महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र (भाग – 1)

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जीव वैज्ञानिक रॉब वालेस से  जिप्सन जॉन और  जितीस पीएम की बातचीत

 

रॉब वालेस अमेरिका में रहने वाले जीव वैज्ञानिक हैं जिन्होंने आनुवांशिक विकास और जन स्वास्थ्य से जुड़ी जीनों की भौगोलिक विविधताओं को अपने अध्ययन का विषय बनाया है। घातक कोविड-19 महामारी के दौरान आए उनके शोधपरक लेखों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है। वह उन महामारी विशेषज्ञों में से हैं जो इस सदी की शुरुआत से ही घातक महामारियों के विस्फोट के खतरे से दुनिया को आगाह करते रहे हैं। उनके लेख बीमारियों की उत्पत्ति और संक्रमण के फैलाव के बारे में दकियानूसी नजरिये की बखिया उधेड़ देते हैं। वह गहराई में जाकर उन समाज वैज्ञानिक कारकों को सामने लाते हैं जो रोगाणुओं को जंगलों से निकालकर हमारे समाज में फैला रहे हैं। वह लिखते हैं, ”कोविड-19 और उसके जैसे दूसरे रोगाणुओं के फैलने की वजह केवल एक संक्रामक एजेंट या उसके इलाज की कार्यवाही में नहीं ढूंढ़ी जा सकती, बल्कि इसके लिए पारिस्थितिकीय संबंधों के उन क्षेत्रों का भी अध्ययन करना होगा जिनका इस्तेमाल पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े दूसरे कारक अपने फायदे के लिए करते हैं।‘’ वालेस और उनके सहयोगियों ने पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की तीखी आलोचना पेश की है। महामारी विशेषज्ञ के तौर पर उन्होंने इबोला, जीका और स्वाइन फ्लू (एच1एन1) जैसी दूसरी घातक बीमारियों के संक्रमण के बारे में भी शोध किया है। वालेस ने बड़ी दवा कंपनियों, मुक्त व्यापार समझौतों, पूंजी के वैश्विक प्रवाह चक्रों और जंगलों के विनाश सेबड़े फ्लूऔर दूसरी घातक बीमारियों की उत्पत्ति और प्रसार पर व्यापक शोध किया है।

वालेस और उनके सहयोगी लेखकों की किताबडेड एपिडेमोलाजिस्ट्सः आन ओरेजिंस आफ कोविड-19’के स्रोतों के बारे मेंवर्तमान महामारी के कारणों पर सबसे सारगर्भित पुस्तकों में से एक है। इस किताब में उन्होंने लिखा, ”कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। इस सदी की शुरुआत में ही महामारी विशेषज्ञों ने नई संक्रामक बीमारियों के बारे में आगाह किया था। फिर भी, अपनी खुद की चेतावनी के बावजूद उनमें से बहुतेरे शोधकर्ता महामारी के वास्तविक कारणों को समझने में वैसे ही असमर्थ रहे जैसे कोई मुर्दा खुली आंखों के बावजूद नहीं देख पाता।‘’  उन्होंने इसके बरक्श खुलासा किया, ”महामारी के पीछे की तल्ख हकीकत वैश्विक पूंजी द्वारा संचालित वनों का कटान और विकास परियोजनाएं हैं जिन्होंने हमें नए रोगाणुओं का चारा बना दिया है।‘’

वालेस की 2016 की आई किताब ‘बिग फार्म्स मेक बिग फ्लू’ अपने शीर्षक की तरह ही सोचने पर मजबूर करने वाली है। इसकी समीक्षा करते हुए लेखक माइक डेविस ने लिखा, ”राजनीतिक अर्थशास्त्र की व्यापक दृष्टि का इस्तेमाल करते हुए रॉब वालेस ने दर्शाया है कि एवियन फ्लू और पूरी दुनिया को थर्रा देने वाली दूसरी महामारियों के उभार में औद्योगिकृत कृषि उत्पादन और फास्ट फूड उद्योग की केंद्रीय भूमिका है। ‘’

2009 में स्वाइन फ्लू के विस्फोट को उत्तरी अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते से जोड़ते हुए अपने लेखों में वालेस ने उसेनाफ्टा फ्लू’’ की संज्ञा दी। यहां उन्होंने नवउदारवादी मुक्त व्यापार समझौतों, पूंजी के प्रवाह चक्रों और रोगाणुओं के बीच के अंतर संबंध का उद्घाटन किया। वालेस कहते हैं कि बड़े कृषि व्यवसायी सार्वजनिक स्वास्थ्य के सबसे बड़े दुश्मन हैं और मानवता का भविष्य पृथ्वी के उपापचय की प्राकृतिक स्थिति को फिर से बहाल करने में है।

वालेस ने न्यूयार्क के सिटी विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट सेंटर से जीव विज्ञान में पीएचडी की है और कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में आणविक जीन अनुक्रम (मॉलिक्युलर फाइलोजीनी) के जनक वाल्टर फिच के साथ पोस्ट डॉक्टोरल काम किया है। आजकल वहकृषि पारिस्थितिकी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ शोध दल के साथ महामारियों के आनुवांशिक विकास पर एक वैज्ञानिक के तौर पर काम कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन और अमेरिकी रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र के साथ भी विचारविमर्श में वह शामिल रहे हैं। वालेस ‘डिजीज कंट्रोल: केपिटल-लेड डेफिनिशन, पब्लिक हैल्थ आस्टेरिटी, एंड वेक्टर बॉर्न इनफैक्शन्स’ नामक पुस्तक के सह लेखक भी हैं।

भारतीय मीडिया को दिए गए इस साक्षात्कार में वालेस ने कोविड-19 की उत्पत्ति और उसके भविष्य, सार्वभौमिक टीकाकरण का मुद्दा, बड़े कृषि व्यवसाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य, पूंजी के दुनियाभर में फैले प्रवाहचक्रों, रोगाणुओं के पशुओं से मनुष्यों में संक्रमण फैलाने और मानवता के भविष्य पर बेबाकी से अपनी राय रखी है।

 

प्रश्न : दुनिया को कोरोना वायरस की चपेट में आए एक साल से ऊपर हो चुका है। हालांकि आज कई तरह के टीके उपलब्ध हैं, फिर भी कोरोना पर काबू पाने में दुनियाभर के देश असफल रहे हैं। आप कैसा भविष्य देख रहे हैं?

रॉब वालेस: कोविड-19 आने वाले कई सालों तक कहर ढाता रहेगा और उसके नए-नए प्रकार सामने आते जाएंगे। अंत में, यह रोगाणु कमजोर पड़ जाएगा और उसका इलाज करना अपेक्षाकृत आसान हो जाएगा लेकिन इसमें सालों, यहां तक कि दशकों लग सकते हैं। इस वायरस के बारे में सबसे खतरनाक बात है कि हम इसके विकास के बारे में पूर्वानुमान नहीं लगा सकते। यह एक के बाद एक ग्रहणशील आबादी को अपनी चपेट में लेता जाएगा और अगर हम इसके बार-बार होने वाले इस प्रकोप को रोकना चाहते हैं तो पूरी दुनिया को एक होकर इस पर प्रहार करना होगा। सबसे पहले चीन, कल अमेरिका (जिसकी गरीब आबादी आज भी, टीके लग जाने के बाद भी, उसकी जद में है) और आज भारत और ब्राजील (जहां व्यापक टीकाकरण नहीं हुआ है) और आने वाले कल में वैश्विक दक्षिण के अन्य देश उसके कहर का शिकार हो सकते हैं और एक चक्र पूरा करके वह वापस चीन और अमेरिका को अपनी चपेट में ले सकता है। हमारे पास केवल एक ही विकल्प है – पूरी दुनिया साथ मिलकर काम करे।

वायरस के फैलाव के इस चक्र में फैलने के लिए कमर कस रहे सार्स (फेफड़े का एक गंभीर संक्रमण) जैसे कोरोना वायरस के अन्य प्रकारों को शामिल नहीं किया गया है (जिनमें से एक-दो तो आदमियों के बीच घूमना पहले ही शुरू कर चुके हैं)। अगली लहर इबोला की हो सकती है या निपाह वायरस की या अफ्रीकी स्वाइन फीवर (सूअरों से फैलने वाला बुखार) की, या फिर वह हमारे पुराने मित्रों — ऐविअन और स्वाइन इन्फ्लुएंजा की नई लहर हो सकती है।

फैलाव की इस प्रक्रिया के दोनों छोर पूंजीवाद की जकड़ में हैं। एक ओर बेदखली की वैश्विक मुहिम भूमि उपयोग के तरीके बदल रही है और जंगलों को उजाड़ रही है जिसके चलते नए-नए घातक रोगाणु बीमारियों को लेकर बाहर आ रहे हैं और हमें अपना शिकार बना रहे हैं। और दूसरी तरफ, यह करोड़ों लोगों को बचाने के लिए रोकथाम के और यहां तक कि मास्क और कामबंदी के दौरान का वेतन जैसे साधारण गैर-औषधीय उपायों को अपनाने से इंकार किया जाता है। पूंजीवाद जनता को केवल एक बाजार समझता है और वे बाजार जो इलाज की दवाओं और उपकरणों (या टीकों) का खर्च नहीं उठा सकते, उन्हें जनता नहीं समझा जाता।

यही वे कमजोर जगहें हैं जहां से रोगाणु घुसपैठ करते हैं। पूंजी जिन लोगों की हिफाजत से इनकार कर देती है, उनमें से किसी को भी विषाणु अपना शिकार बना लेते हैं और फिर उनके जरिये सबसे धनी आदमी तक जा पहुंचते हैं। ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसोनारो, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और दुनियाभर के ऐसे बहुत से नेता दुष्टात्मा शरारती तत्व हैं, और राजनीतिक हत्यारों के संप्रदाय का निर्माण कर रहे हैं। लेकिन इनके विकल्प भी पूंजीवादी समाज के तौर-तरीकों के हिमायती है और उनसे बस थोड़े से ही बेहतर हैं। हमारे ‘प्रगतिशील’ लोग भी पूंजी के परिपथ की दहलीज पर मत्था टेक रहे हैं।

 

पूंजी का भगवान

क्या आप अपने आखिरी वाक्य का मतलब समझाएंगे?

अगर पूजा का मतलब किसी देवी-देवता के प्रति आज्ञाकारिता या आराधना का भाव रखना है, तो बहुत से उदारवादी पूंजी के भगवान के आगे शीश नवाते हैं। पूंजीवाद ही वह रहस्यमय काला सितारा है जिसके चारों ओर सभी तरह की बुर्जुआ राजनीति चक्कर काटती रहती है- उदारवाद से लेकर सबसे घिनौने फासीवाद तक। पूंजी इस राजनीति का महज एक संदर्भ बिंदु नहीं है बल्कि यह हर पल, हर घड़ी, हर रोज लोगों पर काम करती है। मैं एक और रूपक जोडऩा चाहूंगा – पूंजी तेजाब की तरह है। यह सारे मानवीय संबंधों को गला देती है, यहां तक कि परिवार को भी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन का जरिया बनाकर रख देती है। जबकि- मानवाधिकार, व्यक्तिवादी मानवतावाद और संसदवाद – सब अपने-आप में अच्छे हैं लेकिन उनका जन्म काफी हद तक सौदेबाजी के ऐसे अड्डों के रूप में ही हुआ था जिनके जरिये उन तमाम तरह के लोगों-सामंतवाद के जुए तले दबे किसानों, जिन्हें मजदूरों की एक विशाल भ्रमित फौज में बदल दिया गया, से लेकर प्राचीन गुलामों और अपनी जमीनों से बेदखल किए गए करोड़ों लोगों तक जिन्हें आदिम पूंजी संचय की खातिर उजाड़ा गया- को काबू में करके वापस पूंजी की खिदमत में लगाया गया जिन्होंने इस बात के खिलाफ बगावत की थी कि कोई उन्हें अपना गुलाम, अपनी संपत्ति समझे। इस बेदखली और स्वामित्व को ऐसे देखा गया जैसे यह कोई सामान्य बात हो।

मार्क्स के पहले भी बहुत से अध्येताओं ने इस तरह की व्यवस्था के सामाजिक आधार की व्याख्या पेश की थी और इस पर काम आज भी जारी है। हाल के शोधों में से एक, समाज विज्ञानी मार्क आजीज माइकल के अनुसार, दुनियाभर के करोड़ों लोगों को यह स्वीकार करवाने के लिए कड़ी मेहनत की गई कि बाजार द्वारा लोगों को बेदखल कर देना वैसी ही स्वाभाविक बात है जैसी कि हमारी ऐंद्रिय इच्छाएं- भूख या सेक्स। इस तरह दैनंदिन व्यवहार में लोगों का संपत्तिहरण होता रहे और वे चेतना शून्य, अंधे और बहरे बने रहें- इसे स्वीकार्य बनाने में तीन शताब्दियों से ज्यादा का समय लगा। यहां तक कि पुनरुत्पादन की जैविक अनिवार्यता को भी पूंजी ने अपने अधीन कर लिया और करोड़ों लोगों की जिंदगियों की भी मालिक बन बैठी। इस बुनियादी बात को समझने के लिए भारत को महामारी द्वारा की गई केवल अपनी खुद की तबाही को देखना होगा। उसे न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की कारगुजारियों की ओर बल्कि उसके बहुत पहले, इतिहासकार तिथि भट्टाचार्य के शब्दों में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकाल को भी देखना होगा क्योंकि इन तमाम सरकारों ने पूंजी-संचय को सामाजिक कल्याण के ऊपर वरीयता दी और खुद अपने लोगों की पीठ में छुरा घोंपा।

क्या आपको लगता है कि संक्रमण की इससे भी बड़ी लहर सकती है? विभिन्न टीकों और उनके विकास के कार्यक्रमों को लेकर आप कितने आशान्वित हैं?

कोविड-19 का भविष्य उज्जवल है। अभी यह और भी करोड़ों को अपना शिकार बनाएगा। जो टीके आए हैं वे कारगर हो सकते हैं, लेकिन जितनी जल्दी हो सके दुनियाभर के लोगों का टीकाकरण कर मानवता को बचाने के बजाय वैश्विक उत्तर के देश अपने निगमों के पेटेंटों की हिफाजत के लिए ज्यादा इच्छुक हैं। इसके बावजूद भी कि टीकों का विकास करने के लिए वैश्विक दक्षिण के लोगों पर भी उनका परीक्षण किया गया था।

जिस तरह नए-नए प्रकार के कोरोना वायरस पैदा हो रहे हैं, और फैल रहे हैं, उसी से पता चल रहा है कि जल्दी ही टीके उनके ऊपर बेअसर हो सकते हैं। बी-1.351 कोरोना वायरस का नया प्रकार है (जिसे सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में देखा गया और विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए नामकरण के अनुसार जिसे बीटा प्रकार का वायरस कहा जाता है) जिस पर ऐस्ट्राजेनिका टीका लगभग पूरी तरह बेअसर है और कुछ हद तक फाइजर टीका भी। ब्राजील के पी.1 वायरस (गामा प्रकार) में भी फाइजर टीके के प्रति कुछ प्रतिरोधी क्षमता मौजूद है। अधिकांश अमेरिकी इस बात से सहमत हैं कि टीके को जन सुलभ बनाने के लिए उसकी उत्पादन सामग्री और नुस्खा भारत और दूसरे देशों को उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। लेकिन अमेरिकी लोगों के कहने से उनकी सरकार नहीं चलती बल्कि वह तो निगमों के लिए सरकार है जो निगमों द्वारा चलाई जा रही है।

इस तरह की साजिशों से स्पष्ट हो जाता है कि क्यों महामारी विशेषज्ञ टीके की प्रभावोत्पादकता और उसकी दक्षता में फर्क करते हैं। पहले से हमें पता चलता है कि टीका किसी शरीर पर कितना असर करता है और दूसरे से पता चलता है कि वह पूरी सामाजिक संरचना पर कितना असर करता है। क्या हम पूरी दुनिया को टीका दे सकते हैं? लालची पूंजीवाद का उत्तर है – नहीं।

 

सार्वभौमिक टीकाकरण का मसला

अभी, थोड़े से ही टीके उपलब्ध हैं। हर जगह टीकाकरण अभियान चल रहे हैं। कोविड-19 के खतरे से तभी बचा जा सकता है जब इस ग्रह के लगभग हर आदमी को टीका लग जाए। आपके विचार में इस संकट का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक भौतिक टीकाकरण की नीति अपनाने का कितना महत्त्व है? जैसा कि आपने पहले कहा कि वैश्विक उत्तर के कुछ देश टीके केपेटेंटÓ को मुद्दा बना रहे हैं। आप इसे कैसे देखते हैं? इस ग्रह पर हर किसी के लिए टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए इस समय और क्या किया जाना चाहिए?

सार्वजनिक टीकाकरण दो मायनों में महत्त्वपूर्ण है : पहला, यह प्रथम दृष्टया एक वैश्विक न्याय का मसला है कि हरेक के लिए टीका उपलब्ध हो- अब इस पर आम सहमति है। हर आदमी को इस बात का हक है कि वह बांहों पर दो टीके लगवाने जैसी आसान चीजों से कोविड-19 को मात दे सके। निश्चय ही, टीकाकरण लोगों को सुरक्षित करने का एकमात्र तरीका नहीं है। जब किसी बीमारी पर कोई डॉक्टरी इलाज उपलब्ध न हो तब भी वायरस को मात देने में लोगों की मदद करने की जिम्मेदारी सरकार की है। बहुत सी सरकारों ने, चाहे उनमें जो भी खामियां रही हों, अपनी आबादी की बेहतरी और अच्छी सेहत को तरजीह दी और कड़े कदम उठाए : महामारी के विस्फोट को कुचलने के लिए सख्त लाकडाउन किया गया, मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया और रोगी के संपर्क में आए लोगों को चिन्हित करके उनकी जांच करने और उन्हें अलग रखने की व्यवस्था की गई। कुछ ही हफ्तों में उनके यहां महामारी का फैलाव नियंत्रण में आ गया। बाकी सरकारों ने अपनी अर्थव्यवस्था को लोगों के स्वास्थ्य पर वरीयता दी। अर्थात उन्होंने धनकुबेरों के मुनाफे को चुना जिसके इर्द-गिर्द काफी लंबे समय से वे अर्थव्यवस्था को संगठित करते आ रहे थे, मानो कि वह उन सरकारों का मुख्य दिशा-निर्देशक हो। ऐसे देशों में से अधिकांश ने, अंतत:, लोगों की जानों और पैसा, दोनों की भारी क्षति उठाई। नतीजों से स्पष्ट है कि लोगों को कोविड के पेट में झोंकना कोई अच्छी अर्थनीति नहीं थी।

यह भी सामने आ रहा है कि मास्क जैसे गैर-औषधि उत्पादों की आपूर्ति और वितरण की व्यवस्था की असफलता के कारण ही संभवत: टीकों की आपूर्ति और वितरण की व्यवस्था भी असफलता की शिकार हुई है। टीका कितना कारगर है, यह समझने के लिए इसके बहुत परे जाना होगा कि आपकी बांह में लगा टीका किसी एक रोगी पर काम करता है या नहीं। टीके की प्रभावशीलता किसी दी हुई आबादी पर उसके असर से मापी जाती है और यह किसी देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था और संस्थागत बोध पर निर्भर करती है- कोई देश संकट की घड़ी में कैसे निर्णय लेता है और लोगों को उस संकट से निकलने के लिए कैसे समाधान प्रस्तुत करता है। शासन के नवउदारवादी और दक्षिणपंथी नमूने का यह संगठित प्रयास होता है कि लोगों को इन क्षमताओं से वंचित कर दिया जाए।

जिस दूसरे कारण से सार्वभौमिक टीकाकरण जरूरी है, वह देखने में उसके तकनीकी पक्ष से जुड़ा लगता है लेकिन दरअसल वह वैश्विक न्याय के मुद्दे से जुड़ा एक पहलू है। महामारी की परिभाषा में ही यह निहित है कि वह सीमाओं की परवाह नहीं करती। इसलिए किसी एक जगह इसका लगातार फैलाव हर जगह संक्रमण का खतरा पेश करता है। कोविड-19 का वायरस सार्स-कोव-2 नाना प्रकार की किस्मों में तेजी से विकसित हो रहा है। इन नई किस्मों में से बहुत सी ऐसी हैं जिन्होंने टीकाकरण के बावजूद भी खुद को लगातार बढ़ाते जाने की अपनी क्षमता प्रदर्शित की है। अभी अधिकांश टीके ऐसे हैं जो इनमें से अधिकांश किस्मों का मुकाबला कर सकते हैं। जो लोग वाइरस की शुरुआती किस्मों से संक्रमित हो रहे हैं, ये टीके उनमें से अधिकांश लोगों को बुरी तरह बीमार होने से बचा ले रहे हैं। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन यह भी कुछ हद तक ठीक है कि कुछ टीके वायरस द्वारा अपना रूप बदलने वाले वैरिएंट्स पर उतने कारगर नहीं हैं।

और यह एक रूझान के तौर पर जारी रह सकता है यह जानकर ऐसे किसी भी आदमी को कोई आश्चर्य नहीं होगा जो इन्फ्लुएंजा और तेजी से फैलने वाले अन्य आरएनए वायरसों के बारे में रत्ती भर भी समझ रखते हैं। हमें मनुष्यों में पाए जाने वाले इन्फ्लुएंजा से लडऩे के लिए हर साल टीकों की बूस्टर डोज की दरकार होती है क्योंकि ये वायरस पिछले साल की रोग-प्रतिरोधी क्षमता के नीचे से फिर उभर आते हैं जिसे उनके प्रतिजन मानचित्रों (एंटिजेनिक कार्टोग्राफी यानी एंटीबॉडी विकसित करने वाले पदार्थों के मानचित्रों) की मदद से आसानी से समझा जा सकता है। टीका विरोधी प्रचार के जवाब में सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारी अपनी तरफ से भी बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार थोपने की गलती करते हैं। यह सही है कि टीका काम करता है लेकिन लगातार बदलती परिस्थितियां गहन परीक्षण की मांग करती हैं। और भले ही सार्स कोव-2 वायरस इन्फ्लुएंजा वायरस के बराबर तेजी से न फैलता हो लेकिन फिर भी यह बहुत ज्यादा लोगों को संक्रमित कर रहा है। संक्रमित लोगों का यह विशाल समूह इस वायरस को अपनी आनुवांशिक विकास की संभावनाएं तलाश करने का अवसर प्रदान करता है।

जनता के पैसे से विकसित किए गए टीकों के पेटेंट कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई को न सिर्फ नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि शर्मनाक हैं। राष्ट्रपति जो. बाइडन ने यह इच्छा जाहिर की है कि वह टीके से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में अपने नियमों को ढीला करने के लिए विश्व व्यापार संगठन को कहेंगे लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि योरोपीय संघ के देश मान जाएंगे या दवा कंपनियां और तमाम क्षेत्रों के दबाव समूह इस प्रकार के बदलाव को नजीर बनने से रोकने में सफल नहीं होंगे। फिलहाल, अमेरिकी प्रशासन दुनिया को आठ करोड़ टीके देने का वादा कर रहा है, जिनमें एस्ट्राजेनिका टीके की वे 6 करोड़ खुराकें भी शामिल हैं जिन्हें अपने लोगों को लगाने से अमेरिका ने खुद इनकार कर दिया था और जिन्हें एक ऐसे कारखाने में तैयार किया गया था जिसका सुरक्षा रिकॉर्ड भयावह है। पेटेंट से छूट मिल भी गई तो भी उसमें टीका उत्पादन की सामग्री और आवश्यक तकनीकी सहायता शामिल नहीं होगी जिसके बगैर भारत की विश्व प्रसिद्ध जेनेरिक दवा कंपनियों द्वारा टीकों के उत्पादन और दुनिया को आपूर्ति का रास्ता नहीं खुल सकेगा।

दूसरी ओर, भारत की अपनी खुद की समस्याएं हैं क्योंकि उसका दवा-क्षेत्र कुछ लोगों के मुनाफे की खातिर उत्पादन की ओर खिंचता चला जा रहा है। इसके अलावा वहां ऐसा गड़बड़झाला मचा हुआ है जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ योजना की असफलता हो सकती है। भारत खुद सार्वभौमिक टीकाकरण की राह में रोड़ा बनता दिखाई दे रहा है। महामारी के भयावह विस्फोट के समय अपनी खुद की टीकों की मांग का सही अंदाजा लगाने में बुरी तरह असफल रहने के बाद भारत ने उन टीकों को हथियाना शुरू कर दिया जिनके ऑर्डर विश्व स्वास्थ्य संगठन के (तथा अन्य समूहों के प्रयासों से कोविड-19 के टीकों का बराबरीपूर्ण वितरण सुनिश्चित करने के लिए तैयार किए गए) अभियान ‘कोवैक्स’ के तहत भारत की घरेलू दवा कंपनियों को वैश्विक दक्षिण के देशों में टीकों की आपूर्ति करने के लिए दिए गए थे। इस तरह अब भारत ने उन देशों को टीके की कतार में पीछे धकेल दिया है।

बड़ी तस्वीर यह है कि टीकाकरण के वैश्विक अभियान की थोड़ी सी लडख़ड़ाहट उन लाखों लोगों के रोग-प्रतिरक्षा तंत्र को कोविड-19 वायरस की बढ़ती हुई किस्मों के लिए प्रयोगशाला बना सकती हैं जिनका अभी तक टीकाकरण नहीं हुआ है। अगर ऐसे लोगों का विशाल समूह बना रहता है जिन्हें टीका नहीं लग सका है तो वायरस के पास क्षमता है कि वह बारी-बारी से गैर-टीकाकृत आबादी और फिर टीकाकृत आबादी को अपना शिकार बनाते हुए अपना विकास करता रहे। यह ठीक है कि जिन्हें टीका लग चुका है उनके संक्रमित होने की कम संभावना है, लेकिन शून्य भी नहीं है। ऐसे मसले सामने आ रहे हैं जिनमें वायरस टीकों को चकमा दे रहा है और पूरी तरह टीकाकरण करवा चुके लोग भी बीमार पड़ रहे हैं। अर्थात, वायरस का दबाव बढ़ रहा है और संक्रमण का फैलाव सीमाएं तोड़ता जा रहा है। इसका सबसे सटीक उदाहरण है न्यूयार्क के एक पूरे यांकी क्लब हाउस और बेसबाल टीम का संक्रमण का शिकार हो जाना, जबकि उनका पूरी तरह टीकाकरण हो चुका था।

अगर हम चाहते हैं कि कोविड-19 हमें अपना शिकार बनाना बंद करे तो इसका एकमात्र तरीका है – कोविड वायरस की इन ‘प्रयोगशालाओं’ की संख्या में सीधे कमी लाई जाए। इसलिए, हर किसी को टीका लगाइए, विवेकशील ढंग से मास्क की अनिवार्यता लागू कीजिए, जब भी जरूरी हो लॉकडाउन कीजिए लेकिन लोगों को सरकार की तरफ से वेतन/गुजाराभत्ता भी दीजिए, संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए लोगों की पहचान के काम को आगे बढ़ाते हुए उन लोगों को भी भत्ता दीजिए जो बीमार हैं या जिन्हें बीमारी की आशंका है और किरायों की वसूली स्थगित कर दीजिए। दूसरे शब्दों में, महामारी को रोकने के लिए रोगाणुओं के उभार की रोकथाम से लेकर महामारी के रूप में उनके संगठित हमले को नियंत्रित करने तक, किसी भी सफल हस्तक्षेप की बुनियाद सामाजिक न्याय ही होता है।

न्याय कोई पाश्र्व परियोजना नहीं होती कि दक्षिणपंथी उससे आंखें फेर लें (या उसे तबाह कर दें)। आज का यथार्थ पूंजीवादी मॉडल को हर घड़ी नकार रहा है। वैश्विक उत्तर के देश आज उस नुकसान से खुद को अलग करने का नाटक भी नहीं कर सकते जो भूमध्यरेखा के इर्द-गिर्द बसे देशों में लोगों को कंगाल बनाने वाली उत्पादन प्रणाली लागू करके उन्होंने किया। महामारियों और जलवायु परिवर्तन के रूप में यही तबाही अब हर जगह एक साथ ही सामने आ रही है। इस तरह के खतरों का सामना पूरी मानव जाति की एकजुटता से ही संभव है जो इस धारणा पर आधारित हो कि किसी एक रोगी का स्वास्थ्य सभी के स्वस्थ रहने पर निर्भर है।

आप जैसे महामारी विशेषज्ञ कई सालों से कोविड-19 जैसी पशुओं से मनुष्यों में फैलने वाली ऐसी बीमारियों के बढ़ते खतरे की चेतावनी देते रहे हैं जो घातक रोगाणुओं के कारण होती हैं। फिर भी जब कोविड-19 ने दुनिया पर धावा बोला तो सबसे ज्यादा विकसित देश भी इस चुनौती का सामना करने के लिए चाकचौबंद नहीं थे। क्या इसकी वजह यह थी कि सत्ता प्रतिष्ठान ने वैज्ञानिकों की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया?

प्रत्यक्षत:, विज्ञान एक व्यवस्थित तरीके से यथार्थ की प्रकृति को समझने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। लेकिन अक्सर इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि यथार्थ में विज्ञान की वह भूमिका भी शामिल है जो राजनीतिक सत्ता को सहारा देकर टिकाए रखती है। जब ग्रहों और नक्षत्रों की गतियों को भगवान के होने के तर्क के तौर पर इस्तेमाल किया गया, तो भौतिक विज्ञान तक ने स्थानीय पुरोहितों और शासकों के समक्ष घुटने टेक दिए थे। पश्चिम में गैलीलियो गैलीली, रेने डेकार्ते, आइजैक न्यूटन और चाल्र्स डारविन जैसे जिन दिग्गजों के कंधों पर हम खड़े हैं, उनके कदम जेल और बहिष्कार की धमकियों से थम जाते थे। शायद यही वजह है कि हम बहुत दूर तक देख पाने में असमर्थ हैं- तब भी नहीं जब संक्रामक बीमारियां हमारे सामने से मौत बनकर हमारी आंखों में झांक रही हों।

फिर भी, यह केवल राजनीतिक अनुशासन का मसला नहीं है। भूगोलविद् जेसन मूर और विश्व व्यवस्था के दूसरे सिद्धांतकारों से हमें पता चलता है कि सन 1419 में अफ्रीका के पास मदेरिया द्वीप समूह की ‘उपभोग सीमा’ में पुर्तगालियों के पदार्पण के साथ ही राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक विशिष्ट वैज्ञानिक मत का उदय हुआ जिसने महाद्वीप के परे जाकर पूंजी संचय के लिए सामने आई इस नई श्रम शक्ति को संगठित करने और उसकी प्रकृति को समझने और सूत्रबद्ध करने के साधन के रूप में खुद को पेश किया। इसके बाद से पूंजीवाद के हर अभियान के साथ नियमित रूप से नए विज्ञान भी उभरने लगे जिन्होंने पूंजीवाद को कायम करने में मदद की और बाद में भी उसके सेवक बने रहे : व्यापारियों, गुलामों के सौदागरों, एकाधिकार, कारखाने, बहुराष्ट्रीय निगम, वित्त, नवउदारवाद, जैव तकनीक, सूचना, निगरानी और इनके विभिन्न संयोजनों – सभी ने अपनी बारी आने पर वैज्ञानिक संजीदगी की साख का फायदा उठाने की कोशिश की।

उपनिवेशवादी विस्तार में महामारी-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वैश्विक दक्षिण के देशों में खुली लूट और बेदखली ने उन हाशिये पर पड़े हुए, दूर-दराज इलाकों से बहुत से रोगाणुओं को निकाला, फलने-फूलने में मदद की और क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर फैलने का मौका दिया, जैसे मलेरिया, रिंडरपेस्ट (पशुओं की महामारी), नींद की बीमारी (ट्रिप्नोसोमाइसिस), कालाजार (लीश मनाइसिस) और एचआईवी। इस दौरान योरोप के लोगों ने इन्फ्लुएंजा, टाइफस (सन्निपात), चेचक, खसरा और हैजा फैलाया।

देश-काल के पैमाने के सिवाय कुछ खास नहीं बदला है। आज न्यूयार्क स्थित इको हेल्थ अलायंस जैसे गैर-लाभकारी संस्थान, पूंजीवाद द्वारा वित्तपोषित विकास और वनों के विनाश से उभरती महामारियों की नई विस्फोटक लहरों का इल्जाम देशज समुदायों और छोटे किसानों के मत्थे मढऩे के एवज में कॉरपोरेट दानदाताओं और अमेरिकी रक्षा विभाग से करोड़ों डालर का चंदा लेते हैं। निगमों और वित्तीय पूंजी द्वारा संचालित जमीन की छीना-झपटी के खिलाफ आखिरी लड़ाई लडऩे वाले यही दो समूह हैं (छोटे किसान और देशज समुदाय)। नए रोगाणु अब गहन जंगलों से निकलकर बड़ी आसानी से शहरों के बाहरी इलाकों में फैल सकते हैं और फिर वहां से किसी स्थानीय इलाके की राजधानी में घुसकर किसी हवाई जहाज में पहुंच सकते हैं जो मियामी के तट पर किसी कॉकटेल पार्टी तक उन्हें पहुंचा सकता है – और यह सब महज कुछ हफ्तों में हो सकता है।

मैं जो कहना चाह रहा हूं वह यह है कि सत्ता-प्रतिष्ठान उन वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर क्यों ध्यान देगा जिनका इस्तेमाल वह हमेशा अपनी कारगुजारियों पर परदा डालने और महामारियों के विस्फोट से पैदा हुई तबाही को ढंकने के लिए, इसके एवज में उन्हें चंद पैसे देकर करता आया है। कुछ चिड़चिड़े सरफिरे वैज्ञानिकों – जिन्हें आपदा पर बनी हर फिल्म के शुरू में नजरअंदाज किया जाता है – को वे बुर्जुआ सत्ता का नाभिनाल क्यों कर काटने दे सकते हैं? ‘हर कोई’ जानता है कि संक्रामक बीमारियां वैश्विक दक्षिण के देशों की समस्या हैं। गोरे और धन्नासेठों को और धनी बनाने की कीमत का कुछ हिस्सा भूमध्यरेखा के इर्द-गिर्द के लाखों लोग हर साल अपनी जान देकर चुका रहे हैं और उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया है। यह ‘आश्चर्यÓ वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य निर्देशक तत्व बन चुका है।

 

कोविड-19 की उत्पत्ति का क्षेत्रीय सिद्धांत

कोविड-19 के बारे में सबसे पहले चीन में पता चला और उसके बाद वह पूरी दुनिया में फैल गया। इस सिद्धांत के पक्ष में मजबूत दलीलें दी गईं कि यह वायरस शुरू में वूहान के एक समुद्रीखाद्य बाजार से फैला। लेकिन इसके अलावा एक और दलील या आरोप यह भी है कि यह वायरस वूहान की एक जैवविज्ञान प्रयोगशाला से लीक हुआ। इस नए कोरोना वायरस की उत्पत्ति के बारे में आप क्या मानते हैं?

वूहान के हुनान समुद्री-खाद्य पदार्थों के थोक बाजार से कोविड-19 के जन्म की कहानी कमजोर है। बाजार से लिए गए नमूनों में से संक्रमित पाए गए नमूनों का केवल 40 प्रतिशत बाजार की उन गलियों से लिया गया था, जहां जंगली जीव-जंतुओं को रखा गया था। संक्रमित मनुष्यों के एक चौथाई न तो कभी बाजार में आए थे और न ही वहां की किसी चीज से उनका सीधा संपर्क हुआ था। कुछ ऐसे भी आनुवांशिक प्रमाण सामने आ रहे हैं जो इसके बरक्श इस संभावना का समर्थन करते हैं कि वूहान में कोविड-19 के फैलने के कई साल पहले से ही यह वायरस लोगों के बीच घूम रहा था। मैं कोविड-19 की उत्पत्ति के बारे में इस प्रकार के ‘क्षेत्रीय सिद्धांत’ का समर्थक हूं।

इस परिकल्पना के अनुसार, यह वायरस मध्य और दक्षिणी चीन में घोड़ानाल चमगादड़ों के आवासों को उजाडऩे से बाहर निकला – और भूमि उपयोग की उन श्रृंखलाओं की कडिय़ों से गुजरता हुआ, जिनकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं, और परंपरागत पालतू पशुओं की स्थानीय आबादी में, मारकर खाए जाने वाले जंगली जानवरों में घुसा और उनके जरिये उनके ऊपर निर्भर मजदूर आबादी को संक्रमित कर दिया। अभी भी, विभिन्न किस्मों के कोरोना वायरस चमगादड़ों से इतर जीव-प्रजातियों पर, अगर लाखों नहीं तो कम से कम हजारों की संख्या में खुद को आजमा रहे हैं और इस प्रक्रिया में वे सीख रहे हैं कि मनुष्यों के प्रतिरक्षा तंत्र को कैसे तोड़ा जाए। कोविड-19 ने भी वूहान तक के अपने सफर में कई सालों तक ऐसा किया होगा।

एक और वैकल्पिक परिकल्पना भी है। प्रयोगशाला से रिसाव का सिद्धांत यह मानता है कि सार्स जैसे वायरस की एक किस्म वूहान की दो सरकारी जैव-सुरक्षा प्रयोगशालाओं में से किसी एक के पिछले दरवाजे से निकल भागी। ये प्रयोगशालाएं हुनान बाजार से बहुत दूर नहीं हैं। इस सिद्धांत के कुछ संस्करण बेहद बचकाने हैं, जिन्हें हम खारिज कर सकते हैं। यहां अमेरिका में ट्रंप समर्थक और उनके उदारवादी विरोधी, दोनों ही चीन पर कीचड़ उछालना पसंद करते हैं। और फिर वे यह नहीं समझ पाते कि क्यों यहां की गलियों में एशियाई अमेरिकियों को पीटा जाता है। लेकिन इस परिकल्पना के कहीं ज्यादा विश्वसनीय संस्करण भी हैं। इन बेहतर संस्करणों में से एक की खुद मैंने चीर-फाड़ की है और उसकी अंतर्निहित समस्याओं (और संभावनाओं) का खुलासा किया है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट, जिसे खुद विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व ने खारिज कर दिया है, के खिलाफ जाकर मेरा मानना है कि प्रयोगशाला से रिसाव की बहुत-बहुत कम संभावना है।

2013 में प्रिंसटन विश्वविद्यालय की एक टीम ने 9/11 के बाद जैव सुरक्षा प्रयोगशालाओं के विस्तार और उसके पहले सदी के प्रथम ख्याति प्राप्त वायरस एच5एन1 की लहर के फैलने का एक मानचित्र तैयार किया। इस टीम ने दर्शाया कि दुनिया के सबसे ज्यादा घातक रोगाणुओं पर शोध करने वाली और जैव सुरक्षा स्तर बीएसएल-3 और बीएसएल-4 वाली हजारों प्रयोगशालाएं बहुत ही कम नियंत्रणों और नियामकों के साथ वूहान, पुणे और भोपाल समेत दुनिया के बड़े शहरों में या उसके नजदीक निर्मित कर दी गई हैं। जब इतने ज्यादा मौके दिए जाएं तो ऐसी विरली घटना भी अवश्यंभावी सी हो जाती है। इसका मतलब कतई यह नहीं कि वूहान में जो हुआ वह प्रयोगशाला से वायरस के रिसाव के चलते था। भले ही मैं कोविड-19 की उत्पत्ति के क्षेत्रीय सिद्धांत का समर्थक हूं, फिर भी मैं समझता हूं कि प्रयोगशाला से रिसाव एक वास्तविक संभावना है जिसकी और गहराई से जांच- पड़ताल की जानी चाहिए।

 

नव उदारवादी मोर्चों’  से मनुष्यों में प्रवेश

आपकी दलील है किकुछ रोगाणु ठीक उत्पादन के केंद्रों से उभरते हैं, जैसे अभी दिमाग में खाद्यजनित बैक्टीरिया सल्मोनेला और कैम्पिलोबैक्टर का नाम रहा है। लेकिन कोविड-19 जैसे बहुत से रोगाणुओं की उत्पत्ति पूंजीवादी उत्पादन के मोर्चों पर होती है।‘’ क्या आप इसे स्पष्ट करेंगे।

अलग-अलग देशों, प्रजातियों और उत्पादित माल पर निर्भर करता है कि रोगाणुओं का उभार किस तरह होगा। लेकिन आज हम सभी वैश्विक स्तर पर हो रही बेदखली और पर्यावरण के विनाश के एक ही जाल से जुड़े हैं जिसके आधार पर नए रोगाणुओं के कई महाद्वीपों में फैलाव की व्याख्या की जा सकती है। चीन में सार्स, मध्य पूर्व और पश्चिमी एशिया में मेर्स (मिडिल ईस्ट रेस्पीरेटरी सिंड्रोम), ब्राजील में जीका, योरोप में एच5एनएक्स, उत्तरी अमेरिका में स्वाइन फ्लू – इसके मात्र कुछ उदाहरण हैं। और यह सिर्फ खेती के औद्योगीकरण का नतीजा नहीं है। भारत और कई दूसरे देशों में बांध और सिंचाई परियोजनाएं मलेरिया के फैलाव को बढ़ावा देती हैं।

वास्तव में, लुटेरा पूंजीवाद उन बचे-खुचे वर्षा-वनों और सुदूर सवाना के मैदानों तक अपनी मुनाफे की हवस मिटाने जा पहुंचा है जो अभी तक पूंजीवादी उत्पादन के जाल में नहीं फंसे थे। और इस वैश्विक पूंजी को जहां विरोध का सामना होता है, वहां वह प्रतिरोध करने वाले देशज लोगों और छोटे किसानों के खिलाफ राज्य को उकसाकर उनका दमन करवाती है। आप छत्तीसगढ़ में ऑपरेशन ग्रीन हंट और ओडिशा की पहाडिय़ों में बाक्साइट खनन के बारे में सोच सकते हैं। परिणामस्वरूप, आज दुनिया पूंजीवादी उत्पादन के इन क्षेत्रीय परिपथों की श्रृंखला से जकड़ दी गई है। हरेक परिपथ गहनतम जंगलों से शहरों के बाहरी इलाकों में होता हुआ वहां की क्षेत्रीय राजधानी तक जाता है। एक फसली खेती, खनन और ल_ों के लिए वृक्षों की कटाई परिपथ के रास्ते में प्रकृति को चूसती चली जाती है और वहां रहने वाले लोगों को या तो बाहर धकेल दिया जाता है या उनका सर्वहाराकरण करके उन्हें सस्ते श्रम में तब्दील कर दिया जाता है।

विकास का अश्वमेधी घोड़ा जिन जंगलों तक जा पहुंचा है उनकी सीमाओं से, जिन्हें भूगोलविद् ‘नवउदारवादी मोर्चे’ कहते हैं, नए पशुजनित रोगाणु लगातार बाहर आ रहे हैं। जैसा कि हमने पहले जिक्र किया, वे हाशिये पर डाल दिए गए अपने जंगली मेजबानों की घटती आबादी से निकलकर तेजी से स्थानीय पालतू पशुओं और मारकर खाए जाने वाले जानवरों में आ रहे हैं और फिर उन पर निर्भर खेत मजदूरों या पशु-पालकों को संक्रमित कर रहे हैं। पर्यावरण को तबाह करने वाले इन स्थलों से निपाह वायरस, कोरोना वायरस और इबोला जैसी बीमारियां मनुष्यों में फैली हैं। कुछ सीमित मेजबानों तक इन रोगाणुओं के फैलाव को समेटकर रखने वाले पहले के पारिस्थितिकी-तंत्रों को पहले छिन्न-भिन्न किया जाता है और फिर उन्हें दूसरे पारिस्थितिकी-तंत्रों से इस तरह जोड़ दिया जाता है कि पूंजीवादी उत्पादन के परिपथों के रास्ते रोगाणुओं को निकास के नए द्वार मिल जाते हैं, जो पहले उपलब्ध नहीं थे। और इस तरह रोगाणु क्षेत्रीय राजधानी तक पहुंचते हैं और कुछ तो दुनिया की ओर रुख कर लेते हैं।

दूसरे रोगाणु उत्पादन के प्रवाह चक्र के दूसरे सिरे पर उभरते हैं, उदाहरण के लिए शहरों के केंद्रों में खाद्य-आपूर्ति करने वाले बाहरी इलाकों में स्थित विशाल बाड़ों में। इस तरह, उदाहरण के तौर पर खाद्य-जनित बैक्टीरिया या एवियन इन्फ्लुएंजा उन हजारों मुर्गी फार्मों और पशु बाड़ों में चक्कर लगाने लगते हैं जहां शहरी उपभोक्ताओं का पेट भरने के लिए उन्हें तैयार किया जा रहा होता है। इसके पहले कि वे आदमियों को संक्रमित करें, एक फार्म से दूसरे फार्म या बाड़ों से गुजरते वक्त कभी-कभी उनकी मारक क्षमता में छलांग लग जाती है। 1959 के बाद सामने आए एवियन इन्फ्लुएंजा के ऐसे 39 मामलों में जिनमें उनकी मारक क्षमता उत्तरोत्तर बढ़ती गई, दो को छोड़कर सभी व्यावसायिक मुर्गी पालन के दौरान घटित हुए थे और उन फार्मों में हजारों से लेकर लाखों तक पक्षी विकसित किए जा रहे थे।

कोविड-19 की उत्पत्ति कुछ-कुछ उत्पादन के इन दोनों छोरों – जंगलों और औद्योगिक फार्मों, के मेल से हुई है। दुनिया भर के चमगादड़ कोरोना वायरस की मेजबानी करते हैं। लेकिन चीन के घोड़ानाल चमगादड़ों में पाई जाने वाली वायरस की किस्म जब सफलतापूर्वक दूसरे जीवों को संक्रमित करने लगी तो उसने इंसानों पर सबसे बुरा प्रभाव डाला। अभी हाल तक उनसे कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन ये चमगादड़ जिस पर्यावरण में रहते थे, वह बुनियादी तौर पर बदल चुका है।

माओ के बाद चीन ने जब आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को अपनाया तो अपने संसाधनों के दम पर अपने लोगों की जरूरतें पूरी करने के इरादे से उसने विकास के लिए ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का रास्ता चुना। करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर खींच निकाला गया। लेकिन करोड़ों लोग दौड़ में पीछे छूट गए। इस रास्ते को अपनाने के फायदे या नुकसान चाहे जो भी रहे हों, इसके परिणामस्वरूप मध्य और दक्षिणी चीन के पूरे परिदृश्य पर चीनी कृषि व्यवसायी निगमों और एक तेजी से बढ़ते पूंजीवादी ढंग के मांस-मछली के बाजार का उदय होने लगा- यही वह इलाका था जहां इन चमगादड़ों की बहुत सी प्रजातियां रहती थीं। ठीक इबोला के मामले की तरह, चमगादड़ों, पालतू पशुओं, शिकार कर खाए जाने वाले जंगली जानवरों, किसानों और खान-मजदूरों के बीच उत्पादन के इस नए मोर्चे पर होने वाली अंतर-क्रिया तेजी से बढऩे लगी और उसने सार्स जैसी कोरोना वायरस की विभिन्न किस्मों के आवागमन की रफ्तार बढ़ा दी।

 

महामारी के प्रणालीगत कारण

मुख्यधारा का नजरिया हर नए वायरस के हमले को विशुद्ध जीव वैज्ञानिक परिघटना की तरह देखता है और उन्हें सामाजिक जीवन की बुनियाद में निहित प्रणालीगत कारणों से अलग समझता है। लेकिन अपने और आपके सहकर्मियों ने इन प्रणालीगत कारणों के बारे में विस्तार से लिखा है। पूंजीवाद के आने के पहले के दौर में भी रोगाणु मौजूद थे। फिर क्यों आपपूंजीवादी युगकोमहामारियों का युगकहते हैं?

यदि आप इस व्यवस्था को पसंद करते हैं और इससे फायदा उठा रहे हैं तो आप कभी भी उस तबाही के लिए व्यवस्था को दोष नहीं देंगे जो वह ढा रही है। आप पीडि़त को दोष देते हैं, या अपने दुश्मन को या फिर मानवेत्तर कारणों को। कोविड-19 के मामले में शासकों ने तीनों को ही दोषी करार दिया है। गरीबों के लिए समुचित आवासों की व्यवस्था करने में राज्य की नाकामी को कठघरे में खड़ा करने के बजाय गरीबों को दोष दो कि वे एक साथ भीड़-भाड़ में क्यों रहते हैं। चीन (या पाकिस्तान या माओवादियों या मुसलमानों) को दोष दो। या खुद वायरस को ही दोषी ठहरा दो।

यह ठीक है कि संक्रमण वायरस से ही फैलता है लेकिन संक्रमण फैलाने वाले या उसके शिकार लोगों को ही कारण के रूप में चिन्हित करना सत्ताधीशों और उनके सेवक महामारी विशेषज्ञों को इसके व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र, यानी उन कार्य-कारण संबंधों का क्षेत्र जो तय करते हैं कि किसी रोगाणु के सामने कौन से अवसर और बाधाएं मौजूद हैं, पर सवाल उठाने से बचने का मौका देता है। अंतिम तौर पर, रोगाणु बहुत कुछ वैसे ही फैलते हैं जैसे पानी बर्फ की दरारों से होकर बहता है। सत्ता संरचना सामूहिक रूप से उन निर्णयों को लेती है जो तय करते हैं कि किसी समाज रूपी बर्फ में कितनी दरारें कहां पर उभरेंगी। और यह सिर्फ महामारी के साल या किसी चुनावी चक्कर के वक्त ही नहीं होता बल्कि दशकों से यह प्रक्रिया चल रही होती है। क्या आपके पास ऐसी कोई राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा है जिसके लिए समुचित धन उपलब्ध है (जिसे बनाने में दशकों लग जाते हैं और जिसके रख-रखाव में अरबों रुपए की दरकार होती है)? क्या आपके देश में लोगों को पीने का साफ पानी और पौष्टिक खाना नसीब है? क्या आपके पास ऐसी सामाजिक सेवाएं मौजूद हैं जो आपदा के वक्त लोगों को आश्रय दे सकें और उन्हें खाने-खर्चे के लिए परेशान न होना पड़े? मास्क जैसे गैर-औषधि हस्तक्षेपों को सर्वसुलभ बनाने के बारे में आपकी स्थिति क्या है? चीन, वियतनाम, न्यूजीलैंड, क्यूबा, उरुग्वे और ताइवान जैसे देश, जहां बहुत भिन्न किस्म की राजनीतिक व्यवस्थाएं हैं, शुरुआत में बिना किसी टीके के महामारी को परास्त करने में सफल रहे। क्या भारत ने अमेरिका और ब्राजील के नक्शे कदम पर चलते हुए उदारवादी या फिर नकारवादी रास्ता अपनाया? क्या यही भारत में इसके वर्तमान विस्फोट की वजह बना?

ठीक है कि महामारियां पहले भी आई हैं। दरअसल, जब से मनुष्यों ने सभ्यता का आगाज किया, उनकी मौत की सबसे बड़ी वजह संक्रामक बीमारियां रही हैं। जब हम यायावर जीवन को त्याग कर शहरों में बस गए तो वहां की घनी और विशाल आबादी ने ज्यादा विकट संक्रमणों को फलने-फूलने का मौका दिया। लेकिन, क्योंकि बीमारियां पहले भी मानव आबादी में फैलती रही हैं, मात्र इसलिए यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि अब पूंजीवाद इन नए संक्रामक-विस्फोटों का कारण नहीं बन रहा है।

आदमियों की तरह रोगाणुओं का भी इतिहास होता है। उनकी उत्पत्ति होती है, दुनिया के दूसरे देशों में प्रवासी के रूप में पहुंचते हैं, उनके अपने स्वर्ण युग और अंधकार युग होते हैं और औद्योगिक क्रांतियां भी। और क्योंकि मनुष्यों को संक्रमित करने वाले रोगाणु हमारी खुद की बनाई दुनिया में अपना विकास और विस्तार करते हैं, ये काल अक्सर हमारे ऐतिहासिक युगों से मेल खाते हैं। उदाहरण के लिए हैजा के बैक्टीरिया का अधिकांश इतिहास गंगा के डेल्टा में सूक्ष्म जल जीवों को खाते हुए जीवन-यापन करने का है। केवल तभी, जब मनुष्य शहरों में बसने लगा जो बाद में 19वीं सदी में जलमार्गों से जुड़ गए, हैजा दुनियाभर के शहरों तक पहुंचने में सफल हो सका। जब नगरपालिकाएं उन्हीं जलस्रोतों से पीने का पानी लेने लगीं जिनमें शहरों का गंदा पानी और मैला फेंकती थीं, तो इस बैक्टीरिया का हाशिये का जीवन खत्म हुआ और वह दहाड़ते हुए संक्रमण फैलाने में सक्षम हो सका।

हमारी वैज्ञानिक समझ और चिकित्सा प्रौद्योगिकी में अधुनातन तरक्की के बावजूद मनुष्य जाति स्वयं को महामारी के भयावह संकट में घिरा पा रही है। हर तरह से इसका संबंध इस बात से है कि एक समाज के रूप में हम खुद को कैसे संगठित करते हैं। हम कितना ही महत्त्वपूर्ण जैव-चिकित्सकीय आविष्कार क्यों न कर लें, और वह चाहे जितना कारगर क्यों न बना रहे, उसकी तुलना में हमारी सामाजिक संस्थाएं कई तरह से ज्यादा महत्त्वपूर्ण रोग-निरोधक रहेंगी।

फिलहाल, नवउदारवादी पूंजीवाद का दुनिया भर में वर्चस्व है और वह हैजे की रोकथाम में मदद करने वाली जल-शोधन परियोजनाओं जैसी तमाम सार्वजनिक सेवाओं को खत्म करना चाहता है ताकि सरकार की जिम्मेदारियां कम होती जाएं और निगमों की उत्पादकता को बढ़ावा मिले। यह न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है, वरन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सरकारें मिलकर इसे अंजाम दे रही हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), उनसे ऋण लेने वाले देशों से मांग करते हैं कि अपनी अर्थव्यवस्था के ढांचे को इस तरह से बदलें कि छोटे उत्पादकों को दी जाने वाली घरेलू मदद कम हो और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने दें, बजट में मितव्ययिता बरतें और इसके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम करें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेलगाम छोड़ देने का परिणाम यह होता है कि अब खेती योग्य जमीनों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों लोगों का पेट भरने वाली रोटी की टोकरी की तरह नहीं बल्कि निर्यात आधारित मुनाफे के साधन के रूप में देखा जाता है। जब कंपनियां एक इलाके को तबाह कर चुकी होती हैं और उसके साथ-साथ उस कड़ी मशक्कत पर भी पानी फेर चुकी होती हैं जो स्थानीय पारिस्थितिकी-तंत्र जंगली जीवों से मनुष्यों में संक्रमण को रोकने के लिए कर रहे होते हैं, तो पूंजी दूसरे इलाके की ओर रुख करती है और उसे भी उसी तरह निचोडऩे में लग जाती है।

अत: भले ही वर्तमान विराट फार्म और पशु बाड़े बीमारियों के पिछले फैलाव की व्याख्या नहीं करते, लेकिन इसका कत्तई यह मतलब नहीं है कि वे रोगाणुओं की हमारी वर्तमान खेप के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। यह कुछ इस तरह की दलील हुई कि आज तेल युद्ध का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि रोमन कभी उसके लिए कहीं नहीं लड़े थे। हमें अपने ऐतिहासिक विकास को कबूलना होगा। साथ ही हमें उन रोगाणुओं को भी कबूलना होगा जिन्हें हमने फैलाया। और ठीक अभी, वैज्ञानिक साहित्य में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि पूंजीवाद के नेतृत्व में हम पहले से कहीं ज्यादा संख्या में संक्रमणों के कहीं ज्यादा व्यापक और कहीं ज्यादा तेज फैलाव के शिकार हो रहे हैं जो मुनाफे के लिए हमारे पारिस्थितिकी तंत्रों को तहस-नहस करता जा रहा है।

 

जैवआर्थिक युद्ध

आपकी किताबबिग फार्म मेक्स बिग फ्लू’ (बड़े फार्म बड़ेबड़े संक्रमण पैदा करते हैं) साहस के साथ कहती है, ”बड़े खाद्य निर्माताओं का संक्रामक इन्फ्लुएंजा के साथ रणनीतिक गठजोड़ हो चुका हैदेशीविदेशी राज्य सत्ता के समर्थन से बड़े कृषि व्यवसायी अब जितना इन्फ्लुएंजा के खिलाफ काम कर रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा उसके लिए काम कर रहे हैं।‘’ आपका यह भी कहना है कि  ”बड़े कृषि व्यवसायी सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ युद्धरत हैं।‘’ कृपया खुलासा करें।

यह आक्रोश की अभिव्यक्तियां हैं! फिर भी इनका पूरी तरह से बचाव किया जा सकता है। कृषि व्यवसाय ने जान-बूझकर बहुत से नए वायरसों का उभार पैदा नहीं किया है बल्कि यह उनके द्वारा जंगलों की सरहदों पर जमीनें हथियाने और शहरों के बाहरी इलाकों में विशाल पशुबाड़े बनाने का दुष्प्रभाव है। उत्पादन को पूरी तरह मुनाफे के इर्द-गिर्द संगठित करने के दौरान बड़े कृषि व्यवसायियों ने उन साधनों का भी नियोजन कर डाला है जिनके जरिये सबसे घातक और सबसे संक्रामक रोगाणु रोग-प्रसार के लिए चुने जाते हैं।

आनुवांशिक तौर पर एक जैसे चूजों और पशुओं की विशाल और घनी आबादी एक साथ मिलकर उनकी रोग-प्रतिरोधी क्षमता को मसलकर रख देती है। परिणामस्वरूप, वे रोगाणु जो सबसे तेजी से अपने प्रतिरूप तैयार करते हैं, बढ़कर संक्रमण फैलाने के उस स्तर तक जा पहुंचते हैं कि किसी बाड़े या गोशाला में मौजूद सभी जानवर उनकी चपेट में आ जाते हैं और इस तरह वे अपने रास्ते में भारी तबाही मचाते चलते हैं। बड़े कृषि व्यवसायी हमें जिन परिस्थितियों में डाल रहे हैं, उनमें घातक रोगाणुओं की कम जहरीली किस्मों को हराकर उभर आते हैं।

महामारी के विस्फोट के गुजर जाने के बाद भी तबाही चलती रहती है। चूंकि पशुओं का प्रजनन फार्म पर नहीं होता – अधिकांशत: प्रजनन के लिए उन्हें बाड़े के बाहर किसी दादा की पीढ़ी के सांड के पास ले जाया जाता है जिससे बाजार की तेजी से बढ़वार जैसी मांगें पूरी होती हैं- इसलिए ऐसा कोई भी जानवर जो किसी संक्रामक बीमारी के हमले से बच निकला है, अगली पीढिय़ों के लिए सांड के तौर पर अपनी सेवाएं नहीं दे सकता। अर्थात, चूंकि खाद्य जानवर फार्म पर पुनरुत्पादन नहीं करते, इसलिए किसी संक्रामक रोगाणु के प्रसार के वक्त उनकी प्रतिरोधी क्षमता को फौरी तौर पर विकसित नहीं किया जा सकता। पशुओं को संक्रमणों से बचाने के लिए औद्योगिक कृषि में टीकों और रोगाणुरोधियों की जरूरत पड़ती है। जैसा कि मनुष्य जाति को इस साल पता चला, टीके के विकास में सालों नहीं तो महीनों का वक्त लग जाता है और तब तक बीमारी की लहर आकर जा भी चुकी होती है। प्रसाधन सामग्री में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले रोगाणुरोधी भी उन बैक्टीरिया में औषधि के प्रतिरोध को जन्म दे सकते हैं जो मनुष्यों को संक्रमित करने लग गए हैं। संक्षेप में, पशुधन उत्पादन के औद्योगिक मॉडल में जैव-सुरक्षा जैसी कोई बात नहीं है।

मैंने अभी कहा कि कृषि व्यवसाय जान-बूझकर बीमारी नहीं फैलाता लेकिन वह अपने द्वारा पैदा किए इन संकटों का फायदा जरूर उठाता है। जब किसी इलाके में स्थित मुर्गी फार्मों और पशुबाड़ों में कोई संक्रमण फैलता है तो उससे सबसे ज्यादा प्रभावित और नुकसान उठाने वाले लोग होते हैं- उसके भिन्न-भिन्न अधिकार क्षेत्रों में काम करने वाली अधिकांश सरकारें, फार्म पर काम करने वाले मजदूर, करदाता, उपभोक्ता और स्थानीय वन्य जीव। हमेशा दूसरे लोगों को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। अगर कृषि व्यवसाय नुकसान को दूसरों पर लाद सकता है, तो वह अपनी कार्यप्रणाली में सुधार क्यों करेगा? कंपनी के बही खाते में संक्रमण के नुकसान की कोई कीमत दर्ज नहीं होती और वह औद्योगिक मॉडल पर काम करती रहती है।

परिणामस्वरूप, उपेक्षा, दुर्भावनापूर्ण इरादों में बदल जाती है। इस प्रकार के जैव-आर्थिक युद्ध में, जब रोगाणु औद्योगिक फार्मों या खाद्य-प्रसंस्करण संयंत्रों से बाहर निकलकर छोटे स्तर के कार्यकलापों में लगे लोगों को संक्रमित करते हैं तो वायरस छोटे कृषि-व्यवसायियों को प्रतियोगिता में बर्बाद कर सकते हैं। अमेरिका से लेकर थाइलैंड तक के दस्तावेजों में दर्ज किया गया है कि जब ये संक्रमण फैलते हैं तो औद्योगिक क्षेत्र सरकार से मांग करने लगता है कि जैव-सुरक्षा को और कड़ा बनाने के लिए देश में कानून बनाया जाए। लेकिन अक्सर केवल बहुत बड़ी कंपनियां ही इन कड़े जैव-सुरक्षा मानकों को व्यवहार में लागू कर पाती हैं- मसलन, खुली हवा में पक्षियों को रखने पर रोक, या हर चूजे में माइक्रोचिप लगाना। बड़े कृषि व्यवसासियों के छोटे प्रतियोगियों का सफाया करने वाली बीमारियां अक्सर संक्रमणों के दौरान उन्हें अधमरा कर देती हैं।

अत:, इस अर्थ में इंफ्लुएंजा और दूसरे रोगाणुओं की सेवा में दुनिया के सबसे ताकतवर वकील लगे हुए हैं। क्योंकि कृषि-व्यवसाय के इस मॉडल को बचाया जा रहा है, यहां तक कि उसका विस्तार किया जा रहा है, इसलिए संक्रमण के फैलने पर स्थानीय और वैश्विक स्तर पर सफलता के झंडे गाड़ते रोगाणुओं को पीछे धकेलने के लिए कुछ भी नहीं किया जाता। इस अर्थ में, कृषि व्यवसाय बुनियादी तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से युद्ध की स्थिति में है। और नए घातक रोगाणुओं का उभरना, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के ढांचे को मितव्ययता के बजट के नाम पर कमजोर करना और विश्व बैंक और मुद्राकोष की शर्तों पर होने वाला अर्थव्यवस्था का ढांचागत समायोजन, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस युद्ध में कृषि-व्यवसायी जीत रहे हैं।

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