पूंजीवादी लोभ का फल

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  • शैलेश

कृषि व्यवसाय और खाद्य-उत्पादन-परिवहन की शृंखलाएं बीसवीं सदी के अंतिम दिनों और इक्कीसवीं सदी के आरंभ में साम्राज्यवादी उत्पादन की एक नई संरचना के रूप में उभर कर आई हैं। जैसे-जैसे एकाधिकारी वित्तीय पूंजी का विकास होता गया, वैसे-वैसे पूंजीवादी वैश्वीकरण ने जो रूप अख्तियार किया, वह था बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित, आपस में जुड़ी हुई माल-शृंखलाएं (कमोडिटी चेन्स) जो मुख्यत: वैश्विक दक्षिण में स्थित विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों को आपस में जोड़ती हैं, जबकि सर्वाधिक उपभोग, वित्त और संचय वैश्विक उत्तर में केंद्रित है। इस व्यवस्था में कृषि व्यवसाय में लगे हुए बहुराष्ट्रीय निगमों ने दुनिया भर में, खास करके अल्पविकसित देशों में, उपलब्ध सस्ते श्रम तथा सस्ती जमीनों को अपने कब्जे में लेते हुए वैश्विक उत्पादन पर नियंत्रण कर लिया है और बेहिसाब मुनाफा कमा रहे हैं।

इस सस्ते श्रम और जमीनों का अत्यधिक शोषण करके उत्पादन को पूंजीवाद के केंद्रों में उपभोग के लिए भेज दिया जाता है। 2014 में अमेरिका की तुलना में प्रति यूनिट उत्पादन के लिए श्रम पर खर्च भारत में 37 प्रतिशत, मेक्सिको में 43 प्रतिशत, चीन में 46 प्रतिशत और इंडोनेशिया में 62 प्रतिशत था। जबकि बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा अपनाई जाने वाली उच्च तकनीक तथा मशीनीकरण के कारण इन देशों के श्रम की उत्पादकता लगभग अमेरिका जितनी ही है। अत: विकसित देशों में उत्पादन की तुलना में इन देशों में उत्पादन कराने में श्रम पर बेहद कम खर्च करके श्रम का न केवल अतिशोषण बल्कि आत्यंतिकशोषण (सुपर) किया जा रहा है।

वैश्विक पूंजी और वित्त के केंद्रों के फायदे के लिए इस व्यवस्था ने ही वैश्विक पर्यावरण और तमाम पारिस्थितिकी-तंत्रों को संदूषित कर दिया है। श्रम के साथ ही कृषि व्यवसाय में लगे विशालकाय निगमों ने जमीनों पर कब्जे का भी वैश्विक अभियान छेड़ दिया। इन देशों की जमीनों की कीमत उनकी उपयोगिता और उर्वरता की तुलना में काफी कम है। सस्ते श्रम और जमीन के साथ ही परिवहन और संचार के साधनों में आई क्रांति ने भारी मुनाफा कमाने के रास्ते में आने वाली स्थान और काल की सभी सीमाओं को समाप्त कर दिया।

मोबाइल, इंटरनेट, ब्रॉडबैंड, ऑप्टिकल फाइबर, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और क्लाउड कम्प्यूटिंग ने संचार को आसान बना दिया। बेहतर कंटेनरों ने परिवहन और सस्ती हुई हवाई यात्राओं ने यातायात को आसान कर इसमें सहयोग किया। इससे दुनिया के किसी भी देश में उत्पादन कराना, उसकी देखरेख करना और उसकी मांग वाली जगह पर बहुत कम समय में पहुंचा देना संभव हो गया। श्रम और भूमि के दोहन से जुड़ी इन निगमों की माल उत्पादन-परिवहन की इन विशाल शृंखलाओं में ही वर्तमान आर्थिक, परिस्थिति-विज्ञान संबंधी और महामारी-विज्ञान संबंधी संकटों की जड़ें मौजूद हैं और कोविड-19 के कारणों को भी इसके भीतर ही देखा जाना चाहिए।

इस विनाशक पूंजीवाद ने न केवल जलवायु-संकट पैदा किया है बल्कि पारिस्थितिकी-तंत्र की प्राकृतिक सीमाओं के अतिक्रमण की परिस्थितियां पैदा करके एक के बाद एक वैश्विक महामारियों के सिलसिले की शुरुआत कर दी है। पिछले दो दशकों के भीतर पालतू पशुओं अथवा वन्य जीवों से इंसानों में संक्रमित होने वाली(जूनोटिक) बीमारियां सार्स, मर्स, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, जीका, एच1एन1, एच5एन1 इसका उदाहरण हैं। एच1एन1 से दुनिया भर में पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गए। और अब सार्स-कोव-2 यानी कोविड-19 इसी की नवीनतम और अब तक की सर्वाधिक खतरनाक कड़ी है जिसमें जून के अंतिम सप्ताह तक पांच लाख मौतें हो चुकी हैं जबकि अभी इसकी तेजी थमती हुई नहीं दिख रही।

महामारियों के संकट और पूंजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था के संबंधों को उजागर करने वाले शोधों को कृषि व्यवसाय से जुड़े निगम हमेशा हतोत्साहित करते रहते हैं जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य, कृषि व्यवसाय, दवा कारोबार और जलवायु परिवर्तन आदि विभिन्न कारकों को समेटने वाले सर्वांगीण दृष्टिकोण को अपनाए बिना इन वैश्विक महामारियों को समझने या इन पर काबू पाने के बारे में सोचना मासूमियत होगी।

 

बड़े फार्म, बड़ी बीमारियां

प्रसिद्ध पर्यावरण विज्ञानी रॉब वैलेस ने अपनी किताब बिग फाम्र्स मेक बिग फ्लू में कृषि व्यवसाय और खाद्य-आपूर्ति शृंखलाओं का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। फ्लू के अलग-अलग रूपों में उभर रही ये महामारियां जीव-जंतुओं के भ्रूण-विज्ञान और पारिस्थितिकी तंत्र को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे के लिए इस्तेमाल करने का नतीजा हैं। कृषि व्यवसाय ने विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों के ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने और इस उत्पाद को ज्यादा-से-ज्यादा जगहों पर कम से कम समय में पहुंचाने का तंत्र विकसित किया है। किसी पिछड़े देश के किसी सुदूर देहात में स्थित मुर्गी फार्म में लाखों की संख्या में संकर नस्ल के मुर्गे, जिनमें हर जीव जेनेटिक रूप से अपने बगल वालों ही जैसा है, विशालकाय बाड़ों में ठूंस-ठूंस कर रखे जाते हैं, बमुश्किल महीने भर में उन्हें कृत्रिम चारे और रसायनों से बड़ा कर दिया जाता है, फिर उन्हें जिबह व प्रसंस्कृत करके कंटेनरों और जहाजों से होते हुए धरती के सुदूरवर्ती कोनों तक पहुंचा दिया जाता है।

बहुराष्ट्रीय निगमों की मुनाफे की भूख के कारण ऐसी वीभत्स जैव तकनीकें तक अपनाई जा रही हैं जिनसे बिना पंखों वाले मुर्गे तैयार किए जाएं ताकि उन्हें साफ करने में आसानी हो, सभी मुर्गे एक ही वजन के हों ताकि उन्हें तौलने का झंझट न हो और उनकी टांगें (लेग पीस) भी बराबर वजन के हों। सूअर के मांस तथा गोमांस के उत्पादन, प्रसंस्करण व परिवहन की परिस्थितियां भी लगभग ऐसी ही होती हैं। लेकिन इस विशिष्ट कृषि-परिवेश में पनप रहे और उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) द्वारा अपने को अनुकूलित कर रहे रोगाणु भी सह-उत्पाद की तरह कुछ ही दिनों, और कभी-कभी कुछ ही घंटों में कृषि व्यवसाय के इन्हीं राजमार्गों को पकड़कर अपने मेजबान डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों तथा इंसानों पर सवार होकर धरती के कोने-कोने तक पहुंच जाते हैं।

अन्य कृषि-उत्पादों में भी यही ‘मोनोकल्चर (एक ही तरह के उत्पाद को बड़े पैमाने पर पैदा करना) अपनाया जाता है। जहां जैव-विविधता होती है वहां रोगाणुओं के फैलने में प्रकृति खुद एक रुकावट लाती है। अलग तरह की प्रजातियों को संक्रमित करने के लिए रोगाणु को खुद में बदलाव लाना पड़ता है, जो आसान नहीं होता। मोनोकल्चर वाले इन फार्मों में ये प्राकृतिक प्रतिरोधक(इम्यून) बैरियर मौजूद नहीं होते। इससे किसी सूक्ष्म जीव को पूरे फार्म के उत्पाद को संक्रमित करना काफी आसान हो जाता है।

वन्य जीवों से संपर्क और वनों का विनाश

मांस या अन्य कृषि-उत्पादों के ये फार्म अक्सर वन्य सीमांतों का अतिक्रमण करते रहते हैं। फार्मों के विस्तार के लिए जंगलों की कटाई बहुत तेजी से हो रही है। अभी ब्राजील में सोया की खेती के लिए अमेजन के जंगलों का सफाया किया जा रहा है। इन जंगलों में लगी अब तक की सबसे भीषण आग को सरकार समर्थित भूमाफियाओं के इसी अभियान से जोड़कर देखा जा रहा है। इन जंगलों से इतनी ऑक्सीजन पैदा होती है कि अमेजन को दुनिया का फेफड़ा कहा जाता है। पूरी दुनिया में वन्य-क्षेत्र सिमट रहे हैं और विरल हो रहे हैं।

ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए जंगली पशु-पक्षियों की जीनों को लेकर भी इन फार्मों और इनकी प्रयोगशालाओं में औद्योगिक उत्पादन वाले पशुओं की जीनों के साथ छेड़ छाड़ की जाती है।

साथ ही खाने में इस्तेमाल होने वाले समुद्री जीवों (सी फूड) के बाजार से भी इनका संपर्क होता रहता है। इन वजहों से वन्य जीवों में सीमित रहने वाले सूक्ष्म जीवों का प्रवेश फार्मों के जीवों में हो जाता है। वे इन जीवों के अनुसार अपने को अनुकूलित कर लेते हैं। फार्मों के उत्पादन तथा प्रसंस्करण की पूरी प्रक्रिया में ये रोगाणु इंसानों के भी संपर्क में लंबे समय तक आते हैं और उन्हें एक नया ठिकाना मिल जाता है, जिसके अनुरूप वे अपने को ढाल लेते हैं।

इंसानों को संक्रमित करने वाले कम से कम 60 प्रतिशत नए रोगाणु इसी तरह से वन्य जीवों से स्थानीय समुदायों में फैले हैं और वहीं से उन्होंने खाद्य-उत्पादन-परिवहन का राजमार्ग पकड़ा है। कैंपिबैक्टर, निपाह वाइरस, क्यू फीवर, हिपेटाइटिस-ई तथा नोवेल इंफ्लुएंजा के अनेक रूपों सहित इंसानों के लिए तमाम खतरनाक बीमारियों के स्रोत इस तरह के खाद्य-उत्पादन एवं परिवहन के ढांचे में ही तलाशे गए हैं।

पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश और मेटाबोलिक रिफ्ट

वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था कृषि व्यवसाय से जुड़े बहुराष्ट्रीय निगमों को मुनाफे के निजीकरण और लागतों के समाजीकरण की छूट देती है अत: उसके पर्यावरण संबंधी दुष्प्रभावों की कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है, और यही इन घातक वैश्विक महामारियों का कारण बनता है।

वैश्विक कृषि व्यवसाय ने उस ‘मेटाबोलिक रिफ्ट (उपापचय की दरार) को भी अभूतपूर्व हद तक चौड़ा कर दिया है जिसे माक्र्स ने पूंजीवाद के एक प्रमुख अंतर्विरोध के रूप में चिह्नित किया था और जिसे आधुनिक काल में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा संचालित खाद्य शृंखला में बहुत अच्छी तरह से जॉन बेलेमी फॉस्टर ने दिखाया है। जिस तरह से सभी अविकसित देश (वैश्विक दक्षिण) कृषि-उत्पादन का केंद्र बने हुए हैं और विकसित देश (वैश्विक उत्तर) उपभोग का, उसमें वैश्विक दक्षिण की जमीन से कृषि-उत्पादों के माध्यम से सभी पोषक पदार्थों का अनवरत प्रवाह वैश्विक उत्तर की ओर हो रहा है जिससे दक्षिण की मृदा लगातार पोषक पदार्थों से रहित और अनुर्वर होती जा रही है। ये पोषक पदार्थ उत्तर से किसी भी रूप में वापस लौट कर नहीं आते।

यह भी पूंजीवादी लूट का एक रूप है जिससे पूरी पृथ्वी और इसकी प्रकृति को अपूरणीय क्षति हो रही है और इसके उपापचय(मेटाबोलिज्म) में एक क्षेत्रीय असंतुलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। इस तरह से उत्पादन और उपभोग के रूप में इंसानों के स्तर पर तथा भूमि के पोषक पदार्थों के रूप में प्रकृति के स्तर पर भी यह असंतुलन पूरे सामाजिक उपापचय (सोशल मेटाबोलिज्म) में एक ऐसी दरार पैदा कर रहा है जिसकी मरम्मत नहीं की जा सकती। परिणामत: पूंजीवादी शोषण के शिकार देशों के बाशिंदे कई तरह से बीमारियों और महामारियों का आसान शिकार बन रहे हैं। पूंजीवादी लूट के कारण पैदा होने वाली गरीबी, कुपोषण, स्वच्छ पेयजल की कमी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के साथ ही वहां की जमीन से पोषक तत्वों के एकतरफा दोहन के कारण भी वहां बीमारियों से लडऩे वाली प्रतिरोधक क्षमता के कम होते जाने से महामारियों का संक्रमण सुगम हो जाता है।

निगमों की जरूरत के अनुसार उत्पादन के लिए कीटनाशकों और खर-पतवारनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल के कारण वैश्विक दक्षिण में जैव-विविधता तो नष्ट हो ही रही है, वहां की जमीन, जल और वायु भी जहरीली हो रही है। फार्मों की सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर पानी के इस्तेमाल के कारण भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। इस सबका विपरीत प्रभाव स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। प्रदूषण और औद्योगिक कचरे से स्वास्थ्य को खतरा पहुंचाना आज उत्पीडऩ का ही एक पहलू हो गया है।

विदेशी मुद्रा की कमी से जूझ रहे अल्पविकसित देश अपने यहां किसी भी कीमत पर पूंजीनिवेश के लिए लालायित हैं। जमीनों की कम कीमत और उच्च गुणवत्ता का अंतर भारी कमाई का मौका दे रहा है। इन जमीनों के आधार पर ही पशुपालन क्रांति अस्तित्व में आई। फिर यहां जानवरों को शीघ्र बड़ा करने के लिए विशालकाय बाड़े और दड़बे बनाकर जैव-उत्पादों को वैश्विक माल में बदल दिया गया।

भूमि-हड़प अभियान

2007-09 के वित्तीय महासंकट के बाद पैदा हुई अनिश्चितता के बाद, और खास करके 2008 और 2011 में खाद्य पदार्थों की कीमतों में आई भारी उछाल के बाद तो वह प्रक्रिया काफी तेज हो गई जिसे इक्कीसवीं सदी का भूमि-हड़प अभियान कहा जाता है। यह काम तमाम विकास बैंकों द्वारा वित्तपोषित ‘क्षेत्रीय पुनर्गठन के नाम पर किया गया। छोटे तथा जीवन-निर्वाह भर की खेती करने वाले किसानों को विस्थापित करना, जंगलों का सफाया तथा स्थानीय पर्यावरण का विनाश इस अभियान का हिस्सा था। सरकारें अपने यहां सभी श्रम एवं भू-स्वामित्व संबंधी अधिकारों के खात्मे के लिए कानूनों को बदल रही हैं और इन फार्मों के पक्ष में कब्जा दिलाने के लिए पुलिस और सेना तक का इस्तेमाल कर रही हैं। विरोध की सभी आवाजों और सभी आंदोलनों कुचल दिया जा रहा है। नवउदारवादी एजेंडे को लागू कराने के लिए इन देशों में मीडिया और सत्ता-प्रतिष्ठान को खरीद लिया जा रहा है। सरकारें जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन कर दमनकारी तंत्र में बदलती जा रही हैं। नतीजतन पारंपरिक रूप से कृषि एवं जंगलों पर आश्रित किसान और आदिवासी अपने इलाकों से बेदखल और विस्थापित हो रहे हैं। इस दौर ने मानव इतिहास का सबसे बड़ा सामूहिक विस्थापन देखा है। इस प्रक्रिया ने पूरे के पूरे इलाकों की जमीनें छीनकर इन्हें किसान-विहीन करके वहां की पारंपरिक कृषि-पारिस्थितिकी को मोनोकल्चर वाले फार्मों में बदल दिया है। पूरी दुनिया में इस तरह के विस्थापन का दंश झेल रहे लोगों की संख्या करोड़ों में है। इन विस्थापित समूहों को शहरी झोपड़-पट्टियों के हवाले कर दिया गया है। पहले से ही शोषित और वंचित ये समूह भी बीमारियों और महामारियों के लिए काफी आसान चारा हैं। विशालकाय महानगरों की इन बस्तियों में भी कोविड-19 ने बड़ी तेजी से कब्जा कर लिया है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य का जर्जर ढांचा

दरअसल पूंजीवाद अपने आप में स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली एक व्यवस्था है। कोविड-19 नवउदारवादी एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के दौर की महामारी है। निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के अभियान ने पहले ही दुनिया भर में जबरन वित्तीय संयम को लागू कराया है। नतीजतन लगभग सभी देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा कमजोर किया जा चुका है। अस्पताल डॉक्टरों, नर्सों, फार्मासिस्ट, वार्डब्वाय, लैब-टेक्नीशियन, सफाईकर्मियों आदि के साथ ही भवन, कमरे, बेड, आइसोलेशन बेड, आईसीयू, वेंटिलेटरों जैसे साजो-सामान की भी कमी से जूझ रहे हैं।

महामारी ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका की भी स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल दिया। अस्पतालों में डॉक्टर, नर्सें एवं अन्य स्वास्थ्य तथा सफाईकर्मी सुरक्षा उपकरणों की बेहद कमी है। निजी सुरक्षा उपकरणों (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट) की भारी कमी है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रोटेक्शन (सीडीसी या बीमारी नियंत्रण और सुरक्षा केंद्र) की ओर से उन्हें मास्क की जगह पर रूमाल और स्कार्फ बांध कर काम करने की सलाह दी जा रही थी, जिससे पता चल रहा था कि यह व्यवस्था किस तरह मरणासन्न हो चुकी है। इस देश ने भी दुनिया के सभी देशों की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को तोडऩे, स्वास्थ्य सुविधाओं का निजीकरण करने और राज्य द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के सार्वजनिक खर्चों को जबरन कम कराने में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के इस्तेमाल सहित सभी हथकंडे अपनाये थे।

इस तरह से महामारियों से निबटने के मामलों में घुटने टेकने की शुरुआत दशकों पहले हो गई थी जब विभिन्न देशों ने उन नीतियों को अपनाया था जिनमें स्वास्थ्य सेवाओं को व्यक्ति की अपनी खरीदने की क्षमता पर आधारित माल में तब्दील कर दिया गया था। तभी से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था गैरबराबरी की नींव पर खड़ी है। इस तक बहुत थोड़े से लोगों की पहुंच है, जबकि अधिकांश इससे वंचित हैं।

तथ्य बतलाते हैं कि जिस देश ने अपने यहां सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे को जितना कम तोड़ा था वह अपने यहां इस महामारी से निबटने में उतना ही सफल साबित हुआ है।

वैश्विक स्वास्थ्य के लिए नए विषाणु ही एकमात्र समस्या नहीं हैं। कृषि व्यवसाय में अत्यधिक मात्रा में इस्तेमाल हो रहे एंटीबायोटिक और अन्य आधुनिक दवाओं के कारण जीवाणु प्रति प्रतिरोधक-क्षमता हासिल कर सुपर जीवाणुओं में तब्दील हो रहे हैं और बड़ी संख्या में मौतों का कारण बन रहे हैं। एक शोध के मुताबिक इस सदी के मध्य तक ऐसी मौतों की संख्या कैंसर से होने वाली मौतों को पीछे छोड़ देगी। चूंकि पूंजीवादी समाज एक वर्गीय समाज है, जिसके कारण संक्रामक रोगों की सबसे ज्यादा मार मजदूर वर्ग पर, गरीबों पर और हाशिए पर रह रहे लोगों पर पड़ती है, इसलिए ऐसी बीमारियों को पैदा करने वाली व्यवस्था को सामाजिक हत्याओं का दोषी ठहराया जाना चाहिए। दरअसल पूंजीवाद द्वारा किए जा रहे पारिस्थितिकी-तंत्र के विनाश के कारण ही ये वैश्विक महामारियां शुरू हुई हैं।

कृषि व्यवसाय में लगे बहुराष्ट्रीय निगमों की खाद्य-उत्पादन-आपूर्ति शृंखला के अंतिम छोर अविकसित व गरीब देशों के खेतों, कारखानों और समुद्र तटों तक पहुंचते हैं। इन गरीब देशों में इस शृंखला में काम करने वालों की हालत और इन कार्यस्थलों की नारकीय परिस्थितियों को देखकर अपने मूल देशों में लोकतंत्र, न्याय और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी डींगें हांकने वाले इन निगमों के दावों की पोल खुल जाती है। इन्होंने अपने फायदे के लिए ऐसा तंत्र विकसित किया है जो सभी सरकारों, गैर सरकारी संगठनों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और एजेंसियों को इनके पक्ष में या तो प्रेरित कर लेता है या खरीद लेता है और इनके ऊपर उंगली उठाने वाली तथा इनका भंडाफोड़ करने वाली आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती हैं।

इसके कुछ उदाहरणों को देखते हैं

2018 में भारत सरकार ने स्वास्थ्य के लिए हानिकारक डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों पर चेतावनी का निशान लगाने का निर्णय लिया था। लेकिन ताकतवर बहुराष्ट्रीय निगमों के दबाव में आकर इसे स्थगित कर दिया। विशेषज्ञों और आलोचकों की सांत्वना के लिए प्रस्तावित चेतावनी-प्रणाली पर पुनर्विचार के लिए तीन सदस्यों की एक समिति का गठन कर दिया। इस समिति के अध्यक्ष अनुभवी पोषणविद् और नेस्ले कंपनी के पूर्व सलाहकार ब्वायंडला ससिकरन बनाए गए। स्वास्थ्य पक्षकारों में इससे काफी नाराजगी फैल गई, क्योंकि ससिकरन ‘इंटरनेशनल लाइफ साइंसेज इंस्टीच्यूट (आईएलएसआई) के न्यासी थे। 2011 में भारत के राष्ट्रीय पोषण संस्थान से सेवानिवृत्त होने के बाद वह नेस्ले, जापानी कंपनी एजिनोमोटो और इटली की फेरेरो के सलाहकार रह चुके हैं।

प्रत्यक्षत: मासूम सा प्रतीत हो रहा यह अलाभकारी अमरीकी संस्थान ‘आईएलएसआई’ दरअसल एक गुप्त लॉबी समूह है जो दुनिया भर की सरकारों के स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े प्रतिष्ठानों में गुपचुप तरीके से अपनी पैठ बनाता जा रहा था। चार दशक पहले इस संस्थान की नींव कोका कोला कंपनी के एक शीर्ष अधिकारी ने डाली थी। कृषि-व्यवसाय, खाद्य और दवाओं के क्षेत्र में काम करने वाले भीमकाय निगमों के पैसे से चलने वाले इस संस्थान की शाखाएं इस समय 17 देशों में मौजूद हैं। इस समय कोका कोला, डुपॉन्ट, पेप्सिको, जनरल मिल्स और डेनॉन जैसे चार सौ निगम इसके सदस्य हैं और वे इसे 1.7 करोड़ डॉलर का सालाना बजट उपलब्ध कराते हैं।

बड़े-बड़े देशों की स्वास्थ्य, खाद्य एवं दवाओं संबंधी नीतियां बनाने वाले निकायों, और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे संस्थानों तक में इस संस्थान के प्रतिनिधियों ने घुसपैठ कर ली है और ‘हर तरह के हथकंडे’ अपना कर वे इन देशों तथा संगठनों की नीतियों को बहुराष्ट्रीय निगमों के पक्ष में मोडऩे का काम करते हैं। इसके लिए दुनिया भर के ऐसे विद्वानों, विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को पांच सितारा होटलों में आयोजित सेमिनारों और कॉन्फ्रेंसों में बुलाते रहते हैं और उनका मत-निर्माण करते रहते हैं जो अन्यथा प्रत्यक्ष तौर पर मैक्डोनाल्ड्स और केलॉग्स द्वारा आयोजित कॉन्फ्रेंसों में नहीं जाते।

एक एनजीओ ‘ग्लोबल जस्टिस नाउ’ की 2015 की रिपोर्ट है कि जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी उत्सर्जन में कृषि-खाद्य क्षेत्र का योगदान 29 प्रतिशत है। अभी इस क्षेत्र की कंपनियां अपने प्रत्यक्ष उत्पादन के आंकड़े तो देती हैं लेकिन इनके उत्पादन से जुड़े फार्मों और सप्लाई चेन से इससे कई गुना ज्यादा होने वाले उत्सर्जन को वे छिपा लेती हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार पशु आहार बनाने वाले अमरीकी निगम करगिल, अमेरिका के सबसे बड़े गोमांस उत्पादक टायसन और दुनिया के सबसे बड़े उर्वरक उत्पादक यारा द्वारा केवल छिपाए गए उत्सर्जन की मात्रा डेनमार्क, बुल्गारिया और स्वीडन, तीनों देशों के कुल उत्सर्जन के बराबर है। लेकिन ये कंपनियां तो महज छोटा सा उदाहरण हैं जिससे कृषि-खाद्य क्षेत्र से जुड़े कॉरपोरेट क्षेत्र के समूचे उत्सर्जन की झलक पाई जा सकती है।

2012 में योरोप में एक धोखाधड़ी का भंडाफोड़ हुआ था जिसमें गोमांस में 30 टन घोड़े का मांस मिलाकर बेच दिया गया था। मारे गए घोड़ों में एक आयरलैंड और दो पोलैंड के घोड़ों में माइक्रोचिप लगी थीं जिनके कारण इस मिलावट का खुलासा हुआ।

दुनियाभर के वस्त्र-उद्योग की सप्लाई चेन के कामगारों में 80 प्रतिशत महिलाएं हैं। कम वेतन, काम की असुरक्षित परिस्थितियां और परिवर्तनशील संविदा-शर्तें, परंपरागत लैंगिक भेदभाव के साथ मिल कर इनके हालात और भी दयनीय कर देती हैं। यह बात उन निगमों को और जिन देशों में काम कराया जा रहा है उन्हें भी, सबको पता है। इसीलिए तो इन देशों ने अपने यहां श्रम कानूनों में संशोधन किए हैं और स्पेशल इकोनॉमिक जोन वगैरह बनाए हैं। एडिडास, कोलंबिया, गैप, एच&एम, लेवि स्ट्रॉस और प्यूमा जैसे सभी अंतरराष्ट्रीय ब्रांड इसी सस्ते श्रम के लिए तो बांग्लादेश और कंबोडिया जैसे तीसरी दुनिया के गरीब देशों में अपना काम कराते हैं।

कंबोडिया में इन्हीं निगमों में काम कर रहे मजदूरों ने 2014 में मजदूरी बढ़ाने की मांग करते हुए हड़ताल की थी। हड़ताली मजदूरों पर कंबोडियाई पुलिस की फायरिंग में पांच मजदूर मारे गए थे। दुनिया भर में 24.4 करोड़ लोग अंतरराष्ट्रीय प्रवासी हैं, जिनमें से आधी महिलाएं हैं। इनमें से बड़ी संख्या युद्ध, प्राकृतिक आपदाओं आदि से पीडि़त शरणार्थियों की भी है। इनमें से ज्यादातर महिलाओं को समुचित रजिस्ट्रेशन के अभाव, भाषा की समस्या और परिवार चलाने की मजबूरी के चलते अनौपचारिक क्षेत्र में काम करना पड़ता है जहां इनका शोषण और बढ़ जाता है।

नेस्ले कंपनी की सी-फूड सप्लाई चेन में दुनिया के तीसरे सबसे बड़े सी-फूड निर्यातक थाईलैंड में मयानमार के शरणार्थियों और उनके बच्चों की मानव-तस्करी करके, उन्हें कैद करके ग़ुलामों की तरह जबरन काम कराने की बात जांच में सही साबित हुई थी। इसी तरह वस्त्र निर्माता पेटागोनिया की सप्लाई चेन में ताइवान में मजदूरों से जबर्दस्ती काम कराने तथा उन्हें भर्ती करने में अनैतिक तरीके अपनाने की बात का खुलासा कंपनी ने खुद किया। नेस्ले, करगिल तथा आर्चर डैनियल मिडलैंड कंपनियों द्वारा आइवरी कोस्ट में अपने कोकोआ फार्मों में बच्चों को ग़ुलाम बना कर उनसे काम कराने के मामले का मुकदमा अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में चला।

शेफील्ड पोलिटिकल इकोनॉमी रिसर्च इंस्टीच्यूट के एक शोध के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों की ऑडिट वाली व्यवस्था ने, श्रम की बेहतर हालात और पर्यावरण मानकों के पालन का ठप्पा लगाकर केवल इन निगमों को फायदा पहुंचाने का काम किया है। यह व्यवस्था इन निगमों की सप्लाई चेन में काम करने वाले मजदूरों की दुर्दशा और पर्यावरण के विनाश की जवाबदेही से इन्हें बचाने का रास्ता आसान करती है।

नामी-गिरामी वैश्विक ब्रांडों के लिए काम कर रही बांग्लादेश की वस्त्र-निर्माता राना प्लाजा और थाईलैंड के झींगा उद्योग में नारकीय परिस्थितियों में गुलाम बनाकर काम कराए जाने के आरोप प्रमाणित हुए हैं, जबकि इन्हें ऑडिट की क्लीन चिट मिल चुकी थी। यह झींगा वालमार्ट, क्रोगर, होल फूड्स, डॉलर जनरल और पेट्को जैसे नामचीन फूड स्टोर्स और रिटेलर्स के साथ ही रेड लॉब्स्टर तथा ओलिव गार्डेन जैसे रेस्टोरेंट्स की सप्लाई चेन का हिस्सा हैं। बहुराष्ट्रीय निगम प्राइवेट ऑडिटरों से ऑडिट कराते हैं अत: ऑडिट खुद में एक उद्योग बन चुका है। मुनाफा बढ़ाने के लिए मजदूरों और पर्यावरण मानकों पर होने वाले खर्च में कटौती की जाती है, अत: कुछ खर्च करके अपने मनोनुकूल ऑडिट करा लेना उनके लिए एक आसान रास्ता है।

आंदोलनों की जरूरत

पूंजीवादी शिक्षा पद्धति ने शिक्षा को ज्ञान-विज्ञान के मूल ‘जिज्ञासाÓ से ही काट दिया है। एक तरफ केवल कमाने के उद्देश्य से खोले गए शिक्षण-संस्थान केवल डिग्री बांटने के कार्यालय बन कर रह गए हैं, तो दूसरी तरफ व्यावसायिक शिक्षा उपकरणों को चलाना सिखाने तक सीमित हो गई है। आज बड़ी संख्या में ऐसे स्नातक मिल जाते हैं जिन्हें न ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत, मृदा-क्षरण, ग्रीन हाउस, कार्बन-चक्र या जल-चक्र के बारे में जानकारी है, न ही उन्हें कालिदास, प्रेमचंद, शेक्सपियर या टॉल्सटाय क्या करते थे, यह पता है।

अपने परिवेश के प्रति अनजान और असंवेदनशील बने रहने वाली ऐसी आबादी ही दुनिया भर में लोकरंजक(पॉपुलिस्ट) नेतृत्व के उभार का आधार बनी है। लच्छेदार भाषा और भंगिमा वाले अगंभीर, मुंहफट, उच्छृंखल, असंवेदनशील, संकीर्ण और अमानवीय दृष्टिकोण वाले राजनेता तमाम बड़े देशों के शीर्ष पर पहुंच चुके हैं और विश्व पूंजीवाद की पालकी ढो रहे हैं। प्रकृति, जलवायु और पर्यावरण की समस्याओं और सरोकारों से रहित ये लोग मुनाफा बटोरने की पूंजीवादी हवस के लिए मुफीद हैं।

इस तरह से न केवल कोविड-19 बल्कि हर कुछ दिन बाद फैल रही सभी महामारियां कोई अलहदा और अजूबा घटनाएं नहीं हैं बल्कि वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक ढांचे की अनिवार्य पैदाइश हैं। यह बतलाती हैं कि लोभ और लालच पर आधारित इस तंत्र की जगह पर एक ऐसे मानवीय तंत्र की स्थापना की जरूरत है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का केवल न्यूनतम और विवेकसंगत इस्तेमाल हो, जिस तरह से उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है उसी तरह उत्पादन के साधनों का स्वामित्व भी सामाजिक हो। सामाजिक-आर्थिक उत्पादन और उसका वितरण अराजकता की बजाय आवश्यकता और अधिकतम संभव समानता पर आधारित हो।

आज समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन की जरूरत आ खड़ी हुई है। जरूरी है कि विकास का लक्ष्य ऊर्जा संरक्षण और पर्यावरण की हिफाजत को ध्यान में रखते हुए हासिल किया जाए। मनुष्य के हित, उसके समुदाय के हित और प्रकृति के हित के बीच सामंजस्य बना रहे। पारिस्थितिकी तंत्र के शोषण, साम्राज्यवाद और युद्धों में अब मनुष्यता का भविष्य नहीं हो सकता। धरती को जीवनक्षम बनाए रखने के लिए इसके सामाजिक और प्राकृतिक उपापचय (मेटाबोलिज्म) को बनाए रखना आज की सबसे बड़ी चुनौती है।

कोविड-19 के दौरान ठप पड़ी विनाशकारी गतिविधियों के दौरान धरती ने दिखा दिया है कि अगर उसे मौका दिया जाए तो वह अपने घावों को काफी तेजी से खुद ही ठीक भी कर सकती है। अत: यदि मनुष्य और प्रकृति में तादात्म्य बना रहे तो धरती पर जीवन की परिस्थितियां लंबे समय तक बनी रह सकती हैं। इसके लिए अपने सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश के प्रति संवेदनशीलता तथा सरोकार पैदा करने वाले आंदोलनों की जरूरत है।

पूंजीवादी केंद्रों द्वारा लगातार समीमांत की ओर धकेले जा रहे अरबों मनुष्यों को अपने अधिकारों और मानवीय गरिमा के लिए संघर्ष करने के लिए एकजुट करने वाले आंदोलनों की जरूरत है। ऐसे आंदोलन जो हर मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय अधिकारों और न्याय की आवाज बनें। कुछ लोगों के विवेकहीन और बेहिसाब उपभोग के लिए अरबों लोगों के भविष्य को संकट में डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती। सभी मनुष्यों के बीच बराबरी और भाईचारे के लिए लूट के इस तंत्र के खिलाफ संघर्ष करना होगा। ‘वसुधैव कुटुंबकमÓ की भावना को लागू करने के लिए भी वसुधा को अपनी जागीर बना लेने वालों को इन जागीरों से बेदखल करना होगा। जरूरी है कि दुनिया भर के विवेकवान और दूरदर्शी लोगों को देशों, समुदायों और इंसानों की वास्तविक बराबरी की भावना वाली एक वैकल्पिक विश्व-पंचायत का गठन करने की जरूरत है जो युवाओं, विद्यार्थियों और शोधार्थियों के बीच इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विचार-विमर्श की संस्कृति पैदा करने और वर्तमान वैश्विक संस्थाओं तथा सत्ता के केंद्रों पर निरंतर नैतिक दबाव बनाते रहने का काम करे।

 

v.COVID-v~ and Catastrophe Capitalism, by John Bellamy Foster and Intan Suwandi, Monthly Review, June w®w® (Volume |w, Number w)

w.COVID-v~ and Circuits of Capital, by Rob Wallace, Ale& Liebman, Luis Fernando Chaves and Rodrick Wallace, Monthly Review, May w®w® (Volume |w, Number v)

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  2. How a group shapes food policy, Andrew Jacobs, New York Times News Service, https://www.telegraphindia.com/india/how-a-group-shapes-food-policy/cid/v|®z||®?ref=search-page
  3. Three food companies with a climate footprint bigger than the Netherlands, Tom Levitt, https://www.theguardian.com/sustainable-business/w®vz/dec/®|/food-climate-footprint-cargill-tyson-yara-netherlands

{. Two men jailed in UK for horsemeat conspiracy, Kevin Rawlinson, https://www.theguardian. com/uk-news/w®v|/jul/xv/two-men-jailed-in-uk-for-horsemeat-conspiracy

|. Low wages, unsafe conditions and harassment: fashion must do more to protect female workers, Harpreet Kaur, https://www.theguardian.com/sustainable-business/w®v{/mar/®}/fashion-industry-protect-women-unsafe-low-wages-harassment

}. Nestlé admits slavery in Thailand while fighting child labour lawsuit in Ivory Coast, Annie Kelly, https://www.theguardian.com/sustainable-business/w®v{/feb/®v/nestle-slavery-thailand-fighting-child-labour-lawsuit-ivory-coast

~. Supply chain audits fail to detect abuses, says report, Tansy Hoskins, https://www.theguardian. com/sustainable-business/w®v{/jan/vy/supply-chain-audits-failing-detect-abuses-report n

 

अगस्त, 2020

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