‘इस बस्ती में रोज दिसम्बर आता है’ – राहत इंदौरी (01 जनवरी, 1950 -11 अगस्त 2020) की प्रासंगिकता

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–  धीरेश सैनी

 

अपनी विद्वता के ‘आइवरी टावर्स’ में बैठे कवि-बुद्धिजीवी जो भी समझें, पर सच यही है, इत्ते बड़े मुल्क में, एक सीधी-सी बात को ऐसे खरेपन से कह देना, राहत इंदौरी के ही हिस्से में आया था। हिर्स करो, पारसाई भी तो हासिल करो। बे-शक, उन्हें आप लोगों के मेयार से नहीं तौला जा सकता है, पर वह जिस सफ में हैं, उस में वह गैर-मामूली शायर हैं, जिनके पास प्रतिरोध की कोई एक ही सही, पर ला-जवाल लाइन है।

शायर राहत इंदौरी ने मर कर बहुत से लोगों के लिए अजीब मुश्किल पैदा कर दी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस शायर को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों है। दीवानगी, एक अलग चीज है जो बहुत सारे घटिया और जनद्रोहियों को भी अक्सर नसीब हो जाया करती है। राहत इंदौरी से परेशानी की वजह कुछ और है। इसमें कोई शक नहीं है कि वह मुशायरों में बेहद लोकप्रिय थे। उनके अपने लटके-झटके थे, एक पूरा ड्रामाई अंदाज भी था जो बहुत से लतीफ-नफीस लोगों के लिए झुंझलाहट का बाइस भी हुआ करता था। राहत इंदौरी को ‘पॉपुलर स्पेस’ (आम जनता के बीच) में ही बेतरह याद किया जा रहा होता, तो मेयारी अदीबों को तकलीफ न हुई होती। रंज यही है कि बुद्धिजीवियों को भी इस शायर के जाने का इतना गम क्यों है। हालत यह है कि एक तरफ, सोशल मीडिया पर शायर से मुहब्बत करने वाले हैं तो दूसरी तरफ उन्हें लेकर जहर उगला जा रहा है। इसी के बीच में ऐसे झुंझलाए बौद्धिक स्वर हैं जो कह रहे हैं कि बौद्धिक हलके में राहत को इतना महत्व क्यों या उनकी क्या साहित्यिक औकात है।

साहित्यिक श्रेणियों में राहत इंदौरी का स्थान तय करने की हड़बड़ी वाले लोग असल में भूल कर रहे हैं। वे हल्कापन कहें या प्रतिक्रियावाद कहें या मामूली- गैर मामूली की बहस में उलझे रहें, इस शायर को उनकी एक गजल ने, एक शेर ने या एक लाइन ने ही अमरत्व प्रदान कर दिया है। इतने बड़े मुल्क में यह कहना उन्हीं के हिस्से में आया था: सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में/किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’। एक सच को कहने की यह सलाहियत, यह नैतिक और यह बेधड़क अंदाज उन्होंने ही पाया था। इस लिहाज से उनका कोई हमवार है तो वह हबीब जालिब हैं। आंदोलनों में उनकी पंक्तियां हबीब जालिब की पंक्तियों के साथ ही दिखाई देती रहेंगी।

बेशक, हबीब जालिब की तरह राहत इंदौरी लाठियां खाते हुए सड़कों पर नहीं थे, न उनका वक्त जेलों में बीता था, पर ऐसे अशआर के लिए दिल को जिस बेकली और जिस अजीयत से गुजरते रहना होता है, वह उसी में जी रहे थे। वे 1950 के शुरुआती दिन पैदा हुए थे और एक मुसलमान होने के नाते पिछले महीने तक अपने शहर और अपने मुल्क में क्या कुछ देखते-महसूस करते हुए नहीं गए? बात यह थी कि जो बात एक मुसलमान के लिए कहनी मुश्किल होती है, उसे वह बेखौफ कहते रहे। यह समझने के लिए एक साफ दिल जरूरी है।

1992 के बाद वह एक शेर पढ़ा करते थे- ‘टूट रही है हर दिन मुझमें एक मस्जिद/इस बस्ती में रोज दिसम्बर आता है’। हर दिन का यह जो टूटना है, वह इसे कभी कलंदराना अंदाज में, कभी सिर्फ अफसोस में और कभी रेटरिक और चुनौती में तब्दील कर शायरी में दर्ज कर अवाम के बीच ले जाते थे। जुल्म-ओ-सितम के बीच बेसहारा छोड़ दिए गए लोगों के लिए यह कितनी बड़ी राहत होती थी, कितना बड़ा सहारा, यह महसूस करने के लिए शास्त्रीय आलोचकों को हिकारत छोड़ कर मजलूमों की भीड़ तक जाना पड़ेगा। यह बात अलग है कि वह साहित्य के मसीहाओं से भी न यह मांग करते हैं, न उम्मीद, न कोई ऐसा विद्वान उन्हें किसी महान शायर के रूप में देख रहा था। जो उन्हें करना था, वह खुद ही कर रहे थे, पॉपुलर स्पेस में कर रहे थे और असरदार ढंग से कर रहे थे। उन का एक शेर है – हम से पहले भी मुसाफिर कई गुजरे होंगे / कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

उनके मकाम को तय करने के लिए जल्दी में लग रहे हिंदी के बुद्धिजीवी चाहें तो उनके इस शेर को देख सकते हैं और सोच सकते हैं कि अपनी ‘अच्छाइयों’ के साथ वे लोग कैसे-कैसे खल-पत्थरों को राह के पहाड़ जैसे महानायक स्थापित करने में मदद करते रहे है।

राहत इंदौरी के पास और शायरी किस स्तर की है, ऐसे सवालों में सिर खपाने के बजाय मुशायरों की यादों को ताजा कर लेना चाहिए। हिंदी कवि सम्मेलनों की भी। हिंदी कवि सम्मेलन पूरी तरह फूहड़ चुटकुलों और उन्मादी तुकबाजियों के अड्डे बनते गए पर मुशायरों में शायरी का एक स्तर हमेशा काएम रहा। यही वजह है कि एक पॉपुलर और एक सही शायर के बीच में एक फर्क होते हुए भी हिंदी कविता की दुनिया जैसा फर्क कभी नहीं रहा। बाकी, हिंदी कवि सम्मेलन के उन्मादी आह्वानों को लेकर जोश में रहने वाले लोग मुशायरों में सियासी सवाल उठा देने वाले एकाध शायर को कट्टर या सांप्रदायिक बताते घूमा ही करते हैं। हिंदी की उदार दुनिया के बीच यह मर्ज इस हद तक न भी हो पर दुचित्तेपन या बेलैंस-वाद के रूप में तो वहां भी पलता ही रहा है।

मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना/लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना, इस शेर को जिस धूम के साथ राहत इंदौरी की हिंदुस्तानियत के प्रमाण की तरह पेश किया जा रहा है, असल में वह भी एक बीमारी का ही नतीजा है। बेधड़क और बेखौफ लगने वाले राहत इंदौरी को भी ऐसे शेर कहने पड़ते रहे। यह वही विडंबना है जिसमें एक मुसलमान को हमेशा जीना पड़ता है। उनके इस शेर को सेकुलर बुद्धिजीवियों ने भी उत्साह से कोट किया है। बाज लोगों ने तो फोटोशॉप के जरिये शायर की तस्वीर में माथे पर चिपका भी दिय२ा।

 

समयांतर, सितंबर, 2020

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