देश और कांग्रेस की जरूरत

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देश में बढ़ते दक्षिणपंथी प्रभाव और आक्रामकता ने ऐसा लगता है मानो वामपंथी या प्रगतिशील लोकतांत्रिक ताकतों के लिए अस्तित्व के संकट के साथ ही साथ गहरा विचारधारात्मक संकट ही पैदा कर दिया है। जैसे-जैसे भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में एकमात्र दक्षिणपंथी राजनीतिक दल के रूप में उभर रही है या कहिए, आक्रामक ढंग से अपने विस्तार में लगी है और केंद्रीय सत्ता में अपनी पकड़ तथा पूंजीवादी नीतियों के चलते उसने जो ताकत हासिल कर ली है उससे लगभग सभी अखिल भारतीय दल तो किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ ही रहे थे, अब तो वे क्षेत्रीय पार्टियां भी, विशेष कर दक्षिण की, जो अब तक अपना स्वतंत्र अस्तित्व और प्रभाव बनाने में कामयाब रहीं थीं, सतर्क नजर आने लगी हैं।

इसलिए भी कि केंद्र पर अपने शासन के कारण भाजपा उन सारी ताकतों का, जो संघीय ढांचे को बचाए रखने के लिए केंद्रीय सरकार को संविधान प्रदत्त हैं, और जिनका उपयोग दुधारी तलवार-सा आत्मघाती विध्वंस करने की क्षमता भी रखता हो, जिस दृष्टिहीनता और आत्मकेंद्रितता से करने पर उतारू नजर आ रही है, देश के संघीय ढांचे की जड़ों को ही हिला देने के लिए काफी है।

भाजपा सरकार, केंद्रीय एजेंसियों और अन्य अधिकारों का, किस मनचाहे और बेजा तरीके से उपयोग कर रही है, उसका सबसे खराब उदाहरण स्वयं दिल्ली राज्य है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार केंद्र की सरकार के आंखों की ऐसी किरकिरी है कि जो उसकी नींद हराम किए हुए है। लेफ्टिनेंट गवर्नर ही नहीं बल्कि अन्य केंद्रीय एजेंसियों का भी जिस तरह दिल्ली सरकार के खिलाफ दुरुपयोग किया जा रहा है वह इसका प्रमाण है कि भाजपा का लोकतांत्रिक मूल्यों में थोड़ा कम ही विश्वास है। पर दिक्कत यह है कि यह व्यवहार अलोकतांत्रिक होने के साथ साथ, संघीय ढांचे के लिए बढ़ते खतरे की संभावना से भी भरा नजर आने लगा है।

यह कोई नहीं कहेगा कि देश में भ्रष्टाचार है ही नहीं। पर केंद्रीय एजेंसियां जिस नियोजित (सलैक्टिव) तरीके से जब चाहे जिस को चाहे धर दबोच रही हैं या खाना तलाशी ले रही हैं, वह कोई अच्छा लक्षण नहीं है। वैसे भी केंद्रीय गृहमंत्री विभिन्न प्रांतों में जा-जाकर राज्य सरकारों को जिस तरह से धमकाते और डराते हैं उसे किसी भी रूप में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। अमित शाह को याद रखना चाहिए कि वह एक संवैधानिक पद संभाले हैं जिसका दायित्व पार्टी से ऊपर उठकर है। यह कहना (धमकी?) भर अशालीन और असंसदीय है कि फलां ने ”भाजपा को धोखा दिया है’’। भाजपा स्वयं न जाने कितनी सरकारों को दल-बदल का सहारा लेकर गिरा चुकी है जिसमें नवीनतम महाराष्ट्र है। उसके बाद भी भाजपा ने इधर गोवा में जो करवाया है वह क्या है? वैसे सत्य यह है कि आज विपक्ष का कोई राज्य ऐसा नहीं है जो अपने को सुरक्षित समझता हो, यहां तक कि ओडीसा तक, जहां का मुख्यमंत्री केंद्र से किसी भी तरह का टकराव मोल नहीं लेना चाहता। अन्यथा आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल पर उसकी वक्रदृष्टि छिपी नहीं है। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए प्रतिद्वंद्विता एक आवश्यक शर्त है पर यह प्रतिद्वंद्विता सत्ता के दुरुपयोग और विद्वेश से चालित नहीं होनी चाहिए, जैसा कि आज पूरे देश में नजर आ रहा है।

एक आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, भौगोलिक और जनसंख्या के स्तर पर, बड़े राष्ट्रों को सफलता की ओर ले जाने के लिए जिन गुणों और व्यवहार की केंद्र से अपेक्षा की जाती है, वे हैं संवेदनशीलता, सहनशीलता और उदारता। साथ में, कानूनी संस्थाओं का ऐसा लोकतांत्रिक इस्तेमाल जो स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को सशक्त करे, न कि प्रतिद्वंद्वियों का दमन। भाजपा ने भूलना नहीं चाहिए कि इंदिरा गांधी ने यह सबक सत्ता ही नहीं बल्कि अपनी सीट भी गंवा कर सीखा था। लगता है वर्तमान सरकार इतिहास से कुछ नहीं सीखना चाहती, पर उसे यह जरूर देखना चाहिए कि राजनीतिक स्थितियां जैसा मोड़ ले रही हैं जिनके चलते उसके लिए इस तरह की लापरवाही घातक साबित हो सकती है। इधर, उत्तराखंड में जो हो रहा है, उसे कोई अपवाद नहीं माना जाना चाहिए। धर्म, सांप्रदायिकता के सहारे कोई देश नहीं चल सकता। कम-से-कम उत्तराखंड से तो यही संकेत आ रहा है, जो खासा स्पष्ट है।

पर इसमें भी शंका नहीं है कि स्वयं वे राज्य सरकारें, जो अपने व्यवहार में अलोकतांत्रिक और भ्रष्ट हैं, न तो भाजपा सरकार के तौर तरीकों से बच सकती हैं और न ही सड़कों पर उसके कारनामों का सामना कर सकती हैं। फिलहाल इस संदर्भ में सबसे हास्यास्पद वक्तव्य भाजपा की धींगामुश्ती से आतंकित, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आया है जो कह रही हैं कि बंगाल में दखलंदाजी में प्रधानमंत्री मोदी का कोई हाथ नहीं है, इसके लिए एकमात्र अमित शाह जिम्मेदार हैं। सौभाग्य से ममता बनर्जी ने गुजरात के बारे में कुछ नहीं कहा, जहां भाजपा सरकार मेवाणी को घेरने में लगी है। क्या कोई मान सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी को, जो बंगाल में केंद्रीय एजेंसियां कर रही हैं, मालूम नहीं होगा? या अमित शाह मनमानी कर रहे होंगे? कौन नहीं जानता कि तृणमूल कांग्रेस सड़क और गलियों में किस तरह का व्यवहार करने की आदी है।

एक और स्तब्ध करने वाला नजारा कांग्रेस के पदयात्रा कार्यक्रम में देखने को मिला। यह यात्रा जैसे-जैसे उत्तर की ओर बढ़ रही है, भाजपा का सामना करने के लिए वह स्वयं को कट्टर न सही, ‘साफ्ट’ हिंदुत्ववादी सिद्ध करने में लग गई है। महाराष्ट्र पहुंचते-पहुंचते उसके आदर्श पुरुषों की चित्र दीर्घा में सावरकर भी प्रकट हो गए थे। यह अचानक नहीं हुआ है, अचानक तस्वीर जरूर हटा दी गई। इस तरह की हरकतों से कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं आने वाला है, सिवाय अपने जनाधार को गंवाने के।

इसका एक और पक्ष भी है। अपने सारे सेक्युलरिज्म के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस ने कभी सीधे-सीधे हिंदू सांप्रदायिकता को खत्म करने का निर्णय लिया हो। आजादी के बाद का पूरा इतिहास इसका प्रमाण है। वैसे भी कांग्रेस एक ‘अंब्रेला’ पार्टी थी, जिसकी छतरी के नीचे हर रंग के कथित लोकतंत्र में विश्वास करने वाले व्यक्ति के लिए जगह थी। चूंकि, देश बहुसंख्यक हिंदू था और पाकिस्तान के बनने ने रही सही कसर पूरी कर दी थी, जिसके अन्य कारणों के साथ हिंदुओं में बैठी गहरी हीनता या ग्लानि (गिल्ट) ने, मुस्लिम शासकों और आम मुस्लमानों में अंतर करने की जगह इसका राजनीतिक इस्तेमाल शुरू कर दिया। देखने ककी बात है कि यह समझ या हीनता या कहिए घृणा की शुरुआत हुई ही अंग्रेजी शासन के दौरान थी।

इधर, जो हो रहा है यानी एक उदार सेक्युलर पार्टी से ठठ्ठ के ठठ्ठ कांग्रेसी नेता भाजपा में, अपने आत्मसम्मान तक की कीमत पर, चले जा रहे हैं, वह ह मात्र अपने काले कारनामों को बचाने के लिए ही नहीं है। बल्कि बड़ा कारण यह है कि भारतीय समाज का मूल ढांचा जातिवाद से जुड़ा है। लगभग सभी राजनीतिक दल आज भी ऊंची जातियों द्वारा नियंत्रित हैं जो अपने उन हितों को किसी भी कीमत पर छोडऩे को तैयार नहीं हैं जिनसे वे हजारों वर्षों से लाभान्वित होते आ रहे हैं। दूसरे शब्दों में भारतीय समाज का वह वर्ग जो इस व्यवस्था को सदियों से चलाता आया है, लोकतंत्र के आधारभूत मूल्यों और उसके पिछले सात दशक के परिणामों से पूरी तरह आतंकित और लगभग मोहभंग की स्थिति में पहुंच चुका है। हिंदुत्ववादी नेतृत्व ऐसे समय में उसे यों ही सहारा नजर नहीं आ रहा है। इसने अपने निर्णयों से उसे आश्वस्त ही किया है।

यह इसलिए भी है कि लंबे कांग्रेसी शासन ने उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर ऐसी सुविधाएं दिलवाईं जो इससे पहले उसे शायद ही कभी मिली हों। यानी इस वर्ग के हाथ वह सब आया है जो उसकी आर्थिक समृद्धि का कारण तो बना ही सत्ता में उसके सीधे वर्चस्व का भी माध्यम बन गया। और हां, यह भूलना नहीं चाहिए कि यह चमत्कार हजार साल में पहली बार हुआ था। पर इधर बढ़ते आर्थिक संकट के समानांतर बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और भौतिक जरूरतों तथा उसी अनुपात में विस्तार पाती सामाजिक प्रतिद्वंद्विता ने मध्य वर्ग की बेचैनी को बढ़ाया है। इसमें दलित और पिछड़े वर्ग के उत्थान व उनके राजनीतिकरण ने इस असुरक्षा और बेचैनी का विस्तार ही किया है।

आजादी के बाद एक और घटना घटी, वह थी देसी पूंजीपतियों के विस्तार की। इन लोगों ने अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए बड़ी सफाई से राष्ट्रवादी सरकार के हाथ में पहले ही विकास का एक मॉडल थमा दिया। यह बंबई प्लान नई सरकार के लिए औद्योगिक विकास का ब्लूप्रिंट बना। यह बात और है कि इसे सोवियत संघ और उसके साथी देशों की मदद से साकार किया गया। यह था कोर सेक्टर यानी इस्पात और बिजली उत्पादन जैसे बड़े पूंजी विनियोग, पर कम लाभ वाले, कामों का सरकारी यानी जनता के पैसे से विकास किया जाना। फिर इस तैयार आधार माल को उत्पादन से कम मूल्य पर निजी क्षेत्र को उपलब्ध करवाना तथा निजी क्षेत्र द्वारा उसे उपभोक्ता वस्तु में बदल कई गुना ऊंचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाना।  इस विकास ने आम जनता को जो फायदा पहुंचाया सो तो पहुंचाया ही, पर स्थानीय पूंजीपतियों को कहां का कहां पहुंचा दिया। टाटा को तो सब जानते ही हैं, महेंद्रा, बजाज, अंबानी, हिंदुजा और अब अडाणी, आदि उसी की फसल काट रहे हैं। यह पूंजीपति वर्ग शासकों से मिल कर उन सारे संसाधनों को कब्जे में ले रहा है जो उसके आर्थिक साम्राज्यों के विस्तार के लिए जरूरी हैं।

यह अचानक नहीं है कि वर्तमान सरकार एक के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को निजी पूंजीपतियों के हाथों में सौंपती जा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में उपलब्ध पूंजी का जैसा मनचाहा उपयोग आज अडाणी नाम का पूंजीपति कर रहा है, वैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था। वह बैंकों में रखे जनता के पैसे से दुनिया के सबसे धनी लोगों में हो गया है। कहा नहीं जा सकता कि यह गुब्बारा कब फूटे। और जब फूटेगा कितनों को ले डूबेगा।

दुर्भाग्य है कि आज जब पूरा वामपंथ लगभग अप्रासांगिक न कहें तो भी हाशिये पर पहुंच चुका है, कांग्रेस ही शायद सबसे ज्यादा जरूरी नजर आने लगी है। पर जिस तरह के आंतरिक संकट से वह गुजर रही है कहना मुश्किल है कि इस चुनौती का वह अब भी सामना कर पाएगी या नहीं?

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