कीड़ा जड़ी और बदलती पिंडर घाटी

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– प्रेम पुनेठा

 

कीड़ा जड़ी:  अनिल यादव; पृष्ठ सं. 201,  मूल्य: रु 250; हिंद पाकेट बुक्स

ISBN 9780143453734

 

पिछले दो दशक से उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में लोगों के बीच कीड़ा जड़ी आय का सबसे महत्वपूर्ण साधन बन गया है। इसी कीड़ा जड़ी के माध्यम से अनिल यादव ने इस क्षेत्र के सबसे खूबसूरत लेकिन सबसे पिछड़े इलाकों में से एक दानपुर का सामाजिक सांस्कृतिक वर्णन किया है। दानपुर के इलाके में ही पिंडारी ग्लेशियर है। जो सबसे आसान होने के कारण पर्वतारोहियों, टैकर्स और धुमक्कड़ों के लिए आदर्श है। इस जगह पर, जहां सड़क, बिजली, अस्पताल और संचार सेवा नहीं है, लेखक एक एनजीओ के माध्यम से स्कूल के बच्चों को पढ़ाने के लिए आता है क्योंकि यहां पर स्कूल में शिक्षक ही नहीं होते हैं। एनजीओ में लेखक के अलावा अन्य लोग भी होते हैं। इसी किताब में एनजीओ पर तो प्रत्यक्ष कुछ नहीं लिखा गया लेकिन एनजीओ के साथ पढ़ाने के लिए आए लोगों की कार्यप्रणाली से यह जरूर पता चल जाता है कि वे अपनी कार्य के प्रति कितने संवेदनशील हैं। वे इस सारी गतिविधि को एक पिकनिक ही समझते हैं।

किताब के दो हिस्से हैं। पहले हिस्से में इस क्षेत्र का सामाजिक सांस्कृतिक वर्णन किया गया है और दूसरे हिस्से में कीड़ा जड़ी और उसके माध्यम से आ रहे बदलाव। इलाके में सबसे पहला बदलाव पिंडारी के लिए आने वाले टैकर्स के माध्यम से हुआ। एक पिछड़े और लगभग अनजान इलाके में लोगों के आने से पैसा आना शुरू हुआ। इसने यहां के नौजवानों को पोर्टर गाइड जैसे काम सौप दिए। कुछ लोगों के घर में भी लोग रहने लगे। यह धंधा लगातार बढ़ता गया और अब लोगों के पास टै्किंग किट भी आ गए हैं। हर आदमी के पास ट्रेकिंग में गए लोगों के साथ की कई कहानियां हैं और मौत के मुंह से बच निकलने की आश्चर्यजनक खुशी भी। गांव में कई तरह के व्यक्तित्व हैं जो निराले ही हैं। बाबा रामदेव नाम का आदमी है जो सीधे भगवान से बात करने का दावा करता है और भगवान राम द्वारा दिया मोबाइल नंबर चुरा लिए जाने की शिकायत करता है और रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहता है। चामू का अस्थाई ढाबा है जहां खाने के अलावा दारू भी मिल सकती है। शाम को आग सेकते हुए किसी भी विषय पर चर्चा का दरवाजा खुला है। रूप सिंह है जो पढ़ा लिखा नहीं है लेकिन उसके पास जानकारियां हैं।

एनजीओ के साथ पढ़ाने के लिए एक महिला है जिन्हें बर्डवाचिंग का शौक है और वह बच्चों को इनके बारे में बताना चाहती हंै लेकिन बच्चे इन पक्षियों के बारे में उनसे ज्यादा जानते समझते हैं। उनकी लोक कहानियों में पक्षियों और उनके व्यवहार की भरमार है। पक्षी वाले इन लोक गीतों में पहाड़ की महिलाओं के दुख भरे हुए हैंं। जिस स्कूल में लेखक पढ़ाने पहुंचता है वहां बच्चों को हिंदी तक पहुंचने के लिए ही एक भाषा की बाधा को पार करना पढ़ता है। मातृभाषा से हिंदी में आने और उच्चारण करने में दानपुरिया कुमाऊंनी का पूरा प्रभाव दिखायी देता है और जिसमें पढ़ाने के बाद भी सुधार नहीं होता है।  बच्चे भी इसमें ज्यादा सुधार के लिए इच्छुक नहीं दिखायी देते हैं। स्कूल में दो ही जाति के लोग पढ़ते हैं, एक दानू और दूसरे आर्या यानि दलित। इस पूरे समाज में बाह्मणों का अभाव है और किसी भी धार्मिक काम के लिए कपकोट से ब्राहृमण को बुलाया जाता है। इससे पता चलता है कि इस समाज में अभी तक ब्राह्मणवादी कर्मकांड पूरी तरह से नहीं आ पाया है। वहां गोलज्यू और हरू, सैम के लगने वाले जागरों में बामन बामनी को प्रहसन का पात्र बनाया जाना भी बताता है कि ब्राह्मण इस समाज में बहुत पूजनीय तो बिल्कुल भी नहीं हंै।

किताब में ट्रैकर्स और उनके स्थानीय लोगों के बीच बदलते संबधों को भी बताया गया है। ट्रैकर्स को शिकायत है कि अब स्थानीय लोग गाइड और पोटर्स के तौर पर ईमानदारी से काम नहीं करते हैं और जितने पैसे में बात पक्की होती है रास्ते में उससे ज्यादा मांगने लगते हैं और कभी तो उन्हें छोड़कर भाग जाते हैं। दूसरी ओर स्थानीय लोगों को शिकायत है कि ट्रैकर्स उनकी बात नहीं मानते और जिन चीजों के लिए मना किया जाता है उनको करते हैं। कई बार तो जान जोखिम में भी डाल देते हैं। टै्रकिंग में शराब का प्रचलन बढ़ गया है और पोर्टर्स और गाइड को भी शराब दी जाने लगी है जो झगड़े का कारण बन जाता है।

दूसरे हिस्से में कीड़ा जड़ी के बारे में बताया गया है। तिब्बत और चीन की चिकित्सा पद्धति में इसके महत्व और विश्व भर में इसके बारे में पता चलने के संबंधे में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह से ओलंपिक में चीन के एथलीटों के अचानक बेहतर प्रदर्शन ने पश्चिमी देशों को चौंकाया था और उनकी खोज कीड़ा जड़ी तक पहुंच गई है। बाद में यह कीड़ा जड़ी नेपाल में खोजी जाने लगी और फिर वहां से नेपाली नागरिकों के माध्यम से कुमाऊं के उच्च हिमालयी क्षेत्र के लोगों तक जानकारी पहुंच गई। यह आय का एक नया जरिया हो गया जो कुछ महीनों काम करने के बाद पूरे वर्ष के लिए राहत देता है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राज्य सरकार ने इसे नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन न तो वह सही नियमावली बना सकी और न ही लोगों को इसे सरकार के पास बेचने को प्रोत्साहित कर सकी। आज भी इसका पूरा व्यापार अवैध और तस्करों पर निर्भर है और यह नेपाल के रास्ते चीन तक पहुंच जाती है।

कीड़ा जड़ी ने लोगों के संबंधों को भी बदल दिया है। ग्रामीणों का कहना है कि यह देवभूमि है और उच्च हिमालयी क्षेत्रों, बुग्यालों में महिलाओं का जाना वर्जित था लेकिन कीड़ा जड़ी ने इस विचार को बदल दिया है। अब तो महिलाएं कीड़ा जड़ी के लिए बुग्यालों में जाती हैं। इसके अलावा उच्च हिमालयी क्षेत्र में गीत गाना, सीटी बजाना आदि मना है लेकिन अब लोग कीड़ा जड़ी के लिए रेडियो, डीजे ले जाना और कई तरह के मनोरंजन की व्यवस्थाएं होने लगीं हैं। ग्रामीणों का मानना है कि इस तरह की गतिवधियों से कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। कीड़ा जड़ी के लिए किस तरह से बाहरी लोग आ रहे हैं वह दो रूसियों और एक यूक्रेनी के इस इलाके में आने से पता चलता है। वे यहां लोगों से कीड़ा जड़ी खरीदते हैं और जब वन दरोगा इनको पकडऩे आता है तो वे उसे पीट कर भाग जाते हैं। यानी हाथ नहीं आते हैं।

पहाड़ पर यात्रा करना कितना खतरनाक है यह लेखक की वापसी की चर्चा से पता चलता है। बरसात में रास्ता खराब होने पर किस तरह यात्री खुद ही रास्ता ठीक करते हैं और गाड़ी में नेपाली, बिहारी और स्थानीय ग्रामीण ठूंसे रहते हैं और एक बार रास्ता बंद होने के बाद हफ्तों तक नहंीं खुलता है। इस पूरे समय में यह इलाका पूरी दुनिया से कट जाता है। कीड़ा जड़ी के बारे में जानने और उससे समाज में आ रहे परिवर्तन को समझने के लिए इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए।

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