- प्रेम पुनेठा
फरवरी, 2021 की सात तारीख को उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर खिसकने से ऋषि गंगा नदी में आई बाढ़ से भारी तबाही हुई। इस तबाही में दो जल विद्युत परियोजनाएं बर्बाद हो गईं और 200 से ज्यादा लोग लापता हो गए। अभी तक 64 शव बरामद हो चुके हैं और शवों को खोजने का काम लगातार जारी है। इस तबाही में जो गांव प्रभावित हुए हैं उसमें एक रेणी गांव भी है। इस गांव को चिपको आंदोलन का जन्मदाता भी कहा जा सकता है। 1973 में इसी गांव से गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने ठेकेदार को पेड़ काटने से रोक दिया। एक समय रेणी गांव, गौरा देवी और चिपको एक दूसरे के पर्याय बने थे। आज इसी रेणी गांव के नीचे ऋषि गंगा पर 14 मेगावाट की परियोजना बन रही थी और उस के आगे तपोवन विष्णु प्रयाग में राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) की 512 मेगावाट की परियोजना बन रही थी। जोशीमठ के निवासी बताते हैं कि इन परियोजनाओं के निर्माण में बांध बनाया गया और सुरंग बनाने में विस्फोटकों का इस्तेमाल किया गया। इसको लेकर काफी समय से चेतावनी दी जा रही थी कि इससे विनाश ही होगा लेकिन सरकारों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
रेणी से शुरू हुए चिपको आंदोलन और आज ऋषि गंगा की तबाही से लगता है कि समय ने रेणी को बचाने से लेकर उसके बर्बाद होने का एक पूरा चक्र पूरा कर लिया है। सन 1973 में जब महिलाओं ने वनों को काटने से रोका था तो उनका कहना था कि जंगल हमारा मायका है और हम इसे नहीं कटने देंगे। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि जंगल के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। महिलाओं का यह कथन पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की वास्तविकता को बताने के लिए काफी है। पर्वतीय अर्थव्यवस्था खेती पर आधारित थी और है लेकिन इसकी पूर्णता जंगल के उत्पादों से मिलकर होती है और यह एक कमजोर अर्थव्यवस्था है। इस बात को महिलाओं से बेहतर कौन समझ सकता था क्योंकि खेती-किसानी का सारा बोझ उन्हीं पर था। इसलिए वे जंगल को बचाना चाहती थीं ताकि कमजोर अर्थव्यवस्था की रक्षा की जा सके। उनका पेड़ बचाने का प्रयास जंगल में अपने आर्थिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के साथ ही यह कहना भी था कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों का हक होना चाहिए। एक वाक्य में कहा जाए तो यह जंगलों में स्थानीय लोगों के हक-हकूक का आंदोलन था। भारत की आजादी की लड़ाई के मूल में भी यही था कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों का हक होना चाहिए और इन हकों की रक्षा स्थानीय लोग ही करेंगे।
उत्तराखंड में औपनिवेशिक काल में ही स्थानीय लोगों का सत्ता प्रतिष्ठान के साथ जंगलों में हक-हकूक को लेकर संघर्ष शुरू हो गया था। औपनिवेशिक सत्ता को जंगल लाभकारी संसाधन के तौर पर दिखायी दे रहे थे और जनता को यह अपने अस्तित्व का आधार लग रहा था। औपनिवेशिक सत्ता ने 1864 में पहली बार जंगलों पर अधिकार करना शुरू किया। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि लोग जंगल के प्रति संवेदनशील नहीं हैं और इसका बेहतर प्रबंधन केवल सरकार कर सकती है। प्रारंभ में लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन हर बार सरकारी जंगल का क्षेत्रफल बढ़ता गया और लोगों के पास जंगल कम होता चला गया। लोगों के संघर्ष के बाद वन पंचायतों का गठन कर इस तथ्य को स्वीकार किया गया कि जनता का जंगल में हक-हकूक है और इनकी रक्षा की जानी चाहिए। गोया कि वन पंचायतों से पूरी तरह अधिकार नहीं मिले लेकिन इसने लोगों की कुछ राहत दी।
संघर्ष भले ही किसी नाम से किया जाए लेकिन सर्वमान्य तथ्य तो यह है कि सत्ता का चरित्र हमेशा एक ही रहता है। यही कारण है कि औपनिवेशिक सत्ता से आजादी मिलने के बाद भी भारतीय शासकों का व्यवहार वन और मानव के बीच एक सा ही रहा। आजाद भारत का सत्ता प्रतिष्ठान भी अपने व्यवहार में यही मानता रहा कि जंगल का सबसे अच्छा प्रबंधन तो केवल सरकार और उसका महकमा ही कर सकता है इसलिए आदमियों को जंगल से दूर रखा जाना चाहिए। इसके विपरीत स्थानीय लोगों में यह सोच थी कि आजादी के बाद सत्ता प्रतिष्ठान औपनिवेशिक दृष्टिकोण से मुक्त होकर नए सिरे से काम करेगा, लेकिन यह हो नहीं सका।
‘हक–हकूक’ का आंदोलन
चिपको आंदोलन वास्तव में जंगल में स्थानीय लोगों के हक-हकूक (परंपरागत अधिकारों) का आंदोलन था। रेणी गांव के बाद यह आंदोलन जब आगे बढ़ा था तो इसमें सर्वोदयी और वाम दलों ने स्पष्ट भागीदारी की। दोनों ही विचारधाराओं के लोग जंगल में अधिकारों की बात करते थे। तब सर्वोदयी वन आधारित लघु उद्योग पर्वतीय क्षेत्र में लगाने की वकालत करते रहते थे और वाम दलों का स्पष्ट मानना था कि जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय लोगों का अधिकार होना चाहिए। सर्वोदयी और वाम विचारधारा के लोग कहीं मिलकर, तो कहीं समानांतर काम कर रहे थे। तब कहीं-न-कहीं तक यह पर्यावरण का आंदोलन नहीं था। ऐसा नहीं है कि इस आंदोलन में पर्यावरण का तत्व नहीं था लेकिन वह प्राथमिक न होकर द्वितीयक था। यह माना जाता रहा कि अगर जंगल में स्थानीय लोगों का अधिकार होगा तो वे स्वाभाविक तौर पर वनों की रक्षा करेंगे और पर्यावरण स्वयं ही सुरक्षित हो जाएगा।
इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाया गया आपातकाल देश के लिए तो खराब था ही चिपको आंदोलन के लिए और भी खराब सिद्ध हुआ। सबसे पहले हर तरह के आंदोलन रुक गए और इसमें शामिल दो प्रमुख विचारधाराएं कम या अधिक आपातकाल के पक्ष में ही थीं। चिपको आंदोलन में वाम विचारधारा का प्रतिनिधित्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) कर रही थी जो खुलकर आपातकाल के समर्थन में खड़ी थी। इसलिए चिपको को लेकर वह कोई आंदोलन चलाएगी यह संभव नहीं था। फिर कम्युनिस्ट पार्टी जैसी केंद्रीयकरण विचार की पार्टी में निचले स्तर के कार्यकर्ताओं के लिए केंद्रीय नेतृत्व की अवहेलना संभव भी नहीं थी। परिणामस्वरूप आपातकाल में चिपको आंदोलन के लिए कोई काम नहीं हो पाया। सर्वोदयी आंदोलन के सबसे बड़े नेता आचार्य विनोवा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ ही घोषित कर दिया था। इसलिए आपातकाल के दो साल के दौरान चिपको सुप्तावस्था में रहा।
आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी की विदाई तो हो गई लेकिन नई सरकार पहले से ज्यादा प्रतिक्रियावादी साबित हुई। इसके बावजूद आपातकाल के बाद चिपको आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा और इस बार इसकी बागडोर युवाओं के हाथ में थी। कारण यह था कि आपातकाल का समर्थन करने के कारण सीपीआई राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर अपनी विश्वसनीयता खो चुकी थी। कमोबेश सर्वोदयी नेतृत्व भी इसी स्थिति में पहुंच चुका था।
दूसरी ओर सरकार को अब तक यह समझ आ चुका था कि अगर जंगल में अधिकार का आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो सरकार के लिए समस्या पैदा हो जाएगी। सरकार यह किसी भी कीमत पर होने नहीं देना चाहती थी। इधर आंदोलन हिंसक भी हो रहा था। इसलिए एक सचेतन प्रयास शुरू किया गया कि इस हक-हकूक के आंदोलन को किसी भी तरह से दूसरी दिशा की ओर मोड़ दिया जाए और सबसे आसान था कि इसे पर्यावरण का आंदोलन बना दिया जाए।
सर्वोदयी नेतृत्व की भूमिका
चिपको को पर्यावरण का आंदोलन बनाने के लिए सर्वोदयी नेताओं को चुना गया। वैसे भी सर्वोदयी हमेशा से सत्ता के लिए ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम करते रहे थे। 1940 में युद्ध विरोध के कारण कांग्रेस की प्रदेश सरकारों ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस की स्थिति कमजोर होने लगी तो कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया ताकि जनता को लगे कि वह कुछ राजनीतिक गतिविधियां कर रही है और इसमें सबसे पहले गिरफ्तारी देने वाले विनोवा भावे थे। इसके बाद आजाद भारत में सरकार ने जमींदारी खत्म करने के कानून बनाए तो सर्वोदयी नेताओं ने भूदान आंदोलन शुरू कर दिया और अंत में आपातकाल का समर्थन। सर्वोदयी हमेशा सरकार, विशेष तौर पर कांग्रेस की राह आसान करने में लगे रहे। एक तरह से सर्वोदय कांग्रेस का एनजीओ (गैर-सरकारी संगठन) बन कर रह गया था। चिपको आंदोलन को हक-हकूक के आंदोलन से शुद्ध पर्यावरण के आंदोलन तक सीमित करने की जिम्मेदारी सर्वोदयी नेताओं की ही है।
सरकार ने बहुत ही सचेतन तौर पर चिपको की छवि देश और दुनिया में इस तरह से बनाने का प्रयास किया कि यह केवल पर्यावरण का ही आंदोलन है। इसके लिए एक ओर सर्वोदयी नेताओं को चिपको नेताओं के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया गया। इसके लिए देश की राजधानी दिल्ली और महानगरों के पत्रकारों से लेकर विश्व के प्रतिष्ठित अखबारों और रेडियो कार्यक्रमों का सहारा लिया गया। 1978 तक चिपको का मतलब सिर्फ सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट होकर रह गया। इन दो नेताओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतना प्रचारित-प्रसारित किया गया कि सिर्फ मात्र ये दो ही चिपको के नेता बन गए। दोनों ही नेताओं के अपने अपने समर्थक पत्रकार और रचनाकार थे, जो उन्हें स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। अगले कुछ वर्ष इन दोनों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण से संबंधित पुरस्कार समेटने से फुर्सत नहीं मिली।
सीपीआई और अन्य वामपंथियों का हाशिये पर चला जाना और सरकार का सचेतन तरीके से हक-हकूक की बात करने वाली महिलाओं का तिरस्कार करने का परिणाम यह हुआ कि चिपको आंदोलन अब वनों को बचाने वाली महिलाओं का हक-हकूक का आंदोलन न होकर पर्यावरण का फैशनेबल आंदोलन बन कर रह गया।
अधिकारों के आंदोलन के विलोपित होने का एक अन्य कारण यह भी था कि अधिकांश जमीनी स्तर के कार्यकर्ता, विशेष रूप से महिलाएं, पढ़ी-लिखी नहीं थीं और देश और दुनिया के बारे में उनकी जानकारी सीमित भी थी, इसलिए वे अपनी बात किसी भी मंच पर नहीं रख पाईं। इस तरह चिपको को ‘कवर’ करने वाले पत्रकार, शोधकर्ता और रचनाकार की पहुंच उन्हीं लोगों तक सीमित हो पाई जो उनकी भाषा में कुछ कह सकते थे। परिणामस्वरूप लोगों को आंदोलन की सही पहचान कभी हो ही नहीं पाई।
सही बात तो यह है कि बाहर से आकर चिपको पर जानकारी हासिल करने वालों के दिमाग में एक धारणा बिठा दी गई कि इस आंदोलन का संबंध पर्यावरण से है। और अतंत: सत्ता इस बात में सफल हो गई कि उसने चिपको को एक पर्यावरण का आंदोलन बना दिया।
पर्यावरणीय चिपको आंदोलन की ‘देन’
जब यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गया तो सरकार के लिए इससे निपटना आसान हो गया। पर्यावरणीय चिपको आंदोलन की दो प्रमुख देन हैं- एक, वन निगम और दूसरा 1980 का वन अधिनियम। पहले छोटे-छोटे ठेकेदार थे लेकिन सरकार ने एक विशालकाय ठेकेदार वन निगम बना दिया और 1980 के वन अधिनियम ने तो जनता के अधिकारों की जंगल में और भी कमी कर दी क्योंकि यह अधिनियम पर्यावरण की आवश्यकताओं के लिए बनाया गया था न कि जनता को सुविधा देने के लिए। सबसे खराब बात तो यह है कि जनता को इस अधिनियम के पारित होने से पहले कुछ बताया ही नहीं गया और जनता इस अधिनियम के आने के बाद खुद को ठगा महसूस करने लगी। इसके बाद कुछ लोगों ने इसके विरोध में जाने का प्रयास किया लेकिन वह बहुत कमजोर प्रतिक्रिया थी। इतना तो निश्चित है कि चिपको अपने मूल उद्देश्य में असफल हो गया। दुखद तो यह है कि यह पर्यावरण को बचाने में भी असफल ही हुआ। टिहरी बांध ने हजारों एकड़ जमीन और जंगल डुबा दिए और सरकार एक के बाद दूसरा बांध बनाने में लगी हुई है और उसे रोकने वाला कोई भी नहीं है।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यह संभावना फिर से बनी कि वन और मानव के संबंधों पर नए सिरे से सोचा जाएगा पर नए सिर से सोच-विचार होगा और लोगों के अधिकार सुरक्षित रखने का प्रयास किया जाएगा। कम से कम वन पंचायतों को ही अधिकार संपन्न बनाया जाएगा लेकिन हुआ इसका उल्टा। उत्तराखंड सरकार विश्व बैंक की सहायता से संयुक्त वन प्रबंधन लेकर आ गई। इसने वन पंचायतों के अधिकार और कम कर दिए और इसमें सरकारी अधिकारियों की घुसपैठ कर दी। इससे वन पंचायतों को थोड़ी सी स्वायत्ता मिली थी वह भी खत्म कर दी गई और वन पंचायतों को अप्रत्यक्ष तरीके से वन विभाग के अधिकारियों के मातहत कर दिया।
केंद्र सरकार ने 2005 में वन अधिकार अधिनियम पारित किया। इसके अंतर्गत जंगलों में रहने वाली जनजातियों और वन पर आश्रित समुदायों को कुछ अधिकार दिए गए। आश्चर्य यह है कि उत्तराखंड के लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया, जबकि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके के लोगों की जंगलों पर अभी निर्भरता बनी हुई है। अगर उत्तराखंडी समाज इस अधिनियम के दायरे में नहीं आ रहा है तो इसलिए कि चिपको के अधिकारों के आंदोलन से हटकर पर्यावरण का आंदोलन बन जाना। अगर चिपको सिर्फ हक-हकूक का आंदोलन माना जाता तो 2005 के अधिनियम के तहत लोगों को अधिकार देने की बात जरूर कही जाती। लेकिन 1980 के बाद चिपको पर चर्चा सिर्फ पर्यावरण के लिए हो रही है, न कि अधिकारों के लिए। यह एक विचरणीय प्रश्न है कि यहां से पलायन में कही मानव और वनों के बीच बढ़ती दूरी तो कारण तो नहीं है।
1980 आए वन अधिनियम के बाद लोगों के जंगल के प्रति लगाव में लगातार कमी आ रही है। चाहे मामला जंगलों में आग का हो या कहीं पर पर्यावरण को हो रहे नुकसान का, अधिकांश लोग तटस्थ हो गए हैं। वे कहते है यह तो सरकारी जंगल है, हमें क्या करना। लोग तभी सक्रिय होते हैं जब आग उनके गांव तक पहुंच जाती है या जंगली जानवर उनकी खेती या उन्हें नुकसान पहुंचाने लगते हैं। इसके बाद भी कुछ लोग अभी भी हिमालय के पर्यावरण को बचाने के लिए संवेदनशील जरूर हैं लेकिन उनकी संख्या और आवाज कमजोर है। हिमालय में बनने वाले बांधों और विद्युत परियोजनाओं का विरोध जरूर है लेकिन सरकार के तंत्र के आगे उनकी कोई ताकत नहीं है।
अगर चिपको केवल हक-हकूक को प्रमुख मानता तो जंगल भी बचता, पर्यावरण भी बचता और महिलाओं के सिर से बोझ भी उतरता लेकिन भटकाव ने चिपको को सरकारी पर्यावरण का पिछलग्गू बना दिया और नतीजा यह है कि न तो पर्यावरण बचा और न ही लोग। रेणी गांव के नीचे ऋषि गंगा में आई तबाही एक तरह से चिपको की ही पराजय है।
अद्यतन 18 मार्च, 2021
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