सांस्कृतिक हीनता बोध का शिकार एक समाज

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– प्रेम पुनेठा

इधर, उत्तराखंड में जो हो रहा है, उसे कोई अपवाद नहीं माना जाना चाहिए। धर्म, सांप्रदायिकता के सहारे कोई देश नहीं चल सकता। कमसेकम उत्तराखंड से यही संकेत रहा है जो खासा स्पष्ट है।

एक सितंबर को अल्मोड़ा जिले के भिक्यासैण में एक दलित व्यक्ति जगदीश चंद्र की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी जाती है कि उसने एक सवर्ण लड़की गीता से 21 अगस्त को विवाह किया था। इस हत्या को गीता के सौतेले पिता और भाइयों ने अंजाम दिया था। जगदीश चंद्र एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे और एक क्षेत्रीय संगठन उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी से दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुके थे। जगदीश और गीता को इस तरह की प्रतिक्रिया की पहले ही आशंका थी, इसलिए गीता ने सुरक्षा के लिए पुलिस अधीक्षक से 27 अगस्त को प्रार्थनापत्र भी दिया था, लेकिन कोई सुरक्षा भी उन्हें नहीं दी गई। अंत में वही हुआ जिसका भय था और जगदीश चंद्र की हत्या कर दी गई। गीता के परिजनों का लक्ष्य दोनों की हत्या कर देने का था, लेकिन गीता का पता न चल पाने के कारण वह बच गई। यह घटना बताती है कि सामाजिक स्तर पर उत्तराखंड का पर्वतीय समाज अभी भी जड़ता और भेदभाव को लेकर एक पिछड़े स्तर पर ही है। सबसे अधिक दुखद इस पर शासन, प्रशासन और नागरिक समाज के स्तर पर तटस्थता है। यह घटना बताती है कि सामाजिक व्यवस्था में दलित अभी भी अलगाव की स्थिति में हैं और उत्तराखंड राज्य बनने के बाद दलितों में अलगाव बढ़ा ही है। दलितों की वर्तमान स्थिति को समझने के लिए पर्वतीय समाज के स्तरीकरण को समझना ज्यादा जरूरी है।

एक समता मूलक और वर्ण व्यवस्था विहीन समाज किस तरह से विभाजित होता है और प्रभावशाली संस्कृति किस तरह से स्थानीय संस्कृति को अपने आधीन बनाकर उसे बौना साबित कर देती है, इसका सबसे अच्छा उदहारण उत्तराखंड का समाज है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मानव की बसासतें किस तरह से शुरू हुई और कौन-कौन से नृवंशीय और जातीय ‘एथनिकÓ समूह यहां आकर रहने लगे, इस पर कोई लिखित इतिहास मौजूद नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि विभिन्न कालखंडों में यहां शक, खस, दरद, तंगण, पतंगण, कुणिंद समुदाय आकर बस गए और यहीं के होकर रह गए। कुछ व्याकरण के ग्रंथों और महाभारत में यहां के निवासियों की चर्चा जरूर होती है, लेकिन वह कुछ भी स्पष्ट कर पाने में सक्षम नहीं है। यहां के निवासियों के बारे में पहला स्पष्ट विवरण समुद्रगुप्त के इलाहाबाद लेख में मिलता है, जिसमें साम्राज्य की सीमाओं पर दो राज्यों नेपाल और कारतीपुर के बारे में बताता गया है। इनमें कार्तिकेयपुर को कत्यूरी राज्य के तौर पर माना गया है। कत्यूरियों का शासन तीसरी शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक माना गया है और यह गंगा के पूरब से डोटी नेपाल तक फैला हुआ था। इसकी राजधानी प्रारंभ में जोशीमठ थी, लेकिन बाद में यह कार्तिकेयपुर बना ली गई। कत्यूरियों का शासन एक केंद्रीय सत्ता के अधीन नहीं था, बल्कि एक परिसंघ था, जिसमें आठ स्थानीय क्षत्रप थे। संभवत: परिसंघ की व्यवस्था बौद्ध गणतंत्रों के प्रभाव से बनी था, जो मौर्य शासन की केंद्रीय सत्ता के कमजोर होने के बाद सीमांत की ओर फिर से बौद्ध धर्म और व्यवस्थाएं ताकतवर हो गई थीं।

कत्यूरियों को एथनिक तौर विद्वान खस, शक या कुणिंद मानते रहे हैं। इनका उदगम स्थल कुछ भी हो लेकिन ये लोग सूर्य के उपासक थे, जिसका एक कारण हिमालय के पास रहने पर सूर्य की अधिक आवश्यकता हो सकती है या फिर इनका आगमन उस स्थान से रहा हो जहां सूर्य की पूजा की परंपरा रही हो। ऐसा प्रतीत होता है कि कत्यूरियों के समाज का अधिकांश भाग खस समुदाय से बना था, लेकिन उसमें अन्य समुदाय भी शामिल थे। कत्यूरी शासक पाटलीपुत्र का गुप्त साम्राज्य के समकालीन थे। इसलिए चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ ही हिंदू धर्म फिर से प्रभावशाली भूमिका में आ गया और समुद्र गुप्त ने पूरे भारत पर अधिकार कर लिया और इसी क्रम परिधि पर बसे नेपाल और कत्यूरी साम्राज्यों पर भी गुप्त शासकों का ध्यान गया। बौद्ध धर्म के प्रभाव और गणतांत्रिक व्यवस्था के कारण गुप्त और अन्य शासक कत्यूरियों को अपने समकक्ष नहीं समझते थे और हिंदू वर्ण व्यवस्था न होने के कारण कत्यूरियों को असंस्कारी समाज के तौर पर देखते थे।

गुप्त शासकों और कत्यूरियों के बीच संबंध को जयशंकर प्रसाद के नाटक ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से समझा जा सकता है। यह पूरा इतिहास नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। इसमें समुद्र गुप्त के मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त राजा बनता है और अपनी पत्नी के साथ शिकार पर जाता है, शकाधिपति या खसाधिपति, जिसकी राजधनी कार्तिकेयपुर है, रामगुप्त को मारकर ध्रुवस्वामिनी को अपनी राजधानी ले जाता है। जहां वह उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन रामगुप्त का छोटा भाई चंद्र गुप्त उसका वध कर देता है। कार्तिकेयपुर को कत्यूरियों की राजधानी माना गया है और यहां के शासक को इतिहास में शकाधिपति या खसाधिपति कहा गया है। यह निश्चित है कि रामगुप्त कोई कमजोर राजा रहा होगा या किसी राजमहल के षडयंत्र का शिकार हुआ हो। ऐतिहासिक तौर पर यह घटना कितनी सही है, कहा नहीं जा सकता, लेकिन इसने स्पष्ट किया कि गुप्त साम्राज्य की केंद्रीय सत्ता का कत्यूरियों के शासन में हस्तक्षेप था और कत्यूरी शासक गुप्त साम्राज्य के एक करदाता राज्य के तौर शासन करते रहे।

राजनीतिक तौर पर गुप्त शासकों के आधीन होने के बाद भी कत्यूरियों के दौर में यहां की सामाजिक व्यवस्था परंपरागत हिंदू वर्ण व्यवस्था से बाहर थी। तब समाज में केवल दो ही वर्ग थे डोम और खस और उनमें भी कोई सामाजिक भेदभाव नहीं था और उसका कारण बौद्ध धर्म का प्रभाव ही रहा हो। यह एक समतामूलक समाज था, क्योंकि पिछड़ी अर्थव्यवस्था में न तो सामाजिक और न ही आर्थिक शोषण था। कत्यूरी समाज में पहला स्तरीकरण आदि शंकराचार्य ने किया और यहीं से बाहरी लोगों और उनकी संस्कृति के वर्चस्व स्थापित होना और स्थानीय लोगों का सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर निम्न स्तर पर जाना शुरू होता है। आठवी शताब्दी तब यह पूरा इलाका बौद्ध धर्म के प्रभाव में था और तब तक उत्तर भारत में भी बौद्धों का ठीक-ठाक प्रभाव था। शंकराचार्य आठवीं सदी के पूर्वाद्ध में जोशीमठ, तब तक कत्यूरियों की राजधानी यहीं थीं, आए और उन्होंने कत्यूरी शासकों से वार्ता के बाद हिंदू वर्ण व्यवस्था के तहत स्तरीकरण कर दिया। शंकराचार्य के बनाए चार वर्ण में सर्वोच्च स्तर पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, तीसरे स्थान पर खस और चौथे स्थान पर चंडालों को रखा गया। इस व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही वर्ग कत्यूरी समाज में थे ही नहीं और बाहर से आए हुए थे और सांस्कृतिक तौर पर स्वयं को उच्च मानते थे। शंकराचार्य ने स्थानीय समुदाय खस और डोम समुदायों को सामाजिक स्तरीकरण में निम्न स्थान दिया और उनकी संस्कृति को दोयम दर्जे का बना दिया। इस सामाजिक स्तरीकरण का परिणाम यह हुआ कि पूरे उत्तराखंड का हिंदूकरण शुरू हुआ और यहां से बौद्धों का प्रभाव समाप्त हो गया। कुछ ही समय के अंदर बौद्ध विहारों को या तो मंदिरों में बदल दिया गया या वे उपेक्षा के कारण स्वयं ही खंडहर में बदल गए।

अब सवाल यह है कि आखिर कत्यूरियों को शंकराचार्य के हिंदूकरण को स्वीकार्य करने और वर्ण व्यवस्था मानने का कारण क्या रहा होगा। एक तो यह है कि हर शासक को किसी न किसी रूप में धार्मिक सत्ता के अनुमोदन की आवश्यकता होती है। आज के दौर में भी धार्मिक सत्ताओं की ताकत राजनीतिक सत्ता से कहीं ज्यादा है, तो लगभग चौदह सौ साल पहले तो राजसत्ता बिना धार्मिक सत्ता के जीवित रह पाएगी यह कल्पना करना ही बेकार है। इसके अलावा हिंदू वर्ण व्यवस्था में सत्ता सोपान और उत्तराधिकार का नियम किसी भी राजनीतिक सत्ता के लिए आकर्षण का केंद्र है। राजा का दैवीय स्वरूप और सत्ता की स्वीकार्यता और अपने बच्चों के लिए सिंहासन का सुरक्षित हो जाना किसी को भी हिंदू वर्ण व्यवस्था को स्वीकार्य करने की ओर प्रेरित कर सकता हैं। अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो हिंदू सामाजिक व्यवस्था एक अभिजात्य वर्ग पैदा करती है जो वंशानुगत तौर पर उच्चता का दावा करता है और यही उच्चता वह अपने संतानों के लिए सुरक्षित रख लेता है। फिर यह व्यवस्था किसी भी शासक को विद्रोह से भी सुरक्षा प्रदान करती है। ऐसी सुंदर व्यवस्था स्वीकार्य करने में किसी शासक को क्या परेशानी हो सकती है। शंकराचार्य ने जो वर्ण व्यवस्था लागू की वह आज भी कमोवेश वैसी ही है। आज भी ब्राह्मण सबसे उपर हैं और बाहर से चंद, पवार और उनके साथ आए सीमित क्षत्रिय दूसरे स्थान पर, खस, जो अब क्षत्रिय वर्ग में आ चके हैं, तीसरे और चौथे स्थान पर दलित हैं।

जब चंद और पवार शासकों ने कत्यूरियों का स्थान ले लिया तो उन्होंने इस वर्ण व्यवस्था को और अधिक संस्थागत रूप देने का प्रयास किया। चंद और पवार शासकों के साथ एक बार फिर बाहर से ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग आया और स्वाभाविक तौर पर वह उच्च वर्ग पर आसीन हो गया। वास्तव में इन्हीं दोनों शासकों के दौर में स्थानीय समाज का हिंदू धर्म में तेजी से संस्कृतिकरण हुआ। कत्यूरी शासक हिंदू वर्ण व्यवस्था को मानने के बाद भी स्थानीय होने के कारण अपनी पुरानी परंपराओं को नहीं छोड़ पाए, लेकिन चंदों और पवारों के साथ ब्राह्मण और क्षत्रियों का पूरा अभिजात्य तंत्र आ गया था। कुमाउं में चंदों ने स्तरीकरण को और मजबूत किया। उन्होंने बाहर से आए लोगों के हाथ में सत्ता सौंप दी। चंदों ने शासन पर पकड़ होने के साथ ही संस्कृतिकरण की बागडोर ब्राह्मणों के हाथ में सौंप दी। चंदों ने धर्माधिकारी नाम की संस्था का गठन किया और इस पर पद बाहर से आया ब्राह्मण ही आसीन हो सकता था। यह बहुत ही अधिक शक्तिशाली पद था और इस पर धर्म आधारित व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी थी। इसके पास धर्म विरुद्ध कार्य करने पर किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दे सकने की क्षमता भी थी। यह एक तरह की नैतिक और धार्मिक पुलिसिंग थी। इस व्यवस्था ने दलितों की स्थिति खराब कर दी और उन्हें प्राकृतिक संसाधनों और आर्थिक व्यवस्था के लाभों से वंचित करने का काम किया। चंदों के दौर में ही सामाजिक भेदभाव को स्थायीत्व कर दिया गया। इस दौर में दलितों को संपत्तियों से वंचित करने और श्रम साध्य काम दिए गए। धर्माधिकारी का एक अप्रत्यक्ष काम यह भी था कि वह सत्ता के खिलाफ होने वाले विरोधों को शांत करे। यदि उसे लगे कि कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह राज सत्ता को चुनौती दे सकता है तो वह उनकी चुनौती को समाप्त कर दे।

इस दौर में सांस्कृतिककरण का प्रभाव खस समुदाय में पड़ा। बाहर से आए लोग संख्या में काफी कम थे और सेना तथा और अन्य कामों के लिए उन्हें मानव संसाधनों की आवश्यकता थी जो केवल खस समुदाय से ही पूरी हो सकती थी। अभिजात्य वर्ग ने सबसे पहले खस समुदाय के प्रति एक सचेतन प्रयास कर उन्हें असंस्कारी, उज्जड, हिसंक, झगड़ालू और अशिक्षित बताया, यह स्वाभावित तौर पर विजेताओं की विजीत पर लादी गई संस्कृति का ही एक हिस्सा थी। इसके बाद खस समुदाय को ब्राह्मण और ठाकुर, दो हिस्सों में बांट दिया। खस समुदाय के जो लोग स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा करते थे उनकों ब्राह्मण समुदाय में शामिल कर लिया, लेकिन उन्हें बाहर से आए ब्राह्मणों से कम दर्जा दिया गया। इनको छोटा ब्राह्मण माना गया। शेष खस समुदाय को ठाकुरों में मान लिया गया। आज भी अगर जनसंख्या के आधार पर देखा जाए तो पर्वतीय समाज में ठाकुरों की संख्या 55 प्रतिशत के आसपास है और छोटे ब्राह्मणों का प्रतिशत लगभग 65 प्रतिशत है। गोरखों के शासन काल में इस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया। गोरखों ने अभिजात्य वर्गीय ब्राह्मण और ठाकुरों की कई सुविधाओं को समाप्त कर उन पर भी अन्य तरह टैक्स लगा दिए, लेकिन दलितों को कोई सुविधा नहीं मिली।

 

परिवर्तन का दौर

गोरखा शासन के अंत के साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी कुमाऊं में शासन करने लगी और यहीं से दलितों की स्थिति में परिवर्तन होना शुरू हुआ। सबसे पहले अंग्रेजों ने धर्माधिकारी जैसी संस्था को हटा दिया और सभी लोगों को एक समान कानून के तहत लाया गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो कुली बेगार प्रथा है जो हर वर्ग और जाति के लोगों पर लागू की गई। इससे दलितों को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि वे उच्च जातियों की बेगारी तो कई पीढिय़ों से करते आ रहे थे। शिक्षा और स्थास्थ्य बिना किसी जातीय भेदभाव के लोगों को उपलब्ध होने लगी थी। गोया कि दलित कोई बहुत ज्यादा शिक्षा और स्वास्थ्य का लाभ नहीं ले पाए। दलितों की स्थिति में परिवर्तन की शुरुआत उनके ईसाई धर्म अपनाने और स्थानीय निकायों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने से हुई। 1875 आर्य समाज की स्थापना और 1885 में कांग्रेस की स्थापना से दलितों के सवाल पर चर्चा होनी शुरू हुई। आर्य समाज का लक्ष्य दलितों का धर्म परिवर्तन रोकना था, तो कांग्रेस के नेता सीमित संख्या में पढ़े दलितों को बिना राजनीतिक नेतृत्व में लाए अपने पक्ष में रखना चाहते थे।

बीसवीं सदी के शुरुआत में ही 1905 में दलितों ने टम्टा सुधार सभा का गठन किया और 1913 में इसमें सभी दलित वर्ग के लोगों को शामिल करते हुए शिल्पकार सभा का नाम दिया गया। उस समय तक कुमाऊं में दलित आंदेालन के दो बड़े चेहरे खुशी राम आर्य और हरि प्रसाद टम्टा थे। उसी समय आर्य समाज के बड़े नेता लाला लाजपत राय कुमाऊं के मुक्तेश्वर में आए और उन्होंने एक बड़े कार्यक्रम में दलितों को जनेउ पहनाया और इसके बाद कई दलित अपने नाम के आगे जाति के तौर पर आर्य शब्द का प्रयोग करने लगे, लेकिन इसी कार्यक्रम में हरिप्रसाद टम्टा ने जनेउ पहनने से इनकार कर दिया। यहां से दोनों नेताओं के रास्ते अलग-अलग हो गए। एक ओर खुशी राम आर्य ने कांग्रेस का साथ देना शुरू कर दिया, तो दूसरी ओर हरि प्रसाद टम्टा ने अंग्रेजों के सहयोग से दलित समाज सुधार करने को महत्व दिया। यह एक बिडम्बना ही कही जाएगी कि आर्य समाज के कार्यक्रम के बाद भी दलितों की स्थिति में कोई परिर्वतन नहीं हुआ और कांग्रेस के दलितों को साथ रखने के तमाम कार्यक्रम दलितों के नौलों से पानी पीना हो या मंदिर आंदोलन केवल एक प्रतीकात्मक ही बन कर रह गए। इसके विपरीत दलितों के बीच हरि प्रसाद टम्टा ने ज्यादा धरातल पर काम किया। उन्होंने दलितों की शिक्षा और भूमि पर काम किया। टम्टा ने दलितों के लिए अलग भूमि बंदोबस्त करने की मांग की और उनके माध्यम से दलितों को 30 हजार एकड़ भूमि मिली। शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने 150 प्राथमिक स्कूल और प्रौढ़ कक्षाओं का संचालन अंग्रेजों की मदद से किया। हरि प्रसाद टम्टा ने दलितों के लिए सेना में भर्ती के अवसर भी मुहैया करवाए।

हरि प्रसाद टम्टा तत्कालीन संयुक्त प्रांत के वंचित वर्ग के प्रदेश अध्यक्ष थे और 1937 के चुनाव में गोड़ा से सुरक्षित सीट से निर्विरोध जीत हासिल की। इसी चुनाव में बागेश्वर से खुशी राम आर्य कांग्रेस के टिकट पर चुनाव तो जीत गए, लेकिन वे विधायक नहीं बन पाए क्योंकि संपत्ति की शर्त को वे पूरा नहीं कर पाए थे और उनके स्थान पर राम प्रसाद टम्टा को विजयी घोषित कर दिया गया, लेकिन बाद में 1946 में खुशी राम ने राम प्रसाद टम्टा को हरा दिया। आजादी के बाद खुशी राम कांग्रेस के टिकट पर विधायक बन गए, तो हरि प्रसाद टम्टा अल्मोड़ा नगर पालिका के 1945 में अध्यक्ष बने, लेकिन बाद में उनको अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से हटा भी दिया गया।

हरि प्रसाद टम्टा और खुशी राम आर्य, दोनों के व्यक्तित्व की कमी यह थी कि दोनों में से कोई भी दलितों के पक्ष में स्वतंत्र पहल कदमी नहीं ले पाया। जहां खुशी राम कांग्रेस के सहयोग से ही आगे बढऩे की सोचते रहे और वहीं दूसरी ओर हरि प्रसाद टम्टा पूरी तरह से अंग्रेजों के सहयोग पर ही निर्भर थे। उनका मानना था कि दलितों की स्थिति में जो भी परिवर्तन आया है वह वह अंग्रेजों के शासन के बाद ही आया है, इसलिए अंग्रेजों के सहयोग से ही लक्ष्य पाया जा सकता है। लेकिन जब अंग्रेज चले गए तो फिर टम्टा के पास कोई स्पष्ट विचार नहीं रह गए और फिर कांग्रेस के राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मजबूत होने पर टम्टा के लिए कोई जगह बची ही नहीं। टम्टा ने अंग्रेजो के सहयोग के साथ ही एक स्वतंत्र आंदोलन के लिए जगह बनाई होती तो निश्चित तौर पर दलितों के आंदोलन के लिए ज्यादा बड़ी जगह होती।

यदि आजादी की लड़ाई के आंदोलन को देखा जाए तो दलित या तो हाशिये पर रहे या फिर पूरी तरह से तटस्थ रहे। कांग्रेस ने जो भी प्रयास किए वे सार्थक होते नहीं दिखे। उत्तराखंड के दो बड़े आंदोलन कुली बेगार और वन आंदोलन, दोनों में दलितों की भागीदारी नहीं है। सही तथ्य तो यह था कि आजादी या आर्थिक संसाधनों पर स्वामित्व से ज्यादा जरूरी उनके लिए आत्मसम्मान का प्रश्न था जो डोला पालकी जैसे आंदोलनों से दिखाई भी देता है। दूसरा यह भी कहना चाहिए कि कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक या सामाजिक संगठन दलितों के सम्मान के प्रश्न को न तब समझे थे और न अब समझ पा रहे हैं। दलित अभी भी सामाजिक अलगाव के ही शिकार हैं।

 

आजादी के बाद

आजादी के बाद दलितों को दो प्रमुख लाभ संवैधानिक तौर पर मिले। पहला, रोजगार और दूसरा, उच्च और तकनीकी शिक्षा में आरक्षण। इसने दलितों में चेतना का भी विकास हुआ और एक मध्य वर्ग का निर्माण भी हुआ, लेकिन सामाजिक तौर पर कोई भी आंदोलन दलितों के बीच में नहीं आया। 1980 के बाद कांशी राम के नेतृत्व में बहुजन आंदोलन ने दलितों में कांग्रेस से हटकर स्वतंत्र राजनीतिक सोच को जन्म दिया और राज्य बनने से पहले तक दलित बहुजन समाज पार्टी के साथ कुछ समय तक जुड़े भी, लेकिन बसपा के प्रयोगों के लिए पर्वतीय क्षेत्र में कोई जगह नहीं थी। बसपा ने उत्तर प्रदेश में कभी पिछड़े, कभी मुसलमान, कभी ब्राह्मण को लेकर प्रयोग किए, जिनके लिए उत्तराखंड में कोई जगह ही नहीं थी। बसपा ने उत्तराखंड में ठाकुरों को लेकर प्रयोग करने का प्रयास किया, लेकिन वह बुरी तरह से असफल हो गया। उत्तराखंड के पर्वतीय समाज में सवर्ण पूरी तरह से पहले कांग्रेस के साथ थे और बाद में भाजपा के साथ जुड़ गए।

आजादी के बाद पहाड़ी इलाकों में तीन बड़े आंदोलन हुए। पहला चिपको आंदोलन, दूसरा नशा नहीं रोजगार दो और तीसरा उत्तराखंड राज्य का आंदोलन। इसमें से पहले दो आंदोलनों में दलितों ने कोई भागीदारी नहीं की। चिपको आंदेालन स्थानीय संसाधनों में स्थानीय लोगों के अधिकार का आंदोलन था, लेकिन दलित तो संसाधनों से वंचित थे तो वे इस आंदोलन में किस तरह से प्रतिभाग करते। कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर जरूर भागीदारी की। इसी तरह नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन में भी दलितों की भागीदारी थी नहीं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि 1920 से लेकर 2000 तक दलितों की उत्तराखंड के विभिन्न आंदोलनों में भागीदारी कुछ भी नहीं थी और आंदोलनकारियों ने इसे समझने का प्रयास भी नहीं किया और अगर किया तो दलितों के सवालों को सुलझाने का प्रयास क्यों नहीं हुआ।

सबसे खराब तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन में हुआ। 1980 में राजनीतिक तौर पर चले इस आंदोलन का चरम 1994 में आया। राज्य की मांग से पहले यह आरक्षण विरोध से शुरू हुआ और तेजी से अलग राज्य की मांग में बदल गया। अगर यह कहा जाए कि 1994 का अलग राज्य आंदोलन अपने अंदर आरक्षण विरोध लिए था, तो गलत नहीं होगा। यही कारण है कि इस आंदोलन से दलित न केवल दूर रहे बल्कि इस आंदोलन का विरोध करते रहे। इस विरोध की अगुवाई प्रदीप टम्टा कर रहे थे। आंदोलन के दौर में ही उन्होंने रामनगर में सम्मेलन कर अलग राज्य आंदोलन के आरक्षण विरोधी होने पर सवाल उठाए थे। तब उत्तराखंड के अंदर एक अलग और परंपरागत राजनीति से हटकर धारा दिखायी दे रही थी लेकिन जल्दी ही प्रदीप टम्टा ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और एक अलग धारा लुप्त हो गई। अगर इस धारा को सही ढंग से विकसित किया गया होता तो उत्तराखंड राज्य में दलितों के प्रतिनिधित्व का चरित्र कुछ और ही होता यानी कांग्रेस या भाजपा या कोई भी चुनाव जीतता, लेकिन दलितों के पास एक मजबूत दबाव समूह होता।

 

शोषणविहीनता का मिथक

उत्तराखंडी समाज के बारे में यह मिथक बनाया हुआ है कि यहां एक समानतावादी और शोषणहीन समाज था और दलितों का उस तरह से शोषण नहीं हुआ जैसा भारत के अन्य इलाकों में हुआ था। यह एक गलत धारणा है। दलितों के शोषण को उनके अंदर के विभाजन को देखकर समझा जा सकता है। पर्वतीय इलाकों में दलितों को दो भागों में बांटा जा गया है। खलेत और मांगखानी। खलेत यानी जो खलिहान पर निर्भर हैं और मांगखानी यानी मांग कर खाने वाला। खलेत में आने वाली दलित जातियां खेती के लिए उपकरण बनाती थीं या हल जोतने का काम करती थीं और फसल तैयार होने पर उनको अनाज मिल जाता था। इसी आधार पर कहा जाता है कि खेती में दलित और सवर्ण वर्ग, दोनों सहयोग करते थे और खेती कर पाते थे। उत्तराखंड में खेती एक पिछड़ी अवस्था में रही और उसमें अतिरिक्त उत्पादन था ही नहीं, इसलिए आर्थिक तौर पर शोषण का प्रश्न ही नहीं था, लेकिन अदृष्य शोषण मौजूद था। पिछड़ी अर्थव्यवस्था में दलितों के पास उत्पादन के उपकरण थे और सवर्णों के पास संसाधन। समाज में मुद्रा का प्रचलन न होने के कारण विनियम अनाज या वस्तुओं के रूप में होता था। लेकिन खलेत का फसल में कितना हिस्सा होगा यह कहीं निश्चित नहीं था और जो भी दिया जाता था वह स्वामी की इच्छा पर निर्भर था। श्रम करने का सारा दारोमदार या तो दलितों पर था महिलाओं पर।

मांग कर खाने वाली दलित जातियों में हुड़किया थे जो नाचने गाने का काम करते थे। इसी को आज उत्तराखंड की संस्कृति बताया जा रहा है। यह कैसी संस्कृति है जो केवल मांगने के काम आती है। ये लोग उपने स्वामियों के यहां जाकर उनको खुश करने के लिए गाते थे। इनके गीतों और नृत्य में कभी इनके वर्ग के सुख-दुख शामिल नहीं थे। सवर्ण के लिए हुड़का बजाना वर्जित था। कुछ लोगों ने वामपंथ के प्रभाव में आकर हुड़का बजाया, उसके माध्यम से वामपंथ की संस्कृति का जो मतबूत करने का काम किया उसमें दलितों के सवाल तो आए ही नहीं। आज भले ही छलिया या हुड़का को कुमाऊं की संस्कृति माना जाए, लेकिन उसमें सवर्ण शामिल नहीं हैं।

आजादी के बाद जब दलितों को रोजगार और शिक्षा में आरक्षण मिला और मौद्रिक व्यवस्था शुरू हुई तो उन्होंने परम्परागत व्यवसायों को त्याग दिया क्योंकि ये व्यवसाय अधिक श्रम और कम उत्पादन देते थे। दूसरे, मुद्रा के कारण वह वस्तुओं को खरीदने की स्थिति में आ गया। दलितों के साथ-साथ पिछड़ी खेती महिलाओं के लिए भी बोझ थी, इसलिए इन दोनों वर्गों का श्रम साध्य और अनुत्पादक खेती से मोहभंग हो गया और नतीजा यह है कि पहाड़ में खेती करने वाले लोग बचे ही नहीं।

राज्य बनने के बाद दलितों का अलगाव बढ़ा ही है। सवर्ण बहुल राज्य में वे सरकार को बनाने या बिगाडऩे की स्थिति में नहीं हैं। दूसरा, पूरी राजनीति दो राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा तक सीमित रह गई है और दोनों का लक्ष्य सवर्ण मतदाताओं को रिझाने तक सीमित है। दलित मतदाता आरक्षित सीटों को छोड़ कर कहीं भी समीकरण बिगाडऩे की स्थिति में नहीं हैं। फिर भाजपा ने उत्तराखंड को अपने सवर्ण समर्थक एजेंडा को लागू करने की प्रयोगशाला बना रखा है और कांग्रेस का काम सिर्फ भाजपा के एजेंडे की नकल करना भर रह गया है। स्थिति यह है कि सवर्ण मतदाताओं के दबाव में भाजपा ने पदोन्नति में आरक्षण का विरोध किया है। इस सवर्ण मानसिकता का ही परिणाम है कि साथ बैठने कर खाना खाने में ही दलित की हत्या कर दी जाती है, दलित भोजन माता के हाथ का खाना बच्चे नहीं खाते हैं। दलितों को मंदिर में प्रवेश से रोका जाता है। इन सबका प्रतिकार जिस स्तर पर एक नागरिक समाज को करना चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।

दलितों में भी कोई स्वतंत्र पहल किसी स्तर पर नहीं हो रही है। भाजपा और कांग्रेस के साथ मिलकर दलित भी खुद को स्थानीय के स्थान पर बाहर से आया हुआ बताने लगे हैं। ब्राह्मण और क्षत्रिय तो बाहर से आए हैं, की भावना से भरे हुए थे, अब दलित भी खुद हो बाहरी बताने लगे। सब बाहर से ही आए हैं तो स्थानीय कौन हैं। दलितों के अंदर इस अलगाव को रोकने को नागरिक समाज को ही कुछ गहरे संवाद दलितों के साथ शुरू करने होंगे, नहीं तो यह अलगाव और ज्यादा हो जाएगा।

सितंबर के अंत में पौड़ी जिले के ऋषिकेश के पास एक रिसोर्ट में काम करने वाली लड़की अंकिता की हत्या हरिद्वार के भाजपा नेता के बेटे और रिसोर्ट मालिक ने कर दी। इस पर जनता और शासन की तीखी प्रतिक्रिया हुई। भाजपा ने उसे और उसके बेटे को पार्टी से निकाल दिया। उनका रिसोर्ट बुलडोजर चलवा कर ध्वस्त कर दिया। जनता ने अभियुक्तों को ले जा रही पुलिस की गाड़ी रोक कर उनकी बुरी तरह से पिटाई कर दी। हत्या किसी की भी हो वह अक्षम्य है, फिर जगदीश चंद्र पर तटस्थता और अंकिता पर सक्रियता क्या दलितों के हाशिये पर रहने और राज्य में उनके अलगाव में जाने का परिचायक नहीं है।

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