अमृतकाल के सत्य

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– मुकेश असीम

 

हुक्मरानों ने इस मौके पर ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चलाया। देश भर में आजादी के इन जश्नों पर अरबों रुपए बर्बाद किए गए। विडंबना यह है कि घर-घर तिरंगा लहराने का यह अभियान एक ऐसे देश में चलाया गया, जहां आज भी करोड़ों लोगों के पास अपना कहने को एक घर है ही नहीं। चुनांचे ये जश्न विदेशी साम्राज्यवादी पूंजी से देशी पूंजीवादी हुक्मरानों की आजादी का जश्न ही है। यह अंग्रेज साम्राज्यवादियों की जगह पूंजीपति वर्ग द्वारा खुद भारत का हुक्मरान बनने, मजदूरों-मेहनतकशों पर अपना राज कायम करने, उनके श्रम को लूटने की पूरी आजादी खुद हासिल कर लेने का जश्न है।

भारत की मेहनतकश जनता ने आजादी की इस लड़ाई में सर्वाधिक बलिदान किया था और आजादी के बाद के देश के लिए उसके पास भी कुछ विचार और अपना एक कार्यक्रम था। परंतु उस नजरिए से तो यह आजादी आज भी अधूरी है। बेशक, यह सही है कि औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति हासिल हुई है। निश्चित ही ऐतिहासिक रूप से यह प्रगतिशील बात है। लेकिन पूंजीवादी गुलामी से, पूंजीपति वर्ग की तानाशाही से, श्रम के शोषण से मजदूरों-मेहनतकशों का मुक्त होना अभी भी न सिर्फ बाकी है, बल्कि हाल के सालों में लूट का यह शिकंजा और भी कसा जा रहा है। भले ही भारत राजनीतिक तौर पर आजाद हो चुका है, लेकिन भारत की मजदूर-मेहनतकश जनता की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी लूट आज भी खत्म नहीं हुई है। किसानों की बड़ी तादाद बरबाद होने के कगार पर है।

अधिकांश नौजवानों के सामने बेरोजगारी मुंह बाए खड़ी है। जातिवाद के कोढ़ से अभी भी भारत मुक्त नहीं हो पाया है। स्त्रियों की स्थिति अभी भी दोयम दर्जे की ही बनी हुई है। अभी भी यहां विभिन्न राष्ट्रीयताओं को उत्पीडऩ का सामना करना पड़ रहा है। इन हालातों के होते हुए भी आजादी का यह ‘गर्वीला’ जश्न लूट, शोषण, अन्याय, जुल्मों-सितम की चक्की में पिस रही जनता को मुंह चिढ़ाना ही है।

भारतीय उपमहाद्वीप को गुलाम बनाने की शुरुआत 18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा की गई थी, जो उससे काफी पहले से यहां व्यापार कर रही थी। 1840 के दशक में पंजाब पर कब्जे के साथ भारतीय उपमहाद्वीप के उपनिवेशीकरण की यह प्रक्रिया पूरी हो गई। तब यह अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ एक सामंती क्षेत्र था। अंग्रेजों ने यहां सामंतों से गठबंधन किया, जिसके तहत देशी राजाओं ने या तो अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली या उन्हें समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार, ब्रिटिश व्यापारिक पूंजी तथा उपनिवेशवादियों ने यहां के सामंती वर्ग के साथ मिलकर गरीब किसानों व अन्य मेहनतकशों और यहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटा। इस लूट का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश व्यापारिक व बैंकिंग पूंजी के हाथ में जाने लगा। इस 200 साल की औपनिवेशिक गुलामी ने भारतीय उपमहाद्वीप के स्वाभाविक विकास को नष्ट कर दिया। 19वीं सदी में इसके नतीजे में पड़े अकालों ने लगभग 20 करोड़ को मौत के मुंह पहुंचाया। इस विनाश की छाप आज भी यहां खुदी हुई है। उपनिवेशवाद ने न केवल अर्थव्यवस्था को लूटा, बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास को भी बाधित किया। परंतु इस लूट ने खुद ब्रिटेन में पूंजीवाद के विकास को अत्यंत तीव्र कर दिया और वहां 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति में बड़ी भूमिका अदा की।

ब्रिटेन के पूंजीवादी विकास में भारत उसके लिए कच्चे माल का स्रोत तथा उत्पादित माल का बाजार बन गया। इस प्रक्रिया में 19वीं सदी के मध्य में भारत में रेलवे, जहाजरानी, आदि के विकास के साथ ही कपड़ा मिल जैसे कुछ उद्योग भी आरंभ हुए। बाद में विश्व पूंजीवाद के साम्राज्यवाद के युग में प्रवेश करने के बाद इसी प्रक्रिया के अंतर्गत भारत में कमजोर और बीमार किस्म के पूंजीवादी विकास की शुरुआत हुई। इससे भारत में देशी पूंजीपति वर्ग का उदय हुआ। इसके राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर 1885 में कांग्रेस बनी। शुरुआत में इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन से कुछ रियायतें व सत्ता में कुछ हिस्सा प्राप्त करना था। फिर अपनी बढ़ती आर्थिक शक्ति – खास तौर पर पहले साम्राज्यवादी महायुद्ध के पश्चात – के साथ इसकी राजनीतिक मांगें और भी मजबूत हुईं। पहले स्वशासन और फिर 1930 के दशक से पूर्ण स्वराज की मांग शुरू हो गई। 1919 में पहले साइमन आयोग व मार्ले-मिंटो सुधारों, 1931-32 के गोलमेज सम्मेलनों, 1935 के इंडिया एक्ट से होते हुए अंतत: यह 1947 में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण में अपने निष्कर्ष पर पहुंच गई।

इस पूंजीवादी विकास के साथ ही यहां उजरती मजदूर वर्ग भी पैदा हुआ। इसने 20वीं सदी की शुरुआत से अपनी आर्थिक और राजनीतिक मांगों के लिए लडऩा शुरू कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामंतवाद के गठजोड़ से, नव-उत्पन्न पूंजीपति वर्ग, बहुसंख्यक किसान आबादी व मजदूर वर्ग, सभी स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। पूंजीपति वर्ग का हित था आजादी हासिल करना और अंग्रेजों की जगह राज्य पर अधिकार कर देश को पूंजीवादी विकास की राह पर ले जाना। वहीं, मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश वर्गों का हित आजादी के बाद वास्तविक अर्थों में जनवादीकरण तथा समाजवादी व्यवस्था के निर्माण में था। मेहनतकशों ने आजादी के लिए बड़े-बड़े संघर्ष किए, बड़ी कुर्बानियां दीं। लेकिन मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता का नेतृत्व करने वाला कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी कई कमजोरियों के कारण स्वतंत्रता संग्राम में अपना नेतृत्व स्थापित करने में सफल नहीं हो सका। दूसरी ओर, मेहनतकश जनता के संघर्षों से भयभीत कांग्रेस ने दूसरे विश्व युद्ध में कमजोर हो गए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ 1947 में शर्मनाक समझौता करके सत्ता संभाली और इसे ही सब लोगों की आजादी का नाम दिया। कह सकते हैं कि 1947 में पूंजीपति वर्ग का लक्ष्य तो पूरा हुआ, लेकिन मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता का लक्ष्य अधूरा रह गया।

1947 में औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद, पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस ने भारत में पूंजीवादी विकास को आगे बढ़ाया। उस वक्त भारत की मेहनतकश किसान जनता द्वारा भूमि और अपने अन्य जनवादी अधिकारों के लिए तिभागा, तेलंगाना जैसे जुझारू सामंतवाद विरोधी संघर्ष चलाए जा रहे थे। इस रूप में जुझारू ढंग से एक जनवादी क्रांति कामयाब होती तो नीचे से मेहनतकश जनता के विद्रोही तूफान में सामंती उत्पादन और संपत्ति संबंधों के साथ ही सामंती आभिजात्य के वे सभी विशेषाधिकार भी नेस्तनाबूद हो जाते, जाति एवं पितृसत्ता जिसके विशिष्ट रूप हैं।

किंतु इन संघर्षों के जरिए नीचे से संगठित जुझारू विद्रोह द्वारा आमूलचूल परिवर्तन में अपनी सत्ता भी उखड़ जाने की आशंका से घबराए पूंजीपति वर्ग ने इन राजे-रजवाड़ों, रियासतों तथा सामंती भूस्वामियों के साथ समझौता कर लिया। इस समझौते के अंतर्गत पूंजीवादी सत्ता ने एक ओर उन्हें राजसत्ता से पूरी तरह बेदखल कर पूंजीवादी राजसत्ता में पूर्ण विलय के लिए मजबूर किया; तो वहीं दूसरी ओर उनकी भूमि, अन्य संपत्ति व कई विशेषाधिकारों की हिफाजत भी की। अत: यहां क्रांतिकारी तरीके से सामंती भूमि संबंधों की समाप्ति के बजाय भूमि संबंधों में इस क्रमिक ‘सुधारों’ के जरिए ही सामंतवाद का स्थान पूंजीवादी उत्पादन संबंधों ने लिया। इसके अंतर्गत सामंती जमींदारों को ही पूंजीवादी भूस्वामियों में तब्दील होने का मौका दिया गया, जबकि सामंती बेगार भूदास भूमिहीन रहकर उजरती मजदूर बनने के लिए विवश हुए। अत: पूंजीवादी विकास के साथ ही खेतीबाड़ी में उजरती मजदूरों की भूमिका बढऩे लगी, जो लगातार बढ़ ही रही है।

1935 के इंडिया एक्ट के बाद से ही यह तय हो गया था कि देर-सबेर भारत औपनिवेशिक शासन से मुक्त होगा और सत्ता पूंजीपति वर्ग के हाथ में आएगी। अत: तभी से पूंजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस ने इसके लिए तैयारी आरंभ कर दी थी। इसके अंतर्गत ही सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता के दौरान कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात आर्थिक नीति तय करने हेतु एक योजना समिति गठित की थी। इसी क्रम में भारत के तत्कालीन सबसे बड़े देशी पूंजीपतियों ने मिलकर कांग्रेस के सामने आर्थिक नीति का एक खाका पेश किया जिसे बॉम्बे प्लान या टाटा-बिड़ला प्लान भी कहा जाता है। यही प्लान आगे चलकर स्वतंत्र भारत की नेहरू नेतृत्व वाली सरकार की आर्थिक योजना का बुनियादी सिद्धांत बन गया। इसके अंतर्गत खनन, धातु, इस्पात, रेलवे, जहाजरानी, भारी यंत्रों, सीमेंट, ऊर्जा, आदि भारी पूंजी निवेश की जरूरत एवं निर्माण की दीर्घावधि वाले बुनियादी ढांचे के उद्योगों की जिम्मेदारी राज्य ने सार्वजनिक क्षेत्र में ले ली, जबकि उपभोक्ता वस्तुओं का कारोबार निजी क्षेत्र के पास रहा। इस व्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र निम्न लाभ दर, यहां तक कि घाटे पर भी, काम करता था ताकि निजी क्षेत्र उच्च लाभ प्राप्त कर सके। दूसरे, सार्वजनिक क्षेत्र ही नहीं निजी पूंजीपतियों के लिए भी पूंजी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी राज्य ने ले ली। इसके अंतर्गत 1950 से भी पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र में एक के बाद एक व्यवसायिक व विकास बैंक, बीमा, आदि स्थापित किए गए और अंत में निजी बीमा एवं बैंक कंपनियां भी राष्ट्रीयकृत कर दी गईं। इसमें भी मुख्य बात निजी क्षेत्र को सस्ती पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करना व किसी घाटे को सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा वहन कर लिए जाने की थी। तीसरे, इस औद्योगिक विस्तार के लिए कुशल श्रम बल उपलब्ध कराने के लिए राज्य ने सीमित स्तर पर स्कूली, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा के विस्तार का जिम्मा भी लिया। विकास के इसी मॉडल को नेहरू का ‘समाजवादी मॉडल’ कहा गया, हालांकि यह भारत में पूंजीवाद के विस्तार हेतु बुनियादी पूंजी संचयन की जिम्मेदारी राज्य द्वारा अपने जिम्मे लिए जाने का मॉडल ही था।

पूंजीवादी विस्तार के इस दौर में औद्योगीकरण की गुंजाइश होने से पूंजीवाद की अपनी जरूरत से शिक्षा व तकनीकी प्रशिक्षण का विस्तार हुआ। विस्तार काल में बढ़ते मौकों से पूंजीवादी व्यवस्था में ऐतिहासिक रूप से वंचित जनता व स्त्रियों के लिए भी शिक्षा व रोजगार के अवसर प्राप्त होने आरंभ हुए। इस दौरान शिक्षा व रोजगार के कुल अवसरों की तादाद में विस्तार हो रहा था। अत: समाज के अभिजात वर्ग के लिए वंचित तबकों की हिस्सेदारी की मांग को एक सीमा तक स्वीकार कर लेने में प्रतिरोध सीमित था, क्योंकि आरक्षण के बावजूद भी उस दौर में सभी के लिए उपलब्ध अवसरों की संख्या बढ़ रही थी। इस सब के साथ ही गांवों से शहरों की ओर प्रवास तेज हुआ। इन सबने बहुतों के लिए जातिगत श्रम विभाजन वाले पेशों से मुक्त कर नए पूंजीवादी उत्पादन संबंधों से पैदा हो रहे पेशों में जाकर पुराने संकीर्ण सामंती जीवन से मुक्ति का रास्ता खोला। साथ ही इस दौर में कुल आय और संपत्ति में संकेंद्रण के बजाय इसमें हिस्सा बंटाने वालों की तादाद में विस्तार हुआ और एक नया मध्य वर्ग अस्तित्व में आया।

परंतु सामंती विशेषाधिकारों के खात्मे और समाज के सच्चे अर्थों में जनवादीकरण में अहम स्थान रखने वाली सामाजिक जीवन के अधिकाधिक क्षेत्रों में सबके लिए सार्वजनिक व्यवस्थाओं की मेहनतकश एवं वंचित जनता की आकांक्षा को शासक पूंजीपति वर्ग ने स्वीकार नहीं किया। आवास, शिक्षा, रोजगार, स्वच्छता, चिकित्सा, यातायात, मनोरंजन, खेल-कूद, आदि की अधिकाधिक सार्वजनिक व सार्वत्रिक व्यवस्थायें सबसे वंचित उत्पीडित जनता को ही सर्वाधिक लाभान्वित करती हैं। साथ ही ये सार्वजनिक व्यवस्थाएं आभिजात्य विशेषाधिकारों को तोडऩे का औजार हैं।

हालांकि, यह नहीं कहा जा सकता कि स्कूल-अस्पताल, आदि सार्वजनिक होते ही भेदभाव और उत्पीडऩ समाप्त हो जाता है। पर इन्हें सबका अधिकार घोषित करना ऐसा करने की बुनियाद तो रखता ही है। दलित-वंचित जन भेदभाव व उत्पीडऩ के खिलाफ लडऩे में अधिक सक्षम कहां हैं – सार्वजनिक स्कूल-अस्पताल, आदि में या महंगे निजी संस्थानों में? एक सही माने में जनवादीकरण के कार्यक्रम में ऐसी सार्वजनिक व्यवस्थाओं की बात अवश्य प्राथमिकता से शामिल होतीं।

किंतु भारत का पूंजीवादी शासक वर्ग अत्यंत चतुर था। कांग्रेस के इस बुर्जुआ नेतृत्व का बड़ा हिस्सा हिंदू-ब्राह्मण पुनरुत्थानवादी विचार के प्रभाव में था और उसका सर्वाधिक ‘प्रगतिशील’  हिस्सा भी उससे समझौते तो करता ही था। वह समाज के चौतरफा जनवादीकरण की हिमायत में नहीं था। यह शासक वर्ग सबके लिए सार्वजनिक व्यवस्थाओं के सवाल को कुछ के लिए आरक्षण तक सीमित कर देने में कामयाब रहा। हालांकि, आरक्षण अपने आप में अग्रगामी व प्रगतिशील कदम था, पर अपने चरित्र से ही यह ”कुछ’’ को ही लाभ दिला सकता था, सबको नहीं।

और ”कुछ’’ वंचितों में से भी हों तब भी वे सभी वंचितों के लिए सार्वत्रिक अधिकारों के विकल्प नहीं हो सकते, भेदभाव के अन्याय व उत्पीडऩ की समाप्ति का आधार नहीं बन सकते। लेकिन आबादी के 11 प्रतिशत बुर्जुआ-सामंती आभिजात्य द्वारा निर्वाचित संविधान सभा इसमें कामयाब रही कि उसने मात्र आरक्षण देकर सार्वजनिक-सार्वत्रिक व्यवस्थाओं की प्रत्येक मांग को साफ नकार दिया। फिर भी यह सही है कि आरक्षण व संविधानिक शासन के पहले तीन दशकों तक पूंजीवादी बाजार के विस्तार ने दलितों-वंचितों के लिए जकडऩ को कुछ हद तक कमजोर किया और उनमें से बहुतों को एक नवीन जीवन के अवसर उपलब्ध कराए।

हालांकि नेहरू (सहकारी खेती) और डॉ. आंबेडकर (पूंजीवादी पद्धति से सामूहिक खेती अर्थात भूस्वामियों के लिए लगान निकालकर शेष लाभ का काम करने वाले किसानों में बंटवारा) जैसे नेता कृषि के आधुनिकीकरण के हिमायती थे। परंतु इससे कृषि से सरप्लस होने वाली आबादी को खपाने का कोई उपाय बीमार कमजोर भारतीय पूंजीवाद के पास नहीं था। न तो वह चौतरफा औद्योगीकरण द्वारा इस श्रमबल को खपा सकता था, न ही उसके पास योरोप में पूंजीवाद विकास की तरह अपनी सरप्लस आबादी को अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया व एशिया महाद्वीपों के उपनिवेशों में धकेल देने का उपाय बचा हुआ था। अत: उसने किसानी आधारित खेती में ही पूंजी के क्रमिक प्रवेश द्वारा हरित क्रांति के जरिए पूंजीवादीकरण का मार्ग अपनाया। इसमें एक और तो न्यूनतम समर्थन मूल्य या बाजार मूल्य में जो ऊंचा हो के आधार पर बड़े व मध्यम किसानों की एक बड़ी संख्या की संपन्नता बढ़ी और वे भारतीय पूंजीवाद की रिजर्व फोर्स बन गए, तो छोटे-सीमांत किसानों की बड़ी संख्या बरबाद होकर श्रम शक्ति बेचने हेतु शहरी औद्योगिक केंद्रों की झोंपड़पट्टियों में पहुंच गई। इसी विकास का दूसरा चरण कृषि में कॉरपोरेट पूंजी का प्रवेश है जो अब मध्यम किसानों ही नहीं, संपन्न किसानों के एक हिस्से को भी अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आ रहा है और जिसने हाल के विशाल और लंबे किसान आंदोलन को जन्म दिया है।

75 साल के इस पूंजीवादी विकास ने भारत की उत्पादक व्यवस्था में सामंतवाद को अतीत की चीज बना दिया है और भारत की 60 प्रतिशत आबादी पूर्ण या अर्द्धकालिक उजरती मजदूर बन चुकी है। इस प्रक्रिया में ग्रामीण मेहनतकशों का एक बड़ा भाग परंपरागत जाति आधारित श्रम विभाजन वाले खेती-दस्तकारी के पेशों से नए पेशों में जाकर पुराने सामंती-पितृसत्तात्मक आर्थिक संबंधों से मुक्त होकर नए पूंजीवादी बाजार का हिस्सा बन चुका है। आज दलित जातियों का सिर्फ सबसे गरीब लाचार हिस्सा पूंजीवादी आर्थिक संकट के गहराते जाने की वजह से नए रोजगार पाने से वंचित हो अपनी आर्थिक विपन्नता व मजबूरी की वजह से अभी भी उन परंपरागत पेशों में बचा रह गया है, इसलिए नहीं कि उस पेशे को छोडऩे से उसे कानूनी या सामाजिक रूप से रोका जा रहा है। और दलित जातियों का ठीक यही हिस्सा है जो आज भी अपनी इस साझा वर्ग एवं जातिगत स्थिति के कारण सर्वाधिक जुल्म का शिकार होता है।

परंतु 1980 का दशक आते-आते ही चौतरफा पूंजीवादी विस्तार और औद्योगीकरण की सीमित संभावनाएं भी लगभग पूरी तरह चुकने लग गईं। कॉरपोरेट इजारेदारियां हावी होने लगीं। इन्होंने राज्य के साथ मिलकर मजदूर-मेहनतकश जनता पर पूंजीपति वर्ग का प्रत्याक्रमण शुरू किया, जिसे नवउदारवाद भी कहा जाता है। इसमें ‘उदारवादÓ किसी वास्तविक उदारता का नहीं बल्कि संपत्ति मालिकों के लिए अपनी संपत्ति बढाने के लिए कुछ भी करने की ”लिबर्टीÓÓ से बने ‘लिबरलÓ का परिचायक है। लिबरल या उदारवादी बुनियादी तौर पर संपत्तिहीन को नागरिक अधिकारों का हकदार नहीं मानते अर्थात राज्य उनके लिए नागरिक अधिकारों-व्यवस्थाओं हेतु जिम्मेदार नहीं। उनके अनुसार संपत्तिहीनों के पास भी एक संपत्ति है – उनका शरीर अर्थात शरीर की श्रम करने की क्षमता। वह सब संपत्तिवानों की तरह ही अपनी उस संपत्ति का इस्तेमाल कर जीवित रहें अर्थात अपने शरीर के काम करने की क्षमता को दूसरे की खिदमत में बेचकर जीवित रहें। लिबरल जनतंत्र में सबको यही एक समान नागरिक अधिकार है! इस विचार से प्रेरित मौजूदा नवउदारवादी आर्थिक नीतियों में सभी सार्वजनिक व्यवस्थाओं को समाप्त किया जा रहा है। निजीकरण अपने चरम पर है। हालांकि, इसे बिना अधिक प्रतिरोध स्वीकार करा लेने के लिए कुछ किलो अनाज-जैसे सीमित काम भी होते रहते हैं।

रिजर्व बैंक के रोजगार सृजन संबंधी एक अध्ययन पर आधारित यह निष्कर्ष काबिल-ए-गौर है कि 1999-2000 में अगर जीडीपी 1 प्रतिशत बढ़ती थी, तो रोजगार में भी 0.39 प्रतिशत का इजाफा होता था। 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गई कि 1 प्रतिशत जीडीपी बढऩे से सिर्फ 0.15 प्रतिशत रोजगार बढ़ता था। लेकिन आज तो स्थिति यह हो गई है कि जीडीपी में वृद्धि होने से रोजगार बढऩे का संबंध ही लगभग समाप्त हो गया है, वृद्धि या मंदी, दोनों ही स्थितियों में रोजगार सृजन बंद है। मतलब जीडीपी बढऩे, पूंजीपतियों का मुनाफा बढऩे से अब लोगों को रोजगार नहीं मिलता। इसलिए जब कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था में तेजी-खुशहाली बताए तो भी उससे आम लोगों को खुश होने की कोई वजह नहीं बनती। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था में काम करने लायक उम्र (15-65 वर्ष) वालों में वास्तव में रोजगाररत व्यक्तियों की तादाद घटती जा रही है। नोटबंदी के ठीक पहले 2016 में ही यह तादाद लगभग 46 प्रतिशत थी, जबकि फिलहाल यह 40 प्रतिशत के नीचे है। यह भारत में बेरोजगारी की वास्तविक भयवाहता को प्रकट करती है, बेरोजगारी दर नहीं। बेरोजगारी की इतनी बड़ी तादाद के कारण काम करने लायक जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा (जिसमें स्त्रियों और विपन्न लोगों की बहुत बड़ी तादाद है) रोजगार की आशा ही छोड़ चुका है और उसकी तलाश नहीं कर रहा है। युवाओं का बहुत बड़ा हिस्सा किसी-न-किसी स्कूल-कॉलेज, कोचिंग में नाम लिखाए हुए है। इन सबकी कोई गिनती बेरोजगारी दर में नहीं की जाती।

इस स्थिति में जीडीपी की वृद्धि के बावजूद भी जनता के बड़े हिस्से में विपन्नता बढ़ती ही जा रही है। मेहनतकश जनता के और भी विपन्न होते जाने की इस प्रक्रिया का सर्वाधिक दुष्प्रभाव ऐतिहासिक रूप से दलित-वंचित समुदायों की मेहनतकश जनता और छोटे काम-धंधे करने वालों पर ही होता है। क्योंकि वे पहले से ही सर्वाधिक कमजोर स्थिति में हैं। मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून, आदि अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने की जो तीव्र नीतियां अपनाई हैं उनसे भी अनौपचारिक क्षेत्र के सभी छोटे कारोबारों के बरबाद व दिवालिया होने की प्रक्रिया तेज हो गई है। कोविड लॉकडाउन ने इसकी रफ्तार को तेज ही किया। निजीकरण के जरिए दलितों को मिला आरक्षण का सीमित अधिकार भी निरंतर छीना जा रहा है। भयावह बेरोजगारी के मौजूदा दौर में जो रोजगार उपलब्ध हैं, वे भी औद्योगिक क्षेत्र में नहीं, जो उन्हें श्रमिकों की संगठित संघर्ष की ताकत से लैस करते थे। अभी अधिकांश नवीन रोजगार कूरियर, डिलीवरी, ड्राइवर, मेड, वाचमैन जैसे संपन्न तबके की खिदमत के नए रूपों वाले असंगठित व गिग इकॉनमी के क्षेत्र में हैं। यहां वे एक दूसरे के साथ ही होड़ में पड़कर मालिकों के रहमोकरम पर निर्भर हो जाते हैं। भारतीय पूंजीवाद चौतरफा औद्योगीकरण में असमर्थ है। अत: यहां काम करने लायक उम्र के मात्र 40 प्रतिशत से भी कम किसी रोजगार में हैं। बेरोजगारों की बड़ी फौज के कारण हर क्षेत्र में मजदूरी दर निरंतर गिर रही है। अति कुशल मजदूरों के एक छोटे हिस्से का वेतन जरूर बढ़ रहा है। परंतु उसमें शामिल होने के लिए जरूरी उच्च शिक्षा या प्रशिक्षण बहुत महंगे और अधिकांश मेहनतकशों व दलितों-वंचितों की पहुंच से बाहर है।

यह सच है कि पिछले 75 साल के पूंजीवादी विकास में भारत में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का भारी विस्तार हुआ है। आज देश के कुल घरेलू उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत सेवा क्षेत्र से, 27 प्रतिशत उद्योग से और 13 प्रतिशत खेतीबाड़ी से आता है। इस पूंजीवादी विकास के कारण अथाह भौतिक प्रगति भी हुई है। कभी अनाज की कमी से जूझ रहा भारत अब जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेच रहा है। यह प्रगति तरह-तरह के उद्योगों, तेजी से शहरीकरण, बड़े अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों, परिवहन और बुनियादी ढांचे की भरमार के रूप में स्पष्ट दिखाई देती है। लेकिन जैसा पूंजीवादी व्यवस्था की विशेषता है, इस विकास का फल मु_ी-भर पूंजीपति वर्ग को ही मिला है। यह शासक वर्ग अपनी सेवा के लिए केंद्र और राज्य में सरकार बनाने के लिए अपनी पार्टियों में से किसी एक को चुनता है। सरकार, नौकरशाही, न्यायपालिका और कानूनी व्यवस्था सहित पूरा राज्य तंत्र इस वर्ग की सेवा में लगा हुआ है। देश की ज़्यादातर कामकाजी आबादी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद दो समय की रोटी के लिए मोहताज है। गरीबी, बदहाली, बेरोजगारी और महंगाई इनकी नियति बन गई है। दिन में 10-15 घंटे तक काम करने वाले देश के 55 करोड़ से अधिक की आबादी वाले मजदूर वर्ग द्वारा बनाई गई कुल संपत्ति में मजदूरी के रूप में उन्हें जो हिस्सा मिलता है, वह लगातार घट रहा है। इसी का नतीजा है कि आज देश में एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं। देश की केवल ऊपर की 1 प्रतिशत आबादी के पास देश की 58 प्रतिशत संपत्ति है और ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी के पास 80 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है। मजदूर-मेहनतकश आबादी के इस बढ़ते आर्थिक शोषण के साथ-साथ उनके संघर्षों से प्राप्त संवैधानिक अधिकार भी लगातार छीने जा रहे हैं। 12 घंटे काम के दिन और यूनियन बनाने के अधिकार में कटौती वाले चार नए लेबर कोड इसका एक उदाहरण मात्र हैं।

भूमि सुधारों के ऐतिहासिक चरित्र के कारण देश में अधिकांश भू-संपदा तो पहले से ही पुराने आभिजात्य के एक हिस्से के हाथ में केंद्रित थी जिसमें मुख्यत: सवर्ण व मध्यवर्ती जाति समुदाय ही शामिल हैं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने सारी संपत्ति को ही अत्यधिक संकेंद्रित कर दिया है – 10 प्रतिशत आबादी के पास 80 प्रतिशत से अधिक संपत्ति इक_ा हो गई है। आबादी के इस शीर्ष हिस्से की संपन्नता बढ़ती ही जा रही है और नीचे विपन्नता का गहन अंधकार छाया हुआ है। हाल की एक खबर अनुसार, 10 लाख रुपए से अधिक कीमत की कारों या 40 हजार से अधिक कीमत के मोबाइल की बिक्री जहां 38-40 प्रतिशत बढ़ रही है, वहीं सस्ते मोबाइल, दुपहिया वाहन, सस्ती कारों की बिक्री घट रही है। ऐसा ही नमक, आटे, सस्ते चावल जैसी कुछ बेहद जरूरी चीजों के अतिरिक्त हर सामान के बारे में देखा जा सकता है। इस पूरी प्रक्रिया का सर्वाधिक खामियाजा समाज के किस हिस्से को भुगतना पड़ रहा है?

पूंजीवादी व्यवस्था के अंतहीन आर्थिक संकट का यह दौर अघाए अमीरों और असहाय मेहनतकशों के बीच वर्ग विरोध को अत्यंत तीखा कर रहा है। सामंती आभिजात्य के पुराने विशेषाधिकारों व सवर्णवादी जाति गौरव के विचार से मिलकर यह हमारे समाज को सामाजिक उत्पीडऩ के एक नए अंधकारमय दौर में ले जा रहा है। इसमें शोषक उत्पीड़क दलक वर्ग श्रेष्ठता बोध से मदोन्मत्त व हमलावर है। फासीवादी राजनीति के उभार में इस तबके का यह गुंडई-दबंगई गालीबाज उन्मत्त रूप विभिन्न रूपों में प्रदर्शित होता है चाहे वह बढ़ती जाति उत्पीडऩ की घटनाएं हों; स्त्री विरोधी अपराध हों; अल्पसंख्यकों पर हमले व लिंचिंग हों; उग्र व अंध राष्ट्रवाद हो; आईटी, एकेडेमिक्स, पत्रकारिता, फाइनेंस, जैसे आधुनिक ”बौद्धिकÓÓ पेशों तक में जाति-लैंगिक उत्पीडऩ हो; नस्ली नफरत हो। ‘ब्राह्मण हैं, संस्कारी हैं’, ‘ब्राह्मण हैं, शूद्र स्त्री को छू नहीं सकते तो बलात्कार कैसे कर सकते हैंÓ जैसी बातें आज फिर से खुले आम बेशर्मी से कही जा रही हैं; मटकी से पानी पीने, मूंछे रखने, घोड़ी चढऩे से हत्या हो रही है; इस ब्राह्मणवादी-सवर्णवादी पुन:-उभार को उपरोक्त आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा।

भारत में बड़े इजारेदार कॉरपोरेट और वित्तीय पूंजीपतियों का अतिधनाढ्य वर्ग तैयार हो गया है जिसने विराट पूंजी संचय किया है और जिसके सामने इस पूंजी के लाभप्रद निवेश का संकट है। ये पूंजीपति आज सिर्फ भारत में ही राज्य के साथ विलयित होकर उसे अपने लिए मांग और मुनाफे के प्रबंधन हेतु प्रयोग कर रहे हैं जिसमें उभरते सैन्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स और विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की बड़ी भूमिका है, बल्कि ये साम्राज्यवादी पूंजी के पार्टनर, छोटे ही सही, बनकर भारतीय राज्य को साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा दुनिया के बंटवारे के लिए होने वाली सौदेबाजी की मेज पर बनते-बिगड़ते विभिन्न गुटों में शामिल होने के लिए भी धकेल रहे हैं जिसने इसके किसी न किसी युद्ध के विनाश में शामिल होने का जोखिम भी बढ़ा दिया है। भारत की घरेलू राजनीति के फासिस्टिकरण व विदेश नीति के सैन्यीकरण की बुनियाद कॉरपोरेट-राज्य हितों का यही विलय है।

इस प्रकार, 1947 में, हालांकि भारत की मेहनतकश जनता ने औपनिवेशिक गुलामी से आजादी प्राप्त की, लेकिन वे अब पूंजीवादी व्यवस्था के गुलाम हैं। पूंजीवादी संबंधों के बोझ से मुक्ति का यह महान कार्यभार आज भी यहां की मेहनतकश जनता के सामने खड़ा है। इसके बिना मेहनतकश जनता पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकती। इन 75 वर्षों में यहां जो पूंजीवादी विकास हुआ है, उसने सामंतवाद को अतीत की बात बना दिया है। पर इसने मानव इतिहास के दो सबसे आधुनिक वर्गों, पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग, को आमने-सामने ला खड़ा किया है। मौजूदा समय में गांवों और शहरों की कामकाजी आबादी लगभग 60 करोड़ है और इसके अलावा, मध्य वर्ग और अन्य मजदूर वर्ग मिलकर लगभग 80 प्रतिशत आबादी बनते हैं। इनका हित पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट करने और समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने में है। लेकिन भारत के मजदूर वर्ग की समाजवादी क्रांति का यह रास्ता मुश्किलों से भरा है। 200 साल की औपनिवेशिक गुलामी और ऊपर से थोपे गए पूंजीवादी विकास ने मजदूर वर्ग पर जनवादी क्रांतियों के कई अधूरे कार्यभारों का बोझ डाल दिया है। यहां बड़े पैमाने पर अनसुलझे राष्ट्रीय प्रश्न, जाति, पितृसत्ता और अन्य सामंती मूल्य मौजूद हैं, जिन्हें समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे मजदूर आंदोलन द्वारा ठीक से संबोधित किया जाना बहुत जरूरी है।

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