म्यांमार: लोकतंत्र के लिए लड़ाई

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  • राजेंद्र भट्ट

एक फरवरी, 2020 को म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार की सेना द्वारा बेशर्मी से बेदखली, दक्षिण एशिया के इस देश में कोई अपवाद की स्थिति नहीं थी, बल्कि पिछले सात दशकों के अधिकतर समय में जारी बर्बर सैनिक तानाशाही के नियम की कालिमा का ही विस्तार था। यह शायद एक लक्षणा ही है कि तब बर्मा कहे जाने वाले, भारत के इस पड़ोसी देश को (जो 1937 तक भारतीय ब्रिटिश उपनिवेश का ही हिस्सा भी था), भारत की आजादी के साल यानी 1947 में ही, लोकतांत्रिक-प्रगतिशील विजन वाले नेता आंग सान ने जापानी और ब्रिटिश सैन्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्त कर विवेकपूर्ण, समावेशी लोकतंत्र की राह दिखाई और इसी साल वहशी ताकतों के षड्यंत्र में वह शहीद हो गए।

नवजात लोकतंत्र बमुश्किल 15 साल चल पाया और 1962 में फौजी जनरल  ने. विन ने तख्ता पलट दिया और म्यांमार को पूरी दुनिया से अलग-थलग तानाशाही राह पर ले गए। जैसा जर्मनी-इटली के तानाशाही दौर से लेकर अपने देश के पाखंड में भी होता रहा है, ने विन की एक-दलीय सरकार वाली पार्टी भी ‘समाजवादी’ थी- ‘बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी’। उसने भी राष्ट्रवादी बौद्ध बनाम ‘देशद्रोही’ रोहिंग्या मुसलमानों’ के 1978 में दमन और उनके बांग्लादेश पलायन के अभियान सहित दूसरी बर्बर्ताएं कीं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि 1988 में ने विन ने भी ‘नोटबंदी’ करके देश के गरीबों की मामूली बचतों का सफाया किया।

ने विन के सत्ता छोडने के बाद, 8 अगस्त 1988 को एक बड़ी जन क्रांति (‘8888’ क्रांति) को सेना ने फिर कुचल दिया। इस बार के जन-विद्रोह की नायिका म्यांमार के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले आंग सान की युवा पुत्री आंग सान सू की थीं। वर्षों तक वह गिरफ्तारी में रहीं और अगले दो दशकों तक म्यांमार के अहिंसक और लोकतांत्रिक प्रतिरोध की सबसे बड़ी प्रतीक बनी रहीं।

लोकतांत्रिक प्रतिरोध और सैनिक सत्ता द्वारा कुछ ‘क्विक फिक्स’ समाधान दिए जाते रहे जिनमें 2008 में ‘सेना के अनुशासन’ में लोकतंत्र लाने वाले एक संविधान पर रस्मी जनमत संग्रह करा लेना शामिल था। टुकड़े-टुकड़े सुधारों के बीच, 2012 में सू की रिहा हुईं, 2012 के उपचुनावों में उन्हें, और उनकी पार्टी -नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) को शानदार सफलता मिली। 2015 के चुनावों में (सेना द्वारा बनाए और उसके दबदबे वाले संविधान के बावजूद) एनएलडी को पूर्ण बहुमत मिला। कुछ तकनीकी बातों की आड़ में सू की को संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति बनने से प्रतिबंधित किया गया था, इसलिए नई सरकार में उन्हें (प्रधानमंत्री जैसा) स्टेट काउन्सलर का पद दिया गया। 1962 के सैन्य तख्ता-पलट के बाद पहली बार, तिन क्वा देश के असैनिक राष्ट्रपति बने।

लेकिन, लोकतांत्रिक उम्मीदों के इस दौर में सू की की ‘गांधीवादी विरासत और ‘बौद्ध करुणा’ की छवि को काफी धक्का लगा जब देश में मुसलमानों के खिलाफ सेना के वैमनस्य, मुस्लिम नेता को नी की 2017 में हत्या और 2016 के अंत से निरंतर रोहिंग्या मुसलमानों की सेना द्वारा बर्बर हत्याओं तथा उनके बड़े पैमाने पर बांग्लादेश पलायन की वह मूक दर्शक, बल्कि ‘रणनीतिक’ साझीदार बनी रहीं। इसी फरवरी में उनकी चुनी हुई सरकार का तख्ता पलटने वाले जनरल मीन औंग लाइंग के साथ उनकी दोस्ताना भाव वाली तस्वीरें अवसरवादी ‘बैड औपटिक्स’ की नजीर हैं। शांति का नोबल पुरस्कार पाने वाली और दशकों तक जला-वतन रही, अहिंसक संघर्ष की प्रतीक नायिका का यह रूप वाकई मोहभंग करने वाला था।

आम तौर पर म्यांमार के सैन्य शासन को चीन का सहारा मिलता रहा है लेकिन रोहिंग्या दमन के अभियान के मद्देनजर, भारत की ‘राष्ट्रवादीÓ सरकार का भी उसे ‘नैतिक’ समर्थन मिलता रहा है — बल्कि भारत आ रहे इन मजलूम मुसलमान शरणार्थियों की घुसपैठ के ‘खतरे’ का मुकाबला करने, इनके खिलाफ ‘नैरेटिव’ बनाने और इन ‘दीमकों’ का सफाया कर सीमाएं सुरक्षित करने में अबकी बार हम चीन से आगे रहे हैं। बल्कि, दो-तीन साल से तो असम के मुसलमानों से लेकर देश के तमाम शहरों में घरों में काम करने वाली बाइयों-नौकरों तक का नामकरण संदेहास्पद ‘रोहिंग्या’ हो गया है!

बहरहाल, नव निर्वाचित प्रतिनिधियों के पहले अधिवेशन से पहले ही 1 फरवरी 2021 को सेना प्रमुख जनरल मीन औंग लाइंग ने तख्ता पलट कर दिया और देश को एक साल के लिए इमरजेंसी में धकेल दिया। सेना के दबदबे के पक्के इंतजाम वाले कठपुतली संविधान के बावजूद, लोकतंत्र के पक्ष में केंद्रित अप्रत्याशित प्रचंड बहुमत के डर से जनरल ने यह कदम उठाया।

1947 के लोकतांत्रिक संविधान के अंतर्गत 1962 तक म्यांमार में शासन चला। जनरल ने विन के तख्ता पलट के बाद 1974 में जनरल की देख-रेख में दूसरा संविधान बना जिसमें जनरल की एकदलीय पार्टी की सत्ता और ने विन को राष्ट्रपति बनाने की व्यवस्था थी। 1988 के जन विद्रोह को कुचलने के बाद फौजी शासन ने संविधान बनाने की कई पेशकश कीं और आखिरकार 2008 का संविधान बना और फौज की देखरेख में उस पर ‘जनमत संग्रह’ भी हो गया।

इस संविधान में फौज के निरंतर शासन के पुख्ता इंतजाम हैं। निचले सदन में 440 और ऊपरी सदन में 224 सदस्य हैं। इनमें से, हर सदन में एक चौथाई सदस्य सेना द्वारा नामजद होते हैं। प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर पर एक तिहाई सदस्य सेना द्वारा नामजद होते हैं। गृह, सीमावर्ती क्षेत्र और रक्षा के ताकतवर मंत्रालय सेना के लिए आरक्षित हैं।

बहरहाल, इसके बावजूद जन-सहानुभूति और लोकतांत्रिक चेतना की बदौलत, सू की को 2015 से लोकतांत्रिक नेता के रूप में देश की किस्मत बदलने का मौका मिला था लेकिन उन्होंने लोकतांत्रिक प्रतिरोध की जगह सांप्रदायिकता और फौजी किस्म के घृणा-केंद्रित राष्ट्रवाद के ‘भस्मासुर’ को खुश रखने का ही काम किया।

फिर भी, नवंबर, 2020 के चुनावों में जन-अपेक्षाएं इतनी ज्यादा थीं कि सू की की लोकतांत्रिक पार्टी एनएलडी को निचले सदन की (कुल 440 में से) निर्वाचित 330 सीटों में 258 सीटें मिल गईं। ऊपरी सदन की (कुल 226 में से) निर्वाचित 168 सीटों में उनकी पार्टी को 138 सीटें मिल गईं। जनरल की पिछलग्गू यूएसडीपी पार्टी को इन सदनों में क्रमश: 26 और 7 सीटें ही मिल पाईं। इस तरह, तमाम इंतजामों के बावजूद लोकतांत्रिक शक्तियां निर्णायक बहुमत के दौर में आ गई। दूसरी ओर, 2011 से अपने पद को जकड़े हुए, और लोकप्रियता की तमाम नौटंकियां (जिनसे हम अपने देश में भी अनजान नहीं हैं) करते हुए, जनरल भी अब ढलान महसूस कर रहे थे। उन्होंने चुनाव में खुले आम यूएसडीपी का समर्थन भी किया था। अब उन्हें लगा कि सत्ता उनके हाथ से खिसक जाएगी।

इसके आगे की पटकथा प्रत्याशित ही थी। जनरल और उनकी समर्थित पार्टी ने चुनाव में धांधलियों की शिकायतें कीं। संविधान और कानून को बचाने की धमकियां दीं। उन्होंने मांग की कि चुनाव आयोग अथवा सरकार अथवा निवर्तमान विधायक, नई विधायिका के शपथ ग्रहण के पहले, बहुमत की ‘पुष्टि’ करें। आखिरकार, देश और कानून को ‘बचाते’ हुए, फौजी तख्ता पलट हो गया, सू की और राष्ट्रपति वीं मिंट सहित सभी लोकतांत्रिक नेता नजरबंद कर दिए गए। जनरल  मीन औंग लाइंग पहले ही खुद को उप-राष्ट्रपति बना चुके थे। अब वह राष्ट्रपति हो गए हैं। समाज को घृणा, उन्माद और अविश्वास से बांटने वाले ‘भस्मासुर’ पालने का यह परिणाम अपने देश के लिए भी एक और नजीर है।

बहरहाल, जो खबरें आ रही हैं, वो लोकतंत्र की जुझारू ताकत के प्रति विश्वास जगाती है। दो फरवरी से ही देश भर में स्वास्थ्यकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों का प्रतिरोध शुरू हो गया। सविनय अवज्ञा के अहिंसक संघर्ष जोर पकड़ रहे हैं। सेना और उससे जुड़े प्रतीकों-प्रतिष्ठानों का बहिष्कार जारी है। इंटरनेट और सोशल नेटवर्क बंद करने के सरकारी तंत्र के प्रयासों का असर नहीं हो रहा है और लाखों लोग सड़कों पर आ रहे हैं। सेना और पुलिस द्वारा लोगों को जबरन, मारपीट कर काम पर लौटने के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। सेना ने अब प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाना भी शुरू कर दिया है और 20 फरवरी को सेना की फायरिंग में दो जानें गई हैं जबकि दर्जनों घायल हुए हैं।

दूसरी ओर योरोपीय यूनियन, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की सख्त प्रतिक्रियाएं और प्रतिबंधों की आशंकाएं सैनिक शासन के लिए अनिष्ट की आशंकाएं बढ़ा रही हैं। अमेरिका की नव-निर्वाचित बाइडेन सरकार का रवैया काफी सख्त है। अबकी बार चीन से भी ज्यादा समर्थन की उम्मीद नहीं है और सू की ने भी, पिछले कुछ वर्षों में चीन को मित्रता के संदेश दिए हैं। भारत ने, अपनी प्रतिक्रिया में ‘चिंता’ जाहिर कर दी है।

म्यांमार न तो भारत जैसा बड़ा ‘बाजार’ है न ‘प्रतिभाओं’, श्रम और जिन्सों के ‘कच्चे माल’ का सप्लायर है, इसलिए वहां के फौजी शासन पर आर्थिक-सामरिक नकेल लगाना और उसको अकेला कर घुटने टिकवा देना अपेक्षाकृत आसान होगा। लेकिन सांप्रदायिक उन्माद के बहाने निरंकुशता को शह देना खतरनाक हो सकता है — म्यांमार की स्थिति यह बताती है। यह स्थिति भारत के पड़ोस में हो रही है, इसलिए आंच तो आएगी ही। यह घटनाक्रम अपनी कम-ज्यादा या फिर मुखौटे वाली ही सही- लोकतांत्रिक पार्टियों, संस्थाओं और नौकरशाही को भी फिर से आईना तो दिखाता ही है कि तात्कालिक लाभ के लिए किसी भी प्रकार की संकीर्णता-उन्माद के भस्मासुर के कम-ज्यादा साथ हो जाना, या फिर उसे किसी वर्ग के खिलाफ खुला छोड़ देना उनके लिए भी खतरनाक हो सकता है। आग जब फैलती है तो अपना घर भी जला सकती है।q

नोट: संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार म्यनमार में 18 मार्च तक 200  प्रदर्शनकारी सेना द्वारा मारे जा चुके थे।सं.

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