आजादी के 75 वर्ष और मुस्लिम राजनीति

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– प्रेम पुनेठा

इस पंद्रह अगस्त को भारत की आजादी के 75 वर्ष पूरे हो गए और धर्म के आधार पर देश विभाजन के भी 75 वर्ष हो गए। देश का विभाजन सांप्रदायिक राजनीति का चरम था और विभाजन एक रक्तरंजित और वीभत्स घटना थी, जिसने हिंदुओं और मुसलमानों की मन: स्थिति को बुरी तरह प्रभावित किया और विभाजन हिंदुओं और मुसलमानों में एक बड़ी कड़वाहट छोड गया। गोया कि आजादी के बाद भारत की कांग्रेस सरकारों ने धर्मनिरपेक्षता की नीति को अपनाया। कांग्रेस का मानना था कि भारतीय समाज में मुस्लिम प्रश्न को सुलझा लिया जाएागा और समय के साथ हिंदू और मुसलमान साझा तौर पर भारतीय राष्ट्रीयता का निर्माण कर लेंगे, ऐसा कुछ सीमा तक तो हुआ है लेकिन पूरी तरह से ऐसा हो नहीं पाया। आजादी के इस अमृत महोत्सव के अवसर पर यह प्रश्न विचारणीय है कि आखिर हिंदुओं-मुसलमानों के बीच खाई क्यों बढ़ी और आजादी के बाद भी मुस्लिम समाज की प्रगति अन्य भारतीय समुदायों की तरह क्यों नहीं हुई। भारतीय समाज में मुसलमानों का सवाल उसी तरह खड़ा है जैसे 75 साल पहले था। आजादी के समय जिस तरह से हिंदू और मुसलमान अलग-अलग खेमों में खड़े थे, आज भी दोनों धर्मों के लोग मानसिक तौर पर अलग-अलग स्थान पर हैं और उनके बीच संदेह पहले से ज्यादा ही हुआ है। हिंदू आज भी विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं और मुसलमान इस सवाल पर रक्षात्मक होकर कई तरह से अपनी वफादारियां भारत के साथ दिखाने का प्रयास करते हैं, लेकिन संतुष्ट कोई भी नहीं है।

सवाल यह है कि भारत के दो बड़े धार्मिक समुदायों के बीच इतनी दूरी कैसे आ गई। दिल्ली में मुस्लिम सुलतानों से लेकर आगरा, दिल्ली के मुगल बादशाहों तक के लगभग 600 वर्ष के शासन में हिंदू और मुसलमानों ने तमाम धार्मिक और सामाजिक मतभदों के बाद भी एक साथ रहना सीख लिया था। हिंदू और मुसलमान अभिजात्य वर्ग ने एक दूसरे के साथ सहयोग करना और सत्ता में भागीदारी के कुछ अघोषित नियम बना लिए थे और उसके आघार पर शासन व्यवस्थाएं चलती रहीं। मुगल सत्ता के कमजोर होने और क्षेत्रीय सूबेदारों के स्वतंत्र होने के बाद भी हिंदू और मुसलमान अभिजात्य वर्ग सत्ता में भागीदारी करते रहे और हिंदू एवं मुसलमान अभिजात्य वर्ग की सत्ता पाने की अंतिम परिणति 1857 का ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह था। इसके बाद का समय दोनों के वीच बढ़ते मतभेदों और संदेहों से भरा हुआ है।

मुगलों की दिल्ली में सत्ता के कमजोर होने और मुस्लिम रियासतों को एक-एक कर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा हड़प लेने ने मुस्लिम अभिजात्य वर्ग को बेचैन कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद सत्ता का केंद्र दिल्ली से हटकर कलकत्ता हो गया। इसके साथ ही अंग्रेज अपने साथ एक नए तरह की आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था लेकर आए जो मुगल के दौर से बिल्कुल ही अलग थी। इसके साथ ही अब शासन की भाषा अब फारसी से हटकर अंग्रेजी हो गई। भाषाई और आर्थिक परिवर्तन का सबसे पहले लाभ बंगाल के हिंदू अभिजात्य वर्ग, जिसमें ब्राहमण, बनिया और कायस्थ सबसे उपर हैं, ने उठाया। इन वर्गों के लिए यह कोई नई बात भी नहीं थी जो काम अब तक यह फारसी माध्यम से मुगल और उनके सूबेदारों के लिए कर रहे थे वहीं काम अब वे अंग्रेजों के लिए करने लगे। इसके विपरीत मुस्लिम अभिजात्य वर्ग सत्ता चले जाने के गम में ही डूबा रहा और हिंदू अभिजात्य वर्ग काफी आगे निकल गया।

 

सत्ता की भागीदारी

हिंदू और मुसलमानों के बीच सत्ता के भागीदारी के अंतर को सबसे पहले सैयद अहमद खान ने समझा। वे मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का सबसे सही प्रतिनिधित्व करते थे। वह मुगल दरबार से जुड़े थे और ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे। यहां काम करते हुए उन्हें एहसास हो गया कि मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण उनका आधुनिक शिक्षा और विज्ञान से दूर होना है। उन्होंने मुसलमानों की शिक्षा पर सबसे अधिक जोर दिया, लेकिन हिंदुओं के साथ एक विभेदकारी रवैया भी अपनाया। सैयद अहमद खान ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से दो अलग समुदायों के तौर पर चिन्हित किया। दरअसल सैयद अहमद खान मुस्लिम अभिजात्य वर्ग में भी सबसे ऊपरी पायदान पर थे और वह मानते थे हमने हिंदुस्तान या कहे कि हिंदुओं पर 600 वर्ष तक शासन किया है, इसलिए मुसलमान हिंदुओं से श्रेष्ठ हैं। उन्हेंने मुसलमानों से लगातार अंग्रेजों की वफादारी हासिल करने को कहा, ताकि वे हमेशा हिंदुओं से आगे बने रहें। वे कांग्रेस को एक हिंदू संगठन ही समझते रहे और उसकी आलोचना करते रहे। अहमद खान ने जिस अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की स्थापना ही उसने पाकिस्तान के निर्माण में खाद-पानी का काम किया और यहां के मुस्लिम छात्र पाकिस्तान के लिए पैदल सैनिक साबित हुए।

1880 तक आते-आते अंग्रेजों को इस बात का अहसास हो चुका था कि उनको अगर चुनौती मिलेगी तो उभरते हुए हिंदू उच्च और उच्च मध्य वर्ग से। पिछले एक सदी में अंग्रेजी शिक्षा और ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने हिंदुओं के एक वर्ग को राजनीतिक तौर पर सचेत कर दिया था और वह लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने लगा था। इसके विपरीत मुसलिम समाज अभी भी अंग्रेजी शिक्षा को नफरत के भाव से ही देख रहा था और वह अपने पिछड़ेपन के कारण कोई चुनोती पेश कर सकने में असमर्थ है। 1885 में कांग्रेस की स्थापना ने इस तथ्य को बल ही दिया, गोया कि अंग्रेजों का प्राथमिक उद्देश्य तो शिक्षित भारतीयों को विद्रोह की ओर से जाने से रोकना ही था, लेकिन समय के साथ वह एक असंतुष्ट नेताओं का समूह बनकर रह गया। हिंदू और मुसलमानों के बीच 1881 की जनगणना ने भी प्रभाव डाला। यह भारत में पहली जनगणना थी। इसने इन दोनों वर्गों को उनकी संख्या से अवगत कराया। इससे पहले दोनों ही वर्गों को पता नहीं था कि उनकी वास्तविक संख्या क्या है और किन जगहों पर वे बहुमत हैं और किन स्थानों पर अल्पमत में। इसका तात्कालिक तो कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन भविष्य में जब लोकतांत्रिक व्यवस्था आगे बढ़ी तो इसने दोनों धर्मो के संबंधों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विषेशकर नए प्रांतों के निर्माण में धार्मिक जनसंख्या को ध्यान में रखा गया।

अपने जन्म के कुछ ही वर्षों के बाद कांग्रेस पूरी तरह से भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन बन गया था। भारतीय समाज का उच्च वर्गीय हिंदू, जिसमें वकील, शिक्षक, व्यापारी इसके सदस्य और नेतृत्व में आ गए। 20वीं सदी के प्रारंभ से ही कांग्रेस का नेतृत्व गरम पंथी लोगों के हाथों में चला गया जो अधिकारों के लिए अनुनय-विनय करने के स्थान पर संघर्ष के रास्ते को प्राथमिकता देने लगे। गरम दल का नेतृत्व लाल, बाल और पाल, त्रिमूर्ति के हाथों पर आ गया। इन तीनों ने ही कांग्रेस को मध्य वर्ग तक लाने और उसकी स्वीकार्यता जनता में बढ़ाने के लिए हिंदू धर्म का सहारा लिया। बाल गंगाधर तिलक ने गणेश चतुर्थी जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया ताकि बंबई प्रांत में कांग्रेस का विस्तार किया जा सके। लाला लाजपत राय स्वयं एक आर्यसमाजी थे और हिंदू सुधार के समर्थक थे। यह भी एक तथ्य है कि लाजपत राय ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पंजाब का विभाजन हिंदू-मुस्लिम धार्मिक आधार पर करने का प्रस्ताव रखा था। गौरतलब है कि तब पंजाब प्रांत पेशावर से लेकर गुरुग्राम तक फैला हुआ था। विपिन चंद पाल ने भी बंगाल विभाजन का विरोध हिंदू प्रतीकों के साथ ही किया था।

20वीं सदी के शुरू में कांग्रेस में हिंदुओं का ही वर्चस्व था और मुसलमान इससे बाहर ही थे, लेकिन कुछ पढ़े-लिखे मुसलमान, जिसमें मोहम्मद अली जिन्ना प्रमुख थे, वे कांग्रेस में शामिल हो चुके थे और राष्ट्रवादी राजनीति कर रहे थे। इस खतरे की घंटी को अंग्रेजों ने पहचान लिया और हिंदुओं-मुसलमानों के विभाजन के तरीके खोजने लगे। सबसे पहले उन्होंने बंगाल का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन किया और 1906 में उच्च वर्गीय मुस्लिम जमीदार की एक पार्टी मुस्लिम लीग के नाम से बनवा दी और यह प्रचार करवाया गया कि यह पार्टी ही मुसलमानों के हितों को सुरक्षित कर सकती है। इस पार्टी की मांगों का ध्यान में रखकर 1909 में मुसलमानों का राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था केंद्रीय विधायिका में की गई। इस आरक्षण का कांग्रेस और जिन्ना जैसे राष्ट्रवादी मुसलमानों ने विरोध यह कह कर किया था कि इससे मुसलमान और हिंदुओं के बीच सांप्रदायिक खाई बढ़ेगी, लेकिन 1916 में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के समझौता कर इस सांप्रदायिक आरक्षण को स्वीकार कर लिया। यह कांग्रेस का पहला मुस्लिम तुष्टिकरण था।

 

गांधी का उदय

1916 के बाद भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का प्रवेश हुआ और अगले तीन दशक भारत की आजादी की मुहिम गांधी के चारों ओर ही घूमती रही। गांधी जी की सबसे बड़ी उपलब्धि आजादी के संघर्ष में आम आदमी को शामिल करना था। उन्होंने कुछ लोगों तक सीमित कांग्रेस संगठन को आम आदमी के लिए खोल दिया। गांधी जी का वैचारिक चिंतन इस तथ्य पर आधारित था कि आजादी की लड़ाई हिंदू और मुसलमान के सामूहिक प्रयासों से ही लड़ी और जीती जानी चाहिए और मुसलमानों को कांग्रेस संगठन में हर कीमत पर लाया जाना चाहिए। सही बात यह है कि गांधी जी हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों के भी सर्वमान्य नेता बनना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपना पहला प्रयोग 1920 में असहयोग आंदोलन के साथ ही खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया। गांधी जी को इस बात का विश्वास था कि खिलाफत आंदोलन का साथ देकर वे मुसलमानों का विश्वास पा लेंगे और वे कांग्रेस के साथ आजादी की लड़ाई में भागीदार बनेंगे।

खिलाफत आंदोलन का समर्थन एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन का साथ देना था। तुर्क साम्राज्य के खिलाफ अरब राष्ट्रीयताओं का विद्रोह था। इसको दोबारा तुर्कों के अधीन रखना समझ से परे था। इस आंदोलन से ऐसा लगा कि भारतीय मुसलमान स्थानीय विचारों से कम विदेशी घटनाओं से ज्यादा प्रभावित होते हैं। दूसरा, इसने भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व गैर-धार्मिक नेताओं के हाथों से हटा कर मौलानाओं के हाथों में दे दिया। पूरे आंदोलन में खिलाफत स्वतंत्र तौर पर अपने कार्यक्रम चला रही थी और कांग्रेस उसे समर्थन देती रही। इस प्रक्रिया में जो मुसलमान गैर-धार्मिक नेतृत्व के चलते आधुनिक विचारों को अपना सकते थे वे फिर से धार्मिक नेताओं के साथ चले गए। असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन, दोनों का ही विरोध मुहम्मद अली जिन्ना ने किया था। उन्होंने कहा था कि पब्लिक हिस्टीरिया पैदा करके कुछ पाया नहीं जा सकेगा, लेकिन जनता के आंदोलन के सामने उनकी आवाज की कोई कीमत नहीं रही। अंत में जिस तरह से महात्मा गांधी ने अचानक असहयोग आंदोलन को समाप्त किया उसे मुसलमानों ने धोखा माना और उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। आंदोलन से जो भी मुस्लिम नेता निकले उनमें से गिनती के कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश मुस्लिम लीग के साथ चले गए। इस तरह गांधी जी अपने किसी भी घोषित लक्ष्य को नहीं पा सके, मसलमानों उनके साथ नहीं आए और मुसलमानों का नेतृत्व भी मौलनाओं के हाथ में चला गया।

हिंदुओं और मुसलमानों को लेकर दूसरा प्रयोग 1935 के इंडिया एक्ट के बाद आया। इस एक्ट में प्रांतीय इकाइयों को स्वायत्ता देने और चुनाव करा कर सरकारें बनाने की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था से सवर्ण हिंदुओं और अभिजात्य मुसलमानों को सत्ता की सुगंध आने लगी थी और दोनों भविष्य के लिए अपनी- अपनी स्थिति को देखने लगे थे। कांग्रेस स्वयं को अखिल भारतीय धर्मनिरपेक्ष संगठन मानती थी और मुस्लिम लीग खुद को मुसलमानों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन। कांग्रेस भले ही खुद को सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन मानती थी, लेकिन उसके पास मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर खड़े करने के लिए प्रत्याशी ही नहीं थे। उसने कई तरह से अघोषित समझौते किए। बंगाल में कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए आरक्षित किसी भी सीट पर प्रत्याशी खड़ा नहीं किया और वहां के प्रमुख क्षेत्रीय दल कृषक प्रजा पार्टी ने किसी भी हिंदू सीट पर प्रत्याशी नहीं उतारा। इसी तरह सिंध और यूपी में में भी अघोषित समझौता था। जब चुनाव के परिणाम आए, तो कांग्रेस ने कहा कि उसे किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है।

 

बंगाल और सिंध की कहानी

बंगाल और सिंध में किसी पार्टी को बहुमत नहीं था और वहां के क्षेत्रीय दल कांग्रेस के पास सरकार बनाने के लिए आए, लेकिन कांग्रेस ने मना कर दिया तो वे मुस्लिम लीग के पास चले गए। सबसे बुरा तो यूपी में हुआ जब कांग्रेस ने कहा कि वह मुसलमानों को प्रतिनिधित्व तब देगी जब वे कांग्रेस में शामिल हो जाएंगे। एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस का व्यवहार ठीक है, लेकिन तब वह एक राजनीतिक दल से ज्यादा एक राजनीतिक आंदोलन चलाने वाला संगठन था और उसे अधिक से अधिक लोगों और संगठनों को अपने साथ रखना चाहिए था और वह ऐसा करने में चूक गई। उस समय तक कांग्रेस संगठन में केंद्रीय नेतृत्व लगातार ताकतवर होता जा रहा था और क्षेत्रीय इकाइयों की फैसले लेने के लिए उस पर निर्भरता बढ़ गई थी। इसलिए वह क्षेत्रीय स्थितियों का सही आकलन नहीं कर पाई और सही समय पर फैसले नहीं लिए जा सके। कांग्रेस के व्यवहार ने मुस्लिम नेताओं को निराश और बेचैन कर दिया और भारत की आजादी के बाद उनकी भूमिका कैसी होगी इस पर विचार होने लगा, जिसके अगले कदम के तौर पर 1940 में पाकिस्तान का प्रस्ताव पास किया गया।

पाकिस्तान का प्रस्ताव भले ही मुस्लिम लीग ने पारित कर दिया हो, लेकिन मुसलमानों के बीच उसकी लोकप्रियता नहीं थी और अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान की मांग के विरोध में थे। मार्च, 1942 में आजाद मुस्लिम कांफ्रेंस के दिल्ली में हुए जलसे में भाग लेने वाले मुसलमानों की संख्या पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित करने वालों से ज्यादा थी। लेकिन आजाद मुस्लिम कांफ्रेंस के अल्लाह बख्श की हत्या और कांग्रेस सरकारों के विधानसभाओं से इस्तीफे और युद्ध विरोध के चलते कांग्रेस नेताओं के जेल में होने के कारण मुस्लिम लीग को खुला मैदान मिला और उनकी ताकत बढ़ती गई। विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद जब कांग्रेस के नेता बाहर आए तो वे कमजोर स्थिति में थे और अंग्रेजों के सक्रिय सहयोग के चलते मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनवा ही लिया। बंटवारे ने अगर किसी समुदाय को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है तो वह मुसलमान है। 1947 के बाद मुसलमान आज तीन देशों में बिखर गया है।

बंटवारे के समय एक ओर पाकिस्तान में ऐसी स्थितियां बनी कि वहां से हिंदू पूरी तरह से उजड़ कर भारत आ गए और पाकिस्तान में वहां के नेतृत्व ने ऐसा प्रयास भी नहीं किया कि इस रक्तपात को रोका जाए, लेकिन भारत में गांधी जी और कांग्रेस ने लगातार कोशिश की कि सांप्रदायिक दंगों को रोका जाए। यह एक ओर कांग्रेस की सभी धर्मों को साथ लेकर चलने की घोषित नीति ही थी लेकिन यह गांधी जी के लिए एक अवसर भी था कि वह बता सकें वह मुसलमानों के भी नेता हैं। पिछले तीन दशकों में गांधी जी पर मुसलमानों ने कोई विश्वास नहीं किया, लेकिन सांप्रदायिक दंगों की विभिषिका को रोकने में जिस तरह से उन्होंने प्रयास किया उसने पहली बार मुसलमानों के अंदर कांग्रेस के प्रति और विशेष तौर पर गांधी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा की। यह एक डर भी था क्योंकि 1946 के संविधान सभा के चुनाव में 90 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के पक्ष में मतदान किया था। संविधान सभा के चुनाव को मुस्लिम लीग की जीत को पाकिस्तान के पक्ष में जनमत संग्रह माना गया था।

जब पाकिस्तान की हकीकत सामने आई तो हिंदू बहुल प्रदेशों में रहने वाले मुस्लिम अभिजात्य वर्ग की स्थिति दयनीय हो गई क्योंकि वे अपनी संपत्ति को छोड़कर पाकिस्तान जाने के इच्छुक नहीं थे, लेकिन साथ ही मुस्लिम लीग की सुरक्षा दीवार टूट चुकी थी। कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं था। दूसरी ओर, कांग्रेस के पास मुसलमानों में कोई जनाधार नहीं था। हालत यह थी कि कांग्रेस के पास अपने अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद का चुनाव लडऩे के लिए कोई सुरक्षित सीट ही नहीं थी, तब खान गफ्फार खान ने उन्हें नार्थ वेस्ट फंटियर से चुनाव लड़वाकर संविधान सभा में पहुंचाया था। इसलिए कई मुस्लिम लीगियों ने रातोंरात पाल बदल कर लिया। उन्होंने जिन्ना टोपी फेंकी और गांधी टोपी पहन ली और कांग्रेस के खेमे में पहुंच गए। उस समय राष्ट्रभक्त होने का प्रमाणपत्र देने का काम कांग्रेस के पास था और उन्होंने ऐसे मुस्लिम लीगियों को केवल राष्ट्रभक्त होने का प्रमाणपत्र दिया बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में भी रखा। यह काम कांग्रेस ने किसी भलमनसाहत में नहीं बल्कि पूरी तरह से राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर किया। मुसलमानों यहां रखकर और उसी नेतृत्व के हवाले कर अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत बनाई। इस मुस्लिम नेतृत्व ने यह काम बखूबी अंजाम दिया और मुस्लिम वोटों को कांग्रेस के पाले में बनाए रखा। लगभग तीस वर्ष तक मुसलमान पूरी तरह से कांग्रेस के साथ रहे और 1977 में पहली बार मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ। कांग्रेस ने भी मुसलानों के डर का पूरा राजनीतिक फायदा उठाया।

दूसरी ओर, गांधी जी की हत्या एक हिंदू द्वारा किए जाने और उसके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ओर हिंदू महासभा से संबंध होने पर कांग्रेस ने भारत में हिंदूवादी राजनीति को नेपथ्य में डाल दिया। संघ पर प्रतिबंध लगाने, सावरकर के गांधी हत्याकांड में अभियुक्त बनने, बंगाल विभाजन के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अप्रसांगिक होने और 1952 में उनकी मौत से हिंदूवादी राजनीति का बड़ा झटका लगा। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में हिंदू राजनीतिक दल के हट जाने से जो रिक्तता पैदा हुई उसको कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथ के नेताओं ने भर दिया। इनमें बल्लभ भाई पटेल, बाबू राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री और गोबिंद बल्लभ पंत प्रमुख थे। पटेल की मौत के बाद यह दक्षिणपंथ भी कमजोर हो गया और नेहरू को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा।

यह याद रखना होगा कि भारतीय दक्षिणपंथ हिंदू मान्यताओं को साथ लेकर चलने वाला है। हिंदू राजनीति को पहली मान्यता 1967 में प्रदेशों में बनी संविद सरकारों में मिली और फिर इमरजेंसी के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार में। जनता पार्टी के विघटन के बाद अगले दस साल हिंदूवादी राजनीति के वनवास के रहे और रामजन्म भूमि आंदेालन ने इसमें दोबारा प्राण फूंक दिए। नई अर्थव्यवस्था के आगमन और बाबरी मस्जिद ध्वंस ने कांग्रेस को एक साथ समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से बाहर कर दिया। सिमटती कांग्रेस के पैदा किए राजनीतिक खालीपन को भाजपा ने भरना शुरू कर दिया।

 

मुसलमानों की उपेक्षा

आजादी के बाद मुसलमानों का नेतृत्व या तो धार्मिक नेताओं के पास रहा या फिर उन नेताओं के पास जो मुसलमानों को वोट बैंक समझकर उसे कांग्रेस के पक्ष में बनाए रखते थे। जिस तरह से कांग्रेस ने हिंदुओं समुदाय को धार्मिक जकड़बंदी से बाहर लाने का प्रयास किया। हिंदू समाज के विवाह, तलाक, उत्तराधिकार के नियमों में परिवर्तन किया गया और महिलाओं को अधिकार दिए गए। तब किए गए परिवर्तन 21वीं सदी में दिखायी दे रहे है, लेकिन मुस्लिम समाज में किसी भी परिवर्तन को लाने का प्रयास नहीं किया गया। इसका एक कारण तो यह है कि मुसलमान लंबे समय तक विभाजन की त्रास्दी से बाहर ही नहीं निकल पाए, कुछ समाज ने और कुछ उसने खुद को ही विभाजन का जिम्मेदार मान लिया। मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व किसी भी तरह के परिवर्तन को लाने का इच्छुक कभी रहा ही नहीं। बल्कि मुस्लिम नेतृत्व परिवर्तन के विरोध में ही खड़ा रहा, जैसा कि शाहबानो के मामले में हुआ। एक बड़ी समस्या मुस्लिम समाज के साथ यह रही कि आजादी के बाद वहां कोई मध्य वर्ग था ही नहीं, ज्यादातर पढ़े-लिखे और उर्दू जानने वाले लोग बेहतर जीवन के लिए पाकिस्तान चले गए। इससे मुस्लिम समाज में एक शून्यता बन गई, क्योंकि मध्य वर्ग ही जनमत तैयार करता है।

कांग्रेस की यह सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाएगी कि उसने किसी भी तरह से मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में पूरी तरह से नहीं ला पाई। कांग्रेस ने मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर तो मुख्यधारा में शामिल किया, लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक तौर पर उन्हें अकेला छोड़ दिया। कांग्रेस मुसलमानों को यह विश्वास नहीं दिला पाई कि उसकी समस्याएं भी वहीं हैं जो दूसरे भारतीय समुदायों की हैं, इसके विपरीत मुसलमान अपनी सारी समस्याएं धार्मिक ही मानते रहे और कांग्रेस भी उसे स्वीकार करती रही। अगर कांग्रेस ने गैर धार्मिक नेतृत्व को आगे बढ़ाया होता तो स्थिति दूसरी होती। मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन अरब देशों में तेल की संपन्नता आने के बाद शुरू हुई। भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग वहां जाकर बहुत निचले स्तर के कामों को करने लगा और इससे मिले धन ने उसकी स्थिति में परिवर्तन किया, लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी हुआ कि मुसलमानों में धार्मिक रूढि़वादिता बढ़ी, क्योंकि अरब देश धार्मिक राष्ट्र ही थे। भारतीय मुसलमानों का अरब देशों में महत्व 1990 के बाद काफी बढ़ गया। 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान में दखल देने के बाद अमेरिका और अरब देशों ने ग्लोबल जिहाद चलाया, जिसमें दुनिया के सभी मुस्लिम देशों के नागरिक शामिल हुए लेकिन इसमें भारत का कोई भी मुसलमान शामिल नहीं था। जब सोवियत संघ अफगानिस्तान से निकल गया और अरब देशों का ध्यान जिहाद से हटकर अपनी अर्थव्यवस्था की ओर गया तो भारतीय मुसलमान पहली पंसद बन गए। उनके बारे में यह राय थी कि ये जिहादी नहीं हैं और अपने काम से मतलब रखने वाले लोग हैं। क्या विडम्बना है अरब देश पूरी दुनिया में जिहाद करेंगे लेकिन अपने यहां ऐसे मुसलमान चाहिए जो जिहादी न हों।

 

1990 के परिवर्तन

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में हिंदू और मुसलमान, दोनों की मानसिकता में परिवर्तन आने लगा था। इस समय तक अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाएं जा चुकी थीं और पहले पंजाब और बाद में कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद बहुत तेज हो चुका था। पाकिस्तान की पूरी कोशिश कश्मीर विवाद को धार्मिक मामला बना देने की थी। कश्मीर को पाकिस्तान एक धार्मिक मामला तो नहीं बना सका, लेकिन आतंकवाद और कश्मीर से हिंदुओं के पलायन ने पूरे भारत में हिंदुओं को झकझोर कर रख दिया। इससे पहले कांग्रेस सरकार ने राम जन्मभूमि का ताला खुलवाकर और मंदिर का शिलान्यास करवा कर हिंदूवादी राजनीति के दरवाजे पूरी तरह से खोल दिए। कांग्रेस का यह कदम शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाब में बदल दिया गया था और हिंदुओं को खुश करने के लिए राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। दोनों का खुश करने के प्रयास में कांग्रेस ने दोनों ही समुदायों का विश्वास खो दिया।

यहीं से हिंदूवादी राजनीति का विकास तेजी से होने लगा। महात्मा गांधी की हत्या के बाद से लेकर 1990 तक कांग्रेस ने हिंदूवादी राजनीति को लगातार हाशिये पर रखा और जरूरत के अनुसार हिंदूवादी विचार को कांग्रेस के दायरे के अंदर ले आई। कांग्रेस की चतुरायी ही यह थी कि वह वामपंथ और दक्षिणपंथी मान्यताओं के लोगों के लिए जगह बनाकर रखती थी। तमाम धर्मनिरपेक्षता का दावा करने के बाद भी वह केरल और कश्मीर में हिंदू कार्ड खेलने से परहेज नहीं करती थी। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद बाकी कांग्रेस की सरकारें संतुलन साधने का करिश्मा दिखाने में असफल रहीं।

दूसरी ओर, आजादी और विभाजन के लगभग चार दशकों बाद मुसलमानों की नई पीढ़ी आ चुकी थी, जिसने विभाजन नहीं देखा था और वह इस सदमे से उबर चुकी थी। उसमें एक मध्य वर्ग भी पैदा हो रहा था, जो भारत में अपने लिए नई जगह तलाश रहा था। वह विभाजन के कलंक को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन वह शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र में पूरी तरह से प्रतिस्पर्धा करने लायक भी नहीं था। निजीकरण की व्यवस्था से सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर समाप्त थे, लेकिन ओटोमोबाइल्स, भवन निर्माण और मोबाइल फोन के क्षेत्र में मुसलमानों के एक वर्ग ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से रोजगार जुटाया। इसके साथ ही अरब देशों में होने वाली आर्थिक गतिविधियों ने भी मुसलमान युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए।

पिछली सदी का अंतिम दशक वह काल खंड था जब कांग्रेस कमजोर हो रही थी ओर कई तरह की ताकतें कांग्रेस के खाली किए स्थान को भरने का प्रयास कर रही थीं। कई प्रदेशों में क्षत्रप उभर रहे थे और उनमें प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं जोर मार रही थीं। वे सभी क्षेत्रीय दलों को मिलाकर केंद्र में आना चाहते थे। दूसरी ओर कांग्रेस अभी भी एक अखिल भारतीय पार्टी थी और वह केंद्र में अपने स्थान पर किसी को भी नहीं आने देना चाहती थी। दूसरा बड़ा राजनीति दल भाजपा थी, लेकिन उसकी न तो अन्य दलों में स्वीकार्यता थी और वह राज्यों में भी अभी दूसरे स्थान पर ही थी। जल्दी ही सारी राजनीति भाजपा और कांग्रेस के बीच सिमट गई और क्षेत्रीय दल दोनों में से किसी के पाले में चले गए।

भाजपा के उभार का कारण कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों का 1990 के बाद हिंदू मानसिकता को न समझना रहा है। पंजाब और कश्मीर के आतंकवाद का सीधा प्रभाव हिंदुओं पर पड़ा, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल कांग्रेस, वामपंथ और अन्य दलों ने गंभीर विरोध नहीं किया। हर दल को चिंता इस बात की थी कि अगर हम हिंदुओं के पक्ष में बोलेंगे तो हमें सांप्रदायिक कहा जाएगा और मुसलमान वोट हमसे छिटक जाएगा। इस तरह हिंदुओं के पक्ष में बोलने का सारा मैदान खाली छोड़ दिया गया और इसका भाजपा ने पूरा राजनीतिक लाभ उठाया। भाजपा लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल रही कि केवल वह ही हिंदू हितों की रक्षा कर पाने में सक्षम है। भाजपा ने लोगों को बताया कि हिंदुओं की सारी समस्याएं धर्मनिरपेक्षता के कारण हैं और आजादी के बाद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदुओं को परेशान किया जाता है। गुजरात के दंगों ने भी हिंदू जनमानस को भाजपा के पक्ष में लाने का काम किया।

एक अन्य मिथक यह भी रखा जाता रहा था कि भारत में कोई भी दल बिना मुसलमान मतदाताओं के विश्वास को पाये चुनाव नहीं जीत सकता है। इसी मिथक के चलते हर राजनीतिक दल मुसलमानों के बारे में ज्यादा से ज्यादा बातें करता रहता था और विक्टिम कार्ड खेलता रहा, लेकिन कभी भी मुसलमानों की दशा सुधारने का कोई सही प्रयास नहीं किया। हर दल ने कुछ मुसलमानों को चुन लिया और अपनी राजनीति करता रहा। यह कहा जाता रहा कि मुसलमान टैक्टिकल वोटिंग करते हैं और भाजपा को हरा देते हैं। मुसलमानों के इस चुनावी व्यवहार को किसी ने भी सांप्रदायिकता की श्रेणी में नहीं रखा। भाजपा ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और 2014 में बिना मुसलमानों के समर्थन के केंद्र में पूरी बहुमत की सरकार बना दी। हालत यह थी कि 2014 में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एक भी मुसलमान सांसद नहीं जीत पाया। बिना मुसलमान वोटों के सरकार नहीं बन सकती का मिथक टूट गया। वैसे 2019 में पांच मुसलिम सांसद जीते हैं।

भाजपा की लगातार दो लोकसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत की सरकार ने मुसलमानों को चौंका दिया है। उनका केंद्र और राज्यों में प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है। मुसलमान इस समय चौराहे पर है। एक ओर उसे लग रहा है कि विरोधी राजनीतिक दलों की लगातार पराजय हो रही है, ये पार्टियां भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है और भाजपा को उनके मतों की ज्यादा चिंता नहीं है। इसके अलावा असदुद्दीन ओवैसी सबसे अधिक मुसलमानों को लेकर चिंतित हैं और मुस्लिम विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं। इससे पूरे देश में उनको सुनने वालों और समर्थकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है और मुस्लिम बहुल स्थानों पर वे जीते भी हैं। लेकिन उनका सारा प्रयास मुसलमानों की पार्टी बनाने का है। यह एक अलगाववादी दिशा है। मुसलमान की पार्टी बना कर वे कुछ सीटें पा सकते हैं लेकिन वे सत्ता में भागीदार नहीं हो सकते। उनकी हालत मायावती की पार्टी की तरह हो जाएगी जिनके सहयोग से लोग चुनाव जीतते तो हैं लेकिन मौका मिलते ही पार्टी छोड़ कर सत्ता के साथ चले जाते हैं। ओवैसी की पार्टी ने बिहार में पांच विधायक जीते थे लेकिन मौका मिलते ही चार लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद में चले गए और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं।

फिर अगर मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होगा तो इसकी प्रतिक्रिया में हिंदुओं का और अधिक ध्रुवीकरण होना निश्चित है। इसका सीधा परिणाम होगा कि मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व और भी कम हो जाएगा। बेहतर तो यह है कि मुसलमान अपनी अलग पार्टी बनाने के बजाय विचारधारा के आधार पर सभी राजनीतिक दलों, यहां तक कि भाजपा में शामिल हों ओर अलगाववाद में जाने के बजाय समावेशी राजनीति को चुनें। धर्म के आधार पर पार्टी बनाकर बहुसंख्यक तो काम चला ले जाएंगे, लेकिन यह अल्पसंख्यकों के लिए हानिकारक होगा। जरूरत भारतीय बन कर सोचने की है। भारतीय मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनका भविष्य भी वही होगा जो भारत के आम आदती होगा। इसके लिए समाज में अपनी खिचड़ी अलग पकाने की जरूरत नहीं है।

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