प्रतिवाद के लिए आत्महत्या

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  • कमलानंद झा

उभरते अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या/हत्या ने हिंदी फिल्म उद्योग की चमचमाती दुनिया की कई गहरी पैठी बुराइयों, जैसे कि निर्माण और वित्त के अलावा कुछ परिवारों के परोक्ष और प्रत्यक्ष एकाधिकार के चलते, प्रतिभा तक के नियंत्रित करने के निर्मम और अपराधिक तरीकों को जितने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक कर दिया है वह पहली बार है। जिस तरह से कई जाने-माने अभिनेताओं और निर्देशकों को दर्शकों के रोष और असहमति का सामना करना पड़ रहा है वह असामान्य है और निश्चित है कि यह कम से कम इधर रिलीज होने वाली कई फिल्मों को प्रभावित करेगा।

व्यावसायिक फिल्मों की दुनिया में तेजी से उभरते अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या/हत्या हिंदी फिल्म उद्योग, जो बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, में कोई पहली नहीं है, पर इसने पहली बार इस चमचमाती दुनिया की कई गहरी पैठी बुराइयों, जैसे कि निर्माण और वित्त के अलावा कुछ परिवारों के परोक्ष और प्रत्यक्ष एकाधिकार के चलते, प्रतिभा तक के नियंत्रित करने के निर्मम और अपराधिक तरीकों को जितने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक कर दिया है वह पहली बार है। जिस तरह से कई जाने-माने अभिनेताओं और निर्देशकों को दर्शकों के रोष और असहमति का सामना करना पड़ रहा है वह असामान्य है और निश्चित है कि यह कम से कम इधर रिलीज होने वाली कई फिल्मों को प्रभावित करेगा। यह कोविड-काल में जब पहले ही फिल्म उद्योग संकट से गुजर रहा है और भी घातक साबित हो सकता है।

असल में प्रतिभा के नियंत्रण से इस ग्लैमर से भरे उद्योग को किस तरह से मु_ी भर लोगों द्वारा नियंत्रित किया जाता है इसके पीछे इस उद्योग से होने वाली अंधाधुंध कमाई का बड़ा हाथ है। गिनती के लोग किस तरह से नए लोगों को आने से रोककर अपना वर्चस्व बनाए रखते हैं उसके जो दूसरे पक्ष हैं वे कई गुना घातक हैं। थोड़ा गहरे देखें तो अभिनेता नियंत्रण मात्र कुछ खानदानों की बपौती को ही बनाए नहीं रखता बल्कि व्यापारिक स्तर पर विषयों के चुनाव और उनकी प्रस्तुति को भी तय करता है। विषयों के चुनाव की इस एकांगिकता का संबंध बड़े पैमाने पर हीरो-हिरोइन परिवारों के सदस्यों के अनुकूल कथानक गढऩे से भी है। दूसरे शब्दों में बॉलीवुड का अपने भौंडेपन में गहरे डूबे रहने का सीधा संबंध इसी बुराई की ओर इशारा करता है। यह अचानक नहीं है कि बॉलीवुड या मुंबई फिल्म उद्योग से जो भी नई और मौलिक चीज इस बीच आई है वह इसके वित्तीय और प्रतिभा के ढांचे के बाहर से ही आ पाई है।

वैसे यह सच भी है कि प्रतिभा को सहना और सराहना बड़ी बात होती है। इसके लिए सचमुच बड़ा दिल और प्रतिभा का सम्मान कर पाने की समझ चाहिए। सुशांत सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। सहरसा (बिहार) जैसी छोटी जगह से आकर बगैर किसी गॉडफादर के सुशांत ने बॉलीवुड में अपना एक मुकाम कायम किया था। सुशांत के बहुविध व्यक्तित्व को देखते हुए यह कहना कि असफलता ने उन्हें आत्महत्या की ओर बढ़ाया, उचित नहीं। आप जिन्हें पर्दे पर उदारमना, मानवता के पर्याय, मजलूमों का साथ देने वाले के रूप में देखते हैं, उनमें से कई ऐसे घाघ और ईष्र्यालु होते हैं जो दूसरों को आगे बढ़ते देखना नहीं चाहते। बॉलीवुड के ऐसे ही लोगों की करतूतों को बहस में लाने, बहस के माध्यम से उन्हें सरेआम करने के लिए सुशांत ने अपना बलिदान दिया होगा। भविष्य में फिल्मी दुनिया में साधारण पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए यह शहादत याद रखी जाएगी। यशराज, साजिद, नाडियाडवाला, सलमान-अरबाज खान प्रोडक्शन, टी सीरीज, बाला जी, दिनेश विजयन, भंसाली, शाहरुख खान, करण जौहर जैसे बॉलीवुड ठेकेदारों की असलियत को सामने लाने का दूसरा जरिया सुशांत को नजर नहीं आया होगा। इन लोगों ने सुशांत पर बंदिशें लगाई थीं।

परिवारवाद की किलेबंदी

बॉलीवुड में प्रतिभाओं को रोकने, नकारने, हतोत्साहित करने, और कुचलने में परिवारवाद की भूमिका अहम रही है। यद्यपि हिंदुस्तान में इस भाई-भतीजावाद से कोई क्षेत्र अछूता नहीं है, लेकिन बॉलीवुड में परिवारवाद की किलेबंदी अभेद्य और दुर्जेय है। ये प्रवासी कलाकारों की प्रतिभा को तुरंत भांप जाते हैं और अपने विविध पैंतरों से इन कलाकारों की हदें तय कर देते हैं। चरित्र, सहायक या हास्य अभिनय तक इन्हें सीमित कर अपने छल-छद्म और रसूख से नायक की भूमिका अदा करने की उम्र को गटक जाते हैं। इरफान जैसे ऊंचे दर्जे के अभिनेता को अपनी प्रतिभा सिद्ध करने में 15 साल लग जाते हैं। इनके आगे अपने को पूर्णत: समर्पित कर ही किसी बाहरी का प्रवेश इस किले में संभव है। नसरुद्दीन शाह, रघुवीर यादव से लेकर नवाजुद्दीन सिद्दीकी आदि को धकियाने और कतियाने में इस परिवार-तंत्र ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। न जाने कितने बाहरी कलाकार इस परिवारवाद की मठाधीशी की बलि चढ़ चुके हैं। कपूर, चोपड़ा, सलमान, करण, भंसाली आदि का फिल्म बनाने से लेकर उसके वितरण और थियेटर हॉल तक पर पूरा कब्जा है। इनकी मर्जी के खिलाफ कोई फिल्म बना भी ले तो सफलतापूर्वक थिएटर तक उस फिल्म की पहुंच टेढ़ी खीर साबित होती है। बॉलीवुड पर गंभीर काम करने वाली न्यूयार्क विश्वविद्यालय में नृशास्त्र (एंथ्रोपोलॉजी) की प्रोफेसर तेजश्विनी जंती ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि हिंदी फिल्म उद्योग की वैयक्तिक और वंशानुगत प्रकृति स्पष्ट रूप से उन लोगों के लिए अवरोध पैदा करती है जिनका कोई पारिवारिक या सामाजिक संबंध नहीं है। आगे उन्होंने यह भी कहा, ”यह प्रवृत्ति 1990 के दशक के मध्य से तेज हो गई, और 2008 तक 60 प्रतिशत से अधिक उन्हीं अभिनेताओं ने प्रमुख भूमिकाएं निभाईं जो फिल्मी परिवारों से थे। उद्योग के शीर्ष दस पुरुष सितारों में से आठ फिल्म उद्योग के दूसरी या तीसरी पीढ़ी के सदस्य थे। जब मैंने 1996 में यह शोध करना शुरू किया, तो लगभग हर कोई जिससे मैं मिली थी, वह एक परिवार या दोस्ती के माध्यम से उद्योग में आया था।’’

इस परिवारवाद ने हिंदी फिल्मों की गुणवत्ता को नष्ट करने में महती भूमिका निभाई है। हॉलीवुड को छोड़ दें तो नजर आने लगता है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में हिंदी से श्रेष्ठ और गुणवत्तापूर्ण फिल्में बनती हैं। थोड़ी बहुत जो अच्छी फिल्में हिंदी में बनी हैं उनमें इन परिवारवाद के बैनर तले बनी फिल्मों का योगदान नगण्य है। दोयम दर्जे की कहानी और औसत दर्जे के कलाकारों से बजबजाता बॉलीवुड के परिवार के बैनरों से बनी फिल्मों का मकसद सिर्फ धनोपार्जन रह गया है। दर्शकों का रूचि परिष्कार और सामाजिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक सरोकार की दरकार इन बैनरों की है ही नहीं। सुशांत सिंह की आत्महत्या इन बैनरों से बनी फिल्मों पर दर्शकों से पुनर्विचार की मांग करती हैं और यही उनके लिए सच्ची शृद्धांजलि हो सकती है।

 

वेमुला, सुशांत और ‘फुटोन इन डबल-स्लिट’

रोहित वेमुला और सुशांत के व्यक्तित्व और आत्महत्या की समानताएं मुद्दे को गंभीरता से समझने में सहायक हो सकती हैं। वेमुला विज्ञान लेखक बनना चाहते थे, तारे और चंद्रमा को निहारना उन्हें अच्छा लगता था। सुशांत के इंस्टाग्राम पेज पर विज्ञान के कई रोचक चित्र बने हुए हैं। उन्होंने अपने ‘बायो’ में लिखा है- ”सुशांत सिंह राजपूत : फुटोन इन डबल-स्लिट’’। विज्ञान का यह अत्यंत जटिल सिद्धांत है। जो इस सिद्धांत को समझते हैं वे सुशांत के व्यक्तित्व को भी जान सकते हैं। उन्होंने अपने कमरे में एक उम्दा दूरबीन रखी हुई थी, जिससे वह चंद्रमा और तारों को देखते और सौरमंडल के आपसी रिश्ते पर मुग्ध होते। वह दुनिया को विज्ञान की नजरों से देखने-समझने की कोशिश करते।

सुशांत का सुसाइड नोट न लिखना भी उनकी दूरदृष्टि का परिचायक है, क्योंकि किसी को दोषी ठहरा देना मुद्दे को संकुचित और व्यक्तिगत बना देता है। कारण कोई एक-दो व्यक्ति नहीं पूरा तंत्र होता है। वेमुला ने सुसाइड नोट लिखा जरूर, लेकिन उसमें किसी को दोषी नहीं ठहराया। वेमुला को विश्वविद्यालय प्रशासन ने प्रताडि़त किया, लांछित किया और सुशांत का बालीवुड के मठाधीशों ने जीना हराम कर दिया। वेमुला देश की जाति व्यवस्था की भेंट चढ़े तो सुशांत एक साधारण जगह से आने, गैर फिल्मी पृष्ठभूमि और आम मनुष्य होने की। वेमुला की छात्र राजनीति प्रशासन की आंखों की किरकिरी बनी तो सुशांत का स्वाभिमानी स्वभाव और अपनी हुनर पर भरोसा।

सारे मठाधीशों के विरोध के बावजूद सुशांत की अंतिम फिल्म छिछोरे ने एक खास मुकाम हासिल किया। सारे ठेकेदारों को अंगूठा दिखाते हुए लगातार अच्छी फिल्में देने और छिछोरे की सफलता से मठाधीशों के सिंहासन डोल गए। ऐसे में परिवारवाद की यह सोच कि ”सभी ऐरे गैरे नत्थू खैरे बॉलीवुड में अपनी धाक जमा लेंगे, तब हमारी महंती कैसे चलेगी?’’ सुशांत की आत्महत्या इस महंती को प्रश्नांकित करती है। आज की तारीख में सोशल मीडिया और उसके बाहर भी इस परिवारवादी महंती पर भारी बहस चल रही है। लोगों का ध्यान व्यवस्थित तरीके से पहली बार इन मठाधीशों के कुकृत्यों पर गया है। लोग बॉलीवुड के इस ‘सामंती’ चरित्र को समझते थे, शिकार भी होते थे, लेकिन इसके खिलाफ बोलते नहीं थे। कहीं इक्का-दुक्का किसी ने मुंह खोला भी तो उसका करियर पूरी तरह चौपट। अगर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस थोड़ी संवेदनशीलता के साथ काम करे तो निश्चित रूप से इन मठाधीशों में से कुछ के कारनामे जगजाहिर हो सकते हैं, और इसकी सजा उन्हें मिल सकती है।

 

मेधावी, दिलेर और सरोकार संपन्न

सुशांत एक मेधावी, दिलेर, गंभीर और सरोकार संपन्न कलाकार थे। उनके लिखे को आप देखें और पढ़ें तो आश्चर्य में पड़ जाएंगे। ‘क्वांटम फिजिक्सÓ से लेकर संस्कृत के विलक्षण श्लोकों, अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर अध्यात्म चिंतन, सामाजिक चिंताओं से लेकर बच्चों और तितलियों की दुनिया तक के यथार्थ और कल्पनाओं के बहुरंगे विचारों की आवाजाही सुशांत के व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाती थी। इसमें दो राय नहीं कि सुशांत अत्यंत मेधावी विद्यार्थी थे। फिल्मी दुनिया के इन मठाधीशों और स्टार पुत्रों में अधिकांश औसत दर्जे के विद्यार्थी रहे हैं। कुछ के लिए तो वर्ग उत्तीर्ण करना भी मुश्किल रहा है। सुशांत की तरह चिंतन, मनन और लेखन तो दूर की बात है। बौद्धिक रूप से ठस जमात को सुशांत की चेतना बेचैनी पैदा करती। बैद्धिक चेतना संपन्न एक सफल अभिनेता की ठसक उन्हें आहत करती। इस ठसक को हतोत्साहित करने का बीड़ा इन लोगों ने उठा लिया। जीते जी सुशांत कौरव महारथियों के बीच अभिमन्यु की तरह निहत्था सिर्फ अपनी कला की बदौलत लड़ता रहा और मरने के बाद भी इस लड़ाई को जारी रखते हुए गया। संभव है इस लड़ाई का अंजाम कुछ न हो, युद्ध का महत्त्व अंजाम से अधिक युद्ध होने में है। उत्तर आत्महत्या के इस जंग से इतना तो जरूर हुआ है कि इन फिल्मी धूर्तों की सच्चाई आम हुई है। भविष्य में ऐसा करने से पहले उन्हें एक बार अवश्य सोचना पड़ेगा।

दबंग फिल्म के निर्देशक अभिनव सिंह कश्यप, अनुभव सिन्हा, कोयना मित्रा, निर्माता निखिल द्विवेदी, हेयर स्टाइलिस्ट सपना मोती भगनानी, खेल जगत की बबीता फोगाट, मनोज वाजपेयी आदि ने इस आत्महत्या का सरोकार बॉलीवुड के मठाधीशों से जोड़ते हुए इसकी निष्पक्ष जांच की मांग की है। उसके परिवारवालों ने सीबीआई जांच की मांग की है। इस मामले में अभिनव सिंह कश्यप ने अपने फेस बुक पोस्ट में लिखा है कि, ”यश राज फिल्म्स जैसी एजेंसियां आर्टिस्ट का करियर बनाती नहीं, बिगाड़ती हैं।’’ पोस्ट के अंत में उन्होंने यह भी लिखा है कि ”इस पोस्ट को मेरे पुलिस स्टेटमेंट के रूप में व्यवहार किया जा सकता है।’’ सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद से फिल्म इंडस्ट्री के अंदर भेदभाव को लेकर भाई-भतीजावाद, बाहरी और फिल्म इंडस्ट्री का, फिल्म इंडस्ट्री के बड़े परिवार या किसी गॉडफादर से जुड़ा होने और बिना गॉडफादर के संघर्ष करने वाले जैसे सवाल अत्यंत सिद्दत से उठाए जा रहे हैं।

 

दंबगों का गैंग

निर्देशक अभिनव कश्यप स्वयं भी बालीवुड के दबंगों के शिकार हो चुके हैं। उन्होंने इसी पोस्ट पर अपना अनुभव साझा करते हुए लिखा है कि ” दबंग की मेकिंग के समय मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, जब अरबाज खान, सोहेल खान और उनका परिवार ना सिर्फ मुझे धमकाकर डराया करते थे, बल्कि ये लोग मेरे करियर तक को कंट्रोल करना चाहते थे। अरबाज ने इसके बाद मेरी दूसरी फिल्म का प्रोजेक्ट भी अपनी पावर का इस्तेमाल कर छीन लिया था, जिससे मुझे नुकसान हुआ और दबंग  की रिलीज के वक्त मुझे नेगेटिव फ्रेम कर उसका प्रचार किया गया।’’ उन्होंने अपनी व्यथा-कथा को सार्वजनिक करते हुए लिखा, ”मेरी निजी जिंदगी में उथल-पुथल हुई और मामला यही नहीं रुका। मुझे अलग-अलग नंबरों से धमकी भी दी गई, तब मैंने पुलिस कम्प्लेंट की थी।’’ अभिनव का यह भी आरोप है कि ”सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद अब इन लोगों को उजागर करना जरूरी है जो अपनी मनमानी कर आर्टिस्ट के साथ ऐसा सलूक करते हैं और इन लोगों में सबसे बड़े सरगना हैं सलमान खान।’’

सुशांत स्वप्नजीवी थे। भविष्य के लिए बहुत सारे सपने संजोए थे। उन्होंने पचास ख्वाहिशें बजाप्ता लिख रखी थीं, जिन्हें उन्हें पूरा करना था- हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर खाहिश पे दम निकले…। सामान्य बच्चों को अंतरिक्ष का ज्ञान देने की ख्वाहिश, हवाई जहाज उड़ाने की ख्वाहिश, 100 बच्चों को नासा का वर्कशॉप कराने की ख्वाहिश, बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करने के लिए काम करने की ख्वाहिश, कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाने की ख्वाहिश, 1000 पेड़ लगाने की, वैदिक एस्ट्रोलॉजी समझने, स्त्रियों की आत्मसुरक्षा ट्रेनिंग के लिए मदद करने, एक शाम अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में बिताने की ख्वाहिश। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी ख्वाहिशें। इतने सपने पालने वाला व्यक्ति हताशा और निराशा से कमजोर होकर आत्महत्या कैसे कर सकता है!

रोहित वेमुला भी जातिवाद के शिकार हुए और सुशांत भी। आप अगर उच्च जाति के हैं और वर्ण व्यवस्था की निर्मम आलोचना करते हैं, उसके घृणित कर्मों पर शर्मिदगी महसूस करते हैं, तो जातिवादी ढांचा आपको अपमानित, अवहेलित और लांछित करने की पूरी कोशिश करेगा। सुशांत बॉलीवुड के मठाधीशों के अलावा वर्णव्यवस्था के कर्णधारों के भी शिकार हुए। पद्मावत फिल्म को बगैर देखे-सुने करणी सेना (राजपूत/क्षत्रिय) ने उसे बैन करने के लिए जिस तरह पूरे देश में उत्पात मचाया, वह सर्वविदित है। उन लोगों ने कहा कि अगर ये फिल्म रिलीज हुई तो वे अपनी जान दे देंगे। यह दूसरी बात है कि फिल्म रिलीज होने के बाद एक चोटिल तक नहीं हुआ। पद्मावत फिल्म से उन्हें ‘हिंदुत्व’ और ‘क्षत्रित्व’ खतरे में नजर आ रहा था। इसी जाहिलपन से दुखी होकर सुशांत ने कहा था कि आज मुझे हिंदू होने पर शर्म है। साथ ही अपना जातिगत नाम हटाने की बात भी कही थी। जातिवादी सवर्णों के लिए इतना ही काफी था। सभी सुशांत के पीछे पड़ गए।

दूसरी घटना उससे भी अधिक खतरनाक निकली। उत्तरकाशी विभीषिका पर आधारित फिल्म केदारनाथ  में सुशांत ने सहृदय मुसलमान की शानदार भूमिका निभायी थी। फिल्म में वह हिंदू लड़की से प्रेम भी करते हैं। हिंदू ब्रिगेड के लिए यह ‘लव जेहादÓ का मामला बन गया। इससे पहले धार्मिक अंधविश्वास पर कड़ा प्रहार करने वाली आमिर खान की फिल्म पीके में भी सुशांत ने एक पाकिस्तानी मुस्लिम किरदार सरफराज की भूमिका की थी। एक तो धार्मिक अंधविश्ववास के विरुद्ध फिल्म और ऊपर से मुस्लिम किरदार-एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। पीके के समय से ही हिंदुओं का एक तबका सुशांत के पीछे हाथ धो कर पड़ा हुआ था। सोशल मीडिया पर उन्हें लगातार ट्रोल करते हुए अपमानित किया जा रहा था। कहां तो किसी भी समुदाय को सुशांत जैसे होनहार, संवेदनशील, संघर्षशील और सफल युवक पर गर्व होना चाहिए था, लेकिन कई लोग थे जो सुशांत को नष्ट करने पर तुले थे। आत्महत्या के बाद कई हिंदूवादी सवर्णों ने जिस तरह के घृणित पोस्ट लिखे उससे लगता है कि इन लोगों में मनुष्यता नाम की चीज नहीं बची है। लिखा गया: ”शर्म से मुक्ति मिली साले को’’। किसी दूसरे ने लिखा ”वह तो उसी दिन मर गया था जिस दिन उसने सरनेम हटाने की बात की थी।’’

वर्णवादी और धर्मवादी सोच की इंतहा यह है कि किरदार तक से नफरत। हम सोच सकते हैं कि हालात कितने बदतर हो गए हैं कि किसी चरित्र की भूमिका अदा करने पर लोग उस अभिनेता से नफरत करने लगते हैं, तो कल्पना की जा सकती है कि उस चरित्र से लोग कितनी नफरत करते होंगे जिसकी भूमिका वह निभा रहा होता है।

सुशांत की आत्महत्या की निष्पक्ष जांच के लिए चलाए जा रहे हस्ताक्षर अभियान में दो-तीन दिनों में ही पांच लाख से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। यह सुशांत की लोकप्रियता के साथ बॉलीवुड के परिवारवाद के खिलाफ आम लोगों के गुस्से का इजहार भी है। सुशांत को अपनी मां से प्यार था, जो पहले ही दिवंगत हो चुकी थीं। उन्होंने अपना आखिरी इंस्टाग्राम पोस्ट में मां के साथ अपनी फोटो साझा करते हुए लिखा था, ”आंसुओं से धुंधलाता अतीत धुंधलाता हुआ, मुस्कुराते हुए और एक क्षणभंगुर जीवन को संजोने वाले सपनों में, दोनों के बीच बातचीत।’’

समयांतर, जुलाई, 2020

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