रावत रावत, आवत जावत

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दो दशक में दस मुख्य मंत्रियों का रिकार्ड बनानेवाला राज्य

– प्रेम पुनेठा

आश्चर्यजनक किंतु सत्य की तर्ज पर हुए एक घटनाक्रम में उत्तराखंड में भाजपा ने नेतृत्व परिवर्तन किया। पिछले चार वर्ष से मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर एक नए रावत तीरथ सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया गया। तीरथ सिंह रावत वर्तमान में पौड़ी से सांसद हैं। यह काम इसलिए भी चौंका रहा है कि अब तक भाजपा अपने राज्यों में परिवर्तन से बचती रही है और मुख्यमंत्रियों को लगातार अपना कार्य करने दिया जाता है। यह भी सही है कि तमाम गुटबाजी के बाद भी भाजपा में कांग्रेस की तरह दिल्ली की दौड़ नहीं लगती रहती है और सार्वजनिक तौर पर असहमति से बचने का प्रयास किया जाता है और असहमतियों को पार्टी के मंच पर ही उठाया जाता है। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी प्रदेश सरकार के मुखिया को दिल्ली बुलाकर उन्हें हैसियत दिखाने का काम नहीं करता है, लेकिन इस बार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिवेंद्र के माध्यम से बता दिया है कि शासन का बॉस कौन है?

उत्तराखंड के नेतृत्व परिवर्तन के घटनाक्रम को देखें तो यह बहुत ही चौंकाने वाला है। प्रदेश सरकार ने अपना बजट सत्र राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैण में बुलाया था। मुख्यमंत्री के पास ही वित मंत्रालय भी है, इसलिए राज्य का बजट भी उन्होंने ही पेश किया। बजट पर बहस होनी थी और उसे पारित करना था लेकिन इसी बीच मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को देहरादून बुला लिया गया और उनके साथ ही अन्य विधायकों को भी देहरादून आने की सूचना दे दी गई। हालत यह थी कि बजट सत्र में विपक्षी कांग्रेस के विधायक गैरसैण में ही थे और भाजपा के मंत्री और विधायक देहरादून पहुंच चुके थे। बजट सत्र को जल्दबाजी में अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। देहरादून में पार्टी के प्रभारी और केंद्रीय पर्यवेक्षक तथा सांसद भी देहरादून पहुंच चुके थे। वहां की बैठक के बाद केंद्रीय पर्यवेक्षकों ने केंद्रीय नेतृत्व को अपनी रिपोर्ट सौंप दी और इसके बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत को दिल्ली जाना पड़ा। इसके साथ ही परिवर्तन की चर्चाएं तेज हो गईं और एक हफ्ते के अंदर ही 10 मार्च को एक नए रावत तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। इससे साफ है कि छोटे राज्य किस सीमा तक अपने केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भर हैं।

उत्तराखंड राज्य को बने बीस वर्ष हो चुके हैं और कांग्रेस और भाजपा यहां दस-दस वर्ष तक शासन कर चुके हैं। और हां, दस मुख्यमंत्री बन चुके हैं या बनाए चुके हैं। पहला चुनाव होने से पहले ही दो मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी और भगत सिंह कोश्यारी बनाए जा चुके थे। पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी और नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने, तो हरीश रावत नाराज हो गए। दरअसल नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस हाईकमान की पसंद थे और इसलिए वह अपना कार्यकाल पूरा कर पाए। लेकिन पूरे पांच वर्ष तक हरीश रावत और उनके समर्थक नारायण दत्त तिवारी का विरोध करते रहे। एनडी तिवारी के बड़े कद के कारण उनको हटाया नहीं जा सका लेकिन हर छह महीने में इस बात की अफवाह अवश्य उड़ती रही कि तिवारी को हटाया जा सकता है। इसके बाद 2007 के चुनाव में भाजपा विजयी रही और एक बार फिर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया और कोश्यारी जी नाराज हो गए। उस समय खंडूड़ी लोकसभा के सदस्य थे। तिवारी और खंडूड़ी, दोनों जब मुख्यमंत्री बने तो विधानसभा के सदस्य नहीं थे और केंद्रीय नेतृत्व की ही पसंद थे। भाजपा के इस कार्यकाल में तीन मुख्यमंत्री बनाए गए। पहले खंडूडी, फिर रमेश पोखरियाल निशंक और फिर खंडूड़ी। तीनों ही बार नेतृत्व का चुनाव भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने किया। इसके बाद 2012 में हुए चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली और मुख्यमंत्री एक बार फिर केंद्रीय नेतृत्व ने ही किया। ताज मिला विजय बहुगुणा को, जो सांसद थे और एक बार फिर हरीश रावत नाराज हो गए। रावत की इच्छा दो साल बाद 2014 में पूरी हो गई। कांग्रेस ने बहुगुणा को हटाकर रावत को मुख्यमंत्री बना दिया। रावत और बहुगुणा, दोनों ही सांसद थे और केंद्रीय नेतृत्व की पसंद थे।

2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला और पहली बार त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री चुना गया। त्रिवेंद्र सिह रावत ने विधानसभा का चुनाव लड़ा था। केंद्रीय नेतृत्व की पसंद होने के बाद भी पहली बार मुख्यमंत्री निर्वाचित सदस्यों से बनाया गया, अन्यथा मुख्यमंत्री दिल्ली से ही आता था। त्रिवेंद्र सिंह रावत के चुनाव से यह अनुमान लगाया गया कि वह निश्चित ही अपना कार्यकाल पूरा करेंगे लेकिन चार साल पूरा होने से पहले ही उन्हें हटा दिया गया और वह भी बहुत अजीबो-गरीब तरीके से, जब केवल एक सप्ताह के बाद ही उनके चार साल पूरे होने वाले थे और सरकार इसका जश्न मनाने की तैयारी कर रही थी।

छोटे राज्यों में अस्थिरता होना कोई नई बात नहीं है। गोवा हो या पूर्वात्तर के राज्य, वहां सरकारों का बनना और बिगडऩा समान्य बात है। जनादेश किसी का होता है और सरकारें कोई और बना लेता है। छोटी विधानसभा में कुछ ही सदस्यों के पाला बदल लेने या व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा सरकार गिराने का पर्याप्त आधार तैयार कर लेता है। उत्तराखंड जैसे राज्य जो दिल्ली के बहुत ही नजदीक है और जहां राष्ट्रीय दल ही सत्ता के भागीदार बने हुए हैं वहां मुख्यमंत्री को अपने विधायकों के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व को भी लगातार साधना पड़ता है। अगर थोड़ी सी भी चूक हुई तो मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ता है, जैसे त्रिवेंद्र सिह रावत के साथ हुआ।

उत्तराखंड में केंद्रीय नेतृत्व के हावी होने का एक बड़ा कारण आर्थिक भी है। राज्य को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के लिए हमेशा केंद्र पर निर्भर रहना होता है। राज्य में चलने वाली अधिकांश योजनाएं या तो केंद्र प्रायोजित होती हैं या केंद्र के अनुदान पर निर्भर रहती हैं। इसलिए हर मुख्यमंत्री के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह केंद्र के साथ बेहतर संबंध बनाकर रखे। इसलिए स्थानीय स्तर पर कई बार जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं और सरकारें अलोकप्रिय हो जाती हैं। इस अलोकप्रियता से बचने का केंद्रीय नेतृत्व के पास केवल एक ही उपाय है कि नेतृत्व परिवर्तन कर दिया जाए।

मुख्यमंत्रियों में लगातार परिवर्तन का एक कारण पूरी राजनीति व्यवस्था का चुनाव आधारित हो जाना है। हर राजनीतिक पार्टी सिर्फ चुनाव में जीत को ही ध्यान में रखती है। जबकि राजनीति का लक्ष्य विकास और लोगों को गुणवत्तायुक्त शासन प्रदान करना होना चाहिए। यहां कुछ प्रतिशत मतों के अंतर से सत्ता में पार्टी आती है और सत्ता से बाहर हो जाती है। इसलिए कई तरह के समीकरणों कुमाऊं-गढ़वाल, ब्राह्मण-ठाकुर और दलितों को साधना पड़ता है। यही कारण है कि राज्य बनने के बाद पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को चुनाव से कुछ समय पहले हटाकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया गया ताकि पहाड़ी मतदताओं को साधा जा सके। इसी तरह खंडूड़ी को लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद हटा दिया गया और पार्टी की हालत सुधारने के लिए रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया। जब लगा कि निशंक यह कर पाने में असमर्थ हो रहे हैं तो खंडूड़ी को फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। और खंडूड़ी खुद भी हार गए और भाजपा की सरकार भी नहीं बन पायी। केदारनाथ की आपदा के शिकार विजय बहुगुणा बने और हरीश रावत अपना पार्टी का कुनबा ही नहीं संभाल पाए और चुनाव हार गए।

भले ही चुनाव को ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री बदला जाता रहा हो लेकिन अब तक इसके परिणाम ठीक नहीं हुए हैं। जनता ने सरकारें ही नहीं बदलीं बल्कि मुख्यमंत्रियों को भी पराजय का समाना करना पड़ा। 2012 में भुवन चंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री रहते चुनाव हार गए और 2017 में हरीश रावत दो जगहों से मुख्यमंत्री रहते हुए पराजित हुए। इसका सीधा अर्थ है कि केंद्रीय नेतृत्व का यह सोचना कि केवल अलोकप्रिय हो रहे नेतृत्व को बदल दिया जाए तो चुनाव में इच्छित परिणाम पाया जा सकता है, गलत है। त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने के बाद नए मुख्यमंत्री उनके फैसलों को लगातार बदल रहे हैं। एक सप्ताह के अंदर ही देव स्थानम बोर्ड को समाप्त करना, कुंभ में आने पर प्रतिबंध हटाने, जिला विकास प्राधिकरणों को बदलने और कोरोना काल में दायर मुकदमे वापस लेना प्रमुख हैं। ऐसा लगता है कि त्रिवेंद्र सिंह की सारी अलोकप्रियता इन्हीं कुछ निर्णयों के कारण थी और इनको हटा दिया जाएगा तो भाजपा के प्रति नाराजगी कम हो जाएगी।

उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत की सबसे बड़ी नाकामी अनिर्णय की स्थिति में रहना है। अपने चार वर्ष के कार्यकाल में वह पूरा मंत्रिमंडल भी नहीं बना सके। पहले मंत्रियों के दो पद खाली थे और फिर प्रकाश पंत की मृत्यु के बाद एक और पद खाली हो गया। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में एक तिहाई मंत्री पद खाली रखने के कारण मुख्यमंत्री पर ही बोझ बढ़ गया और उसका असर कामकाज पर दिखाई देने लगा। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने विधायकों की नाराजगी से बचने के लिए मंत्री ही नहीं बनाए और जैसा होता है घबराया हुआ बल्लेबाज हिटविकेट हो जाता है और त्रिवेंद्र सिंह रावत भी हिट विकेट हो गए। काम का बोझ ज्यादा अपने उपर ले लेने से मुख्यमंत्री नौकरशाही पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो गए और कई ऐसे फैसले लिए गए जिनसे जनता और पार्टी के विधायक और सांसद ही नाराज हो गए, जैसे कुमाऊं और गढ़वाल के चार जिलों को मिलाकर कमिश्नरी बनाना।

 

उत्तराखंड में स्थानीय

यहां यह सवाल प्रमुख है कि अगर चुंनाव ही इतनी ही चिंता थी तो त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने में कहीं देर तो नहीं कर दी? भाजपा को परेशानी कि यह चुनावी वर्ष है और विधानसभा चुनाव मे केवल एक ही वर्ष बचा है। इस एक वर्ष में ही तीरथ सिंह रावत को सत्ता के प्रति विपरीत रुझान को बदलना होगा। भले ही भाजपा के बड़बोले नेता 2022 में साठ से ज्यादा सीटें लाने का दावा कर रहे हों लेकिन यह बात निश्चित है कि सरकार से नाराजगी के साथ ही कई विधानसभा सीटों पर वर्तमान विधायकों से भी जनता बहुत नाराज है। इस नाराजगी को दूर करना तीरथ सिंह रावत के लिए हिमालयी चुनौती होगी। इस बीच किसान आंदोलन की धमक हरिद्वार और उधमसिंह नगर में सुनाई देने लगी है और अगर 2022 के चुनाव से पहले इसका कोई सम्मानजनक हल नहीं निकला तो भाजपा की इन दो जिलों की 20 विधानसभा सीटों पर गंभीर समस्या का सामना करना पड़ेगा।

भाजपा ने इन स्थितियों को भांपते हुए बंशीधर भगत को हटाकर हरिद्वार से विधायक मदन कौशिक को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर मैदान को सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही अब मैदान केंद्रित राजनीति करने लगे हैं। 2017 के चुनाव में हरीश रावत ने किच्छा और हरिद्वार देहात, दो स्थानों से चुनाव लड़कर उधम सिंह नगर और हरिद्वार को साधने की कोशिश की लेकिन वह बुरी तरह से असफल हुए और दोनों विधानसभाओं में हार गए। अब भाजपा का यह दांव कितना सफल होगा इसके लिए 2022 के चुनाव की प्रतीक्षा करनी होगी।

अगर मध्य हिमालय के दो पर्वतीय राज्यों उत्तराखंड और हिमाचल की तुलना की जाए तो स्थिति बहुत ही विपरीत दिखाई देती है। हिमाचल में लगभग पचास वर्ष में केवल छह मुख्यमंत्री के चेहरे हैं और उन्होंने ही इतने समय तक शासन किया। इसके विपरीत उत्तराखंड में केवल बीस वर्ष में दस मुख्यमंत्री बनाए जा चुके हैं। मुख्यमंत्री का कार्यकाल कम होने का सीधा प्रभाव विकास पर पड़ता है। किसी भी योजना के धरातल तक पहुंचते न पहुंचते मुख्यमंत्री बदल जाता है और योजना या तो त्याग दी जाती है या आधी अधूरी ही रह जाती है। नया मुख्यमंत्री पुरानी नीतियों में परिवर्तन कर देता है। शासन में लगातार परिवर्तन होने से प्रशासन भी कमजोर हो जाता है। उत्तराखंड जैसे नए राज्य में अधिकतर मुख्यमंत्रियों के पास महत्त्वाकांक्षाएं तो बहुत बड़ी-बड़ी थीं लेकिन शासन का अनुभव बहुत कम। इस कारण नौकरशाही पर उनकी पकड़ बहुत ही कम रही और नौकरशाहों ने उन्हें अपने तरीके से नचाया।

चुनावी वर्ष में तीरथ सिंह रावत को सबसे पहले अल्मोड़ा जिले के पश्चिमी क्षेत्र सल्ट के चुनाव से निपटना है और अपने लिए सुरक्षित विधानसभा सीट देखकर विधानसभा का सदस्य भी बनना है। इसके बाद वह जब लोकसभा से इस्तीफा देंगे तो उसका चुनाव भी इसी वर्ष होगा। इसके साथ ही अगले वर्ष होने वाले राज्य विधानसभा के चुनावों की रणनीति और प्रत्याशियों की तैयारी करनी होगी। जो भी करना होगा ताबड़तोड़ करना होगा। उनके सभी कामों पर केंद्रीय नेतृत्व की नजर भी रहेगी।

अप्रेल, 2021 अंक में प्रकाशित

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