कर्नाटक के संकेत और भविष्य की दिशा

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– रामशरण जोशी 

केवल पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के पढऩे से देशभक्त पैदा नहीं होते। यदि ऐसा होता तो भारत में स्वतंत्रता के लिए लडऩे वाला एक भी देशभक्त पैदा नहीं हुआ होता क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन की अगली पंक्ति के अधिकांश नेताओं की शिक्षादीक्षा विदेशों में हुई और जिन लोगों ने भारत में शिक्षा प्राप्त की उन्हें भी वह पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें पढऩी पड़ीं, जो अंग्रेजों ने ही बनाई थीं। इन सबको पढ़कर भी देशभक्तों की फौज खड़ी हो गई। यह आश्चर्य की बात है!

 

यह पत्रकार कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस कथन से सहमत है, ”हमारा भारतीय जनता पार्टी के साथ संघर्ष विचारधारा का है, सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं है।‘’ यह एक जेनुइन राजनीतिक कथन भी हो सकता है… या फिर राजनीतिक जुमला! लेकिन, भाजपा के साथ विचारधारा का संघर्ष ही आज का यथार्थ और जरूत बन गया है। राजनीति के मैदान में सत्ता प्राप्ति ही अंतिम मंजिल होती है। लेकिन, विचारधारा की शक्ति के साथ लड़े जाने वाले युद्ध के परिणाम गुणात्मक रूप से उस युद्ध के परिणामों से भिन्न होते हैं जोकि सिर्फ सत्ता-प्राप्ति के लिए होता है। इस परिप्रेक्ष्य में 13 मई के कर्नाटक-जनादेश को देखा जाना चाहिए। इस लेख की कोशिश यही रहेगी। अलबत्ता, भावी मुख्यमंत्री के लिए दिल्ली में चली चार दिन की चयन-मशक्कत के बाद कांग्रेस आलाकमान ने 18 मई को अनुभवी शासक व बेदाग छवि वाले सिद्धरमैया को प्रदेश की कमान सौंपने की घोषणा करदी। कांग्रेस अध्यक्ष खडग़े ने इस चयन के जरिये सामाजिक न्याय के प्रति कांग्रेस पार्टी की प्रतिबद्धता का संदेश देने की भी कोशिश की है। अगले वर्ष लोकसभा चुनाव हैं जिनमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता जैसे फैक्टर अहम् भूमिका निभाएंगे। दूसरी बार मुख्यमंत्री की पारी खेलने वाले सिद्धरमैया स्वयं भी प्रदेश के पिछड़े ‘कुरुब समाज’ यानी चरवाह जाति से हैं। वह मूलत: समाजवादी यानी लोहियावादी रहे हैं और नवें दशक के सामाजिक न्याय के आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। मुस्लिम समुदाय में भी वह समान रूप से लोकप्रिय हैं और 18 वीं सदी के योद्धा टीपू सुल्तान के प्रशंसक हैं। इस दृष्टि से कर्नाटक में सिद्धरमैया के नेतृत्व में आगामी लोकसभा के चुनावों में त्रिआयामी समीकरण ‘दलित+पिछड़ा+अल्पसंख्यक’ निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। निश्चित है इस समीकरण के दायरे से बाहर आदिवासी भी नहीं हैं। कांग्रेस की रणनीति रहेगी कि इस समीकरण की भूमिका को उत्तर भारत में भी आजमाया जाए। गौरतलब यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष खडग़े स्वयं भी प्रदेश के दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह फैक्टर भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री बनाया जाना। शिवकुमार की ख्याति सफल संगठक, रणनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक के रूप में रही है। उन्हें ‘सोशल इंजीनियरिंगÓ का उस्ताद माना जाता है और स्वयं वोकालिगा समाज से हैं जोकि प्रदेश में लिंगायत के बाद सबसे प्रभावशाली समाज है। लिंगायतों में भी। शिवकुमार कम लोकप्रिय नहीं हैं। लेकिन साफ छवि के मामले उन्हें बेदाग नहीं माना जाता है। जेल भी जा चुके हैं। लेकिन राजनीतिक निशानेबाजी में वे अचूक हैं। विशाल जनसमूह की उपस्थिति में 20 मई को सिद्धरमैया मंत्रिमंडल ने शपथ भी ली। इस ऐतिहासिक अवसर के साक्षी देश के प्रमुख विपक्षी दल के नेता भी बने। निश्चित ही 2019 के बाद यह अवसर कांग्रेस के लिए ठोस उपलब्धि से कम नहीं था। इससे लोकसभा के चुनावों में भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की संभावी रणनीति के संकेत भी मिलते हैं।

 

दूसरी प्रयोगशाला के परिणाम

मीडिया में दक्षिण भारत के द्वार प्रदेश के रूप में चर्चित कर्नाटक विधानसभा की 224 सीटों के लिए मतदान 10 मई को हुए थे, जिसके परिणाम दो दिन बाद 13 मई को आए। परिणामों ने सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी को जड़ से हिला कर रख दिया; भाजपा को 65 और मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी कांग्रेस को 135 सीटें मिलीं। तीसरे स्थान पर जनता दल (सेक्युलर) रहा। भाजपा के करीब 30 उम्मीदवारों की जमानतें भी जब्त हो गईं। इन अप्रत्याशित परिणामों से भाजपा का दक्षिण विजय का स्वप्न-भवन भरभराकर गिर गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने जिन क्षेत्रों में प्रचार किया था वहां भी भाजपा को अनेक सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। याद रखें, गुजरात के बाद कर्नाटक प्रदेश राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और इसके राजनीतिक शस्त्र भाजपा के लिए हिंदुत्व की ‘दूसरी प्रयोगशाला’ के रूप में विख्यात रहा है। लेकिन प्रयोगशाला में किए सत्तारोहण-प्रयोगों के परिणामों ने दोनों को ही शोक संतप्त बना दिया। भाजपा को सत्ताच्युत होने से कहीं अधिक इस बात का आघात अधिक लगा है कि इस चुनावी जंग में हिंदुत्व प्रायोजित शस्त्र कुंद सिद्ध हुए; हिजाब व लव जिहाद के नारे नाकारा निकले; बजरंग बली को बंदी बनाने का प्रलाप बेअसर रहा; टीपू सुलतान के खिलाफ मनघड़ंत आख्यान बेरंगत रहे; दी केरला स्टोरी की फिल्म फ्लॉप निकली; कांग्रेस द्वारा देश से कर्नाटक को अलग करने के मोदी-शोर से भी मतदाताओं के कानों में सुरसुरी नहीं हुई और डबल इंजन की सरकार का मोहक नारा भी खोखला निकला। इतना ही नहीं, राज्य में हिंदुत्व के पोस्टर बॉय के रूप में विख्यात सी.टी. रवि और शिक्षा मंत्री बी.सी. नागेश भी चुनाव हार गए। सारांश में, ध्रुवीकरण के सभी हथियार जंग ग्रस्त निकले। ऐसे में, भविष्य में हिंदुत्व की मिसाईलें कितनी दूर तक जा सकेंगी और अपनी मारक शक्ति बनाए रख सकेंगी, कर्नाटक चुनाव परिणामों ने इस पर साफ सवालिया निशान जरूर लगा दिया है।

इस लेख में किसे कितने प्रतिशत मत मिले और कौन कहां से जीता, इसका विश्लेषण नहीं किया गया है। इन आंकड़ों की धुनाई-पिराई दैनिक अखबारों और चैनलों पर खूब की जा चुकी है। आने वाली चुनावी जंगों (राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और लोकसभा) में कर्नाटक-जनादेश के संभावी प्रभाव क्या हो सकते हैं, इसकी थाह लेनी की कोशिश जरूर की गई है।

 

सहिष्णुता, लोकतंत्र, संघवाद और संविधान के पक्ष में

कर्नाटक के चुनावों में कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार नहीं हुई है। बल्कि, जनता का जनादेश भारत के आधारभूत चरित्र बहुलतावाद, सहिष्णुता, लोकतंत्र, संघवाद और संविधान के पक्ष में हुआ है। इसके साथ ही, यह जनादेश असहिषुणता, धार्मिक-मजहबी कट्टरता, मिलिटेंट हिंदुत्ववाद और संविधानेतर ताकतों के बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ हुआ है। संयोग से, वक्त के इस मोड़ पर कांग्रेस और भाजपा क्रमश: इन सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। लेखक के इस निष्कर्ष से पाठक सहमत-असहमत और अचम्भित हो सकते हैं। कह सकते हैं कि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच ऐसी हार-जीत होती रहती है। इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। इस सोच से लेखक को इंकार नहीं हैं। लेकिन जब देश की आठ-नौ साल की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक यात्रा पर नजर जाती है तो सब कुछ सामान्य नहीं लगता है, अनेक असामान्य पड़ाव दिखाई देते हैं। भारतीय राज्य के चरित्र में बुनियादी बदलाव लाने के प्रयास किए गए हैं। देश को सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक धरातल पर ‘हम और वे’ में सघनता के साथ विभाजित तथा ध्रुवीकरण करने की योजनाबद्ध कोशिशें की गई हैं। उनकी नाकेबंदी और बहिष्कार या उन्हें ‘दोयम दर्जे’ का नागरिक बनाने की जमीन तैयार की गई। बहुंख्यकवाद और अल्पसंख्यकवाद के अंतर्विरोध शिद्द्त के साथ उभरने लगे। इसके अलावा, लोकतंत्र का अपरिहार्य अंग-प्रतिपक्ष को निष्प्राण बनाने के कोशिशें होती रहीं। संवैधानिक संस्थाओं को योजनाबद्ध ढंग से निष्प्रभावी बनाने का सिलसिला चला। चिंता व बहस का अहम मुद्दा यह है कि एक लोकतांत्रिक-गणतांत्रिक राज्य के आधारभूत स्तंभों में से एक ‘मीडिया ‘को ‘पोला ‘बना दिया गया है। दूसरे शब्दों में, शासकों ने गोदी मीडिया का आविष्कार कर डाला; अघोषित सेंसरशिप का माहौल रच डाला; बुद्धिजीवी, पत्रकार और विवेकशील व्यक्ति अज्ञात भय से ग्रस्त रहने लगे; सरकार की आलोचना को राष्ट्र विरोधी माना जाने लगा और टुकड़े-टुकड़े गैंग का नारा ईजाद किया गया। राज्य पर क्रोनी या याराना पूंजीवाद और कॉरपोरेट पूंजी-प्रभुत्व का दबदबा बढ़ा। इसी दौर में भारत के अरबों-खरबों की दौलत लेकर बहुसंख्यक समुदाय के चंदेक सफेदपोश दस्युओं ने देश से पलायन भी किया। शासक वर्ग द्वारा रचित राष्ट्रवाद, देशभक्ति और हिंदुत्व का आख्यान यानी नैरेटिव लकवाग्रस्त लगा। सरकारी खैरात(यध्यपि लेखक के मत में यह खैरात नहीं है। प्रत्येक सरकार का संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह अपनी जनता के जीवन की पूर्ण देख-भाल करे। रोटी+रोजी+कपड़ा+मकान+ स्वस्थ व शिक्षा से आश्वस्त करे।) पर जिंदा 80-81 करोड़ भारतियों पर सत्ता और धर्म की कृत्रिम भव्यता को लादा गया। इन विडंबनाओं, विसंगतियों और हादसों के परिवेश में कर्नाटक की जनता के इस दो टूक फैसले को ऐतिहासिक ही कहा जाएगा। अत: एक सामान्य दृष्टि से इसे नहीं देखा जा सकता।

थोड़ी देर के लिए कल्पना करिए। भाजपा को यही प्रचंड जनादेश मिल जाता तो इसके क्या क्या संभावी परिणाम सामने आते? इस लेखक की दृष्टि में, प्रचार किया जाता कि हिंदुत्व व निर्वाचित अधिनायकवाद के वाहकों के मनसूबों पर जनता ने अपनी मोहर लगादी है। और अधिक उग्रता व आक्रामकता के साथ ये वाहक अपने संकल्प पथ पर निकल पड़ते। बेलगाम हो जाते। इस साल के अंत में कुछ प्रदेशों के चुनावों पर जबरदस्त असर पड़ता। डबल इंजन की संस्कृति का विस्तार होता। मोदी-शाह ब्रांड-साम्राज्य अजेय दिखाई देने लगता। संघीय ढांचे की भावी उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। संचार की दुनिया में गोदी मीडिया ही सर्वेसर्वा बन जाता। देश के मानस पर ‘पोस्ट ट्रूथ मीडिया’ और ‘पोस्ट ट्रूथ पॉलिटिक्स’ की संस्कृति का अभेद्य आधिपत्य हो जाता। अगले वर्ष लोकसभा के उत्तर-चुनाव परिणामों के भारत में संघ+ भाजपा के ‘जय श्रीराम-जय बजरंग बलीÓ का शंखनाद ही सुनाई देता। हम इंद्रधनुषी लोकतंत्र को अलविदा कर रहे होते!

अब कर्नाटक-जनादेश के बाद इसकी संभावना धुंधली पड़ चुकी है। निरंकुशता के साथ हिंदुत्व का अश्व सरपट चाल नहीं चल पायेगा, आसमानी छलांगे नहीं भर सकेगा। इससे प्रतिपक्ष का मनोबल ऊंचा उठा है। 2024 के अप्रैल-मई चुनावों से पहले संगठित होने की प्रक्रिया तेज हो जाएगी। न्यूनत्तम कार्यक्रम के आधार पर चट्टान की भांति एकताबद्ध हो कर भाजपा विरोधी दल चुनाव समर में उतरेंगे। इस जनादेश से यह संकेत व संदेश भी स्पष्टरूप से उभरे हैं कि हिंदुत्व के ध्वजा वाहक बहुसंख्यक समाज का हिंदुत्वीकरण करने में निराशाजनक रूप से विफल रहे हैं। यध्यपि, कर्नाटक में उनका परंपरागत वोट बैंक-36 प्रतिशत सुरक्षित रहा है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के धुआंधार मीलों लंबे रोड शो और तूफानी जनसभाओं के बावजूद हिंदुत्व का ब्रह्मास्त्र क्यों नहीं चल सका, क्या यह मंथन का विषय नहीं है?

 

मंथन का विषय है क्योंकि

यह मंथन का विषय है। याद करें, 1992 के 6 दिसंबर का दिन। बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने के बावजूद बहुसंख्यक समाज ने अपने मूल चरित्र को सुरक्षित रखा था। भाजपा की प्रदेश सरकारों को भंग कर दिया गया था। जब मध्यावधि चुनाव हुए तो इस पार्टी को शिकस्त का सामना करना पड़ा था। यदि हिंदू समाज मस्जिद के ध्वंस से उत्साहित व उत्तेजित हो गया होता तो प्रभावित प्रदेशों में भाजपा पुन: सत्तारूढ़ हो गई होती। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इसके बाद भी नहीं हुआ; 1996, 1998 और 1999 के चुनावों में भाजपा अपने दम पर सत्तारूढ़ नहीं हो सकी थी। महागठबंधन की बैसाखी के सहारे अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा लुटियन दिल्ली पर काबिज हो सकी थी। 1996 में तो 13 दिन तक ही सत्ता में टिक सकी।

कारगिल विजय के बावजूद 2004 के चुनावों में भाजपा का गठबंधन हारा था। 2009 के चुनावों में भी संघ परिवार के लिए यही दृश्य मंचित हुआ था। अलबत्ता, 2014 के लोकसभा-चुनावों में मिलिटेंट हिंदुत्व और गुजरात विकास मॉडल पर सवार होकर भाजपा सत्तारूढ़ हो सकी। 2019 के चुनावों में भी उसे सफलता मिली थी। लेकिन, इस अथक संवेदनशील व विभाजनकारी भावनाओं से संचालित परिश्रम के बावजूद, दोनों ही राष्ट्रीय चुनावों में मोदी+शाह-नेतृत्व में भाजपा को 38 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले थे। तब यह मिथ गढऩा कि भारत हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व इसका जीवनाधार है, कितना महा दुष्प्रचार है! चुनावी सत्य यह है कि भाजपा अभी तक भी इंदिरा गांधी की चुनावी उपलब्धियों की सीमा को स्पर्श नहीं कर सकी है। हिंदुत्व या किसी अन्य साम्प्रदायिक शक्तियों की सहायता के बगैर, इंदिरा गांधी ने जनवरी 1971 और जनवरी 1980 के लोकसभा चुनावों में दोनों दफे 350-352 सीटें जीती थीं। यद्यपि 1984 के चुनाव सामान्य नहीं थे। इंदिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानभूति की लहर पर सवार हो कर कांग्रेस ने करीब 420 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। लेकिन, इसी तरह भाजपा के लिए 2019 के चुनाव परिणामों को भी सामान्य नहीं कहा जा सकता। जिन संदेहास्पद परिस्थितियों में विवादास्पद पुलवामा त्रासदी घटी थी, उसका चुनावों पर अप्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा होगा, यह एक खुली पड़ताल का प्रश्न है। अब कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के पुलवामा से संबंधित कतिपय विस्फोटक कथनों को हंसी-ठिठौली में खारिज नहीं किया जा सकता। यहां इस घटना के उल्लेख से यह दर्शाना है कि 2019 में भाजपा ने सिर्फ हिंदुत्व के बल पर चुनाव नहीं जीता था। जैसा कि यह लेखक मानता है कि बहुसंख्यक हिंदू का मानस अपनी सनातनी परंपरा में रचा-बसा है। जिसमें बहुलतावाद, बहुजातीयता, बहुसंस्कृति, बहुभाषी और बहु वैचारिकताओं की अंतर्धाराएं सतत बहती रहती हैं। यध्यपि, इसमें यदाकदा दूध-सा उफान आते-जाते रहे हैं। लेकिन, ये उफान उसके स्थायी भाव नहीं बन सके। बहुसंख्यक समुदाय ने चरमवाद को अपने स्थायी चारीत्रिक गुण के रूप में हमेशा अस्वीकार ही किया है।

 

अखंड भारत और विश्व गुरु का एजेंडा

इसी अस्वीकृति से उसका अस्तित्व व अस्मिता बोध बना हुआ है जिसे संघ परिवार अभी तक समझ नहीं सका है या समझना नहीं चाहता है। वह अपने राजनीतिक शस्त्र-हिंदुत्व के माध्यम से हिंदू राष्ट्र, अखंड भारत और विश्व गुरु का एजेंडा देश पर थोपना चाहता है। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि संघ + भाजपा अखिल भारत विजय की मंजिल से बहुत दूर है; करीब 14-राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें हैं; सिर्फ 6-7 राज्यों में उसका एकछत्र राज है; शेष राज्यों में भाजपा अन्यों की बैसाखियों पर राज कर रही है। अत: अखिल भारतीय स्तर पर हिंदुत्व का डंका पिट रहा है, यह कोरा मिथ है जिसे योजनाबद्ध ढंग से रचा गया है।

वास्तव में, हिंदुत्व व अन्य भावनात्मक मुद्दों पर यथार्थवादी मुद्दों का समीकरण (रोटी+रोजी + मकान+ आर्थिक विषमता + भ्रष्टाचार मुक्त शासन + सामाजिक समरसता +सहिषुणता +सर्वजन समान विकास आदि) निर्णायक रूप से भारी पड़ा है। कर्नाटक विशेषज्ञों के मत में प्रदेश के घोर निम्न व वंचित वर्गों के बहुसंख्यक मतदाताओं ने कांग्रेस को अपना समर्थन दिया है।

कांग्रेस के पक्ष में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अधिसंख्यक मतदाता लामबंद हुए। अल्पसंख्यक तो थे ही। लेकिन, इसके विपरीत उच्च संपन्न सवर्ण वर्ग के बहुसंख्यक मतदाताओं का समर्थन भाजपा को मिला है। चुनावों में विषमता पर आधारित गरीब और अमीर की पसंद साफ तौर पर सक्रिय रही है। इस विषमता की खाई को भाजपा हिंदुत्व व अन्य धार्मिक मुद्दों से पाट देने की योजना पर काम कर रही थी, जिसमें वह बुरी तरह से नाकाम रही है। कहा जा सकता है कि यदि किसी का ध्रुवीकरण हुआ है तो वह बहुलतावादी, लोकतंत्रवादी, धर्मनिरपेक्षवादी और संविधानवादी मतदाताओं का हुआ है।

यह तर्क कि भाजपा का वोट बैंक-36 प्रतिशत सुरक्षित है। इसमें कोई सेंध नहीं लगी है; प्रतिगामी शक्तियों के सेफ डिपॉजिट और लॉकर टूटे नहीं हैं। मंजूर है यह तथ्य। लेकिन, यह सच्चाई भी उजागर हो गई है कि बैंक का कारोबार बढ़ नहीं रहा है। नए ग्राहक नहीं मिल रहे हैं। जो पहले मिले भी होंगे, अब इस बैंक से नाता तोड़ रहे हैं। इसमें पूंजी रखना, घाटे का सौदा लग रहा है। अन्य बैंकों में अपनी मतदान-पूंजी को नियोजित कर रहे हैं। यदि किसी बैंक या उद्योग का विस्तार नहीं होता है, उसे नए ग्राहक नहीं मिलते हैं तो उसकी मूल पूंजी को जंग लगने लगता है। सड़ांध पैदा होने लगती है। फिर दिवालिया होने के कगार पर पहुंच जाती है। यह व्यापार का नियम है। विपक्ष पर भी यह नियम समान रूप से लागू होता है।

और अब तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने 19 मई को 2000 हजार रुपए के नोटों को वापिस लेने का ऐलान कर 6 नम्बर 2016 की नोटबंदी के मोदी-फैसले को पहले से अधिक विवादास्पद बना दिया है। ताजा फैसले से मध्ययुग के तुगलकी फरमान की ‘बूÓ उठने लगी है। इस मुद्दे को राहुल गांधी और दूसरे विरोधी नेता पहले से ही उठाते आ रहे हैं। आलोचना थी कि मोदी-फरमान देश की आवश्यकता से अधिक राजनीतिक पूर्वाग्रहों व पक्षपात से प्रेरित था। विपक्ष को एक और नया हथियार प्रधानमंत्री मोदी के 19 मई-फरमान से मिल गया है। आने वाले चुनावों में इसका खुल कर इस्तेमाल भी होगा; कालाधन के खात्मे के दावों को लेकर सवाल उठेंगे; प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक बुद्धिमता और प्रशासनिक क्षमता को लेकर विवादों का सिलसिला शुरू होगा।

 

योगी बनाम मोदी+शाह जोड़ी

कुछ लोग प्रतितर्क दे सकते हैं कि जब कर्नाटक में भाजपा हार रही थी, ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में उसे अभूतपूर्व सफलता भी मिल रही थी। प्रदेश के सभी मेयर के पदों पर यह पार्टी आसीन हो चुकी है। जहां प्रधानमंत्री मोदी का जादू कर्नाटक में पिटा है, वहीं मुख्यमंत्री योगी के नेतृत्व ने अपना चमत्कार उत्तर प्रदेश में बरकरार रखा है। एक अर्थ में योगी ने मोदी+शाह जोड़ी के समानांतर अपनी मोटी-गहरी रेखा खींच दी है। इस फैसले से किसे इंकार हो सकता है? मुख्यमंत्री योगी ने हिंदुत्व के साथ साथ प्रदेश के आधुनिकीकरण की डोर को भी जरूर थामे रखा, इससे किसे इंकार है। बस एक ही सवाल है और वह यह है कि क्या उत्तरप्रदेश की नियति ‘हिंदुत्व का टापूÓ बने रहने की है? क्या उत्तर भारत में इसे हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला में तब्दील किया जा रहा है? क्या इस प्रयोगशाला में तैयार होने वाले फार्मूलों को अगले वर्ष लोकसभा के चुनावों के दौरान इस्तेमाल में लाया जाएगा? इन चंद सवालों के फ्रेम में स्थानीय निकायों के नतीजों को देखा जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री पद की दावेदारी

निसंदेह, हिंदी भारत में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व का सबसे सशक्त प्रवक्ता व रक्षक के रूप में देखा जाता है। इस धारणा की अंतर्धारा यह भी बहती है कि योगी में मोदी के उत्तराधिकारी बनने की सभी संभावी पात्रताएं मौजूद हैं। बल्कि, कुछ क्षेत्रों में उनसे अधिक हैं। योगी अधिक आक्रामकता के साथ हिंदुत्व का एजेंडा लागू कर सकते हैं। ध्रुवीकरण की रफ्तार को तेज कर सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय की अस्मिता को हाशिये पर फेंक सकते हैं। राज्य शक्ति का सुविधानुसार भरपूर इस्तेमाल कर सकते हैं; चुनिंदा अपराधियों के सफाया अभियान में सभी प्रकार के ‘एनकाउंटरÓ हो सकते हैं; बुलडोजर संस्कृति का विस्फोट हो सकता है; धार्मिक प्रतीकों का वैभवीकरण किया जा सकता है; धार्मिक नगरियों में लाखों दीपक प्रज्वलित हो सकते हैं; पुनर्नामकरण का सिलसिला शुरू हो सकता है आदि इत्यादि। इस प्रकार के कदम मुख्यमंत्री योगी को स्वत: ही अचूक शस्त्रोंलैस कर देते हैं। इसके साथ ही देश के सबसे विशाल व करीब दस करोड़ आबादी और 80 लोकसभा सीटों के प्रदेश से अद्वितीय सामाजिक+सांस्कृतिक+ राजनीतिक शक्ति भी उनमें अभूतपूर्व विशिष्टता का भाव पैदा कर देती है। उनकी ‘पोलिटिकल बार्गेन’ की क्षमता स्वत: ही बढ़ जाती है। स्थानीय निकायों के चुनावों के परिणामों से उनका कद बड़ा ही हुआ है। जरुरत पडऩे पर उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पुख्ता ही हुई है।

याद रखें, हिंदुत्व की चारित्रिक प्रवृत्तियां या लक्षण मूलत: प्रतिगामी होते हैं। दूसरे शब्दों में, जिनसे मानवता सिकुड़ती है, संकीर्णता व बुनियादपरस्ती का शिकार होती है, ‘हम और वे’ में समाज विभाजित हो जाता है और धार्मिक-मजहबी फ्रेम में राज्य को हांका जाता है, लोकतांत्रिक संविधान दोयम दर्जे का बन जाता है और निर्वाचित अधिनायकवाद अस्तित्व में आ जाता है, ऐसे लक्षणों के परिवेश ‘सर्वजन समान हिताय-सर्वजन समान सुखायÓ की तमाम संभावनाएं सूख जाती हैं।

यह सच्चाई सिर्फ भारत के हिंदू समाज पर ही लागू होती है, ऐसा नहीं है। इस लेखक की दृष्टि में, यह बात दूसरे धार्मिक या मजहबी समुदायों पर भी समान रूप से लागू होती है; पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान जैसे देशों के इस्लामी समाज भी इन प्रतिगामी प्रवृत्तियों या लक्षणों की गिरफ्त में हैं। लंबे समय से वहां की जनता स्वस्थ व समरूपी लोकतंत्र की मोहताज है। ‘मजहबी इस्लामी राष्ट्रÓ बनने के बावजूद वहां सालों से अशांति है। हिंसा व अस्थिरता का राज है। औरतें को तरह तरह की पाबंदियों का शिकार बनाया गया है। तालिबानी अफगानिस्तान में लड़कियों को शिक्षा से महरूम कर दिया गया है। ईरान में पूर्ण आजादी और हिजाब मुक्त जैसे मुद्दों परऔरतों को फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। इसके अपवाद पुरुष प्रतिरोधी भी नहीं हैं। इन देशों के निजी अनुभवों के मद्देनजर, इस लेखक का यह मत बना है।

काले-सिकुड़े आकाश की जेहनीयत से हिंदी भारत आजाद हो, इसकी आज महती जरूरत है। लोगों में ‘विवेचनात्मक चिंतन’ पैदा हो, इसका अभियान चलाया जाना चाहिए। जातिगत व धार्मिक भावनाओं व संकीर्णताओं से मुक्त और वैज्ञानिक दृष्टि से प्रेरित मतदान हो सके, ऐसे सांस्थानिक परिवेश का निर्माण किया जाना चाहिए।

‘बीमारु प्रदेशÓ के टैग से मुक्ति का यह एक सटीक रास्ता है। वर्ष के अंत तक तीन हिंदी प्रदेशों (राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़) की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। फिर क्यों न कर्नाटक के ‘जनादेश दृश्य’ को इन राज्यों में फिर से मंचित कर टैग को उतार कूड़ेदान में फेंका जाए?

सो, इस परिप्रेक्ष में, यह कथन कि मौजूदा दौर में ‘विचारधारा की लड़ाईÓ है, ‘सत्ता प्राप्ति’ की नहीं है, स्वत: सिद्ध है।

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