अश्वेतों की जिंदगी का महत्त्व

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  • सिद्धार्थ

आधुनिक युग में मानव जाति की नियति  तय करने वाली पश्चिमी दुनिया (साम्राज्यवादी दुनिया)विशेषकर अमेरिका ‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ (कालों की जिंदगी का अर्थ है) नामक एक बड़े जनांदोलन की चपेट में है, 1960 के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में काले (अफ्रीकी मूल के अमेरिकी) लोगों के समान नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन (सिविल राइट मूवमेंट) के बाद अमेरिका को सबसे बड़े जनांदोलन का सामना करना पड़ा रहा है।

विगत 25 मई को 46 वर्षीय अफ्रीकी-अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या के बाद अमेरिका से शुरू हुआ यह जनांदोलन पश्चिमी योरोप के देशों में भी फैल चुका है। इसने आस्ट्रेलिया को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। ऐसे समय जब कोरोना महामारी से बचाव के लिए लोगों से, घरों में दुबके रहने के लिए कहा जा रहा है और कम से कम भारत जैसे देशों में बहुलांश लोग हर तरह के अन्याय और नागरिक अधिकारों के हनन को चुपचाप बर्दाश्त करते हुए दुबके हुए भी हैं, उस स्थिति में भी लाखों की संख्या में अमेरिका के लोग-विशेषकर युवा- नस्लवादी अन्याय के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं। अमेरिका, पश्चिमी योरोप और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में लोग न केवल कोरोना के डर को, बल्कि शासकों की चेतावनियों, अदालतों के प्रतिबंधों और पुलिस की संगीनों की ऐसी-तैसी करते हुए अन्याय के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं। कोई भी कफ्र्यू, कोई भी आंसू गैस, प्लास्टिक बुलेट या पुलिस की प्रताडऩा एवं गिरफ्तारी का कोई डर लोगों को घरों से निकल कर सड़कों पर संघर्ष करने से रोक नहीं पा रहा है। लोग जान जोखिम में डालकर अमेरिका में करीब 400 वर्षों से चले रहे नस्लवाद को एक बार फिर चुनौती दे रहे हैं। (अमेरिका में 1619 में एक युद्धपोत में गोरा कप्तान लिओन 20 अफ्रीकी दासों को लेकर वर्जिनिया के जेम्सटाउन पहुंचा था। उस समय अमेरिका ब्रिटेन का एक उपनिवेश था।) अपने शुरुआती दौर में अमेरिका में जनांदोलन इतना व्यापक, तीखा और आक्रामक था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को कुछ समय के लिए ह्वाइट हाउस के आपाताकालीन बंकर में छिपना पड़ा और बार-बार सेना बुलाने की चेतावनी देनी पड़ी।

इस जनांदोलन ने जहां एक ओर आधुनिकता, महानता, सभ्यता, जनतंत्र, समानता एवं स्वतंत्रता (लिबर्टी) के योरोपीय-अमेरिकी मुखौटे को तार-तार कर उनके असली विद्रूप (औपनिवेशिक, नस्लवादी, पूंजीवादी-साम्राज्यावदी)चेहरे को दुनिया के सामने उजागर किया, तो दूसरी ओर अमेरिकी-योरोपीय जनता के एक बड़े हिस्से ने, अन्याय विरोधी गहन जनवादी लोकतांत्रिक चेतना का सबूत भी पेश किया है। नस्लवाद विरोधी इस आंदोलन में कालों के साथ बड़ी संख्या में गोरे लोग भी शामिल हैं-विशेषकर युवा। अमेरिका-योरोप की सड़कों पर लोगों के हुजूम को देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह सिर्फ कालों का आंदोलन है। यह दृश्य इस आंदोलन का सबसे खूबसूरत पक्ष है।

इस आंदोलन ने योरोपीय-अमेरिकी सत्ता-संस्थानों के शीर्ष व्यक्तियों को अपने समाज के नस्लवादी अतीत एवं वर्तमान के लिए शर्मसार महसूस करने के लिए प्रेरित या मजबूर किया है। पुलिस अधिकारियों, अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के सदस्यों और कई अन्य संस्थानों के प्रमुखों ने घुटने टेककर कालों से क्षमा याचना की। भारी संख्या में गोरे लोगों द्वारा घुटने टेककर कालों से क्षमा मांगने वाले मानवीय मनुष्य की मुनष्यता पर भरोसा पैदा करते हैं।

क्या कभी भारत में तथाकथित उच्च जातियां अपने अपराधों के लिए शूद्र-अतिशूद्र कही जाने वाली जातियों-विशेषकर दलितों से क्षमा मांगेंगे और अपने एवं अपने पुरखों के अपराधों के लिए शर्ममार होगें? फिलहाल तो कोई उम्मीद नहीं दिखती।

कनाडा के राष्ट्रपति जस्टिन ट्रडो ने घुटने टेक कर नस्लवादी अतीत एवं वर्तमान के लिए माफी मांगी। योरोप-अमेरिका का कमोबेश पूरा बौद्धिक जगत- अकादमिक एवं गैर-अकादमिक बुद्धिजीवी- नस्लवाद विरोधी इस आंदोलन के पक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है। खुलेआम सिर्फ और सिर्फ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ही इन आंदोलनकारियों को दंगाई, लुटेरे एवं हिंसक भीड़ आदि कहकर संबोधित कर रहे हैं। यहां तक कि उन्होंने गोरों की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने वाले नारे ‘ह्वाइट पावर’ स्लोगन को भी अपना लिया और उसे ट्विट एवं रिट्विट किया। अमेरिका के विभिन्न राज्यों एवं अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए पुलिस सुधारों सहित विभिन्न सुधारों की घोषणा की है।

अमेरिका के इतिहास में पहली बार खेल क्लबों-विशेषकर फुटबाल- के प्रमुख ने खेलों में नस्लवाद की ऐतिहासिक उपस्थिति के लिए खेद प्रकट किया और खिलाडिय़ों-विशेषकर काले खिलाडिय़ों को नस्लवाद विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सेदारी करने की इजाजत दी। ट्रंप द्वारा आंदोलनकारियों के खिलाफ सेना उतारने के प्रस्ताव को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर अमेरिकी रक्षा मंत्री एवं पेंटागन (अमेरिका रक्षा विभाग का मुख्यालय) ने खारिज कर दिया। सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गोरेपन को श्रेष्ठ साबित करने वाले विज्ञापनों को हटाने का निर्णय लिया। यह सच है कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस द्वारा ज्यादतियां एवं क्रूरता भी दिखी, लेकिन कुल मिलाकर योरोप-अमेरिका दोनों जगहों पर, प्रदर्शन करने एवं विचारों के अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त जगह है, इसका गवाह यह आंदोलन बना।

 

भारत का संदर्भ

इस आंदोलन को भारत के भारत के संदर्भ में देखें, दो बातें साफ दिखी। पहला यह कि योरोप-अमेरिका के भीतर अन्याय के प्रतिरोध एवं प्रतिवाद की गहन संवेदना एवं चेतना मौजूद है और उसे अभिव्यक्त करने का साहस भी लोगों के पास है, जिसका अभाव भारतीय समाज में दिखता है। दूसरी बात यह कि शासन-सत्ता हर विरोध, प्रतिरोध एवं प्रतिवाद को राष्ट्र विरोधी एवं समाज विरोधी ठहराकर उसे कुचलने पर आमदा नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप जैसा कोई व्यक्ति (राष्ट्रपति) ऐसा करने की कोशिश करता भी है (ट्रंप ने भरपूर कोशिश की) तो उसे शासन-सत्ता की विभिन्न संस्थाओं से समर्थन प्राप्त नहीं होता।

अमेरिका का राष्ट्रपति जैसा ताकतवर व्यक्ति भी मनचाहे तरीके से आंदोलन को कुचल नहीं सकता। यह तथ्य कम-कम से कम इस बात का सबूत तो है ही कि अमेरिका-योरोप में लोकतांत्रिक संस्थाएं किसी सनकी, मूर्ख राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के हाथ की कठपुतली नहीं हैं, जैसा कि भारत में अक्सर दिखता है। योरोपीय-मीडिया का चरित्र गहरे स्तर पर चाहे जितना भी सत्ता-संरचना से जुड़ा हुआ हो, लेकिन नस्लवाद विरोधी इस आंदोलन में वह भारतीय मीडिया की तरह शासन प्रमुख की चाटुकारिता करता नजर नहीं आता। काफी हद तक उसने अपनी स्वायत्ता का परिचय देते हुए नस्लवाद के घिनौने इतिहास एवं वर्तमान से अपने पाठकों को परिचित कराने का काम करता नजर आ रहा है। वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबारों ने अमेरिकी क्रांति (1776) के शिखर पुरूषों जॉर्ज वाशिंगटन आदि के नस्लवादी चरित्र को विस्तृत तथ्यों के साथ उजागर किया और नस्लवाद विरोधी लोगों के नजरिए को पर्याप्त जगह दी।

यह जनांदोलन योरोपीय-अमेरिकी महानता के इतिहास और प्रतीकों-स्मारकों की वास्तविक हकीकत से पूरी दुनिया को अवगत करा रहा है। यह योरोप एवं अमेरिका के इतिहास को अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों एवं औपनिवेशिक देशों की जनता की नजर से देखने का प्रस्ताव कर रहा है। इस आंदोलन ने इस तथ्य को एक बार फिर पुरजोर तरीके से स्थापित किया है कि योरोप-अमेरिका में पूंजीवादी विकास एवं आर्थिक समृद्धि अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका की निर्मम लूट, अमेरिका के मूल निवासियों (रेड इंडियन) के जनसंहार और अफ्रीकी दासों के व्यापार पर ही फली-फूली। यह अमेरिका एवं योरोप के तथाकथित महान नेताओं की महानता का वास्तविक सच क्या है, इसे भी उद्घाटित कर रहा है।

‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ जनांदोलन जहां एक ओर अमेरिकी समाज में पिछले 400 वर्षों से विद्यमान संस्थागत एवं संरचनागत नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहा है, वहीं वह उन लोगों की प्रतिमाओं एवं स्मारकों को भी निशाना बना रहा है, जो लोग किसी भी तरह से अफ्रीकी लोगों को दोयम दर्जे का मानते थे,उन्हें गुलाम बनाकर उनका व्यापार करते थे, उन्हें गुलाम के रूप में रखते एवं उनसे काम कराते थे। अफ्रीकी लोगों को नस्ल के आधार पर दोयम दर्जे का मानते थे या जो लोग अफ्रीकी लोगों की दासता के पक्ष में थे।

 

गांधी और चर्चिल की भूमिकाएं

नस्ल के आधार पर अफ्रीकी लोगों को दोयम दर्जे का मानने वाले लोगों की सूची में जनांदोलनकारियों की नजर में मोहनदास कर्मचंद गांधी भी शामिल हैं। इसके चलते 25 मई को जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद शुरू हुए प्रदर्शनों के निशाने पर अमेरिका में 2-3 जून को गांधी की वाशिंगटन डीसी स्थित प्रतिमा भी आई। प्रदर्शनकारियों ने उनकी प्रतिमा को विद्रूप कर दिया। बाद में उनकी प्रतिमा को ढक दिया गया और प्रदर्शनकारियों के आक्रोश से बचाने के लिए उसकी सुरक्षा का मुकम्मल बंदोबस्त करना पड़ा। 8 जून को प्रदर्शकारियों ने लंदन में भी पार्लियामेंट स्क्वायर स्थिति गांधी की प्रतिमा को विद्रूप किया और उन्हें नस्लवादी के रूप में चिन्हित किया। उनकी प्रतिमा के आधार स्तम्भ पर प्रदर्शनकारियों ने रेसिस्ट (नस्लवादी) लिख दिया। गांधी की प्रतिमाओं को हटाने के लिए याचिकाएं भी प्रस्तुत की गईं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंसटन चर्चिल को भी प्रदर्शनकारियों ने नस्लवादी के रूप में चिन्हित किया,जिनकी महानता को सम्मानित करते हुए नोबेल पुरस्कार समिति ने उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया था। बहुत सारे तथ्य और स्वयं चर्चिल के कथन इस बात की पुष्टि करते हैं कि वह नस्लवादी थे। वह अफ्रीकी, रेड इंडियन, भारतीय और चीनी लोगों को गोरों की तुलना में दोयम दर्जे का मानते थे। 1943 के बंगाल के अकाल में करीब 40 लाख लोगों की मौत के लिए भी उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर जिम्मेदार माना जाता है, उस दौरान वह प्रधानमंत्री थे। चर्चिल संबंधी इन तथ्यों का खुलासा विस्तार से शशि थरूर ने अपनी किताब एन एरा ऑफ डार्कनेस: द ब्रिटिश एंपायर इन इंडिया (2016) में किया है।

 

क्रिस्टोफर कोलंबस की दास्तान

लातिन अमेरिकी लोगों के जनसंहार की शुरुआत करने वाले और उन्हें दास बनाकर वहां से दास व्यापार की शुरुआत करने वाले क्रिस्टोफर कोलंबस (1459- 20 मई 1506) की प्रतिमा को भी प्रदर्शनकारियों ने ध्वस्त कर दिया। उसकी कुछ प्रतिमाओं का सिर तोड़ दिया गया, कुछ को आग के हवाले किया गया और एक प्रतिमा को झील में फेंक दिया गया।

क्रिस्टोफर कोलंबस वह पहला व्यक्ति है, जिसने लातिन अमेरिकी मूल निवासियों की जनसंहार की शुरुआत की, लातिन अमेरिका एवं कैरिबियन द्विपों से लूट प्रारंभ की और कुछ लातिन अमेरिकियों को दास बनाकर ले गया। फिर तो लातिन अमेरिकी महाद्वीप के विनाश, नरसंहार और लूट का सिलसिला ही शुरू हो गया। अमेरिकी इतिहासकार हावर्ड जीन अपनी किताब पीपुल्स हिस्ट्री यूनाइटेड स्टेट (1980) में इस हृदय विदारक कहानी को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है। इस महाद्वीप के मूल निवासियों के जनसंहार, लूट और विनाश की त्रासदभरी कहानी को एडुवार्डो गैलियानो ने अपनी किताब ओपेन वेंस ऑफ लैटिन अमेरिका: फाइव सेंचुरीज ऑफ पीलेज ऑफ कंटीनेंट में बयां की है।

10 मई को ब्रिटेन के ब्रिस्टल शहर में स्थिति 17 वीं शताब्दी के दास व्यापारी एडवर्ड क्लोस्टोन की प्रतिमा को प्रर्दशन-कारियों ने गिराकर नदी में फेक दिया। इस व्यापारी ने करीब 80,000 अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाकर अमेरिका में बेचा था। उसे ब्रिटेन को समृद्ध बनाने वाले एक महान व्यक्ति के रूप में सदियों से सम्मानित किया जाता रहा है। लेकिन नस्लवाद का विरोध करने वाले प्रदर्शकारियों ने उसे दास व्यापारी और हत्यारे के रूप में चिन्हित किया।

लंदन के संग्रहालय के बाहर लगी दास व्यापारी राबर्ट मिलिगन की प्रतिमा को प्रशासन ने अपनी पहलकदमी पर हटा दिया। ‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ आंदोलन के प्रदर्शकारियों के निशाने पर वे सभी व्यक्तित्व और स्मारक आए जो किसी भी रूप में दास व्यापार, दासता, नस्लवाद और मूल निवासियों के जनसंहार से जुड़े हुए हैं। इसमें स्कॉटिश राजनीतिज्ञ हेनरी डुनडास का स्मारक और बेल्जिम के राजा लियोपोल्ड द्वितीय शामिल हैं। लियोपोल्ड द्वितीय एक करोड़ लोगों के जनसंहार के लिए जिम्मेदार माना जाता है। उसका शासन काल 1865 से 1890 तक रहा। मारे गए लोगों में बहुलांश कांगो के थे। कांगो बेल्जियम का उपनिवेश था।

अमेरिका के वर्जिना राज्य ने खुद ही अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों की दासता के समर्थन में लडऩे वाले जनरल राबर्ट ई. ली की प्रतिमा को हटाने का निर्णय लिया, जिसे प्रदर्शनकारियों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। ली अमेरिका में दासता खत्म करने लिए 1861 से 1865 तक चले युद्ध में उन दक्षिणी राज्यों के संघ (कंफेडरेशन स्टेट) की सेना का एक कमांडर था, जो दासता को कायम करने के पक्ष में संघर्ष कर रहे थे।

 

जॉर्ज वाशिंगटन और थॉमस जेफर्सन के कारनामे

अब प्रदर्शनकारियों के निशाने पर जॉर्ज वाशिंगटन और थॉमस जेफर्सन जैसे लोग भी आ गए हैं। यह स्थापित तथ्य है कि अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंटन दास-दासियों के मालिक थे और उन्होंने अपनी वसीयत में 160 दास-दासियां छोड़ी थीं। अमेरिकी स्वाधीनता के घोषणापत्र के रचयिता थॉमस जेफर्सन अपनी यौनेच्छा की पूर्ति के लिए छांट-छांट कर नीग्रो युवतियां खरीदते थे और उनसे उत्पन्न लड़कियों को वेश्या कारोबारियों को बेचते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनकी दो लड़कियों को वेश्या कारोबार के लिए बेचा गया, जिससे उस जमाने में प्रति लड़की 1,500 डॉलर मिले। अमेरिका के 10 वें राष्ट्रपति जॉन टाइलर भी अपनी नीग्रों दासियों से पैदा हुई बेटियों को वेश्यावृत्ति के लिए बेचते थे।

प्रदर्शकारी नस्लवाद एवं उपनिवेशवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देख रहे हैं, क्योंकि उपनिवेशवाद की पैदाईश नस्लवाद है और इस नस्लवाद ने उपनिवेशवाद के लिए भौतिक एवं वैचारिक आधार तैयार किया। अकारण नहीं है कि ब्लैक लाइफ मूंवमेंट आंदोलन दास व्यापारियों, दास रखने वालों, दासता का समर्थन करने वालों के साथ ही साथ उपनिवेशवाद के प्रतीकों को भी निशाना बना रहा है, जिसका एक उदाहरण भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नींव डालने वाले लार्ड क्लॉइव की प्रतिमा को (इंग्लैंड से) को हटाने के लिए सैकड़ों लोगों द्वारा ऑनलाइन याचिका दाखिल करना है। ‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ आंदोलन योरोप-अमेरिका के अब तक के स्थापित इतिहास एवं विरासत पर गंभीर प्रश्न उठा रहा है और इतिहास, विरासत एवं नायकों-महानायकों को नए सिरे से देखने और उनका पुर्नमूल्यांकन करने की मांग कर रहा है। इसका प्रस्थान बिंदु श्वेत श्रेष्ठता बोध से हर स्तर पर मुक्ति है।

‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ आंदोलन ने खुद को केवल नस्लवाद एवं उपनिवेशवाद के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक प्रतीकों तक सीमित नहीं रखा है, क्योंकि अमेरिका में नस्लवाद केवल सांस्कृतिक, वैचारिक या मनोवैज्ञानिक मामला नहीं, भारत की वर्ण-जाति व्यवस्था की तरह यह व्यवस्थागत, संस्थागत एवं संरचनागत समस्या है। नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष करने वालों का एक बड़ा हिसा इस तथ्य से परिचित है कि अमेरिका में नस्लवाद व्यवस्थागत, संस्थागत एवं सरंचनागत समस्या है, जिसकी जड़ें अमेरिकी पूंजीवाद के जन्म एवं विकास में निहित हैं। यह सिर्फ गोरों लोगों का कालों की तुलना में श्रेष्ठताबोध की मानसिकता तक सीमित नहीं है यानी नस्लवाद की जड़ें अमेरिकी पूंजीवाद, अमेरिकी समाज व्यवस्था और राजनीति से गहरे तौर पर जुड़ी हैं, जिसने अमेरिका की सभी संस्थाओं को किसी न किसी स्तर पर अपने गिरफ्त में ले रखा है, सतह पर जिसका सबसे क्रूर एवं घिनौना रूप काले लोगों के प्रति पुलिस के रवैए में दिखाई देता है। आमतौर पर किसी भी देश की पुलिस का रवैया उस देश बुनियादी बनावट को अभिव्यक्त करती है। इसको भारत के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। भारत में पुलिस का आदिवासियों, दलितों, मुस्लिमों, महिलाओं एवं गरीबों के प्रति रवैया भारतीय समाज की बुनियादी बनावट एवं सोच को ही अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

अमेरिका में नस्लवाद की जड़ें कितनी गहरी और संस्थागत हैं, इसका एक अंदाज कोविड-19 से होने वाली मौतों के तथ्य से भी लगाया जा सकता है। ब्रितानवी अखबार गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार काले लोगों की कोविड-19 से मौत की दर श्वेत लोगों की तुलना में दो गुना से अधिक है। जहां प्रति एक लाख पर 20.7 श्वेतों की मौत हुई, वहीं 50.3 काले लोगों की हुई। लैटिनो और एशियाई अमेरिकियों में यह दर क्रमश: 22.9 और 22.7 है। तथ्य यह है कि अमेरिका की कुल आबादी में कालों लोगों का अनुपात करीब 13.4 प्रतिशत है। कुछ आंकड़े यह अनुपात 12.7 प्रतिशत बताते हैं।

अधिकांश अध्येताओं का मानना है कि अमेरिका में नस्लवाद की समस्या गोरे लोगों की सिर्फ मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है, यह अमेरिकी की समग्र व्यवस्था से नाभिनाल जुड़ा हुआ है। सारे तथ्य इसकी पुष्टि करते हैं। सबसे पहले पुलिस और जेल से जुड़े कुछ आंकड़े लेते हैं, क्योंकि इस आंदोलन की शुरुआत पुलिस द्वारा एक 46 वर्षीय काले व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या से हुई थी, एक पुलिस अधिकारी ने जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन को आठ मिनट 46 सेकेंड तक अपने घुटनों के नीचे दबाए रखा, वह चिल्लाता रहा है कि मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं पुलिसवाले को कोई असर ही नहीं हुआ। अंत में उसकी मौत हो गई। वैसे कालों के साथ घटने वाली यह कोई पहली घटना नहीं थी, वर्ष-दर-वर्ष ऐसी घटनाएं होती रहती हैं और ऐसे पुलिस अधिकारी न्यापालिका द्वारा आसानी से बरी भी हो जाते हैं। बहुत कम मामलों में ऐसे पुलिस अधिकारियों को सजा होती है। इसे लेकर काले लोगों में सबसे अधिक आक्रोश है, इसी कारण सबसे अधिक पुलिस सुधारों की बात की जा रही है। 2019 की जनगणना के अनुसार अमेरिका में अश्वेत लोगों (काले) की संख्या अमेरिका की कुल जनसंख्या का 13.4 प्रतिशत है। इस तरह अमेरिका में करीब तीन करोड़ 60 लाख अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी रहते हैं। इसमें से अधिकांश ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा गुलामों के रूप में लाए गए चार लाख अफ्रीकी लोगों के वंशज हैं,लेकिन पुलिस की गोली से मारे जाने के मामले में काले लोगों को अनुपात एक चौथाई है। वाशिंटगट पोस्ट के अनुसार 2019 में पुलिस के हाथों 1004 लोग मारे गए, जिसमें 236 अफ्रीकी-अमेरिकी थे यानी मारे गए कुल लोगों का करीब एक चौथाई। अमेरिका में काले कैदियों का अनुपात 37.5 प्रतिशत है, जबकि कालों की आबादी 13.4 प्रतिशत है।

 

व्यवस्थागत समस्या

दासता-नस्लवाद का चार सौ वर्षों का इतिहास और वर्तमान समय के सारे तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि नस्लवाद व्यवस्थागत एवं संरचनागत समस्या है और इसके समाधान के लिए व्यवस्थागत एवं संरचना परिवर्तन की जरूरत है। डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति के दावेदार जो बिडेन ने भी यह स्वीकार किया कि नस्लवाद की समस्या एक व्यवस्थागत एवं संरचनागत समस्या है। इसको इससे भी समझा जा सकता है कि करीब 155 वर्ष पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के कार्यकाल में दासता के खत्म करने की घोषणा के बाद भी आखिर क्यों नस्लवाद अमेरिकी समाज की बुनियादी पहचानों में से एक बना हुआ है।

आखिर क्यों अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के बराक ओबामा के आठ वर्ष तक राष्ट्रपति रहने के बावजूद भी कालों की स्थिति में कोई बुनियादी या बड़े पैमाने पर परिवर्तन न नहीं दिखाई देता, करीब स्थिति जस की तस बनी हुई है, मनोवैज्ञानिक स्तर पर चाहे जो फर्क पड़ा हो। हां यह सच है कि बराक ओबामा डोनाल्ड ट्रंप की तरह गोरों की श्रेष्ठता कायम रखने की खुली राजनीति नहीं करते थे और ना ही कालों के प्रति घृणा एवं हिंसा को खुलेआम प्रोत्साहन देते थे। इसके उलट कालों के प्रति उनके भीतर एक गहरी सहानुभूति थी, लेकिन इस सहानुभूति से कालों की स्थिति पर कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ा,क्योंकि ओबामा जिस व्यवस्था को वह संचालित कर रहे थे, उसकी बुनियाद में कालों का शोषण-उत्पीडऩ निहित है, जिसे न तो ओबामा बदल सकते थे और न ही उन्होंने उसे बदलने की कोई कोशिश की, क्योंकि अमेरिका के जिस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को वह संचालित कर रहे थे, उसकी नाभि का एक तत्व नस्लवाद भी है, जिसका जन्म पूंजीवाद जन्म के साथ ही हुआ था।

कालों के प्रति सतह पर दिखने वाली पुलिस की क्रूरता एवं बर्बरता भले ही कालों के प्रति गोरे पुलिस वालों की नस्लीय घृणा में दिखती हो, लेकिन जड़ें बहुलांश काले लोगों की बदत्तर आर्थिक हालात में निहित हैं, जो ऐतिहासिक तौर उनका पीछा करती आ रही है। 2018 में अमेरिका में 8.1 प्रतिशत गोरे गरीबी कि रेखा के नीचे थे, जबकि कालों के के संदर्भ में यह प्रतिशत 20.8 था। बच्चों (18 वर्ष तक) के मामले में कालों के संदर्भ में यह प्रतिशत 32.0 प्रतिशत था। गोरे बच्चों के संदर्भ में यह प्रतिशत 11.0 था।

1947 में गोरों की तुलना में कालों की औसत पारिवारिक आय 51.1 प्रतिशत यानी करीब आधी थी। 1960 के दशक के ‘सिविल राइट मूंवमेंट’ के बाद कालों के सशक्तिकरण के लिए बने कानूनों के बाद इसमें थोड़ी से वृद्धि हुई, यह गोरों की तुलना में 61.3 प्रतिशत हो गई, लेकिन 2017 में यह पुन:कम होकर 59.1 प्रतिशत हो गई। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि 20 जनवरी 2009 से 19 जनवरी 2017 तक बराक ओबामा राष्ट्रपति थे। सारे आंकडे बताते है कि इस दौर में भी गोरों की तुलना में कालों की आय में गिरावट जारी रही है। 2016 के आंकड़े बताते हैं कि कालों की औसत कुल संपदा गोरों की तुलना में सिर्फ नौ प्रतिशत थी।

अमेरिका में कालों के बीच बेरोजगारी की दर आम तौर पर गोरों की तुलना में दो गुना रहती है। इतना ही नहीं, अमेरिका में गोरे लोगों की तुलना में कालों को कम मजदूरी या तनख्वाह मिलती है। काले लोग गोरों की तुलना में तीन चौथाई से कम मजदूरी पाते हैं। काले लोगों को ऐसे काम मिलते हैं, जिसमें मजदूरी बहुत कम है। उच्च मजदूरी या तनख्वाह वाली नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। सबसे अधिक तनख्वाह वाली नौकरियों में गोरों का प्रतिनिधित्व 79 प्रतिशत है,जबकि कालों का प्रतिनिधित्व 9.6 प्रतिशत हैं, दोनों की जनंसख्या क्रमश: 74 प्रतिशत और 13.4 प्रतिशत है।

जीवन- प्रत्याशा, प्रसव के दौरान मृत्यु दर और बाल मृत्युदर, 2019 में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि 2017 में काले लोगों की जीवन- प्रत्याशा गोरे लोगों की तुलना में चार वर्ष कम थी। काले समुदाय की महिलाओं में प्रसव के दौरान मृत्यु दर 42.8 प्रतिशत, जबकि गोरे समुदाय के महिलाओं के संदर्भ में यह दर 13.0 प्रतिशत थी यानी काले समुदाय की महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु-दर गोरे समुदाय की महिलाओं की तुलना में तीन गुना अधिक थी। काले समुदाय में बाल मृत्युदर गोरों की तुलना में दो गुनी थी। 2019 के आंकडे बताते हैं कि 73.7 प्रतिशत गोरे लोगों के पास अपना घर था, जबकि सिर्फ 44.0 प्रतिशत कालों के पास अपना घर था यानी आधे से अधिक काले लोग किराए के घरों में रहते थे या बेघर थे। भारत के दलितों की तरह अमेरिका में भी काले लोगों को गोरों के इलाके में घर खरीदना या किराए पर लेना एक मुश्किल भरा काम है।

 

दासप्रथा का अंत

अमेरिका में दास प्रथा को समाप्त हुए करीब 155 वर्ष पूरे हो गए हैं। 1861-1865 तक चले गृहयुद्ध में करीब छह लाख लोग मारे गए थे। उसके बाद कालों को अधिकार प्रदान करने के लिए तीन संविधान संशोधन हुए, कई सारे सिविल राइट मूवमेंट हुए, जिसमें 1963 से 1968 तक मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में चला सिविल राइट मूवमेंट भी शामिल है। बहुत सारे अन्य सुधारों की भी घोषणा हुई, कालों की जीवन स्थितियों में एक हद सुधार भी हुआ, लेकिन नस्लवाद बदले रूपों में बदस्तूर जारी रहा।

आज एक बार फिर एक व्यापक एवं तीखा नस्लवाद विरोधी आंदोलन दिखाई दे रहा है, आंदोलन के दबाव में कई सारे सुधारों की घोषणाएं भी हुई हैं, डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन अमेरिका से नस्लवाद की समाप्ति के लिए व्यवस्थागत एवं संरचनागत परिवर्तन की बातें कर रहे हैं, जबकि डोनाल्ड ट्रंप गोरे-कालों के बीच नफरत एवं विद्वेष पैदा करके गोरे लोगों के बहुमत का समर्थन जुटाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। लेकिन नस्लवाद विरोधी आंदोलनकारी ऐतिहासिक अनुभवों से सबक लेते हुए जो बिडेन पर भी भरोसा करने को तैयार नहीं दिख रहे हैं, भले ही वे तात्कालिक तौर पर डोनाल्ड ट्रंप को हराने के लिए जो बिडेन के पक्ष में नवंबर में होने वाले चुनावों में मतदान करें।

नस्लवाद विरोधी आंदोलन अध्येताओं एवं कार्यकर्ताओं के सामने यह एक स्थापित तथ्य है कि अमेरिका में नस्लवाद एक व्यवस्थागत, संस्थागत एवं संरचनागत समस्या है, तो तय है कि इसका समाधान भी व्यवस्थागत, संस्थागत एवं संरचनागत समाधना करने से होगा। इसके लिए निम्न उपाय सुझाए जा रहे हैं:

– सबसे लिए स्वतंत्रता और न्याय: बिना किसी अपवाद के समान अधिकार और समान अवसर।

-राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र का विस्तार

– तात्कालिक दिखावे के सतही समाधान की जगह समग्रता में समाधान

इसके लिए निम्न ठोस उपाय किए जाने की मांग की है:

– सबके लिए रोजगार

– ऐसा रोजगार जिससे सम्मानजनक जिंदगी जी जा सके।

-जो लोग बेरोजगार है, उनके लिए ऐसी न्यूनतम आय की गारंटी, जिसमे गरिमापूर्ण जीवन जीया जा सके।

– सभी के लिए खाद्य सुरक्षा

– सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण एवं सुरक्षित आवास की व्यवस्था

– सभी के स्वास्थ्य की सुरक्षा की सार्वजनिक गारंटी

– सभी के लिए शिक्षा का समान अवसर

– सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा

– आय एवं संपत्ति में असमानता को कम से कम करना

– सांस्कृतिक विविधता के लिए पूर्ण लोकतांत्रिक स्पेस

– पुलिस एवं न्याय व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन।

उपरोक्त मांगे इस बात का सबूत हैं कि अन्याय के शिकार किसी समुदाय की अन्याय से मुक्ति अकेले नहीं हो सकती है, उसे अपने साथ सबसे लिए न्याय की मांग करनी होगी। यही अन्याय के शिकार लोगों की आपसी एकता का आधार बन सकता है,जो सबको न्याय दिला सकता है।

अमेरिका-योरोप में नस्लवाद विरोधी ‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ आंदोलन न केवल अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों के लिए बल्कि पूरी मनुष्य जाति के लिए एक उम्मीद की किरण ले कर आया है। देखते-देखते यह वर्तमान एवं ऐतिहासिक अन्याय के प्रतिरोध का प्रतीक बन गया है। मानव जाति के कठिन से कठिन दौर में भी अपने लिए बेहतर भविष्य का रास्ता निकालती रही है, ‘ब्लैक लाइफ्स मैटर’ आंदोलन इस बात का संकेत है कि हम अन्याय, शोषण-उत्पीडऩ के शिकार सभी तरह के बंटवारों को तोड़कर एकजुट हो सकते हैं और धरती से अन्याय और शोषण उत्पीडऩ के सभी रूपों का खात्मा कर स्वतंत्रता, समता,न्याय और सबके लिए समृद्धि आधारित लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर सकते हैं। n

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