवेशिक लूट के लिए मजदूरों और कर्मचारियों के अधिकारों को लगभग समाप्त कर दिया गया था, जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने कारोबार को चलाने (राष्ट्रीय लूट) में कोई बाधा न पैदा हो। ऐसा केवल चिले में ही नहीं हुआ, बल्कि चिले तो नव-उदारवादी व्यवस्था की प्रयोगशाला थी, जिसके बाद इसी तरह के कानूनों को उन सभी देशों-राष्ट्रों में लागू किया गया, जहां नव-उदारवादी नीतियां लागू की गई। चिले ने अपने नए संविधान में बहु-राष्ट्रीय कंपनियों की राष्ट्रीय लूट के कानूनी अधिकार को खत्म करने के लिए मजदूरों और कर्मचारियों के अधिकारों को सुनिश्चित किया था। मजदूरों और कर्मचारियों के हड़ताल के अधिकार को सुनिश्चित करने के साथ उनके संगठित होने के अधिकार (ट्रेड यूनियन), सामूहिक सौदे-बाजी (मजदूरियों को लेकर मालिकों के साथ होने वाली बातचीत) के अधिकारों को सुनिश्चित किया गया था। अनुच्छेद 47 में इन्हीं अधिकारों का विस्तार से वर्णन है।

चिले के नए संविधान में घरेलू काम और सेवा-सहयोगी कार्य को भी अनुच्छेद 49 के अंतर्गत कानूनी दायरे में लाया गया था। इस तरह से यह संविधान ‘श्रमÓ के पारिभाषिक दायरे का विस्तार करता था और उन क्षेत्रों को भी श्रम कानूनों के दायरे में लाता था जो ऐतिहासिक रूप से श्रम की औपचारिक परिभाषा में शामिल नहीं होते थे। इस तरह से लड़कियों और महिलाओं द्वारा किए जाने वाले पारंपरिक काम भी औपचारिक श्रम की परिभाषा में शामिल होने पाए। नए संविधान के अनुच्छेद 50 में इसीलिए देखभाल की व्यापक व्यवस्था की चर्चा की गई थी। नए संविधान के अनुच्छेद 61 में महिलाओं को स्वैच्छा से गर्भपात कराने के अधिकार को सुनिश्चित किया गया। चिले के नए संविधान में दूसरे अधिकारों और प्रावधानों की ही तरह ‘गर्भपात का अधिकारÓ पूरी दुनिया में ही कट्टरपंथियों के लिए परेशानी का सबब है। इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश और अद्र्धकबीलाई राष्ट्र में तब्दील हो चुके अफगानिस्तान में कोई ज्यादा फर्क नहीं है।

इसी तरह पूरी दुनिया पारिस्थितिकी संकट को लेकर भी चिंताग्रस्त है। ‘अर्थ सम्मिटÓ (पृथ्वी सम्मेलन) के तीस साल होने के बाद भी इस विषय में सारी बहसें केवल भरमाने वाले आंकड़ों तक में ही सीमित हैं जबकि पर्यावरणिक संकट का जो सबसे पहले सामना कर रहा है, उसका राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहीं भी जिक्र नहीं होता है। पर्यावरणीय संकट का सबसे पहले निशाना नागरिक बनते हैं और इन नागरिकों में भी स्थानीय या आदिवादी समुदाय सबसे वरीय निशाना होते हैं। चिले के नए संविधान में पर्यावरणीय (पारिस्थितिकी) संकट को ध्यान में रखते हुए बहुत सारे प्रावधान किए गए थे (अनुच्छेद 127 से 129)। लेकिन इन प्रावधानों में सबसे प्रमुख प्रावधान अनुच्छेद 134 में था जिसके हिसाब से साझा प्राकृतिक संपदा को बिना सामुदायिक अनुमति के उपयोग में नहीं लाया जा सकता है (बिना सामुदायिक अनुमति के उस पर अधिकार नहीं किया जा सकता है)। यह 1980 के संविधान के प्रावधानों के बिल्कुल विपरीत सिद्धांत है। 1980 के संविधान में सामुदायिक अधिकारों को बिल्कुल भी महत्व नहीं दिया गया था क्योंकि ये तांबा खनन के बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के खिलाफ था।

नए संविधान में नागरिकों के आर्थिक अधिकारों के साथ राष्ट्र की आर्थिक जिम्मेदारियों की विस्तृत योजना को निर्मित किया गया था। नए संविधान में राज्य की आर्थिक गतिविधियों को स्वीकारा गया, लेकिन इसके लिए स्वामित्व, प्रबंधन और संगठन के लिए विभिन्न तरीकों को कानूनी रूप से स्वीकार किया गया जिसका सीधा मतलब यह था कि राज्य की ये गतिविधियां ”भ्रातृत्व, आर्थिक बहुलतावाद, उत्पादन विविधता और सामाजिक व भ्रातृत्व आधारित अर्थव्यवस्था के आर्थिक लक्ष्यों’’ के अनुरूप होंगी (अनुच्छेद 182)। इसी के अनुरूप अनुच्छेद 214 में स्थानीय समुदायों को स्थानीय स्वशासन के जरिये अधिकार दिए गए कि वे इन लक्ष्यों के अनुरूप कंपनियों को भी स्थापित कर सकती हैं। आर्थिक एकाधिकार से बचने के लिए (जिसमें बैंक किसी भी कंपनी को वरीयता के आधार पर ऋण-आर्थिक सहायता- देती हैं) केंद्रीय बैंक को निर्देशित किया गया कि उसकी आर्थिक गतिविधियों का मानक ”नागरिकों के जीवन में बेहतरी लाने में सहयोग’’ होगा कि जिससे वित्तीय, श्रम और पर्यावरणीय मुद्दों की व्यापकता बढ़ सके (अनुच्छेद 358)।

इस तरह से देखा जा सकता है कि चिले का नया संविधान अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को विस्तारित करता है और इस तरह से यह लोकतंत्र के बुनियादी उसूल पर आधारित है। यह याद रखना चाहिए कि नव-उदारवादी व्यवस्था (उदारवाद भी) का मूल तर्क यही रहा है कि राज्य की अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भूमिका कम से कम हो (शायद याद हो कि तीसरी दुनिया के एक देश के वित्तमंत्री ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि ”सरकार का काम व्यापार करना नहीं है’’)। वेनेजुएला में ह्यूगो चावेज ने कारखानों और उत्खनन के क्षेत्र में नागरिकों के अधिकार-हिस्सेदारी की जिन अवधारणा को कार्यरूप देने की कोशिश की थी, चिले के नए संविधान में उसी का अनुकरण किया गया था। वर्तमान पर्यावरणिक संकट ने एक बार फिर से पूंजीवाद की मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को प्रश्न के दायरे में ला दिया है क्योंकि पूंजीवाद हर एक संकट में भी केवल मुनाफा आधारित व्यवस्था है। चिले के नए संविधान ने इस प्रवृत्ति का प्रतिकार प्रस्तुत किया था।

चिले की संविधान सभा ने एक अन्य वैश्विक प्रवृत्ति पर भी गंभीरता से चिंतन-मनन किया था। इस समय तीसरी दुनिया (और शेष दुनिया में भी) संविधान की पवित्रता प्रश्न के दायरे में है। इन देशों में बहुत बेहतर संवैधानिक प्रावधानों और विस्तृत संविधान प्रक्रियाओं के बावजूद कार्यरूप में संविधान को बंधक बना लिया गया है। कार्यरूप में संविधान की आत्मा को मार दिया गया है। इसका अर्थ इस तरह से यही निकलता है कि संविधान के प्रगतिशील होने के बावजूद यदि संविधान से असहमत समूह चुनावों के जरिए कार्यपालिका पर अधिकार प्राप्त कर लेता है, तो तात्विक रूप से संविधान अपनी प्रसांगिकता खो देता है। बिल्कुल इसी तरह से चुनावों में जीत के बाद दूसरी आने वाली सरकारों को यह अधिकार रहता है कि वह किसी भी संवैधानिक प्रावधान को खत्म कर दे या उसे वापस ले ले। चिले के नए संविधान में इस स्थिति से निपटने के लिए प्रावधान किया गया था कि अगर भविष्य की सरकारें यदि किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान को वापस लेना चाहेगी तो इसके लिए संवैधानिक रूप से संस्थानिक तौर पर बहस के लिए पर्याप्त समय देना होगा और इस बहस के परिणाम के आधार पर किसी कानून या संवैधानिक प्रावधान को वापस लिया जा सकता है या बरकरार रखा जा सकता है।

 

जनमत संग्रह : दांव पर चिले की जनता

चिले में हुए इस जनमत संग्रह की सबसे खास बात यह रही है कि चिले की सारी जनता के लिए इस जनमतसंग्रह में भागीदारी अनिवार्य थी। चिले में कार्यपालिका या विधायिका के लिए होने वाले चुनावों में यह अनिवार्यता नहीं है। इस तरह से चिले में हुए मतसंग्रह में लोकतंत्रकी भावना का संस्थागत रूप में सर्वोच्यता से पालन हुआ। लेकिन इसके बावजूद इस जनमत संग्रह और पिछले साल हुए राष्ट्रपति चुनावों के आंकड़ों की तुलना बहुत हद्द तक चौकाती है। इस जनमत संग्रह में लगभग एक करोड़ तीस लाख लोगों ने हिस्सेदारी की, जो पिछले साल हुए राष्ट्रपति चुनावों से मतदान करने वाले लोगों से 45 लाख ज्यादा है। इसका मतलब यह संख्या अनिवार्य मतदान की वजह से बढ़ी है।

चिले के दक्षिण में मैग्लेन्स प्रांत में अस्वीकृत मतों का अनुपात 60 फीसदी है। चिले के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ग्राब्रियल बोरिक इसी प्रांत से आते हैं। चिले के उत्तर में अस्वीकृति के मतों का आंकड़ा 65 फीसदी है और अरायूकानिअ प्रांत में अस्वीकृति के मतों की संख्या का अनुपात 74 फीसदी रहा है। ध्यान देने की बात है अरायूकानिअ प्रांत में मापुचो आदिवासी समुदाय की बहुसंख्या है और अधिकतर मापुचो इसी प्रांत में रहते हैं। मतों का यह विभाजन इसलिए विस्मित करता है कि जनमतसंग्रह में विरोधी पक्ष (नए संविधान को अस्वीकृत करने के पक्ष के पैरोकार) का नए संविधान पर एक आरोप यह भी था कि नया संविधान स्थानीय निवासियों के पक्ष में झुकाव रखता है। इसका मतलब मापुचो (स्थानीय लोगों) ने स्वयं को अधिकार दिए जाने का ही विरोध किया! मापुचो सहित दूसरे स्थानीय निवासियों ने अपने स्वशासन के अधिकार का विरोध किया! लेकिन वहीं सैंटियागो और वालपरासियो जैसे शहरी इलाकों में नए संविधान को ज्यादा समर्थन मिला!

इस तरह यदि मुहावरे में कहें तो बकरी ने शेर की हुकूमत के उसूल को लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकृत किया! लेकिन क्या जनता ऐसा कर सकती है? जाहिर तौर पर इसके बहुत सारे कारण हैं जिसमें चिले में राजनीतिक सत्ता को लेकर दक्षिण और वाम दलों के बीच मौजूद वर्गसंघर्ष तो महत्वपूर्ण हैं ही, लेकिन इसके साथ पूंजीवाद की वैश्विक व्यवस्था की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। पीछे इस बात का विस्तृत विश्लेषण किया जा चुका है कि वैश्विक पूंजीवाद ने किस तरह से चिले को नव-उदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था की प्रयोगशाला में तब्दील किया था।ग्राब्रियलबोरिक के चुनाव के बाद भी चिले में इन ताकतों की भूमिका खत्म नहीं हुई है और इन ताकतों की कोशिश यही है कि मध्यमर्गी रुख रखने वाली वाम पार्टियों को अपने पक्ष में शामिल कर लिया जाए। नए संविधान के जनमतसंग्रह में यह कोशिश कुछ कामयाब दिखती है। लेकिन इसके साथ में वैश्विक स्तर पर मौजूद ”जनमत निर्माण व्यवस्थाÓÓ की भूमिका कम नहीं है।

 

जनमत उद्योग और चिले का लोकतंत्र

चिले के खनन उद्योग और प्राकृतिक संपदा के साथ लातिन अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों के वित्तीय व राजनीतिक हित राष्ट्रपति पद पर ग्राब्रियल बोरिक के चुनाव के साथ दांव पर हैं। लेकिन इसके साथ यदि नए संविधान को स्वीकृति मिल जाती तो निश्चय ही नई सरकार के साथ इन हितों को पूरा करने की भविष्य की संभावना भी खत्म हो जाती। इसके साथ चिले के पारंपरिक अभिजात्यों और पुरोहित वर्ग के हित भी नए संविधान की स्वीकृति-अस्वीकृति के साथ जुड़े हुए थे। इसलिए दक्षिणपंथी समूह ने नए संविधान के ख़िलाफ के व्यापक अभियान छेड़ दिया जिसका समर्थन अंतरराष्ट्रीय जनमत उद्योग ने भी अपने स्थानीय सहयोगियों के साथ किया। महीनों-महीनों तक फाइनेंशियल टाइम्स, इकनॉमिस्ट, वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबारों ने नए संविधान के खिलाफ संपादकीय लिखे, इस प्रस्तावित नए संविधान के विरोध में लेखों को प्रकाशित किया। इसी तरह की भूमिका चिले के अखबारों और समाचार संस्थाओं ने भी निभाई। सबसे बड़ी बात यह कि अद्र्ध-सत्यों पर आधारित उनके अभियान को उसी तरह सफलता मिली जैसी सफलता पांडवों को द्रोणाचार्य को मारकर मिली थी। इस कुत्सा अभियान में कुछ भी गरिमापूर्ण नहीं था, जो कुछ था वह ‘शर्मनाक’ शब्द से पूरी तरह नहीं व्यक्त होता है।

अखबारों, टेलीविजन चैनलों और सोशल मीडिया के जरिये नए संविधान के खिलाफ जो अभियान चलाया गया, उसकी कुछ मूल बातें इस तरह से हैं : ”नागरिकों को स्वास्थ सुविधाओं के लिए बेकार किस्म की मरती हुई सार्वजनिक स्वास्थ व्यवस्था पर निर्भर रहना होगा’’, ”शैक्षणिक स्वतंत्रता खत्म कर दी जाएगी’’, ”सार्वजनिक कल्याण की राज्याधारित व्यवस्था के चलते लोग बेरोजगार रहना पसंद करेंगे’’, ”लोगों से उनके घरों को छीन लिया जाएगा और निजी संपत्ति को खत्म कर दिया जाएगा’’, ”कानून के सामने समानता का अधिकार खत्म कर दिया जाएगा और दूसरे किस्म के अल्पसंख्यकों की कीमत पर आदिवासी समुदायों और समलैंगिकों को कानून के समक्ष वरीयता दी जाएगी’’, ”आराधना (धर्म) की स्वतंत्रता खत्म कर दी जाएगी और पुजारियों-पादरियों को सजाएं दी जाएंगी’’, ”हर एक स्थिति में गर्भपात की अनुमति दी जाएगी (यानि स्त्रियां पारिवारिक जिम्मेदारी ही नहीं निभाएंगी)’’, ”देश में हर किसी को आने की अनुमति होगी’’, ”अपराधियों को पीडि़त व्यक्तियों की तुलना में ज्यादा न्यायिक सुरक्षा प्राप्त होगी’’, ”मजदूरों की बचतों को राज्य हड़प कर लेगा और उत्तराधिकार भी खत्म हो जाएगा’’, ”देश का नाम और प्रतीक (इंबेल्म) बदल दिया जाएगा।‘’ यहां उल्लेखित इन मिथ्या बातों को लेकर राष्ट्रीय चैनलों पर ”प्राइम टाइम’’ में बहसें हुई, जिसमें (कथित) राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ”विशेषज्ञों’’ की मौजूदगी इस मिथ्या प्रचार अभियान की वैधता का स्रोत हुई!

इस दुष्प्रचार में कही गई बातें वही हैं, जो सोवियत रूस या दूसरे देशों के समाजवादी आंदोलनों के दौरान कही गई थीं। स्वाभाविक तौर पर इनमें से कोई भी सच नहीं है और यह पूंजीपति वर्ग के अधिकार को बनाए रखने के लिए किया गया दुष्प्रचार है। लेकिन चिले में नए संविधान के लिए हुए मतसंग्रह से यह बात साबित होती है कि यह दुष्प्रचार प्रभावकारी रहा।

 

जनमत संग्रह में पराजय के दूसरे कारण

इस जनमत संग्रह में नए संविधान को समर्थन न मिल पाने में पूंजीवादी जनमत उद्योग की सबसे बड़ी भूमिका रही है। लेकिन कुछ और भी कारण है, जो वामपक्षी समूह की पराजय का कारण बने। सबसे पहली बात संविधान सभा के साथ व्यापक जनता का जुड़ाव न होना। संविधान सभा में जिन लोगों को चुना गया था, उनमें से अधिकतर सक्रिय राजनीति में नहीं थे, बल्कि जन असंतोष के दौरान सामने आए लोग थे। इन सदस्यों की राजनीतिक समझदारी पर किसी तरह का संशय नहीं किया जा सकता है। लेकिन सक्रिय राजनीति में शामिल व्यक्ति यदि संविधान सभा (या संसद आदि) का सदस्य होता है, तो वह जनमत के निर्माण का भी कार्य करता है। संवैधानिक प्रावधानों के प्रति समर्थन निर्मित करने की भूमिका भी अदा करता है। इसी के साथ संविधान सभा हमारे समय की पर्यावरणिक समस्याओं के लिए बहुत हद्द तक तकनीज्ञों पर निर्भर रही। तकनीकी-वैज्ञानिक स्तर पर संविधान सभा की मदद करने के लिए वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं आदि का एक बड़ा समूह था। इस समूह की सलाहें उपयोगी और बिल्कुल उचित थीं, लेकिन राजनीतिक स्तर पर इन सलाहों के प्रति आम जनता पूरी तरह से अंजान रही या ठीक शब्दों में कहें तो निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदार नहीं रही। निर्णय प्रक्रिया के साथ इस अजनबीपन ने पूंजीपति वर्ग के प्रचारतंत्र को वह मौका मिला कि वह अपने प्रचारतंत्र का नए संविधान के प्रगतिशील प्रावधानों के ख़िलाफ दुष्प्रचार कर सके।

इसके अलावा ग्राब्रियल बोरिक के चुनाव के बाद प्रशासन-कार्यनीति में प्रगतिशील सुधारों की उम्मीद की गई थी। स्वाभाविक तौर पर इसके लिए राजनीतिक तौर पर दृढ़ता की जरूरत थी और संवैधानिक परिवर्तन के लिए यह अनिवार्य था। लेकिन विधायिका में अल्पमत होने के कारण पुराने सत्ता समूह से व्यवहारिक गठबंधन करने की जरूरत थी। इस स्थिति ने भी जनता में किंचित अविश्वास को जन्म दिया। इसके अलावा आंतरिक मंत्री (गृह मंत्री) इजकिया सिचेस संघर्षरत मापुचो समुदाय के साथ शांति वार्ताओं के लिए जो सकारात्मक पहल की, उससे भी जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं गया। बोरिक ने जनमतसंग्रह के बाद इनके बदले कैरोलिना तोहा को इस पद पर नियुक्त करके चिले की जनता में विश्वास पैदा करने की कोशिश की है।

बिल्कुल इसी तरह से वित्त मंत्री के तौर पर मारियो मार्शल की नियुक्ति ने भी जनता में कोई अच्छा प्रभाव नहीं पैदा किया, क्योंकि इस पद के पूर्व मार्शल चिले के केंद्रीय बैंक के गवर्नर रहे हैं। जनता अपनी आर्थिक बदहाली के कारणों में उनकी भी एक भूमिका देखती रही है। यह सही न भी हो, लेकिन चिले में आम जनता के लिए जिस समय बेरोजगारी और महंगाई की समस्याएं बड़ी से बड़ी होती जा रही थीं, उस समय मार्शल देश की आर्थिक नीतियों के निर्धारक समूह में थे। इस तरह जनता में यह विश्वास नहीं पैदा हो पाया कि राज्य द्वारा जिन कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए वायदा किया जा रहा है, उसके लिए वित्त की व्यवस्था हो पाएगी। विरोधी समूह ने अपने प्रचार अभियान में इस बात को जोर-शोर से कहा भी कि इन कल्याणकारी कार्यों के वित्त उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा। सरकार की जिस तरह की नीतियां हैं, उससे कई बार यह भी प्रतीत होता है कि नवनियुक्त सरकार पारंपरिक और वास्तविक आर्थिक सत्ताधारी वर्ग से सीधा संघर्ष करने में संकोच कर रही है।

इन समस्याओं के बावजूद ऐसा नहीं है कि भविष्य का रास्ता बिल्कुल बंद है। राष्ट्रपति ग्राब्रियलनए संविधान के लिए आशावान हैं। ”अपूर्वो दिग्निदाद’’ ने अपने आधिकारिक बयान में साफ कर दिया है कि वह चिले के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करेगा और पिनोशे के दौर के संविधान के साथ नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प को सामने लाने का और अधिक दृढ़ता और प्रतिबद्धता से प्रयास करेगा। लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी काम जनमत निर्माण का काम है, जनता को उसकी बदहाली के वास्तविक कारणों के प्रचि सचेत करना है और इसके साथ पूंजीवादी जनमत उद्योग से संघर्ष के तरीकों की खोज करना है।

चिले के इस अनुभव ने इस बात को फिर से स्पष्ट कर दिया है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए केवल ”जनता का असंतोष’’ पर्याप्त नहीं होता है। भारत से लेकर संयुक्त राज्य अमरीका तक और चिली से लेकर तुर्की तक की राजनीतिक स्थितियां इसका प्रमाण हैं। भारत, श्रीलंका, चिले, कोलंबिया, अमेरिका के हालिया घटनाक्रम इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि जनता अपनी जीवन स्थितियों, बदहाली के ख़िलाफ उठ खड़ी हो सकती है, लेकिन वास्तविक परिवर्तन के लिए जरूरी है कि जनता इस बदहाली के मूल कारणों के प्रति सचेत हो। श्रीलंका में जनता का सारा असंतोष केवल गोटाभाया को सत्ता से हटाने पर केंद्रित हो गया, जबकि जनता की बदहाली-गरीबी-भुखमरी का मूल कारण नव-उदारवादी नीतियां और पूंजीवाद जनित मुनाफाखोरी है और पूंजीवादी जनमत उद्योग इस काम को बखूबी अंजाम देता है। कई बार इस उद्योग के प्रतिनिधिक संस्थानों में किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ प्रकाशित लेख-खबर का मतलब केवल यह कि अगर जनता में असंतोष है तो वह व्यक्ति केंद्रित हो जाए और वह व्यवस्थागत परिवर्तन की मांग न करे। ध्यान रखना चाहिए कि इस जनमत उद्योग की प्रतिबद्धता ट्रंप या गोटाभाया के प्रति नहीं, पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति है। अब लोकतंत्र समर्थक ताकतों के आगे चुनौती केवल राजसत्ता यानि सरकार बनाने के लिए राजनीतिक संघर्ष करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह चुनौती विचार-संघर्ष, नागरिक-सत्ता या जन-चेतना के लिए भी है।

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