नब्बे के इरफान हबीब

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– शुभनीत कौशिक

मध्यकालीन भारत के दिग्गज इतिहासकार इरफान हबीब अगस्त, 2021 में नब्बे वर्ष के हो गए हैं। बीसवीं सदी के छठे दशक में जब इरफान हबीब ने लिखना शुरू किया, उस वक्त तक मध्यकालीन भारत के इतिहास का दायरा सुल्तानों, मुगल बादशाहों और उनके दरबारों, हिंदू राजाओं के जीवन और उनके इतिहास तक सीमित था। यह मुख्यत: राजनीतिक किस्म का इतिहास था, जिसमें तारीखों और युद्धों के विवरण की भरमार थी। सर यदुनाथ सरकार से लेकर बेनी प्रसाद, ईश्वरीप्रसाद, आरपी त्रिपाठी, आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव तक। यहां तक कि इतिहासकार सतीश चंद्र की पहली पुस्तक भी औरंगजेब और उसके ठीक बाद के मुगल दरबार, उसके गुटों और उनकी राजनीति पर ही केंद्रित थी।

ऐसे में इरफान हबीब की क्लासिक किताब एग्रेरिरयन सिस्टम ऑफ मुगल इंडिया  ने शासक वर्ग तक सीमित हो चले मध्यकालीन इतिहास के परिसर में किसानों को उनकी वाजिब जगह दिलाने का काम किया। 1963 में छपी इस शानदार किताब के अब साठ साल पूरे होने को हैं, लेकिन मुगलकालीन अर्थव्यवस्था, किसानों की स्थिति, कृषि की ऐतिहासिक दशा के संदर्भ में यह पुस्तक आज भी अपना सानी नहीं रखती। अपनी इस किताब में उन्होंने मुगलकालीन भारत में कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों के व्यापार, किसानों की दशा और उनके जीवन के बारे में तो लिखा ही, साथ ही भूमि के संदर्भ में किसान, गांव और जमींदार के अंतरसंबंधों पर भी रोशनी डाली। राजस्व से जुड़े अनुदानों, भू-राजस्व के प्रबंधन का इतिहास लिखते हुए इरफान हबीब ने मुगल साम्राज्य के आखिरी दौर में उठ खड़े होने वाले कृषि संकट का भी गहन विश्लेषण किया।

कृषि और किसानों के साथ-साथ आर्थिक इतिहास, मध्यकाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इतिहास पर भी इरफान हबीब ने बेहतरीन काम किया। उन्होंने इतिहासकार तपन रायचौधरी के साथ कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया  के पहले खंड का संपादन भी किया। इस खंड में इतिहासकारों के समूह द्वारा बारहवीं सदी से लेकर अठारहवीं सदी के मध्य तक के कालखंड के दौरान भारत का आर्थिक इतिहास लिखा गया। कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री  में इरफान हबीब ने मध्यकालीन भारत की भौगोलिक पृष्ठभूमि, सल्तनतकालीन कृषि एवं अर्थव्यवस्था, गैर-कृषि उत्पादन और नगरीय अर्थव्यवस्था, जनसंख्या, मुगल भारत में कृषि उत्पादन, कृषि संबंधों और भू-राजस्व, मौद्रिक व्यवस्था और मूल्य-जैसे बहुविध विषयों पर लेख लिखे थे। कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री  के उक्त खंड में इरफान हबीब और तपन रायचौधरी के अलावा बर्टन स्टाइन, साइमन डिग्बी, एच. फुकाजावा, एल.बी. अलाएव, के.एन. चौधरी, ए. दासगुप्ता, गेविन आर.जी. हैंबली, सतीश चंद्र और अमलेंदु गुहा के लेख भी शामिल थे।

 

ऐतिहासिक मानचित्र और जनइतिहास की पहल

इरफान हबीब ने मुगल साम्राज्य का मानचित्र तैयार करने और भारत का जन-इतिहास लिखने के महत्त्वाकांक्षी कार्य को भी अंजाम दिया। छपने के साथ ही उनकी पुस्तक एन एटलस ऑफ मुगल एंपायर  (1982) मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ बन गई। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक-आर्थिक भूगोल को समझने के लिए यह किताब अत्यंत आवश्यक है। इसी क्रम में, उन्होंने प्राचीन भारत का मानचित्र भी तैयार किया, जो वर्ष 2012 में एटलस ऑफ एंशियंट इंडियन हिस्ट्री शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में भारत के 1075 से अधिक ऐतिहासिक स्थलों को मानचित्र पर दर्शाने के साथ ही प्राचीन भारत के बदलते हुए मानव भूगोल को भी चिन्हित किया गया है। दूसरी ओर, उन्होंने पीपल्स हिस्ट्री ऑफ इंडिया  सीरीज के अंतर्गत भारतीय इतिहास पर पुस्तकों की एक शृंखला लिखी और संपादित की। उक्त सीरीज के अंतर्गत अब तक पंद्रह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें से दस पुस्तकें स्वयं इरफान हबीब ने लिखी हैं, जिनके विषय हैं : प्रागैतिहासिक भारत, मनुष्य एवं पर्यावरण, सैंधव सभ्यता, मौर्य एवं मौर्योत्तरकालीन भारत, सल्तनतकालीन भारत का आर्थिक इतिहास, आरंभिक ब्रिटिश काल में भारतीय अर्थव्यवस्था, मध्यकालीन भारत में प्रौद्योगिकी, आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास, एवं भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन। उन्होंने विवेकानंद झा, विजय ठाकुर आदि इतिहासकारों के साथ भी इस सीरीज की पुस्तकों के लिए सहलेखन किया है। इसके साथ ही इस सीरीज में अमर फारूकी, कृष्ण मोहन श्रीमाली की पुस्तकें भी शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने यूनेस्को द्वारा प्रकाशित की गई पुस्तकों हिस्ट्री ऑफ ह्यूमेनिटी एवं हिस्ट्री ऑफ सेंट्रल एशिया  का सह-संपादन भी किया। वह मिडिएवल इंडिया क्वाटरली  पत्रिका के संपादक भी रहे। उल्लेखनीय है कि इस पत्रिका के अंक हिंदी में भी मध्यकालीन भारत शीर्षक से अनूदित हुए।

इरफान हबीब लंबे समय से ब्रजभूमि के दस्तावेजों पर काम कर रहे थे। यह हर्ष की बात है कि अभी पिछले ही वर्ष इसी विषय पर उनकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण किताब ब्रज भूम इन मुगल टाइम्स  प्रकाशित हुई, जो उन्होंने दिवंगत इतिहासकार तारापद मुखर्जी के साथ लिखी है। मुगल काल में ब्रज क्षेत्र के तीन गांवों वृंदावन, राधाकुंड और राजपुर में संरक्षित ब्रज और फारसी के दस्तावेजों के जरिए गोसाइयों, किसानों और मुगल राजव्यवस्था के अछूते पहलुओं को प्रकाश में लाने का काम इस किताब में उन्होंने किया है।

 

मुगलकालीन और औपनिवेशिक भारत की अर्थव्यवस्था पर नजर

किताबों के साथ-साथ उनके कुछ लेख भी क्लासिक का दर्जा रखते हैं और ऐतिहासिक सूचनाओं, विश्लेषण और भारतीय इतिहास एवं समाज के बारे में अपनी गहरी अंतर्दृष्टि के लिए जाने गए। मसलन, मुगलकालीन भारत की अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित पूंजीवादी विकास की संभावनाओं और उसके मार्ग में आने वाले अवरोधकों पर उनका वह लेख देखें, जो जर्नल ऑफ इकनॉमिक हिस्ट्री  में छपा था। इरफान हबीब के अनुसार, मुगल काल में कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों में होने वाले उत्पादन का बड़ा हिस्सा बाजार के लिए उत्पादित हो रहा था। खेती की बात करें तो खुद काश्तकारों की मौजूदगी पूंजीवादी ढर्रे पर होने वाली कृषि की ओर बढ़ते शुरुआती कदम की ओर इशारा भी करती है। उल्लेखनीय है कि मुगलकालीन राजस्व प्रणाली ने अर्थव्यवस्था का मौद्रीकरण तो किया लेकिन भूमि राजस्व के रूप में कृषि से प्राप्त होने वाला अधिशेष शासक वर्ग की जरूरतों और उसके आलीशान जीवन शैली की जरूरतों के सामान जुटाने में ही प्रयुक्त हुआ, न कि बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन और विनिर्माण में। शासक वर्ग द्वारा गांवों से वसूली गई संपत्ति का अधिकांश हिस्सा सैनिकों, शस्त्रों, कलाकारों और विद्वानों को दिए जाने वाले प्रश्रय और उनके अपने उपभोग के लिए जरूरी सामानों पर खर्च कर दिया जाता था। साथ ही, उनके पास दासों और नौकरों की भी बड़ी संख्या थी, जिन पर काफी खर्च होता था। इसके अलावा उनमें स्वर्ण और रजत मुद्राओं एवं बहुमूल्य रत्नों के संचय की प्रवृत्ति भी थी, जिसकी वजह से उन लोगों ने विनिर्माण या बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए निवेश करने को प्राथमिकता ही नहीं दी।

मुगल राजस्व प्रणाली से गांवों से धन का बहिर्गमन हुआ और साथ ही कृषि अर्थव्यवस्था के चरित्र में भी आमूलचूल बदलाव आया। भू-राजस्व की ऊंची दरों ने किसानों को सूदखोरों और महाजनों के चंगुल में फंसने को भी विवश किया और वे ऊंची ब्याज दरों पर ऋण लेने को मजबूर हो गए। सूदखोरों-महाजनों की इस व्यवस्था ने वणिक पूंजी का और विस्तार किया। सोलहवीं सदी के बाद जमींदारी का अधिकार भी बिक्री की वस्तु बन चला था। चौधरियों, मुकदमों और महाजनों के नए वर्ग ने अब जमींदारियों पर दावा शुरू कर दिया था। इस तरह कृषि के क्षेत्र में जो आर्थिक संकट खड़ा हुआ उसने धीरे-धीरे राजनीतिक संकट का रूप ले लिया।

दस्तकारी के क्षेत्र की बात करें तो वहां भी वणिक पूंजी के विकास के साक्ष्य स्पष्ट दिखते हैं। जहां व्यापारी वर्ग दस्तकारों पर अपना नियंत्रण स्थापित करता है और उन्हें खास वस्तुओं को तैयार करने के लिए पेशगी (ददनी) भी देता है। वणिक पूंजी के विकास का एक और प्रमाण हुंडी व्यवस्था और सर्राफों के उदय के रूप में देखने को मिलता है। लेकिन यह प्रणाली भी व्यापार एवं वाणिज्य के तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने भर के लिए थी, न कि दीर्घकालिक निवेश के जरिए उत्पादन की संभावनाओं को बढ़ाकर विनिर्माण उद्योग की राह तैयार करने के लिए। स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के मौद्रिक होने के बावजूद भी घरेलू उद्योग ही प्रभावी बना रहा।

 

परजीवी अर्थव्यवस्था

इरफान हबीब के अनुसार, मुगल अर्थव्यवस्था एक किस्म की परजीवी अर्थव्यवस्था थी, जो एक छोटे-से शासक वर्ग द्वारा कृषि और कृषकों के दोहन पर आधारित थी। यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि नगरीय क्षेत्रों में तैयार सामानों के लिए देहातों में कोई बाजार भी न बन सका। इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में जो मौद्रीकरण दिखाई पड़ता है, वह केवल अधिशेष कृषि उत्पादों को शहरों तक भेजने की जरूरत का नतीजा भर था। इस प्रकार जो पूंजी सृजित हुई, वह मुख्यत: मुगल शासक वर्ग और चुनिंदा व्यापारियों तक सीमित रही। जिन्होंने इसका उपयोग उत्पादन और विनिर्माण में निवेश करने के बजाय इसके संचय और अपनी निजी आवश्यकताओं के लिए खर्च करने पर ही जोर दिया। अपने अपार आर्थिक संसाधनों के बावजूद मुगल सामंतों ने व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने के लिए बहुत सीमित मात्रा में निवेश किया। मुगल कालीन कारखाने मुगल बादशाहों और दरबारियों की निजी जरूरतों के लिए नफीस चीजों के उत्पादन तक सीमित होकर रह गए। इस तरह उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन के बावजूद मुगल भारत में औद्योगिक पूंजी के विकास के कोई साक्ष्य नहीं मिलते। खेती और दूसरे धंधों में इस्तेमाल होने वाले औजार भी बिलकुल साधारण और पुरानी तकनीक से बने थे। उनमें कोई नवाचार या तकनीकी बदलाव घटित नहीं हो रहा था। खनन प्रौद्योगिकी का भी भारत में समुचित विकास नहीं हो सका। बड़े समुद्री जहाजों का निर्माण भारत में जरूर हो रहा था, किंतु यह एक व्यवस्थित उद्योग का रूप न ले सका। इस तरह मुगल काल में पूंजीवादी विकास की जो आरंभिक संभावनाएं दिखाई देती हैं वे अठारहवीं सदी तक आते-आते क्षीण होती चली गईं।

इसी क्रम में, कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया  के दूसरे खंड पर इरफान हबीब ने जो लंबा समीक्षात्मक लेख लिखा था, वह लेख भी पठनीय है। जिसमें उन्होंने उपनिवेशवाद की ऐतिहासिक सच्चाई को अनदेखा कर औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के बारे में लिखने की ऐतिहासिक त्रुटि को उजागर किया था। यह महत्त्वपूर्ण लेख मॉडर्न एशियन स्टडीज  में छपा था। औपनिवेशिक भारत की अर्थव्यवस्था पर उपनिवेशवादी नीतियों के घातक प्रभावों से जुड़ी जो बहसें उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के भारत में दादाभाई नौरोजी, रमेश चंद्र दत्त, डी.आर. गाडगिल, एम.जी. रानाडे-जैसे विद्वानों द्वारा शुरू की गई थी, उसे कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया  के दूसरे खंड के संपादक द्वय धर्मा कुमार और मेघनाद देसाई ने अपनी भूमिका में प्राय: अप्रासंगिक ही मान लिया था। इसी तरह कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया  के दूसरे खंड की विषय-वस्तु को भी इस प्रकार बांटा गया कि उसमें धन के बहिर्गमन, निरूद्योगीकरण, वि-नगरीकरण, कृषि के वाणिज्यिकरण, भूमिहीन मजदूरों की दुर्दशा-जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बची। इरफान हबीब ने अपने समीक्षा लेख में इसी मुद्दे को बड़े ही संजीदा ढंग से उठाया था। कैंब्रिज इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया  के दूसरे खंड के लेखकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत के आर्थिक शोषण और लूट की ऐतिहासिक सच्चाई, देशी उद्योग-धंधों के ह्रास, वस्त्र उद्योग की अवनति, औपनिवेशिक नीतियों और भूमि-बंदोबस्त के चलते भारतीय किसान और कृषि पर गहराते संकट, बुनकर, जुलाहा समेत दूसरे दस्तकारों की त्रासदी और भारतीय नगरों के पतन को भी अनदेखा कर दिया था, जिसकी इरफान हबीब ने आलोचना की।

 

जनइतिहासकार के सरोकार

इरफान हबीब वर्ष 1982 में कुरुक्षेत्र में आयोजित हुए भारतीय इतिहास कांग्रेस के 43वें वार्षिक अधिवेशन के सभापति रहे। उल्लेखनीय है कि अपने अध्यक्षीय भाषण के अंतर्गत उन्होंने ‘भारतीय इतिहास में किसान’ विषय पर वक्तव्य दिया था, जो आज भी प्रासंगिक है। इससे पूर्व वह वर्ष 1969 में बनारस में आयोजित भारतीय इतिहास कांग्रेस के 31वें अधिवेशन के मध्यकालीन इतिहास संभाग के सभापति रहे। वह भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष भी रहे हैं। विगत दो दशकों में इरफान हबीब ने राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों, महात्मा गांधी के योगदान, भारत में वाम आंदोलन के इतिहास, 1857 के विद्रोह, भारत के विचार, भारत में मुस्लिमों की स्थिति-जैसे विषयों पर लगातार लिखा है और इन विषयों पर जगह-जगह  व्याख्यान भी दिए हैं। उनके ये लेख सोशल साइंटिस्ट और स्टडीज इन पीपल्स हिस्ट्री  आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। एक जन-बुद्धिजीवी के रूप में उन्होंने भारतीय समाज में हाल के वर्षों में असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं, सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति और अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों के विरुद्ध भी लगातार आवाज उठाई है। भाजपा सरकार द्वारा इतिहास की स्कूली पाठ्य-पुस्तकों को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों का भी उन्होंने निरंतर विरोध किया है और इसके खतरों के विरुद्ध आगाह किया है। वर्ष 2021 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्नातक स्तर के इतिहास की पाठ्यचर्या के लिए जो दस्तावेज (लर्निंग आउटकम्स बेस्ड करिकुलम फ्रेमवर्क) जारी किया गया है, उसकी सीमाओं और दोषों को उजागर करते हुए एक लंबी टिप्पणी इरफान हबीब ने हाल ही में सोशल साइंटिस्ट पत्रिका में लिखी है, जो जरूर पढ़ी जानी चाहिए।

नब्बे वर्षीय इरफान हबीब को आप कभी सेमिनार या कांफ्रेंस हाल में देखें-सुनें तो आपको आश्चर्य होगा कि इस उम्र में भी कोई अपने काम के प्रति इतना समर्पित, प्रतिबद्ध कैसे हो सकता है। सुबह से शाम तक वह आपको सेमिनार में दूसरे विद्वानों के पर्चे पूरी गंभीरता से सुनते हुए फुलस्केप कागज पर अपनी सुंदर लिखावट में नोट्स लेते हुए मिलेंगे। थकान का एक कतरा भी उनके चेहरे पर आपको नजर नहीं आएगा। उनकी प्रतिबद्धता, समर्पण और ज्ञान के प्रति उनका गहरा अनुराग इतिहास के छात्रों के लिए एक प्रेरणास्रोत है। इतिहासकार इरफान हबीब को 90वें जन्मदिन की मुबारकबाद!

समयांतर

सितंबर 2021

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