– सुभाष गाताडे
चीजें जितनी बदलती जाती हैं, वह वैसी ही बनी रहती हैं।
उन्नीसवीं सदी के अग्रणी फ्रेंच समीक्षक, पत्रकार और उपन्यासकार जां बाप्तिस्ते अल्फॉन्स कार (1808-1890) के नाम से यह मशहूर उद्धरण मालूम नहीं किन परिस्थितियों में दिया गया होगा, लेकिन दुनिया को भारत की ‘देन’ कही जाने वाली जाति व्यवस्था, उसका आधार ‘हम और वे’ की भावना और तदजनित उंच-नीच व्यवहार, आदि की आज भी मौजूदगी को देखते हुए, इस पर तो बखूबी लागू होता दिखता है।
अब हिंदोस्तां के सबसे अग्रणी कहे जाने वाले चिकित्सा संस्थान एम्स (अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान) को ही देखें, तो हम यहीं पाते हैं कि विगत डेढ़ दशकों में कई बार वह इसी के चलते विवादों में आया है। अब ताजा मसला सांसद किरीत प्रेमजीभाई सोलंकी की अगुआई में बनी संसदीय कमेटी की हालिया रिपोर्ट का है, जो विशिष्ट संस्थानों में जातिगत भेदभावों के आरोपों की जांच करती है। उसकी ताजा रिपोर्ट ने एम्स की कार्यप्रणाली और वहां आज भी अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रोफेसरों और छात्रों के साथ अलग-अलग स्तरों पर जारी भेदभाव की तीखी भत्र्सना है। कमेटी का कहना है कि उसने पाया कि इस श्रेणी के विद्यार्थियों को इम्तिहानों में बार-बार फेल किया जाता है, इतना ही नहीं जब अध्यापक स्तरों पर भरती का सवाल आता है, तो आरक्षित सीटें इसी तर्क के आधार पर खाली छोड़ दी जाती हैं और तर्क यह दिया जाता है कि ‘उपयुक्त उम्मीदवार’ नहीं मिले, जबकि कई बार यह भी पाया गया है कि इन स्थानों पर पहले से ही तदर्थ श्रेणी में इन वंचित तबकों के डॉक्टर्स अपनी सेवा दे रहे हैं।
उसने अपनी रिपोर्ट में पाया कि संस्थान में मौजूद 1, 111 पदों में से असिस्टेंट प्रोफेसरों के 275 पद और प्रोफेसर श्रेणी के 92 पद खाली पड़े हैं।
उसका यह भी कहना था कि अगर दिल्ली स्थित एम्स को तथा उसके तर्ज पर देश के अलग-अलग हिस्सों में बनी विभिन्न एम्स को देखें तो हम यह भी पाते है कि वहां अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के लिए आरक्षित 15 फीसदी तथा 7.5 फीसदी सीटें पूरी तरह कभी भर नहीं पातीं। (कहने का तात्पर्य यही है कि प्रवेश लेने के लिए तत्पर छात्रों को किसी न किसी आधार पर छांट दिया जाता है)। उसके मुताबिक, सामाजिक तौर पर उत्पीडि़त तबके के इन छात्रों को सुपर स्पेशालिटी पाठयक्रमों में प्रवेश नहीं मिल पाता, क्योंकि उन कोर्स में आरक्षण नहीं रखा गया है, जिसका नतीजा यही होता है कि ऐसे पाठयक्रमों में ‘उंची जातियों का दबदबा’ बना रहता है।
एम्स की कार्यप्रणाली
एम्स की कार्यप्रणाली को लेकर उसका एक और अवलोकन यह है कि जहां तक थियरी पेपर्स का सवाल है और प्रैक्टिकल पेपर्स का सवाल है तो जहां इन तबकों के छात्रों का थियरी के पेपर्स में परफार्मंस बेहतर दिखता है – जहां उन्हें अपने मन से, अपनी तैयारी से लिखना होता है – वही पै्रक्टिकल पेपर्स में – जहां उनका सीधा साबिका प्रोफेसरों से पड़ता है – वहां उनका परफार्मंस कमजोर पड़ता दिखता है। कमेटी के मुताबिक यह ‘अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों के साथ सीधे पूर्वाग्रह’ का नतीजा है।
आरक्षित तबकों के छात्रों के साथ विभिन्न तबकों पर जारी भेदभाव को रेखांकित करते हुए कमेटी ने यह सिफारिश भी की है कि छात्रों के मूल्यांकन को उनके नाम को गुप्त रख कर किया जाए, इतना ही नही फैकल्टी के पदों पर अनुसूचित जाति/जनजाति के उम्मीदवारों की नियुक्ति को समय सीमा में तय कर लिया जाए; संस्थान की जनरल बॉडी में भी अनुसूचित तबकों के सदस्यों को शामिल किया जाए तथा सफाई कर्मचारी, डाइवर, डाटा एंटी ऑपरेटर आदि क्षेत्रों में कामों को आउटसोर्स न किया जाए।
संसद के तीस सदस्यीय पैनल द्वारा तैयार उपरोक्त रिपोर्ट – जिसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा उच्च शिक्षा संस्थानों में आज भी कायम ‘संस्थागत भेदभाव’ की एक और निशानी के तौर पर कहा जा रहा है, वह एम्स के संचालकों या वे सभी जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का काम संभाल रहे हैं, उनके लिए कुछ आमूलचूल बदलाव लाने के लिए प्रेरित करेगी या नहीं, यह एक खुला प्रश्न है।
हालांकि अगर हम अतीत के अनुभव को देखे तों इसकी संभावना क्षीण दिखती है। दरअसल, पैनल के अवलोकनों और उसकी सिफारिशों पर गौर करें तो हमें डेढ़ दशक से अधिक वक्त पहले संस्थान की कार्यप्रणाली को लेकर राष्ट्रीय स्तर मचे हंगामे की याद आ सकती है, जब संस्थान के अंदर अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों के साथ हो रही भेदभाव की घटनाओं पर अनुसूचित जाति राष्ट्रीय आयोग को दखल देना पड़ा था और उसने मामले की जांच के लिए प्रोफेसर सुखदेव थोरात की अगुआई में एक कमेटी का गठन किया था।
उन दिनों संस्थान के अंदर की स्थितियां किस प्रकार थी इसे हम एक अग्रणी अखबार मे प्रकाशित रिपोर्ट से देख सकते हैं। द टेलीग्राफ ने (5 जुलाई, 2006) की अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि किस तरह ‘एम्स छात्रावास के हिस्से अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों के लिए घेट्टो बन गए हैं। आरक्षित तबके के छात्रों ने बताया कि उंची जाति के छात्रों द्वारा ‘बाकी बचे कमरों से खदेड़ा जा रहा है और छात्रावास की दो मंजिलों तक सीमित किया जा रहा है।‘ अखबार के संवाददाता ने एक अनुसूचित जाति के छात्र के कमरे के दरवाजे पर यह लिखावट देखी जिसमें उसे चेतावनी दी गई थी कि ‘छात्रावास के इस विंग से भाग जाओ।‘ अनुसूचित तबके के छात्रों ने संवाददाता को यह भी बताया था कि अगर उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ शिकायत की तो किस तरह उन्हें जबरन फेल किया जाता है।
प्रोफेसर थोरात – जो उन दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष थे – की अगुआई में बनी कमेटी ने न केवल अनुसूचित तबके के छात्रों की बात को तथ्यपरक पाया, बल्कि स्थिति में सुधार के लिए कुछ अहम सिफारिशें की थीं, जिन्हें बाद में एम्स के कर्णधारों ने अमल करने लायक नहीं माना। कमेटी की सिफारिश के बावजूद कि संस्थान के निदेशक डॉ. पी. वेणुगोपाल के खिलाफ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई होनी चाहिए, प्रबंधन ने सिफारिशों को यह कह कर खारिज किया कि ‘संस्थान असंतोष के चरण से बाहर निकल आया है और अब संस्थान के अंदर सदभावपूर्ण वातावरण बना है। (Caste Aside: AIIMS Junks Report Nailing Discrimination at Institute’, Mail Today, 15 May, 2012)
अन्य चिकित्सा संस्थानों की स्थिति
फिलवक्त जब हम संसदीय पैनल की सिफारिशों पर क्या अमल हो पाता है इसका इंतजार कर रहे हैं, हम खुद राजधानी के अंदर ही स्थित अन्य चिकित्सा संस्थानों पर गौर कर सकते हैं, कि वहां क्या स्थितियां रही हैं और क्या एम्स में हो रही घटनाएं अपवाद कही जा सकती हैं? 2006 में जब एम्स सुर्खियों में था उसके कुछ समय पहले दिल्ली के ही गुरु तेग बहादुर अस्पताल में अनुसूचित जाति के छात्रों एवं गैर अनुसूचित छात्रों के बीच चले तीखे विवाद का मसला अखबारों की सुर्खियां बना था, जब यह देखा गया था कि इन वंचित तबकों के छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव भी होता है, साझा मेस में इन तबकों के लिए टेबिल भी ‘रिजर्व’ रखे जाते हैं और उनके लिए ‘सूडो’ नामक अपमानजनक सम्बोधन का प्रयोग किया जाता है। शहर के अन्य जनतांत्रिक संगठनों के साथ मिल कर अनुसूचित जाति के छात्रों को लंबा करना पड़ा था, ताकि इस अपमान से मुक्ति पाई जा सके। विडम्बना यही थी कि प्रशासन के एक हिस्से से भी वर्चस्वशाली तबके के छात्रों को शह मिली थी।
इतना ही नहीं – जिन दिनों प्रोफेसर सुखदेव थोरात कमेटी की रिपोर्ट को एम्स प्रबंधन द्वारा खारिज करने की बात आ रही थी, उसके कुछ समय पहले केंद्र सरकार के अधीन संचालित एवं राजधानी में स्थित वर्धमान महावीर मेडिकल कालेज, जिसकी स्थापना 2001 में हुई, में पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित तबकों के छात्रों के साथ जारी भेदभाव पर संयुक्त समिति की रिपोर्ट में पुष्टि हुई थी (उदा. भास्कर 14 फरवरी, 2011, वीएमएमसी में पिछड़े वर्ग…) जिसमें बताया गया था कि किस तरह फिजियोलोजी विभाग में पिछड़े वर्ग के छात्रों को जानबूझ कर कम अंक प्रदान किए गए हैं, जिसकी वजह से कई छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है।
गौरतलब है कि छात्रों की शिकायत पर एम्स एवं एलएनजेपी के विशेषज्ञों की संयुक्त समिति डॉ. एल आर मुरमु की अध्यक्षता में बनाई गई थी, जिसने पाया कि बीते पांच साल में उपरोक्त विभाग में फेल होने वाले सभी छात्रा पिछड़े वर्ग से हैं। कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, एक छात्रा को एक अंक से एक दो बार नहीं बल्कि तीन बार फेल किया गया है। कमेटी के मेम्बरानों को यह देख कर हैरानी हुई कि पिछड़े एवं अनुसूचित तबके के जिन छात्रों केा फेल घोषित किया गया है, उन्होंने अन्य विभागों की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया है और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी वे उच्च स्थान प्राप्त किए हैं। इस रिपोर्ट के महज एक साल बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की सिफारिश पर प्रोफेसर भालचंद्र मुणगेकर – जो मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं, ने भी जांच की, आरोपों को सही पाया और कुछ अहम सिफारिशें भी कीं।
अपनी रिपोर्ट में उन्होंने ‘जातिगत आधार पर भेदभाव बरतने के लिए अधिकारियों, प्रबंधन की आलोचना की और यह भी कहा कि ऐसे जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ अनसुचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत मुकदमे चलने चाहिए, इतना ही नहीं प्रबंधन की भेदभावपूर्ण नीतियों के चलते जिन छात्रों को नुकसान उठाना पड़ा है, उन्हें दस-दस लाख रुपए का मुआवजा भी मिले।
वैसे यह बात सुनने में अटपटी लग सकती है, मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि मानवशरीर की बीमारियों के इलाज में अत्याधुनिक तरीके से इलाज करने में मुब्तिला चिकित्सा संस्थानों के प्रबंधन एवं उच्च अधिकारियों का एक हिस्सा उच्च-नीच अनुक्रम पर टिके भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव पर भी अमल करता दिखता है, जिसका प्रभाव ऐसे संस्थानों के संचालन में भी नजर आता है।
फिर चाहे देश का अग्रणी चिकित्सा संस्थान एम्स हो या अन्य चिकित्सा संस्थान हों, जो सरकारी सहायता से चलते हैं, हर जगह यही बात दिखाई देती है।
साल-दर-साल छात्रों के नए बैचेस प्रवेश लेते हैं, लेकिन ‘संस्थागत भेदभाव’ यथारूप जारी रहता है।
कई बार यह भी देखने में आता है कि कई छात्र इस घुटन, भेदभाव को बर्दाश्त नही कर पाते और मौत को गले लगाते हैं।
वर्ष 2010 में बाल मुकुंद भारती नामक मेडिकल के छात्र ने – जो एम्स में पढ़ रहा था – आत्महत्या की तो अगले ही साल उसी संस्थान में अनिल मीणा ने मौत को गले लगा लिया। वर्ष 2019 में डॉ. पायल तड़वी की मुंबई में आत्महत्या ने ऐसे ही सवालों को जिंदा किया था, जब उसे स्नातकोत्तर पढ़ाई के दौरान अपनी सहपाठियों के हाथों उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ा था।
आज पूरा मुल्क आजादी की पचहत्तरवीं सालगिरह मना रहा है। ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आजादी का जश्न मनाते वक्त़ क्या हम इस स्थिति के प्रति गंभीर हो सकेंगे कि दमनकारी सामाजिक बंधनों से, उच्च-नीच पर आधारित श्रेणीबद्धता की प्रणालियों से मुक्ति को हम कब मना कर सकेंगे।
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