महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र (भाग – 2)

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जीव वैज्ञानिक  रॉब वालेस से  जिप्सन जॉन और  जितीस पीएम की बातचीत का दूसरा हिस्सा

 

अनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीज और एक फसली खेती

प्रश्न : भारत में जीएम फसलों और एक फसली खेती के बहुत से पैरोकार हैं। मोसेंटो पहले ही भारतीय बाजार में प्रवेश कर चुकी है। खेती के निगमीकरण के आयाम के अलावा आपने बढ़ती हुई एक फसली कृषि संस्कृति से जुड़ी प्रतिरोधी क्षमता के कमजोर होने की समस्या को भी उठाया है। रोगाणुओं के मनुष्यों को संक्रमित करने और त्वरित प्रसार करने के संदर्भ में इससे जुड़ी क्या चुनौतियां हैं?

रॉब वालेस : एक नस्ली पशुबाड़े महामारी जनित जिस बर्बादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह फसलों में भी पायी जाती है- इसमें वह ऊर्जा और परिश्रम की बर्बादी भी शामिल है जो खासतौर पर बाड़ों में पाले जा रहे पशुओं के चारे के लिए लाखों एकड़ में फसल उगाने में लगता है। एक फसली खेती कीटों और खरपतवारों को पूरे इलाके का सफाया करने का मौका देती है। कंपनियां किसानों को एक दिशा में निर्देशित उत्पादन के लिए बाध्य करती हैं- एक लागत, दूसरी लागत की ओर ले जाती है और दूसरी लागत तीसरी के लिए बाध्य करती है- इस तरह कंपनियों द्वारा पैदा की गई कीटों और खरपतवार की समस्या से निपटने की कोशिश में कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों पर किसान की लगभग पूरी जमा पूंजी खर्च हो जाती है।

फसलों और पशुधन की ज्यादा विविधता वाला परिदृश्य ऐसे कीटों और खरपतवारों के खिलाफ प्राकृतिक बाधा का काम दे सकता है। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि इसके बाद कभी संक्रमणों या बीमारियों का फैलाव नहीं होगा, लेकिन देश-काल में फैली जैव-विविधता वाली सुनियोजित कृषि एक घातक रोगाणु या कीट के समक्ष एक ऐसी जटिल गुत्थी पेश करती है जिसे वह अपने प्रतिरूपों को जन्म देने के लिए निर्धारित अल्पकाल में नहीं सुलझा पाता। अक्सर केवल ‘कमजोर’ रोगाणु ही उस विलम्ब को बर्दाश्त कर पाते हैं जो इन गुत्थियों को सुलझाने में होता है और इस तरह शरीर में जाकर वे एक प्राकृतिक टीके की तरह काम करते हैं, और रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाकर ज्यादा घातक किस्मों से लडऩे में हमारी मदद करते हैं।

इस तरह आज जो चुनौती है वह पूरी तरह प्रशासनिक स्तर पर है और किसान की स्वायत्तता को बनाये रखने की है जिसे बड़ी कंपनियां गटक जाना या सिक्कों में ढालना चाहती हैं। जो ग्राम समुदाय सूदखोर बिचैलियों और फसलों के खरीददारों के चंगुल से बाहर आ सकते हैं वे सहकारी समितियों का समर्थन कर सकते हैं क्योंकि वे जरूरी लागतों को कम करती हैं, और जो लागतें जरूरी हैं उनकी कीमत कम कर देती हैं। सरकार और स्थानीय किसान संघों द्वारा मिलकर इलाकाई स्तर पर तैयार की गई योजना को लागू करके और उसे समय-समय पर तराश कर रोगाणुओं और कीटों को खेतों और पशुबाड़ों तथा फार्मों के बाहर रोकने के लिए जरूरी जैव-विविधता हासिल की जा सकती है।

क्यूबा की कृषि-पारिस्थितिकी में बदलाव के प्रयासों का वर्णन करते हुए पारिस्थितिकी विशेषज्ञ रिचर्ड लेविस उन विविध तरीकों के बारे में बताते हैं जिनकी मदद से कृषि के परिमाण को समाज की जरूरतों, भौगोलिक और पारिस्थितिकीय वास्तविकताओं और इलाके में उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से अनुकुलित किया जा सकता है। नदी तटों पर प्रतिरोधी वनों की मौजूदगी, नये वनों, संरक्षक फसलों और कीटों को जाल में फंसाने वाली फसलों का रोपण उन पारिस्थितिकी सेवाओं के प्राकृतिक उभार को बढ़ावा दिया जा सकता है जो न्यूनतम खर्च में नकदी फसलों को उगाने और पशुधन का पेट भरने में मदद करती हैं। पीने का साफ पानी, कीटों को खाने वाली पक्षियों की संख्या बढ़ाना और मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाना, इन सेवाओं में से कुछ एक हैं। इलाकाई स्तर पर तैयार की जाने वाली यह योजना किसानों को एक अलग-थलग आर्थिक इकाई की स्थिति से बाहर निकालकर एक ऐसे सार्वजनिक उद्यम का हिस्सेदार बना देती जो सबके साझे हित में काम करता है।

इस रास्ते में, इलाकाई खाद्य व्यवस्था कृषि से जुड़े ज्यादा विविधतापूर्ण पेशों के चुनाव का मौका देती है- उदाहरण के लिए स्थानीय बूचडख़ानों और खाद्य-प्रसंस्करण इकाइयों को बढ़ावा मिलता है जो राजस्व और मुनाफे के इलाके में प्रसार और खपत में मदद करते हैं और इस तरह, दुनिया के दूसरे छोर पर स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालयों की ओर उनके प्रवाह को रोकते हैं। सबसे बदतर रोगाणुओं के उभार को रोकने हेतु सबसे ज्यादा व्यावहारिक हस्तक्षेपों के क्रियान्वयन के लिए सामुदायिक नियंत्रण अपेक्षित होगा और यह ग्रामीण क्षेत्रों को कृषि व्यवसाय के लिए मात्र बलि का बकरा समझने की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगायेगा।

भारत पहले ही जानता है कि इसे कैसे करना है। ऐसे प्रयास बहुत लम्बे समय से भारतीय इतिहास का हिस्सा रहे हैं और वे भारत के वर्तमान का भी अंश हैं। राजस्थान के एक स्थानीय संगठन तरुण भारत संघ ने पेयजल का संग्रह करने के लिए जल स्रोतों और उनके वाटरशेड1 इलाके के जीर्णोदार की पहल की जो अब हजार से ज्यादा गांवों में फैल चुकी है। इस संगठन के जोहड़ों को फिर से निर्मित किया जो परम्परागत तौर पर पानी के संग्रह के लिए कच्ची मिट्टी की दीवारों से घेरकर बनाये जाते हैं और भूजल का स्तर बढ़ाने और वनों के विकास में सुधार करने के साथ-साथ सिंचाई, जंगली जानवरों, पालतू पशुओं और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी का संरक्षण करने में सहायक होते हैं। ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर की गई इन कोशिशें से 1940 के दशक से सूखी पड़ी अरावरी नदी फिर से बहने लगी और स्थानीय पक्षियों को नया जीवन मिला।

 

 

सोयाबीन गणराज्य

आपने इसका अध्ययन किया है कि कैसे ‘’पारिस्थितिकी तंत्रों और राजनीतिक सीमाओं के भीतर लचीले ढंग से जड़ें जमा चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों को बनाने वाले देशों की एक पूरी की पूरी कतार उत्पादन की इस प्रक्रिया में नये महामारी-विज्ञानों को भी जन्म दे रही हैं।‘’ कृपया इस प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका के बारे में हमारे साथ कुछ ब्योरे और उदाहरण साझा करें।

 

सरकारें अभी भी भूमि-अधिग्रहण और व्यापार में प्रवेश को नियंत्रित करती हैं लेकिन इसके समानान्तर एक नयी प्रादेशिकता भी आकार ले रही है। कुछ कृषि व्यवसाय अपनी गतिविधियों को पुन: संगठित कर रहे हैं ताकि वे देश की सीमाओं के बाहर भी कारोबार बढ़ा सकें। उदाहरण के लिए ‘सोयाबीन गणराज्य’ कहे जाने वाले बोलीविया, पारागुए, अर्जेण्टीना और ब्राजील इस तरह कतारबद्ध हैं मानो इन तमाम देशों में हो रहे उत्पादन के मामले से जुड़ी हुई निर्णय प्रक्रिया में इन देशों की सरकारों की बस सतही भूमिका हो। जिस तरह स्टार फिश खाने के लिए अपने पेट को उलट देती है, वैसे ही बहुराष्ट्रीय निगम उन देशों का अतिक्रमण कर रहे हैं जिन्होंने उनका संरक्षण किया। कंपनी प्रबंधन की संरचना, पूंजीकरण, उप-ठेकों, आपूर्ति शृंखला प्रतिस्थापन, जमीन के पट्टों और जमीनों के राष्ट्रपारीय संयोनों में बदलावों के साथ नये भूगोल का आविर्भाव हो रहा है। दूरियां मीलों में नहीं डालर में नापी जा रही हैं। यह कुछ इस तरह है कि जैसे पैसे को ही सब कुछ समझा जा रहा है और उसकी तुलना में कहीं ज्यादा वास्तविक उस जैव-भौतिक भौगोलिक परिदृश्य की कोई कीमत नहीं जिस पर हमारे असली पारिस्थितिकी-तंत्र निर्भर हैं।

ये अनोखी भू-आकृतियां किसी इलाके में कंपनियों की गतिविधियों और मजदूरों की साझेदारी का पुनर्गठन करती हैं। साथ ही, इलाके का भौगोलिक परिदृश्य भी बदलता है। ब्राजील में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग पर आधारित सोयाबीन, गन्ना और मक्का की निर्यातोन्मुख बड़े पैमाने की खेती और चारागाहों में बड़े पैमाने पर पशुपालन ने कृषि में माल-उत्पादन को व्यापक स्तर पर फैलाया है जबकि चावल, सेम और कसावा जैसी प्रमुख खाद्य फसलों का छोटे जोतदारों द्वारा होने वाला उत्पादन सिकुड़ता जा रहा है। लेकिन यह महज फसलों और पशुपालन में बदलाव नहीं है। एक भौगोलिक इलाके में क्या उगाया जाएगा और क्या नहीं, ऐसे निर्णय अब उन स्थानीय छोटे किसानों, जो वहीं रहते हैं जहां वे खेती करते हैं, के हाथ से निकलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उन क्षेत्रीय प्रबंधकों के हाथ में चले गए हैं जो केवल अपने आका विदेशी निवेशकों के प्रति कृतज्ञ होते हैं और कभी-कभार ही स्थानीय परिस्थितियों पर ध्यान देते हैं।

बीमारी के फैलाव को लेकर शहर और गांव का बंटवारा भी इन इलाकों में खत्म हो जाता है जो महामारी विशेषज्ञों के नजरिये में प्रमुखता से पाया जाता है। हां, यह लम्बे समय से ज्ञात यथार्थ है कि जैसे-जैसे छोटे किसान अपनी जमीनों से बेदखल होते जाते हैं, उनकी आबादी ग्रामीण इलाकों से शहरों की झुग्गियों की ओर पलायन करने लगती है। यह प्रक्रिया दुनिया भर में चल रही है। लेकिन दूसरी परिस्थितियां भी सामने आ रही हैं। ऐसी नयी खेत मजदूरों की आबादी अब ग्रामीण इलाकों में प्रवेश कर रही है जो कृषि से केवल उस वेतन के चलते जुड़ी है जो कंपनी उन्हें देती है। यह श्रमिक आबादी ग्रामीण इलाकों में कस्बों के तीव्र विकास को जन्म दे रही है जो एक ओर स्थानीय उत्पादों को बाजार मुहैया करते हैं तो दूसरी ओर वैश्विक कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए क्षेत्रीय केंद्रों का काम करते हैं।

परिणामस्वरूप, जंगलों से फैलने वाली बीमारियों के प्रसार की गतिकी, महज आन्तरिक इलाकों तक ही सीमित नहीं रहती। बहुत से नये रोगाणुओं का उभार जंगलों से होता है और क्योंकि जंगलों की सीमाओं पर स्थित माल-उत्पादक क्षेत्र इन क्षेत्रीय केंद्रों से जुड़े होते हैं (और आगे माल-उत्पादन शृंखला में बड़ी क्षेत्रीय राजधानियों से), ये नये रोगाणु गहनतम जंगलों से निकलकर सीधे वैश्विक यात्रा-मार्गों और व्यापार-नेटवर्क के अंदर तेजी से फैल जाते हैं। जैसा कि हमने पहले भी कहा था, इबोला, पीला-बुखार और कोरोना वायरस इन हालात का फायदा उठाकर अचानक आज दुनिया भर में इस कदर खतरनाक ढंग से फैल रहे हैं, जैसा पहले कभी साफ तौर पर नहीं देखा गया।

दूसरी ओर, विशिष्ट रूप से शहरी बीमारी समझा जाने वाला डेंगू शहर की सीमाओं के रूप में जाने वाले इलाकों से काफी आगे बढ़ गया प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए वह हो-ची मिन्ह शहर के आस-पास 50-100 किमी के अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण परिवेशों में भी लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। पेरू के अमेजन के इलाके में स्थित सबसे बड़े शहर इक्वीटॉस के आसपास के ग्रामीण इलाके में 19 किमी दूर मनुष्यों में संक्रमण फैलाने वाला मच्छर एंडीज इजिप्ट पाया गया है, जो आम तौर पर शहरों में रहने वाली मच्छरों की एक किस्म है। एक अन्य टीम ने केंद्रीय और पश्चिमी फिलीपींस के 7 बड़े द्वीपों में स्थित खासकर सबसे व्यस्त बंदरगाहों के आसपास मच्छरों की इसी प्रजातियों में वैसी ही सूक्ष्म अनुवांशिक संरचनाओं का पता लगाया जो बड़े पैमाने पर रोगाणुओं के इधर से उधर प्रवासन का द्योतक है। पेरू और फिलीपींस द्वीप समूहों में रोगाणुओं के प्रसार के सबसे बड़े वाहक समुद्री मालवाहक जहाज ही प्रतीत होते हैं।

 

अमरीका, स्वाइन फ्लू का सबसे बड़ा निर्यातक

जब 2009 में स्वाइन फ्लू (एच 1 एन 1) फैला तो आपने उसे ‘नाफ्टा फ्लू’ की संज्ञा दी थी। क्या आप इस मामले पर और वायरसों को पैदा करने वाले और उन्हें फैलाने वाले इस व्यापार की भूमिका के बारे में भी और बोलना चाहेंगे?

 

नव उदारवाद के तहत मुक्त व्यापार को मिलने वाले प्रोत्साहन के चलते पूंजी के वैश्विक प्रवाह चक्रों के फैलाव और संबद्धता में गुणात्मक वृद्धि हुई है। किसी इलाके में होने वाला उत्पादन उत्तरोत्तर संबंधपरक भूगोलों से निर्धारित हो रहा है जिसमें किसी स्थानीय इलाके में होने वाला उत्पादन आधी दुनिया में स्थित देशों में होने वाले पूंजी संचय से सम्बद्ध रहता है जो उसे जंगलों के कटान और विकास के लिए वित्त की आपूर्ति करते हैं।

पूंजी के ये प्रवाहचक्र रोगाणुओं के उभार और फैलने के मार्ग में मेल खाते हैं। अनुवांशिक विकास के अध्येता जीवविज्ञानियों की एक टीम इसी आधार पर स्वाइन फ्लू के संक्रमण के एक देश से दूसरे देश में फैलाव का अंदाजा लगा सकी जब उसने स्वाइन फ्लू के सभी विकास वृक्षों का, उनकी सभी जीन शाखाओं और सभी वंशावलियों के विभिन्न स्थानों में फैलाव का अध्ययन किया। टीम ने दर्शाया कि पशुपालन और सुअर पालन के व्यापक विस्तार के बावजूद चीन स्वाइन इन्फ्लुएंजा के वैश्विक स्तर पर फैलाव का महत्त्वपूर्ण स्रोत नहीं है क्योंकि उसके अधिकांश सुअरों की खपत घरेलू बाजार में ही होती है। दूसरी तरफ दुनिया का सबसे बड़ा सुअर निर्यातक होने के चलते अमरीका स्वाइन फ्लू का भी सबसे बड़ा निर्यातक है।

नाफ्टा एक क्षेत्रीय उदाहरण पेश करता है। इस मुक्त व्यापार समझौते ने अमरीका, मैक्सिको और कनाडा के बीच की आर्थिक सीमाओं को ढहा दिया था। मेक्सिको की घरेलू कंपनियों को व्यापार से बाहर करने के लिए अमरीकी कृषि कंपनियों ने सस्ता मांस (और दूसरे खाद्य-उत्पाद) घाटा उठाकर मेक्सिको के बाजारों को पाट दिया। इसने मेक्सिको के पशुपालन क्षेत्र की संरचना का पूरा कायापलट कर दिया। मेक्सिको की कंपनियां या तो सफेद झंडा फहराकर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने आत्मसमर्पण कर सकती थीं और अपने सभी व्यापारिक क्रियाकलापों को उन्हें बेच सकती थीं या फिर खुद को संगठित करके अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में खड़ी रहने लायक बड़ा कर सकती थीं। स्मिथफील्ड जैसी अमरीकी कंपनियों ने अपने सुअरों को जहाज पर लादकर मेक्सिको भेजना और वहां भी अपने सुअर बाड़े बनाना शुरू कर दिया था।

अनुवांशिक विकास के अध्येता जीव विज्ञानियों की इस टीम ने इसी पद्धति से प्रवासन की उन घटनाओं का पता लगाया जिन्होंने इस नयी कृषि से होने वाले स्वाइन फ्लू के उभार को जन्म दिया था। उन्होंने दर्शाया कि अमरीका और कनाडा, मेक्सिको के जेलिस्को, प्यूबला और सोनारा जैसे राज्यों में अपने सुअरबाड़ों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ाकर बहुत सारे जीनोम खण्डों में इस नये फ्लू के बीज बो रहे थे। दूसरे शब्दों में, मेरे द्वारा 2009 में प्रस्तावित नाफ्टा फ्लू की अवधारणा को बाद में खुद इस वायरस के अनुवांशिक-अनुक्रमों ने सही ठहराया।

हम इन रुझानों का सामान्यीकरण कर सकते हैं। पूंजी के ये प्रवाह-चक्र जीवित जानवरों, कृषि-उपजों, प्रसंस्कृत भोजन और अनुवांशिक संरचनाओं के वाहक जर्मप्लाज्मा के व्यापार में तीव्र वृद्धि को बढ़ावा देकर पशुओं और खाद्य-पदार्थों से फैलने वाले रोगाणुओं की दुनिया भर में फैलने में मदद करते हैं। खाये जाने वाले जानवर एक देश से दूसरे में होकर गुजरते हुए जितनी लम्बी यात्रा करते हैं, रोगाणु उतने ही विविध अनुवांशिक विकास की दर और संयोजनों के प्रकार भी उतनी ही तेजी से बढ़ते जाते हैं। रोगाणुओं की अनुवांशिकी में जितनी ज्यादा विविधता होगी, उतनी ही तेजी से उनका विकास होगा और उनकी और ज्यादा घातक किस्में विकसित होती जाएंगी।

 

देशज् समूहों पर दोष मंढऩा

चीन में कोविड-19 के विस्फोट के बाद से ही दुनिया भर में नस्लवादी और जोनोफोबिक (अनजान लोगों से भय खाने की मानसिक ग्रंथि) वारदातों में उभार आया है। फिर ट्रम्प ने कोरोना वायरस को ‘चीनी वायरस’ कह दिया। बहुत से लोग आरोप लगा रहे हैं कि जंगली गोश्त खाने की चीनी लोगों की ‘बेहूदा’ संस्कृति इस वायरस के त्वरित प्रसार का कारण बनी। जब नये रोगाणु अफ्रीकी देशों में फैलते हैं तब भी इसी तरह की घिसी-पिटी बातें की जाती हैं। आपने इस पर लिखा है कि किस तरह ‘’देशज् आबादियों और उनकी तथाकथित ‘गंदी सांस्कृतिक प्रथाओं’ को वायरस के प्रसार के लिए दोषी ठहराया जाता है।“ क्या आप इसका खुलासा करेंगे?

 

जरूर, मैं इस पर बात करना चाहूंगा। औद्योगिक खेती के विकास और खनन तथा लकड़ी के लट्ठों के लिए पूंजीवाद द्वारा अन्तिम वर्षा वनों और सवाना मैदानों के अतिक्रमण को पूर्ण स्वामित्वहरण के रूप में परिभाषित किया गया है। जंगली जानवरों और पक्षियों की आबादी में तेजी से गिरावट आ रही है क्योंकि न सिर्फ उनके आशियाने उजाड़े जा रहे हैं बल्कि मांस, अंगों और चमड़े के लिए अधिकाधिक संख्या और प्रकार के जानवर मारे जा रहे हैं। इस तरह के पसंदीदा जानवरों की आबादी में गिरावट वैकल्पिक संसाधनों के दोहन की ओर ले जा रही है और इस तरह एक के बाद एक प्रजाति का सफाया होता जा रहा है।

हां, चमगादड़, चींटी खाने वाले पेंगोलिन, कस्तूरी बिलाव, रेकून कुत्ते, बांस चूहे और ऐसे तमाम जानवरों का चीन में महंगे रेस्तराओं और परम्परागत औषधियों के लिए शिकार किया जाता है, उनकी तस्करी होती है और उन्हें फार्मों में पाला जाता है, लेकिन यह सिर्फ चीन की बात नहीं है। शुतुरमुर्ग, साही और मगरमच्छ उन बहत-सी नयी प्रजातियों में से हैं जिन्हें फार्मों पर बड़ा करके दुनिया भर में अवैध

खरीद-फरोख्त की जाती है। अपेक्षाकृत ज्यादा परम्परागत कृषि का समर्थन करने वाली कई वित्तीय कंपनियां अब ‘जंगली गोश्त’ के इस लगातार औपचारिक होते जा रहे कारोबार को भी समर्थन दे रही हैं। हमें खुद से पूछना चाहिए कि ‘तामसिक भोजन’ का यह क्षेत्र इस मुकाम पर क्योंकर पहुंच पाया कि वह वूहान के सबसे बड़े बाजार में अपेक्षाकृत ज्यादा परम्परागत पशुओं के साथ अपने माल को खड़ा करके बेचने लगा। इन जानवरों को किसी ट्रक के पिछले दरवाजे से चोरी छिपे या किसी गली-कूचे में नहीं बेचा जा रहा था।

बहुत सी जगहों पर बहुत बार इस बात को दर्ज किया गया है कि जब कोई जंगल या खान जिसका उपयोग पहले स्थानीय आबादी करती थी, बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथ में आ जाता है तो खाने की जरूरत के लिए मांस की घरेलू खपत रातोंरात एक बाजार अर्थव्यवस्था का रूप ले लेती है जिसका मकसद नयी निर्यात उन्मुख अर्थव्यवस्थाओं के लिए भाड़े पर काम करने वाले मजदूरों का पेट भरना होता है। अत: संक्षेप में कहें तो जंगली मांस खाने का मामला कोई सांस्कृतिक मामला नहीं है। यह ऐसा लाभप्रद बाजार है जो हर आला दर्जे की अर्थव्यवस्था में फल-फूल रहा है।

लेकिन वनों को उजाडऩे के लिए जिम्मेदार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कुछ सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाली कंपनियों की भाड़े की कुछ पश्चिमी पर्यावरण पर काम करने वाले एनजीओ (गैर सरकारी संस्थाएं) अपनी पूरी ताकत केवल ‘सांस्कृतिक पहलू’ को सामने लाने में लगा रहे हैं ताकि नीतियों और कानूनों का निशाना फिर से उन्हीं देशज समूहों और छोटे किसानों को बनाया जा सके। अक्सर ये समूह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा की जाने वाली जमीन की लूट-खसोट के खिलाफ प्रतिरोध की आखिरी लड़ाई लडऩे वाले समूह होते हैं। उन्हीं के ऊपर महामारी फैलाने का दोष मंढऩा, दरअसल, लोकोपकारी-पूंजीवाद की पतनशीलता का एक नया पायदान है। पिछले साल कोविड-19 पर अपने काम के बारे में सुर्खियां बटोरने वाली न्यूयार्क की एनजीओ, इको हेल्थ एलायंस का पूरा काम ठीक इसी रणनीति पर केंद्रित है।

 

‘मृत महामारी विशेषज्ञ’

आपकी ताजा किताब डेड एपीडेमोलोजिस्ट्स:ऑन द ओरीजिन्स ऑफ कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति के कारणों के बारे में एक गहरा और वैकल्पिक नजरयिा पेश करती है। महामारी की राजनीतिक-आर्थिक पारिस्थितिकी पर एक बेहतरीन किताब होने के साथ-साथ यह किताब मुख्यधारा के महामारी विशेषज्ञों को मुर्दा घोषित करते हुए उनकी आलोचना करती है। क्या इससे आपका तात्पर्य महामारी की उत्पत्ति के पीछे के व्यवस्थागत कारणों को समझने में उनकी सफलता से है?

 

बहुत से महामारी विशेषज्ञ प्रतिभाशाली हैं और इस खतरनाक पर जरूरी काम को करने के लिए कठोर परिश्रम कर रहे हैं। मेरे खुद के लेख इस तरह के शोध के उद्धरणों से भरे पड़े हैं जिसका मकसद कोई शोहरत या लाभ कमाना नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से, सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े ऐसे बहुत से वैज्ञानिक हैं जिन्हें इस बात का भी प्रशिक्षण प्राप्त है कि उनके वित्त-दाताओं द्वारा पीछे छोड़ी गई गड़बडिय़ों को कैसे साफ किया जाय। उनको सेवा में लगाने वाली सरकारों से लेकर बहुराष्ट्रीय निगमों तक, सत्ता के सभी केंद्र गरीब लोगों और वन्य पारिस्थितिकी तंत्रों से आखिरी अविकसित जमीन का टुकड़ा भी छीन लेना चाहते हैं। इसके परिणामस्वरूप होने वाली तबाही, जिसमें नयी-नयी बीमारियों का उभार और तीव्र प्रकार शामिल है, पर लीपापोती का काम इन महामारी विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाता है, मानो जब कोई बीमारी क्षेत्रीय स्तर पर फैल चुकी हों या दुनिया भर में फैल कर महामारी का रूप ले चुकी हो, तो कोई अकेला महामारी विशेषज्ञ उस पर काबू पा लेगा।

महामारी के इन विस्फोटों को रोकने और शासकों और आकाओं की सेवा करने की दोहरी कोशिश में जुटे ये व्यवस्था-परस्त वैज्ञानिक, जैसा कि मैंने अभी कहा, देशज समूहों और छोटे किसानों और उनके भूमि-उपयोग के तौर-तरीकों पर दोष मंढऩा शुरू कर देते हैं। अर्थात, ये वैज्ञानिक नीचे की ओर इन कमजोर और शक्तिहीन लोगों को निशाना बनाते रहते हैं। कभी-कभी यह स्पष्ट द्वेषपूर्ण रणनीति होती है, जैसे कि एनजीओ इको हेल्थ एलायंस के मामले में। लेकिन अधिकांश महामारी विशेषज्ञ मुर्दे जैसे हैं क्योंकि वे इस दुनियावी सच्चाई, इस राजनीतिक अर्थशास्त्र को देख नहीं पाते जो भूमि-उपयोग को बदलने के लिए मजबूर करने वाले पूंजी के इन प्रवाह चक्रों को व्यवस्थित करता है। साथ ही वे यह भी नहीं समझ पाते कि कैसे उनके गणितीय मॉडल इन पूंजी-चक्रों की घुसपैठ के आगे नाकाम साबित होते हैं।

तो हां, एक पेशेवर के रूप में अपने वजूद को कायम रखने की पूर्वशर्त के तौर पर, वे इन व्यवस्थागत कारणों को समझने और आत्मसात् करने में बुरी तरह असफल रहते हैं।

विज्ञान को इस तरह काम करने की जरूरत नहीं। वैज्ञानिक पद्धति केवल उन साधनों के बारे में बात करती है जिनके आधार पर किसी परिकल्पना का परीक्षण किया जाता है। वह उन सवालों के बारे में खामोश होती है जो हमारे मन में होते हैं। कोई वैज्ञानिक प्रातिनिधिक नमूने लेकर और उनका अधुनातन सांख्यिकीय विश्लेषण करके इस परिकल्पना का परीक्षण कर सकता है कि ‘कोई खास कंपनी या औद्योगिक क्षेत्र भूमि-उपयोग को बदलने वाली प्रमुख ताकत है अथवा नहीं जिसके चलते घातक रोगाणुओं को उभरने का अवसर प्राप्त होता है।‘ ऐसी कोई भी पद्धति-सम्बन्धी बाधा नहीं है जो लोगों के लिए इस तरह का काम करने से विज्ञान को रोके। इस तरह की कुछ शोध परियोजनाओं को भी पैसा दिया जाना चाहिए। लेकिन जिनके पास पैसा है वे यह सुनना पसंद नहीं करते कि उनकी आय अनुचित ढंग से कमाई गई है या फिर वे महामारियों के उन विस्फोटों को ला रहे हैं जो जल्द ही एक न एक दिन एक अरब से ज्यादा लोगों को मार डालेंगे।

 

लडख़ड़ाती हुई सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था

नव उदारवादी पूंजीवाद ने न सिर्फ कोविड-19 को दुनिया भर में आवाज से भी तेज रफ्तार से फैलाने में मदद की है बल्कि आम लोगों पर इसके दुष्प्रभावों की गंभीरता को भी बढ़ाया है। बहुत से प्रतिष्ठित लोगों की दलील है कि स्वास्थ्य व्यवस्था का निजीकरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का ढहना, और पिछले कई दशकों से अमल में लाये जा रहे सार्वजनिक खर्चों में मितव्ययिता बरतने जैसे बहुत से नवउदारवादी उपायों ने महामारी के झटके को और तेज कर दिया। एक मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का आपकी नजर में कितना महत्त्व है?

 

भारत से लेकर अमरीका तक और दुनियाभर में तेजी से या तो सार्वजनिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जा रहा है या फिर उसे डाक्टर और रोगी व्यक्ति के बीच नगद-नारायण पर आधारित एक तरह का निजी रिश्ता मान लिया गया है जिसमें डाक्टर उनका इलाज करेगा जो उसकी फीस दे सकते हैं। निश्चय ही, लाखों-करोड़ों लोग जो डाक्टर की फीस चुकाने में असमर्थ हैं, वे कोविड-19 और दूसरे वायरसों के आसान शिकार हो सकते हैं क्योंकि इन वायरसों को बाजार से जुड़ी आबादियों और निजीकरण के व्यावसायिक मॉडल की रत्ती भर भी परवाह नहीं।

फिर भी, हालांकि एक व्यक्ति या परिवार के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच जरूरी है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रादेशिक स्तर से लेकर शहर के गली-मोहल्ले और गांव के स्तर तक साथ मिलकर काम करने वाली संस्थाओं की साझा कोशिशों का परिणाम होता है। विविध प्रकार के औपचारिक और अनौपचारिक सहकारी समूहों की गतिविधियों का संगठन परस्पर व्याप्त तरीकों से किया जाना चाहिए ताकि कोई गरीब या कोई पैसे वाला भी स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों के चलते बीमारी के सम्पर्क में न आ सके। अत:, इस मामले में हमें पारिस्थितिकी तंत्रों और उन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं के बीच की उपापचयी दरार को भरना होगा। लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशहाली को एक ऐसे साधन में तब्दील किया जाना चाहिए जिसके जरिये हम अपने को सामाजिक तौर पर पुनरुत्पादित कर सकें। मेरा मतलब, उसी मानवाधिकारों की उदारवादी बुर्जुआ मांग से है जिसका हर कोई सम्मान करता है लेकिन वे खुद ही उस पर अमल नहीं करते। इसके साथ-साथ, जो भी हो, निपट व्यावहारिक नजरिये से ही सही, हमारे स्वास्थ्य की नियतियां एक दूसरे से जुड़ी हैं। ठीक है कि अक्सर गरीब लोग ही बीमारी के फैलने पर सबसे बुरी तरह से शिकार होते हैं, किन्तु संक्रामक बीमारियां सम्पर्क के जरिये फैलती हैं और नवउदारवादियों का मुनाफे पर आधारित व्यक्तिगत स्वास्थ्य का मॉडल भी संपूर्ण रूपसे सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ही निर्भर करता है।

इसी समझदारी के चलते एक दूसरे से एकदम अलग तरह के देश जैसे चीन और न्यूजीलैण्ड, वियतनाम और आइसलैण्ड, कोविड-19 के विस्फोट पर कुछ ही हफ्तों में काबू पाने में सफल रहे या उसके उद्गम स्थल पर ही उसे रोक कर रखने में कामयाब रहे – भले ही उनके तरीके कितने ही दोषपूर्ण क्यों न रहे हों। यह इसलिए हो सका क्योंकि उन्होंने मुनाफे और उत्पादकता की बजाय उन लोगों की बेहतरी को सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता माना जिनका वे जाहिरा तौर पर प्रतिनिधित्व करते हैं। मेरा मतलब है – हाथ कंगन को आरसी क्या। आज कीवी लोगों का रहन-सहन अलग तरह का है। एक साल पहले ही ऐसा हो गया था कि रग्बी मैचों को देखने लौट आये प्रशंसकों के मास्क उतर चुके थे, जबकि दूसरी ओर ”आजादी की जमीन” के वाशिंदे अमरीकी, जो इलाज का खर्च उठाने में सक्षम हैं, आज एक साल से ऊपर समय गुजर जाने के बाद भी अपने घरों में कैद हैं। बड़ी तस्वीर यह है कि जो सरकारें नवउदारवादी रास्ते पर चल पड़ी हैं, वे लोगों को सिर्फ उपभोक्ता के तौर पर देखती हैं और उनकी जरूरतों पर ध्यान देना बंद कर चुकी हैं गोया कि इस तरह की परस्पर सहायता राष्ट्र राज्य का मूल न होकर कोई पराई अवधारणा हो। इसके बजाय, सामूहिक अन्तिम संस्कार की चिताओं से उठते धुंए से काले पड़ चुके आसमान तले हम अरबपतियों की सबसे पहले सेवा-अर्चना होते देखते हैं मानो वे इहलोक के देवता हों।

 

आप सरीखे महामारी विशेषज्ञों के दशकों के शोध ने यह साबित कर दिया है कि कृषि में माल-उत्पादन, जो कि पूंजीवाद का एक अनिवार्य पहलू है, घातक रोगाणुओं के जानवरों से निकलकर मनुष्यों को संक्रमित करने और मानवता को खतरे में डालने के अर्थ में भयावह परिणाम लेकर आता है। कृषि में माल-उत्पादन के विकल्प के तौर पर आप क्या व्यवहारिक सुझाव देना चाहेंगे?

 

काश: ऐसा होता। वास्तव में, माल-उत्पादन, भूमि-उपयोग और रोगों की पारिस्थितिकी के बीच अन्तर-सम्बन्ध के अध्ययन से बचने के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े विज्ञान ने अपना अच्छा-खासा समय और ऊर्जा खर्च की है। वैज्ञानिक शोधों को धन की उपलब्धता को इस तरह संगठित किया गया है उसका मकसद अपने स्रोतों- राज्य सरकार और निजी कंपनियों – को बीमारियों के फैलाव में उनकी भूमिका की जिम्मेदारी लेने से बचाना होता है।

यह उल्लेखनीय है कि पूंजीवाद ही आज सामाजिक संगठन का प्रमुख रूप है, लेकिन अगर एक प्राकृतिक विज्ञानी को इसे बीमारी फैलने के एक परीक्षण योग्य कारण के रूप में सामने लाना हो तो हो सकता है कि उसकी वस्तुगतता पर पकड़ थोड़ी बहुत ढीली पड़ जाय। विज्ञान भी उसी का अनुसरण करेगा। उदाहरण के लिए दार्शनिक लारेन कोड ने पर्यावरण पर शोध करने वालों में बड़े पैमाने पर मौजूद संप्रभु ज्ञान-मीमांसक व्यक्तिवाद के संकेत चिन्हित किए। वैज्ञानिकों के पूरे हुजूम को इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि विज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ पेशा है और मानो हम दुनिया से अलग हैं। लारेन के काम को माइकल डोन ने आगे बढ़ाया और उन्होंने वैज्ञानिकों में सामूहिक कार्रवाइयों के खिलाफ एक संशयवादी प्रतिक्रियावादी का पता लगाया।

लेकिन आखिरकार अब दूसरी दिशा में भी काम हो रहा है। हमारी टीम ने एक स्वास्थ्य की उस अवधारणा से परे जाकर सोचना शुरू किया है जो महामारियों के विस्फोट को जन्म देने वाले भूमि-उपयोग के बदलावों के लिए देशज समूहों और छोटे किसानों पर दोषारोपण करती है। हमने ‘ढांचागत एक स्वास्थ्य’ की अवधारणा प्रस्तावित की है जो पूंजी के उन प्रवाह चक्रों को भी अध्ययन का विषय बनाती है जिन्होंने न्यूयार्क, लंदन और हांगकांग जैसी जगहों को महामारी के सबसे बुरे गढ़ में तब्दील कर दिया है। ये पूंजीवाद के वही केंद्र हैं जो वनों के कटान और विकास के लिए वित्त उपलब्ध करवाते हैं और बीमारियों के मनुष्यों में संक्रमण फैलाने के पीछे की मुख्य चालक शक्ति हैं।

कुछ और लोग भी शोध के लिए इस तरह के सवालों को ले रहे हैं। पारिस्थितिकी-अर्थशास्त्री एम.ग्राजियानो सेडिया ने दिखाया है कि बाजार के लिए माल के रूप में उगायी जाने वाली फसलों से होने वाला मुनाफा ही वनोन्मूलन का प्रमुख कारक है। लातिन अमरीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में जंगलों की तबाही की कीमत पर होने वाली कृषि-मालों के उत्पादन में 2.4-10 प्रतिशत के बीच वृद्धि (फसल और उसके क्षेत्रफल के अनुसार) निवेशकों की दौलत में 1 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के साथ जुड़ी रहती है। रोग-पारिस्थितिकी विशेषज्ञ लुईस शावेज ने स्थानीय मालिकाने और पूंजी-संचय में होने वाले ऐसे बदलावों को पशुजनित संक्रामक लीशमैनिता जैसी बीमारियों के साथ सम्बद्ध किया है।

लेकिन यह बात शोध के विषय से कहीं ज्यादा मायने रखती है। अपने पशुओं के लालन-पालन और फसलों को उगाने के लिए छोटे किसान जो कुछ करते हैं, उसमें से अधिकांश ठीक वही चीजें हैं जो नयी संक्रामक बीमारियों से खुद को बचाने के लिए हमें करनी चाहिए। कृषि-पारिस्थितिकी कृषि को वापस एक प्राकृतिक अर्थव्यवस्था की ओर लौटाना चाहती है जो पारिस्थितिकी-तंत्र की बहुत सी ऐसी सेवाओं को हमें मुफ्त में मुहैया करवाती है जिनकी हमें बेहद जरूरत है। औद्योगिक एकल खेती में कीटों और रोगाणुओं के सामने केवल एक फसल या केवल एक नस्ल को ही संक्रमित करने की चुनौती होती है। अगर कृषि से जुड़ी जैव-विविधताओं को फिर से अपना लिया जाय तो कीटों और रोगाणुओं के सामने विविध फसलों और नस्लों को संक्रमित करने की चुनौती होगी जो उन्हें तेजी से फैलने से रोकेगी और किसानों को उतने सारे रोगाणुरोधियों, कीटनाशकों और फफूंद नाशकों की जरूरत नहीं रह जाएगी।

छोटे खेतों और पशुबाड़ों में रोजाना अपनाये जाने वाले दूसरे तौर-तरीके भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। औद्योगिक उत्पादन के तहत पशु धन का पुनरुत्पादन (जन्म) फार्म पर नहीं हो सकता। सुपर मार्केट की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रजनन से सम्बन्धित सभी काम फार्म से दूर दादा-दादी की पीढ़ी के द्वारा करवाये जाते हैं। उदाहरण के लिए बाजार को ज्यादा दूध देने वाले और तेजी से बढऩे वाले जानवर चाहिए। इसलिए जब कोई रोगाणु किसी मुर्गी-फार्म पर हमला बोलता है और मुर्गियों का सफाया कर देता है तो वे थोड़े से मुर्गे-मुर्गियां जो अपनी जीन प्रतिरोधक क्षमता के चलते बचे रह गए, उन्हें अगली पीढ़ी के लिए प्रजनक के तौर पर इस्तेमाल में नहीं लिया जा पाता हालांकि उनमें अभी भी संक्रमण फैला रहे रोगाणु के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता होती है और वे भावी पीढ़ी को बचा सकते हैं। इसके विपरीत एक कृषि पारिस्थितिकी वाले फार्म पर पशुपालन और मुर्गीपालन के दौरान प्रजनन की गतिविधियां भी अनिवार्यत: फार्म पर ही संचालित की जाती हैं।

दूसरे शब्दों में, हमें एक ज्यादा मैत्रीपूर्ण जैव-पारिस्थितिकी की ओर पीछे लौटने की जरूरत है जिसमें किसी रोगी को दवा की जरूरत न पड़े और पूरा इलाका इसके बहुत पहले ही स्वस्थ हो जाय। लेकिन यह सिर्फ किसी इलाके की जमीन और पुनरुत्पादन से जुड़ा मामला नहीं है। इस प्रकार के हस्तक्षेप उत्पादन के उन साधनों में आमूल-चूल बदलाव की अपेक्षा रखते हैं जिनसे कोई समुदाय अपने को सामाजिक तौर पर पुनरुत्पादित करता है। मसलन, निर्णय-प्रक्रिया पर किसका नियंत्रण है? क्या किसी समुदाय से लिया जाने वाला राजस्व मुख्यत: उस समुदाय पर ही खर्च होता है? किसानों की खुदमुख्तारी, सामुदायिक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक लचीलापन, पैसे को घुमाती रहने वाली अर्थव्यवस्थाएं, सामुदायिक जमीनों के प्रबंधक ट्रस्ट, एकीकृत सहकारी आपूर्ति तंत्र, खाने का न्यायपूर्ण बंटवारा, इतिहास की अन्धी दौड़ को पलट देना और उसके नुकसान की भरपायी, वर्गीय और लैंगिक मनोग्रंथियां कुछ आधारभूत चीजें हैं जो न सिर्फ सामुदायिक जीवन, अच्छे पोषक आहार और साफ पानी बल्कि महामारी के रोगाणुओं की विभिन्न किस्मों के उभार को उसके उद्गम स्थल पर रोकने के लिए भी जरूरी हैं।

महामारियों और पर्यावरण की तबाही को संचालित करने वाली पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच की दरार को भरने के लिए आसमान पर एक नये राजनीतिक दर्शन की इबारत लिखनी होगी।

 

मौजूदा महामारी से मानवता को कौन से सबक सीखने हैं और भावी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कैसी तैयारी करनी है?

 

क्योंकि मैं पहले ही कुछ राजनीतिक हस्तक्षेपों के बारे में बात कर चुका हूं, इसलिए मैं अब संक्षेप में सार रखना चाहूंगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नमूने पर पशुधन उत्पादन के औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हमने उन रोगाणुओं का औद्योगीकरण कर डाला है जो उनके बीच फैलते हैं। इसलिए पहले से हमारे घरों में घुस चुकी घातक रोगाणुओं की कतार को रोकने के लिए हमें माल-उत्पादन पर आधारित मौजूदा कृषि-व्यवसाय का अन्त करना होगा। मनुष्य जाति को फिर से खुद को उसी पारिस्थितिकी के साथ एकीकृत करना होगा, जिस पर वह हमेशा किसी न किसी तरह से निर्भर रहेगी। उन जंगलों और सवाना के घास के मैदानों की रक्षा करनी होगी जिनसे होकर घातक रोगाणु अपने जंगली आश्रय स्थलों में संचरित होते हैं। जंगलों को प्राकृतिक तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे लिए काम करने दें, पारिस्थितिकी सम्बन्धों की जटिलता को रोगाणुओं के प्रसार में बाधा बनने दें, उसमें खलल डालने से हम खुद को बचायें। अब भी हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संसाधनों का दोहन करते रह सकते हैं, लेकिन अगर हम अपने अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं तो हमें प्रकृति के स्वत्वहरण की कोशिशों से बाज आ जाना चाहिए।

भविष्य कोई पत्थर की लकीर नहीं है बल्कि यह बहादुरी, साहस और कौशल के साथ ऐतिहासिक क्षणों का सामना करने के लिए सबका आह्वान कर रहा है। यह आह्वान केवल उन भूगर्भीय ताकतों के जिन्न का मुकाबला करने के लिए ही नहीं है, जिन्हें हमने ढक्कन खोलकर आजाद कर दिया है बल्कि उन धन्नासेठों और उनके ऊंची तनख्वाह पाने वाले सेवकों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए भी है जो सैद्धान्तिक तौर पर तो समाज कल्याण के हामी हैं लेकिन अपने अमल में पूंजीवाद को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा के लिए उसी ग्रह को तबाह कर देना चाहते हैं जो हमारे जीवन का आधार है। क्या हम विद्रोह के लिए तैयार है?

 

अनु.: ज्ञानेंद्र सिंह

साभार: फ्रंटलाइन

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