आज के भारत में बेरोजगार

Share:

– अमिल बसोल, मनिंदर ठाकुर और अनुपम

डॉक्टर अमित बसोले ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि हालांकि, सुनील से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई, लेकिन उनके लेखन को मैं पढ़ता था। उनके जिस लेख का बहुत ज्यादा असर पड़ा वह था ‘नंदीग्राम और औद्योगिकरण का अंधविश्वासÓ। लेख मुझे इतना अच्छा लगा था कि मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद किया। इसमें उन्होंने इतने प्रभावशाली तरीके से पूंजीवाद की सीमाओं को माक्र्सवादी सिद्धांत में प्रिमिटिव अक्यूम्युलेशन का जो सवाल है उसे विस्थापन से जोड़कर विश्लेषण किया है।

अमित बसोले ने कहा कि उस लेख का जिक्र करने की एक वजह यह भी है कि वह जब सोच रहे थे कि बेरोजगारी को लेकर इस जैसे मंच में क्या कहा जा सकता है जो पहले ही कई बार न कहा गया, तो समझ आया कि हमको बेरोजगारी के मुद्दे को थोड़ा गहराई में जाकर पूंजीवाद की जो ढांचागत व्यवस्था है उसके परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। समाधान भी वहीं से निकल सकता है।

डॉक्टर बसोले ने कहा कि बात की शुरुआत बेरोजगारी के बारे में डेटा से होनी चाहिए ताकि पृष्ठभूमि साफ हो जाए। यह लगभग सब लोग जानते होंगे कि बेरोजगारी की परिभाषा है : ”वो व्यक्ति जिसके पास कमाई का कोई रोजगार नहीं है और वो काम की तलाश में है।‘’ भारत में यह ज्यादातर सिर्फ शिक्षित युवाओं का मसला है। अगर आप उच्च शिक्षित नहीं हैं, यानी दसवीं या बारहवीं से कम पास हैं तो ज्यादातर आप बेरोजगार नहीं रहते। यह भी जरूरी नहीं है कि आप कोई अपनी आकांशा के अनुरूप काम ढूंढ रहे हैं, क्योंकि ज्यादातर लोग अनौपचारिक क्षेत्र में होते हैं। वहां जो भी काम मिलता है वह करना पड़ता है।

एक सर्वे के मुताबिक, तीस की उम्र के बाद लोग बेरोजगार रह नहीं पाते। यह मैं सरकारी डेटा की बात कर रहा हूं। और भी सर्वे में इसका पुष्टिकरण हुआ है, कि तीस की उम्र के बाद परिस्थितिवश जिम्मेदारी आ जाती है और कुछ-न-कुछ करना पड़ता है। खासकर पुरुषों को। महिलाओं की परिस्थिति थोड़ी अलग है। लेकिन क्या लोग अपनी पसंद का काम कर रहे हैं जो वे करना चाहते हैं या वे जो शिक्षा पाए हुए हैं? इसका जवाब ना में ही होगा।

लेकिन पिछले 15-20 साल में भारत में क्या बदला है जिसकी वजह से बेरोजगारी का मुद्दा राजनीतिक तौर पर अहम हो गया है। हुआ यह है कि भारत में श्रमिक जनसंख्या आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा शिक्षित हो गई है। अगर आप 2000 के शुरुआती सालों को देखेंगे तो भारत की श्रमिक जनसंख्या का बहुत थोड़ा तबका डिप्लोमा या ग्रेजुएट था। बड़ी संख्या 10वीं पास थी। लेकिन अब 25 से 30 फीसदी श्रमिक डिप्लोमा या ग्रेजुएट हैं। हालांकि अगर आप दूसरे देशों से तुलना करेंगे, तो यह संख्या अभी भी बहुत बड़ी नहीं है। लेकिन भारत के लिए यह संख्या बहुत बड़ी है। बेहतरीन शिक्षा हासिल किए हुए श्रमिक अच्छा रोजगार तलाश रहे हैं, लेकिन रोजगार तो है ही नहीं।

अगर महिलाओं की बात करें तो सबसे ज्यादा बेरोजगारी पढ़ी-लिखी युवा लड़कियों में है। वे लड़कियां जो तीस साल से कम उम्र की हैं और जिन्होंने 12 साल से ज्यादा शिक्षा हासिल की है। ऐसी युवा महिलाओं में बेरोजगारी दर 30-40 फीसदी या और भी ज्यादा है। ऐसी पढ़ी-लिखी महिलाओं के बेरोजगार रहने की क्या वजह है, इसको लेकर कोई खोज तो नहीं हुई लेकिन एक अंदाजा है। जिसका जिक्र प्रोफेसर अरुण कुमार ने भी अपनी बात शुरू करते हुए किया था। कि, शादी होने के बाद ज्यादातर महिलाएं काम करना छोड़े देती हैं।

सरकारी डेटा के हिसाब से 20 प्रतिशत यानी पांच में से सिर्फ एक महिला काम कर रही है। यह आंकड़ा बहुत वर्षों से बढ़ा तो है ही नहीं। जबकि महिलाएं शिक्षित हो रही हैं। हम देख रहे हैं स्कूल-कॉलेज में महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। खासतौर पर महिलाओं की बात करें तो सवाल यह है कि उनके लिए काम क्यों नहीं है। इसके पीछे कई वजह हैं। पारिवारिक और सामाजिक तानाबाना ऐसा है कि महिलाओं के पास करने के सीमित विकल्प रह जाते हैं। उनको घर के पास काम चाहिए। उनको लचीले घंटे चाहिए, ताकि घर की जिम्मेदारियां भी कर सकें और बाहर का काम भी कर सकें। कई जगह पर बाहर जाने के लिए घर के लोगों की इजाजत चाहिए। ये सारे मुद्दे अगर हम एक साथ देखें तो वे काम करने की इच्छा रखती हैं, लेकिन काम इतना विशिष्ट प्रकार का चाहिए कि वह उपलब्ध नहीं है। इसमें सुरक्षा और परिवहन को भी जोड़ा जा सकता है, जो अभी इंडिया में बहुत बड़ी समस्या है। आखिर में यह कह दूं कि बेरोजगारी कि समस्या सिर्फ महिलाओं की समस्या ही नहीं है, बल्कि सबकी समस्या है। केवल बेरोजगारी ही नहीं सम्मानजनक और अच्छे वेतन वाले रोजगार की समस्या सबसे बड़ी है। जिसकी वजह से सरकारी नौकरियों के लिए बहुत भीड़ लगती है।

यह प्राइवेट सेक्टर की कमजोरी है कि वह पर्याप्त मात्रा में उत्पादक तथा अच्छे भुगतान वाली नौकरियां पैदा नहीं कर रहा है। यह बात हमको पूंजीवाद के सवाल पर ला खड़ा करती है। अब सवाल यह है कि पूंजीवाद के इस दौर में जबकि हमसे पहले न केवल योरोप, जापान, वगैरह जैसे देश बल्कि कोरिया और फिर चीन जैसे देशों का उद्योगीकरण हो गया है। तो भारत के उद्योगिकरण की संभावना क्या है? क्या भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं उस तरह का उद्योगीकरण कर सकती हैं? क्या उद्योगीकरण का वह पेटर्न उस तरह का रोजगार पैदा कर सकता है, उस संख्या में पैदा कर सकता है जितना करना जरूरी है। ये दोनों सवाल बहुत बड़े हैं। जाहिर है इस पर कोई ठोस पोजिशन लेना मुश्किल है। फिर भी मैं कह दूं मेरे हिसाब से इन दोनों सवालों का जवाब ना है। इसका मतलब यह है कि भारत में औद्योगिकीकरण के उस पैटर्न को दोहराने की संभावना नहीं है जिसे हमने पहले देखा है। इसके विभिन्न कारण हैं। सुनिल जी ने यह साफ देखा था। उस लेख में भी उन्होंने इसके बारे में बात की थी कि इस प्रकार के विकास को उत्पन्न करने के लिए जिस प्रकार का आंतरिक उपनिवेशवाद, जिस प्रकार के विवाद और उनके समाधान की आवश्यकता है वह वर्तमान में संभव नहीं है। इस पर मंथन करना जरूरी है कि वैकल्पिक रास्ता क्या है। क्या यह पूंजीवादी ढांचे के भीतर संभव है। या फिर पूंजीवाद की अन्य किस्में, जहां कोई एक ऐसे पूंजीवाद के बारे में सोच सकता है जो एक अलग तरह का समाज, यहां तक कि विभिन्न औद्योगिक समाज भी पैदा करता है। लेकिन उस तरह का औद्योगिक समाज नहीं, जिसे हमने देखा है। क्या यह संभव है या यह संभव नहीं है? तो फिर क्या हम समाजवाद के बारे में बात कर रहे हैं, और यह निश्चित रूप से एक राजनीतिक प्रश्न है।

 

अरुण कुमार

अमित बसोले ने यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि क्या पूंजीवाद के अंदर यह गुंजाइश है कि वह सबके लिए रोजगार पैदा कर सके। क्या यह संभव है? क्या आज की टेक्नोलॉजी के साथ ये संभव है? या फिर समाजवाद ही मुमकिन है। या गांधी जी ने जो कहा था, सबसे नीचे से विकास। क्या वही संभावना है।

इसके बाद अरुण कुमार ने युवा हल्ला बोल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुपम से बेरोजगारी को लेकर जमीनी हकीकत पर विचार रखने का आग्रह किया।

 

अनुपम

देश में करोड़ों युवा बेरोजगार हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश इस पर राष्ट्रीय बहस नहीं हो रही है। बेरोजगारी आर्थिक समस्या या सिर्फ आर्थिक संकट नहीं रहा। यह एक बड़े वर्ग के लिए जीवन-मरण का सवाल है। इस पर कई तरह के आंकड़े सामने आए हैं। कम-से-कम डेटा मेजरमेंट मेट्रिक्स के मामले में हमारे देश की ठीक-ठाक साख रही है पूरी दुनिया में। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जो हालात हो गए हैं उससे तो सब दिन-ब-दिन रूबरू हो रहे हैं। एनसीआरबी का वह डेटा जो करीब 2018 का है, जिसके मुताबिक हमारे देश में बेरोजगारी के कारण हर दो घंटे में तीन लोग खुदकुशी कर रहे हैं। अक्सर नेता लोग भारत को युवा देश बताते हैं। और उस देश में अगर आत्महत्या में बेरोजगारी का इतना बड़ा योगदान होगा, तो पब्लिक डिबेट में यह ज्यादा आना चाहिए।

बहुत ही गहरा और व्यापक संकट है और इसका समाधान कोई एक दिन में निकलने वाला नहीं है। समाधान नहीं निकलने का कारण है कि असल में बेरोजगारी की वजह है हमारा गलत विकास का मॉडल।

हमारी विकास की अवधारणा और प्रगति की परिभाषा क्या है। तभी, बेरोजगारी के समाधान को लेकर हम सही तथा सार्थक ढंग से बात कर पाएंगे। इसमें पॉलिटिकल सवाल है कि हम कैसा देश तथा समाज चाहते हैं? हम किस तरह आगे बढऩा चाहते हैं? लेकिन हम विमर्श के उस स्तर पर देश की राजनीतिक बहस को तब ले जा सकते हैं, जब सत्ताधारियों को यह मनाया जा सके कि बेरोजगारी एक समस्या है। समस्या का समाधान तो तब निकालेगा जब वे यह माने कि यह एक समस्या है। दिक्कत यह है कि प्रोपगेंडा मशीनरी के जरिये समझाया जा रहा है कि अमृत काल चल रहा है और बेरोजगारी के बारे चिंता करने की जरूरत नहीं है।

हमारे देश में चूंकि जॉब मार्केट का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है – 90 फीसदी से ज्यादा। नोटबंदी का उस पर बहुत बुरा असर पड़ा। उसके बाद जिस ढंग का लॉकडाउन हमने कोविड के नाम पर देखा उससे सप्लाई पर असर पड़ा। और डिमांड-सप्लाई मिलजुल कर जो नतीजा हुआ उसने अर्थव्यवस्था का नील बटा सन्नाटा कर दिया।

पब्लिक सेक्टर की नौकरियां, जो सारे जॉब मार्केट का बहुत छोटा हिस्सा है वे बढऩी चाहिए थीं, लेकिन नहीं बढ़ीं। अलग-अलग सरकारी भर्तियों में जो आप युवाओं का गुस्सा देखते हैं वह असल में सिर्फ उस भर्ती का गुस्सा नहीं होता है। जैसे कि अभी अग्निपथ को लेकर हमने देखा। कुछ महीने पहले जनवरी में हमने रेलवे आरआरबी एनटीपीसी जो रेलवे की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी है उसकी भर्ती को लेकर और ग्रुप डी की भर्तियों को लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश और देश के कई हिस्सो में बहुत बड़े प्रोटेस्ट देखे।

कई बार यह सवाल उठता है कि यह जो गुस्सा है यह क्या सिर्फ इस भर्ती को लेकर है। लेकिन मुझे लगता है यह पूरी इकोनॉमी की परेशानी को दर्शाता है – संगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र हो। इसके अलावा कोई दूसरा फिजिकल माध्यम नहीं है कि इस गुस्से को व्यक्त करने का। यह गुस्सा तब दिखता है जब कोई पेपर लीक हो जाता है या किसी किस्म की इरेग्युलैरिटी हो जाती है। जैसे रेलवे में एनपीसी और ग्रुप डी की जो परीक्षा थी जिसको फरवरी, 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नोटिफाई किया गया था। यह बोलते हुए कि सिर्फ रेलवे के माध्यम से अगले दो साल में चार लाख नौकरियां दी जाएंगी। उस वादे के फौरन बाद एनटीपीसी और ग्रप डी को नोटिफाई किया गया था जिसमें दो करोड़ ब्यालिस लाख उम्मीदवारों ने अर्जी दी थी। इसमें ग्रुप डी के लिए आवेदन पत्र देने वालों में ऐसे ऐसे लोग थे जिन्होंने इंजीनियरिंग, बीटेक, पोस्ट ग्रेजुएट और पीएचडी की है।

यह स्थिति क्यों बनी हुई है। 2019 से पहले सरकार ने यह प्रचार किया कि हम दुनिया की सबसे बड़ी भर्ती निकाल रहे हैं। और अब तीन साल से ज्यादा हो जाने के बाद भी वह भर्ती पूरी नहीं हो सकी है। सवाल पूछो तो जवाब आता है कि क्योंकि ये बहुत भर्तियां थी इसलिए हम इन्हें ढंग से पूरा नहीं कर पाए। अब सवाल यह है कि ये दो करोड़ ब्यालिस लाख लोग कौन हैं जो ग्रुप डी की भर्ती के लिए एप्लाई कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जो इस देश की 90 फीसदी आबादी का हिस्सा है। उनके लिए बेरोजगारी जीवन- मरण का सवाल है। हमारे मेन स्ट्रीम मीडिया से ये खबरें गायब हैं।

अकेले अग्निपथ योजना के कारण कम-से-कम पांच खुदकुशी के मामले हमारी जानकारी में हैं। अगर इस पर चर्चा नहीं होगी तो गुस्सा फूटेगा अलग अलग तरीके से। ऐसा भी नहीं है कि यह गुस्सा एकाएक फूटता है।

असल में लंबे समय से अलग-अलग रचनात्मक तरीकों से प्रदर्शन चल रहे हैं। लेकिन उन प्रदर्शनों पर किसी का ध्यान नहीं है। उस पर बात या बहस ही नहीं होती। तो हमको वह दिखता ही उस दिन है जिस दिन उस भीड़ में से किसी ने बस के कांच तोड़ दिए या उस आंदोलन में कोई अराजक तत्व आ जाए या हिंसा हो जाए।

मैं छोटा सा उदाहरण देता हूं। अद्र्धसैनिक बलों में नियुक्ति के लिए स्टाफ सलेक्शन कमीशन भर्ती करता है। उसकी 2018 की जो भर्ती है उसमें जो लोग सफल हो चुके हैं, उन्होंने सब कुछ क्वालिफाई कर लिया। वे पिछले डेढ़ साल से प्रदर्शन कर रहे हैं। जंतर मंतर पर कई दिनों तक बैठे रहे, रैली की, सभाएं की, मार्च किया। कई दिनों तक नागपुर में बैठे रहे, अभी वे नागपुर से दिल्ली मार्च कर रहे हैं। पिछले 36-37 दिनों से पैदल चल रहे हैं। लेकिन वे हमारे टीवी पर नहीं हैं, वे हम लोगों की चर्चाओं में नहीं हैं। उनके धैर्ये का इम्तहान हो चुका है। अब वे दिल्ली पहुंचेंगे, प्रदर्शन जब बड़ा बनेगा तो उसके बाद तरह-तरह की रणनीति अपनाई जाती है जिससे कि प्रदर्शनों को डिसक्रेडिट कर दिया जाए।

अग्निपथ को मैं सेना भर्ती कहता हूं। सेना भर्ती को लेकर पिछले डेढ़ साल से सरकार पर दबाव बनाने का हर संभव प्रयत्न कर रहे थे। हमने एक रन फॉर रोजगार कैंपेन किया था सेना भर्ती के लिए। हर जिले में लोग मैदानों में दौड़ लगाते हैं। इस दौड़ को हमने कैंपेन की तरह ध्यान आकृषित करने के लिए किया था। पहले तो तीन साल तक भर्ती नहीं निकाली। और फिर जब भर्ती आज भी तो सिर्फ चार साल के लिए उनको सेना में ले रहे हैं। जो कि हास्यासपद है। देखिए ट्रेनिंग भले एक साल की हो, लेकिन किसी सैनिक को तैयार करने में कम-से-कम तीन चार साल लगते हैं। और यह सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए कि सरकार क्यों सैनिकों को तैयार करके, चाहें उनका नाम अग्निवीर रख दीजिए, उन्हें सैनिक मत कहिए वो अलग बात है, फिर सेवा क्यों नहीं लेना चाहती सरकार। वह सीमा की सुरक्षा में उनका क्यों नहीं इस्तेमाल करना चाहती। और फिर उसके जो कॉरपोरेट्स हैं वे सामने आकर क्यों कहते हैं कि हम नौकरी देने को तैयार हैं। राज्य सरकारें क्यों यह कहती हैं।

हर कोई कह रहा है कि हम अग्निवीर को पर्मानेंट नौकरी दे देंगे। लेकिन उनको जहां पर्मानेंट नौकरी चाहिए वहां कहते हैं कि चार साल में तुमको फ्री कर देंगे। कोई लॉजिक कोई सर पैर नही है। सिर्फ ये उन युवाओं के खिलाफ नहीं है? ये सेना को कमजोर नहीं करेगा। और ये हमारी नेशनल सिक्योरिटी से कंप्रोमाइज नहीं होगा। इस कारण से हम लोग इसके विरोध में थे। हमें जेल में डाल दिया गया। मुझे तिहाड़ में भेज दिया गया। अभी मैं पिछले दस दिनों से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में घूम रहा था। इस अग्निपथ मामले में सरकार ने कोई भी शिकायत का समाधान नहीं किया है। किया क्या कि पूरी पुलिस मशीनरी के जरिये पहले तो दमन किया और हिंसा हुई। हिंसा इस कारण हुई कि जहां-जहां जो लोग नेतृत्व दे सकते थे, उन लोगों को चुन-चुन के पकड़ लिया। उससे जगह बनी ऐसे लोगों के लिए जो अराजक थे, हिंसक थे। उसके बाद हिंसा के नाम पर हर जिले में एफआईआर दर्ज हुई और मुकदमे शुरू हो गए। अठारह-उन्नीस साल के बच्चों को जेल में डाला गया। पुलिस की एफआईआर में कई का नाम है और उसके ऊपर सौ-दो सौ अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लिया गया। इसका नतीजा यह हुआ है कि जो लोकल थाना है वो अज्ञात के नाम पर वसूली करने लगे। किसी के घर पहुंच जाते हैं जिसका बच्चा सेना की तैयारी कर रहा था कि भई आपका बच्चा भी प्रदर्शन कर रहा था एफआईआर में नाम है। डर का ऐसा माहौल है कि लोगों ने बताना बंद कर दिया है कि हमारा बच्चा भी सेना में भर्ती की तैयारी कर रहा था।

उत्तर प्रदेश में पुलिस को गांव में भेजा जा रहा है। पुलिस बैठकी कर रही है, चौपाल लगा रही है, सभा कर रही है और अग्निपथ के फायदे बता रही है। और वही पुलिस अग्निपथ की सच्चाई बताने वालों को सभा नहीं करने दे रही है।

किसी लोकतंत्र में इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है। पुलिस पार्टी कार्यकर्ता की तरह काम कर रही है। मैं तो कहता हूं कि ये जो पुलिस वाले अग्निपथ के फायदे बता रहे हैं इनको भी चार साल में बोल देना चाहिए कि आपके भी चार साल हो गए आप भी अग्निवीर बन जाओ। कोचिंग इंस्टीट्यूट्स में दिल्ली के मुखर्जी नगर में पुलिस जाकर लिस्ट बना रही है कि कौन-कौन तैयारी कर रहा है।

असली सवाल पर ध्यान दिए बिना, आक्रोश पे चादर बिछाने देने की कोशिश हुई है। इसीलिए इस शांति को मैं बहुत खतरनाक शांति मानता हूं। कुछ ही दिनों में यह गुस्सा फिर से फूटेगा। मुझे लगता है तब पूरे देश में यह डिबेट होगी। क्योंकि समाधान सिर्फ सरकारी नौकरी में नहीं है, वह तो पूरे मॉडल ऑफ डेवलपमेंट की डिबेट में है। लेकिन उसकी शुरुआत इन्हीं सरकारी नौकरियों के प्रोटेस्ट से शुरू होगी।

 

मनिंदर ठाकुर

प्रोफेसर मनिंदर ठाकुर ने चर्चा शुरू करते हुए कहा कि आज एमए के छात्रों से बात करने पर यह ज्ञात होता है कि उन्हें भी यह नहीं पता कि वे एमए क्यों कर रहे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में बहुत नौकरियां हैं लेकिन वहां पिछले आठ से दस साल में लोग पर्मानेंट नहीं हुए। एडहॉक पर ही काम कर रहे हैं। कई ऐसे कॉलेज हैं जहां पर स्टूडेंट्स ज्वाइन करते हैं अपनी पीएचडी के बाद और आठ-दस साल तक पढ़ाते हैं, लेकिन उस कॉलेज में कोई पर्मानेंट टीचर नहीं है। कई विभागों में हेड ऑफ द डिपार्टमेंट या तो किसी दूसरे विभाग से है या फिर कोई एड्हॉक टीचर है। स्टूडेंट्स कहते हैं कि यूनिवर्सिटी में बुरा दौर आ गया है। पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है।

मुझे याद है जब मैं स्टूडेंट था और एक बार इंटरव्यू में गया और नौकरी नहीं मिली, तो किसी ने कहा कि बिना अच्छे टीचर्स के यूनिवर्सिटी नहीं चल सकती है इसलिए आप आश्वस्त रहें, आपको नौकरी मिल जाएगी। लेकिन आज के दौर में यदि नौकरियां हैं, तो कैसे मिलेंगी इसका पता नहीं है। कोई ओब्जेक्टिव रूल ऑफ लॉ नहीं है जिससे कि आप समझ सकें कि आपको नौकरी मिल सकती है या नहीं। मैं केवल यूनिवर्सिटी की बात कर रहा हूं। इसका कुल प्रभाव मुझे यूनिवर्सिटी की साइकॉलोजी और यूनिवर्सिटी की राजनीति पर दिखता है।

यूनिवर्सिटी की साइकॉलोजी अब ऐसी हो गई है कि छात्र चाहे किसी भी विषय में पढऩे आते हैं, वे उस विषय के अलावा बाहर कुछ और करने की कोशिश करते हैं। स्किल डेवलपमेंट करने की कोशिश करते है। नतीजा है कि उनका ध्यान पढ़ाई से पूरी तरह से हट गया है। जो अध्यापक आते हैं वे निश्चित नहीं हैं कि वे कहां होंगे। एक तरह का न्यू फ्यूडलिज़्म दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में आप देख सकते हैं। जहां एड्हॉक टीचर्स पूरी तरह से चुप रहते हैं कि कहीं उनके खिलाफ बात न चली जाए। इस तरह का माहौल है और इस माहौल में आए दिन जो खिन्नता का लेवल है छात्रों में वह जबरदस्त दिख रहा है।

मैंने कुछ दवा की दुकानें जो यूनिवर्सिटी के आसपास हैं उनका निरिक्षण किया। कि, वहां डिप्रेशन की दवा कितनी बिकती है। ज्यादातर दुकानदारों ने मुझे कहा कि यदि हम डिप्रेशन की मेडिसिन बिना डॉक्टर के नुस्खे के बेचने लगें तो हमें कुछ और बेचने की जरूरत नहीं है।

मुखर्जी नगर में एक सिनेमा हॉल हुआ करता था। वह सिनेमा हॉल अब क्लास रूम की तरह इस्तेमाल हो रहा है जहां बच्चों को कोचिंग में पढ़ाया जा रहा है। उसमें छात्र कोई ढाई हजार से ऊपर हैं। पूरे मुखर्जी नगर में आपको पोस्टर्स और बोर्ड नजर आएंगे जो कोचिंग के बोर्ड हैं। वहां अब यह माहौल है कि कोचिंग कर रहे हैं और उन्हें पता है कि नौकरियां नहीं हैं, तो भयानक निराशा के शिकार हैं।

ऐसे में दो चीजें हैं। या तो वे रॉ मेटिरियल है हिंसा के लिए, आपसी छोटे मोटे झगड़ों के लिए और बड़े झगड़ों के लिए। या फिर वो रॉ मेटिरियल है आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के लिए। जिस यूनिवर्सिटी में पहले राजनीतिक मुद्दों पर विवाद और संवाद हुआ करता था, वहां इस समय केवल आइडेंटिटी के मुद्दों पर विवाद और संवाद हो रहा है। इसकी बहुत संभावना है कि इस तरह के माहौल में जहां भविष्य पता नहीं चल रहा है, मेंटल डिप्रेशन है, उसमें इन तमाम लोगों को आइडेंटिटी मूवमेंट के ट्रोल के रूप में उपयोग में लाया जाए। यदि बहुत जल्दी कोई सीरियस पॉलिटिकल हस्तक्षेप इसमें नहीं किया गया। बहुत जल्दी ऐसा नेतृत्व अगर कोई नहीं उभरता जो उन लोगों को बेरोजगारी की बारीकी के बारे में समझा सके। जो उन लोगों को उनकी समस्याओं के जड़ में क्या है उसको समझा सके। तो परिस्थिति हमारे हाथ से बाहर हो जाएगी। यह एक तरफ की बात है।

दूसरी तरफ हमने देखा कि जब अग्निवीर की बात आई, कैसे चारों तरफ गुस्सा फूट गया। तो लोग कहने लगे कि बाहरी हाथ है। उस समय मैंने बहुत से लोगों से संवाद करने की कोशिश की। मैं बिहार में था जहां बहुत हिंसा हो रही था। तो मुझे पता चला कि यह दूसरा एनार्किक ऐंगल है जो निकल सकता है। वहीं, लोग जो कल तक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स में शामिल हो रहे थे वही लोग बिना किसी पॉलिटिकल विजऩ के व्यापक हिंसा में भी जा सकते हैं।

यह बात मुझे समझ में नहीं आती कि इन दोनों के बीच में क्या कोई ऐसा रास्ता निकल सकता है, जो एक तरफ यह समझाए कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स, बड़े पैमाने में जो युवा इस वक्त बेरोजगार है, उनको डिवाइड करने का एक तरीका है। दूसरी तरफ यह समझाए कि बेरोजगारी से उभरी जो समस्याएं हैं उसका निदान एनार्किक वॉयलेंस में नहीं है। बल्कि किसी सीरीयस पॉलिटिकल मूवमेंट में है।

यह मुझे एक संकट लगता है जो मैं विश्वविद्यालयों से लेकर नीचे तक देख पा रहा हूं। बिहार के दूर इलाकों में, पूर्णिया जैसे इलाके में, जहां मेरी युवाओं से बहुत बात हो रही है मैं एक तीसरी चीज देख रहा हूं और वह है ड्रग एडिक्शन। एक बहुत बड़ा ड्रग मार्केट जो बन रहा है इन बेरोजगार युवाओं के बीच। छोटे से शहर में अभी दो ऐसी हत्याएं हुईं, जो ड्रग माफिया के चलते हुईं। यह एक नेक्सस बन रहा है, मुझे ऐसा लगता है जो बेरोजगार युवकों के बीच में काम कर रहा है।

यह प्रतिरूप वैसा है जो मैंने पंजाब के कुछ इलाकों में पहले देखा था। पंजाब में जो आंदोलन था उस आंदोलन के पीछे बड़े पैमाने पर यूथ में बेरोजगारी थी। पंजाब में फील्ड वर्क करते हुए लोगों ने बताया कि यह बेरोजगारी, अनएम्प्लॉयबिलिटी के चलते हुआ। क्योंकि उनमें कोई एम्प्लॉयबल स्किल नहीं था। मूवमेंट के दरम्यान उन्हें डिग्री तो दे दी गई। लेकिन कोई पढ़ाई नहीं हुई। नतीजा यह है कि उन्हें कहीं रोजगार नहीं मिल सकता है। और वे ड्रग एडिक्शन में फंस गए। ठीक ऐसे ही बिहार की बहुत सारी जगहों पर, जहां कॉलेज तो खुले हुए हैं लेकिन सिर्फ एडमिशन होता है और एग्जाम होते हैं। कोई टीचिंग नहीं होती कोई पढ़ाई नहीं होती। ज्यादातर कॉलेज की यही हालत है। तो एक बेरोजगार युवाओं का जखीरा वहां पर खड़ा है, लेकिन रोजगार मिलने की कोई संभावना नहीं है। यह फ्रस्ट्रेशन तीसरे रास्ते की तरफ जा रहा है।

तीन रास्ते मुझे दिख रहे हैं। एक तो आयडेंटिटी चाहे धर्म पर निर्धारित हो या जाति पर, दूसरा एनार्किक पॉलिटिक्स और तीसरा यह ड्रग एडिक्शन की तरफ।

इन तीनों से निकाल के इन्हें किसी सॉलिड पॉलिटिकल मूवमेंट में कैसे जोड़ा जाए। यह मुझे लगता है कि बड़ा चैलेंज है, जो हम फेस करने जा रहे हैं। जो यूथ आधारित पॉलिटिकल मूवमेंट्स थे, जो स्टूडेंट मूवमेंट्स थे, जो रेडिकल स्टूडेंट मूवमेंट थे, उनका क्राइसिस है कि उनका अंगेजमेंट इनके साथ कम हो रहा है। सदस्यता उसकी घट रही है, यह भी मुझे समझ नहीं आ रहा है।

शायद यूनिवर्सिटीज में, मैं खासकर बिहार की बात कर रहा हूं, जहां मैं फील्डवर्क कर रहा हूं। शायद क्लासेस नहीं होने से, या जो बेसिक पॉलिटिकल ट्रेनिंग उनकी होती थी यूनिवर्सिटी में रहने के दरम्यान वह खत्म-सा हो गया है, जो संभावना बनती थी वह खत्म हो गई है। युवा आंदोलनकारियों के एकत्रित होने की और किसी-न-किसी पॉलिटिकल आउटफिट मे ट्रेंड होने से समझदारी बनती थी। वह समझदारी बनने की संभावना काफी कम हो गई है। अब रेडिकल स्टूडेंट मूवमेंट की भी संभावना घट रही है। ऐसे में शायद इंडिपेंडेंट मूवमेंट्स की जरूरत होगी। स्वतंत्र संगठन की जरूरत होगी। जो आपस में मिलकर नेटवर्क करके इनको कुछ और चीजों के साथ जोड़े।

हम लोगों ने एक लाइब्रेरी मूवमेंट योजना बनाई थी, बिहार में जो पुराने पुस्तकालय हैं, लगभग छह हजार पुस्तकालय थे वे अभी छह सात सौ बचे हैं। उन सब पुस्तकालयों को आपस में जोड़ा जाए। और वहां से स्टूडेंट संवाद शुरू किया जाए। उनकी करियर काउंसलिंग की जाए, उनको एक तरह की आशा दी जाए। उनके लिए ट्रेनिंग पैड लॉन्च किया जाए। और साथ में उनकी पॉलिटिकल ट्रेनिंग की जाए।

बहुत जटिल काम है, लेकिन मुझे लगता है कि लॉन्ग टर्म प्लान के रूप में इस प्रोजेक्ट को डेवलप करना पड़ेगा। यदि हम बेरोजगार युवकों को एक ऐसे फोर्स के रूप में डेवलप करना चाहते हैं जो पॉलिटिकल ट्रांजिशन के लिए रेडिकल पॉलिटिक्स के लिए ट्रांस्फोर्मेटिव पॉलिटिक्स के लिए तैयार हो।

एक आखिरी बात मैं यह कहना चाहूंगा। अनएंप्लॉयमेंट के चलते यह जो डिप्रेशन और फ्रस्टरेशन है उसकी वजह से नौजवान को कोई भविष्य दिख नहीं रहा है। उसका एक और परिणाम निकल रहा है। परिवारों के टूटने का। जो हिंसा वे बाहर फेस कर रहे हैं। उस हिंसा को वे इंटरनलाइज कर रहे हैं। वह हिंसा उनकी पर्सनालिटी का हिस्सा होती जा रही है। और वह हिंसा उनकी फैमिली के अंदर अब दिखने लगी है। बहुत सारे परिवारों से मेरी बात होती है, वे बताते हैं कि हमारे बच्चे हमारी बात सुन नहीं रहे हैं। और एक तरह से जो फ्रस्ट्रेशन है वह फैमिली रिलेशन्स को तोड़ रहा है। यह बड़े पैमाने पर उन लोगों से बातचीत करने पर मुझे समझ आया।

लगभग हजार लोगों से मैंने बातचीत की और यह बात मेरे सामने आई। बेरोजगारी का मतलब केवल बेरोजगार नहीं है। केवल इसका एक आर्थिक पहलू नहीं है। कि, उनका जॉब प्रोफाइल नहीं बन रहा है या जॉब में नहीं आ रहे हैं। खाली आर्थिक संकट नही है मुझे लगता है यह काफी गहरी जड़ों तक पहुंचा हुआ संकट है।

इसमें यूनिवर्सिटी और स्कूलों का संकट भी शामिल है, यह अच्छी बात है कि हमारे यहां हथियार फ्री नहीं हैं। और स्कूलों में कोई शूटिंग नहीं हो रही है। लेकिन आने वाले समय में इस बात की संभावना देख सकते हैं।

माइंडलेस किलिंग जो है जिसका कोई लॉजिक नहीं है। उसकी भी संभावना बन सकती है। हम एक खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं। अगर बहुत जल्दी ही इसका कोई समाधान नहीं निकाला गया; मीनिंगफुल एम्पलोयमेंट की टेक्निक और मेथड कुछ नहीं निकाला गया। और साथ में बेहतर पॉलिटिकल ट्रेनिंग का कोई उपाय नहीं निकाला गया, तो चीजें हमारे हाथ से बाहर निकल जाएंगी।

जब एंटी इमरजेंसी मूवमेंट चल रहा था बिहार में, तब मैं स्कूल में था। उस वक्त लोग एटमाइज नहीं थे। इस वक्त सबसे खतरनाक बात यह है कि लोग एटमाइज हैं। और ऑर्गनाइज़्ड कलेक्टिव एक्शन की जो ट्रेनिंग चाहिए थी वह ट्रेनिंग उनके पास नहीं है, इमैजिनेशन भी नहीं है। तो एटमाइज वॉयलेंस की संभावना भी मुझे लगता है बढ़ रही है।

कहते हैं, सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। मुझे लगता है इस वक्त सपनों के मर जाने की स्थिति ही है और यह हमारे लिए बड़ा चैलेंज है।

Visits: 192

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*