पलायनः दो सदी की त्रासदी

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  • सिद्धार्थ

सबसे बड़ा प्रश्न यह कि सबसे अधिक करीब 60 प्रतिशत से अधिक प्रवासी मजदूर मध्य गंगा के मैदान के भोजपुरी भाषा-भाषी उन 64 जिलों से ही क्यों आते हैं, जो पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़ते हैं।

 

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता ‘ठाकुर का कुआं’ में यह तीखा सवाल पूछा है कि क्या मेहनतकशों का भी कोई देश, शहर या गांव होता है, जिसे वे अपना देश, शहर और गांव कह सकें। देश किसका होता है, किसका नहीं, इस संदर्भ में एक प्रश्नोत्तर गांधी और आंबेडकर के बीच हुआ था, जब गांधी ने आंबेडकर से कहा कि यह देश आपकी भी मातृभूमि है, तो दुख एवं आक्रोश भरे तीखे स्वर में आंबेडकर का उत्तर था, मिस्टर गांधी जिस देश में मुझे और मेरे लोगों को वह भी अधिकार प्राप्त न हों, जो कुत्ते-बिल्ली को भी प्राप्त हैं, उस देश को कैसे मैं अपनी मातृभूमि कहूं।

आज यह सवाल कानों में उंगुली डालकर देश का मेहनतकश वर्ग पूछ रहा है, क्या यह देश उनका भी है? या वे सिर्फ अमीरों के लिए स्वर्ग का निर्माण करने के लिए हैं और जब स्वर्ग बन जाता है या स्वर्ग बनाने के लिए उनकी जरूरत नहीं रहती, उन्हें भगा दिया जाता है, जिसे गोरख पांडेय ने ‘स्वर्ग से विदाई’ कहा था। गोरख पांडेय की कविता का मुख्य संदर्भ गांवों से महानगरों में रोजी-रोटी की तलाश में आए मजदूर हैं, जो अपने मालिकों के लिए स्वर्ग का निर्माण करते हैं और जब स्वर्ग तैयार हो जाता है, उन्हें विदा कर दिया जाता है।

कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए हमारे प्रधानमंत्री ने साढ़े तीन घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी। इस घोषणा के तुरंत बाद ज्यां द्रेज जैसे जन अर्थशास्त्रियों ने चेतावनी दी थी कि यदि तुरंत ही प्रवासी मजदूरों के लिए रहने, खाने और उनके लिए नकदी का मुकम्मल इंतजाम नहीं किया गया, तो यह लॉकडाउन मजदूरों-विशेषकर प्रवासी मजदूरों पर कहर बनकर टूटेगा। और वही हुआ। लॉकडाउन प्रवासी मजदूरों के लिए महाविपदा बनकर आया। मेहनकशों की त्रासदी के ऐसे-ऐसे मंजर दिखे, जिन्हें देखकर किसी की भी रूह कांप जाए, पत्थर भी पिघल जाए। भले पत्थर पिघल गए हों, लेकिन हमारे देश के शासकों और पूंजी के मालिकों के चेहरों पर शिकन भी नहीं दिखी। हमारे प्रधानमंत्री ने तो एक बार भी मजदूरों की आत्मा कंपा देने वाली व्यथा की चर्चा तक नहीं की। कुछ शब्दों में चर्चा की भी तो मजदूरों की त्रासद व्यथा-कथा को देश के लिए उनके द्वारा दी जाने वाली कुर्बानी ठहरा दिया और उनकी असहनीय पीड़ा और अपमान को तपस्या का नाम दे दिया, इससे ज्यादा बेहरहम-निर्मम टिप्पणी और क्या हो सकती थी।

 

एक तरफ खाई, दूसरी तरफ कुआं

सच तो यह है कि अपने घरों के लिए वापस लौटने वाले मजदूरों के लिए एक तरफ खाई थी, तो दूसरी तरफ कुआं। जिन शहरों को उन्होंने अपना खून-पसीना दिया, वही उनके लिए ऐसी खाई बन गए थे, जिसमें गिरकर मर जाने की भयावह हकीकत और आशंका उन्हें घेरे हुए थी। दूसरी तरफ सैंकड़ों किलोमीटर (12 सौ से 15 सौ किलोमीटर) पैदल चलकर उन घरों-गांवों में पहुंचने की चाह, जहां कि गरीबी-बेरोजगारी और अपमान से बचने के लिए वे शहरों में आए थे। उन्होंने खाई की जगह कुएं का विकल्प चुना और अपने उन घरों की ओर जैसे-तैसे लौट पड़े। कुछ घरों-गावों में पहुचं चुके हैं, कुछ स्टेशनों के बाहर कई-कई दिनों से ट्रेन में अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं, कुछ अभी पैदल या साइकिल या ठेले से घर जाने का रास्ता तय कर रहे हैं और कुछ राज्यों की सीमाओं पर बेबस-असहाय फंसे हुए हैं और कुछ घर पहुंचने की चाह में जान गंवा चुके हैं। घर-गांव लौटने वाले इन मजदूरों में सबसे अधिक युवा हैं, तो अधेढ़ एवं बूढ़े भी हैं। महिलाएं और बच्चे-बच्चियां भी हैं। इनमें कुछ की तो पूरी बसी-बसाई जिंदगी उजड़ गई है। बस एक चाह बची है किसी तरह घर पहुंच जाएं, फिर देखा जाएगा। हालांकि वहां एक अनिश्चित भविष्य उनके सामने मुंह बाए खड़ा है। शहर, मालिक, सत्ता, पक्ष-विपक्ष किसी ने उन्हें सहारा नहीं दिया, सहारा देने को कौन कहे, ढांढस भी नहीं बंधाया। उन्हें उनकी विपत्ति, त्रासदी और अपार दुख की घड़ी में अकेला छोड़ दिया।

मध्य गंगा का मैदान

प्रश्न यह उठता है कि ये प्रवासी मजदूर कहां से आते हैं, क्यों आते हैं, शौक से आते हैं या कोई विवशता इन्हें ढकेल कर यहां पहुंचा देती है। सबसे बड़ा प्रश्न यह कि सबसे अधिक करीब 60 प्रतिशत से अधिक प्रवासी मजदूर मध्य गंगा के मैदान के भोजपुरी भाषा-भाषी उन 64 जिलों से ही क्यों आते हैं, जो पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़ते हैं। मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अमदाबाद, चेन्नई जहां कहीं आजकल मजदूरों से पूछिए आप कहां जा रहे हैं, आप कहां जाना चाहते हैं, तो अधिकांशत: एक ही उत्तर होता है, बिहार-उत्तर प्रदेश। उत्तर प्रदेश का भी अक्सर मतलब पूर्वी उत्तर प्रदेश या उससे सटे जिले। शायद ही कोई पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हो।

प्रश्न यह भी है कि आखिर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूरों के पलायन का जो सिलसिला उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, यानी दो सौ वर्ष पूर्व शुरू हुआ था, वह आज तक जारी क्यों है? कभी करीब-करीब गुलाम गिरमिटिया मजदूर के रूप में जाने या भेजे जाने वाले ये लोग आज देश-देश के कोने-कोने में हर वह काम करते क्यों पाए जाते हैं जिन्हें कोई अन्य नागरिक करना नहीं चाहता।

यहां दो बातें स्पष्ट कर लेना जरूरी है। पहली यह कि पूर्वी उत्तर प्रदेश या पूर्वांचल के मजदूरों की पहचान देश के अन्य हिस्सों में ”भइया’’ या ”बिहारी’’ के रूप में ही होती है, क्योंकि उनकी बोली-बानी, रहन-सहन, खान-पान, शारीरिक रूप-रंग और सबसे बड़ी बात आर्थिक हालात कमोबेश एक ही तरह के होते हैं। वे एक तरह के काम भी करते हैं। भले ही कभी-कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश वाले शेखी बघारते दिखते हैं कि वे बिहार के नहीं हैं, लेकिन मुंबई-दिल्ली-बेंगलुरु-हैदराबाद-अहमदाबाद-चेन्नई के मूलवासी सबको ”बिहारी भइया लोगÓÓ ही समझते हैं और एक जैसा ही व्यवहार करते हैं और यही सच भी है कि दोनों (बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग) की स्थिति करीब-करीब एक ही है।

एक जगह से दूसरी जगह या एक प्रदेश से  दूसरे प्रदेश या एक देश से दूसरे देश के लिए प्रवास मोटा-मोटी दो तरह का होता है। पहला, बेबसी और असहायता से पैदा हुआ प्रवास, जिसमें मूल निवास स्थान पर आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और कई बार राजनीतिक कारणों से गुजर-बसर कर पाना मुश्किल होता है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से पलायन करने वाले मजदूरों का एक हिस्सा मौसमी मजदूरों का होता है, जो साल के करीब सात-आठ महीने दूसरे प्रदेशों में काम करने जाते हैं और शेष समय अपने मूल स्थान पर लौट आते हैं, क्योंकि उनके मूल स्थानों पर उन्हें तीन चार महीनों से अधिक का काम उपलब्ध नहीं होता है। ये तीन से पांच महीने वे होते हैं, जब वे दूसरों के खेतों में काम करते हैं या खुद की थोड़ी सी खेती बाड़ी कर लेते हैं।

दूसरे तरह का प्रवास बेहतर जिंदगी को और बेहतर तथा खूबसूरत बनाने के लिए होता है। पहले तरह के प्रवास का उदाहरण बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से मजदूरों का देश के विभिन्न हिस्सों या खाड़ी देशों में प्रवास है। दूसरे तरह के प्रवास का उदाहरण पंजाब से कनाडा या योरोप के अन्य देशों के लिए होने वाला प्रवास है। दूसरे प्रकार के प्रवास का एक उदाहरण देश के अमीरों द्वारा हर साल लाखों की संख्या में योरोप और अमेरिका में जाकर बस जाना है। जिन्हें बड़े सम्मान से भारत सरकार अप्रवासी भारतीय कहती है और उनके स्वागत के लिए पलक-पांवड़े बिछाए रहती है।

सबसे पहले देश में एक से दूसरी जगह पलायन या प्रवास करने वाले लोगों का आंकड़ा देखते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के भीतर 45 करोड़ लोगों ने एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए पलायन किया। 2001 की जनगणना से इसकी तुलना करें, पाते हैं कि 30 प्रतिशत अधिक लोगों ने पलायन किया। अधिकांश विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तविक पलायन इससे अधिक है। पलायन करने वाले सभी लोग मजदूर नहीं होते हैं, सरकारी आंकड़े और विशेषज्ञों की रिपोर्टें बताती हैं कि करीब एक जगह से दूसरी जगह या एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन या प्रवास करने वालों में 30 प्रतिशत से अधिक यानी करीब 15 करोड़ मजदूर हैं, जो रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं। इसमें भी दो तरह के लोग हैं, एक वे जो एक राज्य के भीतर ही रोजी-रोटी के लिए पलायन करते हैं और दूसरे वे जो एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करते हैं। लॉकडाउन के दौरान जिन मजदूरों की घर वापासी की तस्वीरें हमने देखीं या देख रहे हैं, वे एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने वालों की थीं और हैं।

2011 की जनगणना और एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस) के अनुसार एक राज्य से दूसरे राज्य में  छह करोड़ 50 लाख लोगों ने पलायन किया, जिसमें दो करोड़ 20 लाख मजदूर थे। 2011 की जनगणना के बाद इस संख्या में बड़े पैमाने पर इजाफा हुआ है, जिसके सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने वाले मजदूरों में 30 प्रतिशत यानी करीब 66 लाख दिहाड़ी मजदूर हैं, करीब इतने ही ठेले-खोमचे या अन्य स्वरोगार करने वाले हैं। शेष जो नियमित रोजगार पाए हैं, वे भी अस्थायी हैं और असंगठित क्षेत्र में हैं।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज (भारतीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, आईआईपीएस) के हाल के आंकड़े (फरवरी, 2020) बताते हैं कि बिहार के आधे से अधिक परिवारों का कोई न कोई सदस्य रोजी-रोटी की तलाश में  देश के अन्य राज्यों या विदेशों- अधिकांश खाड़ी के देशों में जाता है। बिहार के ये आधे से अधिक परिवार इन लोगों द्वारा भेजे गए पैसे से जीवन-यापन का एक बड़ा हिस्सा जुटाता है। यह रिपोर्ट आईआईपीएस के निदेशक और बिहार के शिक्षा मंत्री कृष्ण नंदन प्रसाद वर्मा ने संयुक्त रूप से जारी की। सबसे अधिक पलायन, पलायन के परंपरागत क्षेत्र पश्चिमी बिहार के जिलों से हुआ। सामाजिक समूहों में सबसे अधिक पलायन अन्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों (ओबीसी, एससी-एसटी) के समुदाय से हुआ। इस रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक पलायन भूमिहीन वर्गों में देखा गया। 85 प्रतिशत लोगों ने उन परिवारों से पलायन किया, जो या तो भूमिहीन थे या जिनके पास एक एकड़ से कम जमीन थी। शैक्षिक तौर पर देखा गया कि 85 प्रतिशत ऐसे लोगों ने पलायन किया, जो दसवीं या दसवीं से कम तक शिक्षा प्राप्त किए हुए थे। पलायन करने वालों का 90 प्रतिशत अस्थायी किस्म के कामों में लगे हुए थे।

जो लोग बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के मेहनतकश गरीब परिवारों की जमीनी हालात से परिचित नहीं होंगे, शायद उन्हें यह तथ्य जानकर आश्चर्य हो कि औसत तौर पर पलायन करने वाला एक मजदूर अपने घर साल भर में 26,020 रुपया ही भेज पाता है यानी औसत तौर पर प्रति महीने करीब 2,100 रुपया। पूर्वांचल के मजदूरों के संदर्भ में यह औसत 38,061 रुपया है यानी प्रति महीने करीब 3,100 रुपया। बिहार और पूर्वांचल के मेहनकश गरीब परिवारों के लिए यह प्रति महीने दो या तीन हजार रुपया जीने का सहारा देने वाली बहुत बड़ी राशि होती है। इसी कमाई से पेट भरने के अलावा वे बहुत सारे जीवन-मरण के अन्य काम भी कर लेते हैं। इसी कमाई से बच्चों की थोड़ी बेहतर पढ़ाई और परिवार का बीमारी के दौरान इलाज भी हो जाता है।

पूरे भारत में मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा केंद्र पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के 64 जिलों के इस क्षेत्र को मध्य गंगा का मैदान कहा जाता है। यह विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या घनत्व वाला क्षेत्र है। यहां की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। सांस्कृतिक तौर पर यह बुद्ध, जैन और गोरखनाथ की भूमि रही है, जीवन का अंतिम समय कबीर ने भी यहीं व्यतीत किया था। यह 16 में से आठ महाजनपदों की भूमि रही है। यहीं बुद्ध एवं कबीर की परिनिर्वाण स्थली है। इस क्षेत्र की प्रभावी बोली भोजपुरी रही है। मिट्टी के उपजाऊ होने और जंगलों को काटना आसान होने के चलते प्राचीन काल में यह बसने के लिए सबसे उपयुक्त स्थल था इसलिए यहां सघन मानव बस्तियां बसीं।

 

पलायन की पृष्ठभूमि

लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू से ही हालातों के बिगडऩे के प्रमाण मिलने लगते हैं। पेट पालने के लिए दर-दर की ठोकर खाना, हाड़तोड़ परिश्रम वाले वे सारे काम करना जो कोई नहीं करना चाहता और सबसे अमानवीय हालातों में रहना तथा हर तरह का अपमान बर्दाश्त करके भी जीना, बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की सदियों से नियति बन गई है। आज के दौर में ”भइया’’ और ”बिहारी’’ जैसे शब्द गालियों की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। पहले लोगों ने कोलकाता और बर्मा जाना शुरू किया। फिर घर-बार, गांव-जवार क्या देश छोड़कर करीब-करीब गुलाम के रूप में मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो आदि बिराने-अनजाने देशों में जाने या ले जाए जाने का जो सिलसिला गिरमिटिया मजदूर के रूप में आज से करीब 185 वर्ष पहले शुरू हुआ, वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है।

सन 1838 में पहली बार 25,000 भोजपुरिया लोगों को गिरमिटिया शर्तों के तहत मॉरिशस भेजा गया। गिरमिटिया मजदूर उन मजदूरों को कहा जाता था, जिन्हें ब्रिटिश सरकार एक ‘एग्रीमेंट’ के तहत ब्रिटिश उपनिवेशों या अन्य योरोपीय देशों के उपनिवेशों में भेजती थी। एग्रीमेंट शब्द का हिंदी अपभ्रंश गिरमिट बना, क्योंकि ये मजदूर एग्रीमेंट शब्द का उच्चारण गिरमिट के रूप में करते थे। इसके चलते बाद में इन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाने लगा।

एग्रीमेंट की शर्तें देखकर कोई भी बड़ी आसानी से कह सकता है कि इस एंग्रीमेंट के तहत जाने वाले मजदूरों की स्थिति करीब करीब दासों जैसी ही थी। कहने के लिए तो यह एग्रीमेंट पांच वर्षों के लिए होता था और मजदूर पांच वर्ष बीतने पर अपने घर वापस आ सकते थे, लेकिन बहुत कम मामलों में ऐसा हुआ कि मजदूर वापस आए हों, क्योंकि आने के लिए जो शर्तें थीं, उनका पालन कर पाना नामुकिन सा था। कुछ वहीं मर-खप गए और कुछ वहीं बस गए। कितने मजदूर भारत से इस एग्रीमेंट के तहत गए इसके सटीक आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अब तक के उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर विशेषज्ञों का जो अनुमान है, उसके अनुसार 1838 से 1917 के बीच भारत से 15 लाख से अधिक मजदूर ब्रिटिश और अन्य योरोपीय उपनिवेशों में भेजे गए।

गिरमिटिया मजदूरों में भी सर्वाधिक  भोजपुरी इलाके के ही लोग थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि फिजी, मॉरिशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद-टोबैगो जैसे देशों में आज भोजपुरी भाषा का बोल बाला है। यह कहीं सबसे अधिक बोली जाने वाली बोली है, तो कहीं दूसरे नंबर की बोली है। यह बोली गिरमिटिया मजदूरों के साथ इन देशों में पहुंची थी। गिरमिटिया के रूप मॉरिशस गए एक परिवार में जन्मे अभिमन्यु अनंत (9 अगस्त, 1937- 4 जून, 2018) ने 1977 में प्रकाशित अपने उपन्यास लाल पसीना में इन मजदूरों की त्रासदी को बयान करने की कोशिश की है।

 

पलायन की पीड़ा और भिखारी ठाकुर

पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी इलाके के लोगों के पलायन के दर्द को भोजपुरी समाज के सबसे सशक्त लेखक भिखारी ठाकुर (18 दिसंबर, 1887-10 जुलाई, 1971) ने अपने बिदेसिया नाटक में अभिव्यक्ति दी। यह नाटक 1917 में लिखा गया। यह भोजपुरी क्षेत्र का अब तक का सबसे लोकप्रिय और बार-बार खेला जाने वाला नाटक है। इस नाटक के गीतों में भी पलायन का दर्द और उससे पैदा हुई सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं मार्मिक तरीके से उभर का सामने आती हैं। इसका एक गीत आमतौर पर लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है, जिसमें स्त्री परदेश गए पति को याद कर रही है। इस गीत में भी पलायन का दर्द बखूबी उभरकर सामने आता है-

‘’ गवना कराइ सइयां घर बइठवले से अपने चलेले परदेस रे बिदेसिया।

चढ़ती जवनियां बैरिन भइली हमरी से के मोर हरिहैं कलेस रे बिदेसिया॥

दिनवां बितेला सइयां बटिया जोहत तोर रतिया बितेली जागि-जागि रे बिदेसिया।

घारि-राति गइले पहर राति गइले से धधके करेजवा में आगि रे बिदेसिया।।

करि के गवनवां भवनवां में छोडि़ कर, अपने परइलऽ पुरुबवा बलमुआं।

अंखिया से दिन भर गिरे लोर ढर-ढर, बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआं।

जिस वर्ग-जाति के लोग पलायन करने को सबसे अधिक विवश हुए उन्हीं के बीच भिखारी ठाकुर का जन्म हुआ था। वह नाई जाति के एक असाक्षर, लेकिन पूरी तरह से शिक्षित एवं सचेत रचनाकार थे। उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा है-

”जाति के हजाम मोर कुतुबपुर ह मोकाम, छपरा से तीन मील दियरा में बाबूजी।

 पुरुब के कोना पर गंगा के किनारे पर, जाति पेसा बाटे विद्या नाहीं बाटे बाबूजी।‘’

 

बिदेसिया नाटक लिखे जाने का दौर वही दौर है, जब देश में ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति का आंदोलन जोर पकड़ रहा था। 1920 के दशक में देश की आजादी के नारे गूंजने लगे, आजादी के नेताओं ने कहा देश के आजाद होते ही गरीबी और पलायन की बेबसी से मुक्ति मिल जाएगी। देश आजाद भी हो गया, लेकिन पलायन की बेबसी जस की तस रही। सिर्फ एक चीज बदली, वह है पलायन की जगह। अंग्रेजों का राज भी चला गया और देश को आजाद हुए 73 वर्ष बीतने वाले हैं। एक के बाद एक करीब हर रूप-रंग और विचारधारा की सरकारें आईं-गईं, लेकिन पश्चिमी बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के मेहनतकश की नियति जस की तस रही। पहले कोलकाता, असम और रंगून जाते थे, फिर गिरमिटिया के रूप में दुनिया के दर्जनभर देशों में भेजे गए। आजादी के बाद अपने ही देश के अलग-अलग कोनों में जाने लगे, कभी मुंबई, कभी दिल्ली, कभी सूरत, कभी अहमदाबाद, कभी हैदराबाद, कभी बंगलौर, कभी तमिलनाडु, कभी केरल और कभी किसी और जगह। इधर खेत काटने के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाने का सिलसिला शुरू हो गया।

 

आंकड़े और जमीनी हकीकत

सारे आंकड़े और जमीनी तहकीकात यह बताते हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश पलायन के सबसे बड़े गढ़ हैं। उसके बाद मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर तथा पश्चिम बंगाल का नंबर आता है। इसकी पुष्टि दिल्ली सरकार द्वारा 26 मई को जारी आंकड़ों से भी होती है, जिसमें बताया गया है कि 7 मई को श्रमिक स्पेशल ट्रेन शुरू होने के बाद 2 लाख 72 हजार प्रवासी मजदूर दिल्ली छोड़कर कुल 214 श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से गए। जिसमें सर्वाधिक संख्या बिहार एवं उत्तर प्रदेश (मूलत: पूर्वांचल) जाने वाले श्रमिकों की है। 1 लाख 25 हजार 717 श्रमिक बिहार, 96 हजार 610 उत्तर प्रदेश, 3 हजार 800 पश्चिम बंगाल, 3000 झारखंड, 2100 मजदूर मध्य प्रदेश और 4 -5 हजार अन्य प्रदेशों को गए। दूसरे राज्यों से बिहार एवं उत्तर प्रदेश पहुंचने वाले मजदूरों की संख्या से भी इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है कि बिहार और पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) पलायन के गढ़ हैं। अब तक उत्तर प्रदेश में करीब 25 लाख विभिन्न राज्यों से प्रवासी मजदूर पहुंच चुके हैं और बिहार करीब 23 लाख मजदूर पहुंचे हैं। ये वे मजदूर हैं, जिनका आंकड़ा दर्ज है।

पलायन में जहां लोग जाते हैं, उनमें सबसे शीर्ष पर दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्र प्रदेश और केरल शामिल हैं। पलायन के इन आंकड़ों में वर्ष के कुछ चुनींदा महीनों के लिए होने वाले पलायन शामिल नहीं हैं, क्योंकि आंकड़े जुटाने की जो पद्धति है, उसमें इन्हें शामिल कर पाना मुश्किल है।

बाहर जाने वाले मजदूरों में अधिकांश कृषि मजदूर, ईंट-भट्टे पर काम करने वाले मजदूर, निर्माण क्षेत्र, सेवा क्षेत्र (घरेलू नौकर-नौकरानी, गार्ड, ड्राइवर), फैक्टरियों में काम करने वाले अकुशल मजदूर, सड़क किनारे या फुटपाथों पर चाय, ढाबा, खाने का ठेला लगाने वाले, होटलों में काम करने वाले आदि शामिल हैं। पलायन करने वाले मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा निर्माण क्षेत्र में काम करता है, इसके अलावा ईंट-भट्टों एवं कृषि में मौसमी मजदूर के रूप में भी काम करता है।

 

पलायन की पृष्ठभूमि 

मध्य गंगा के मैदान के भोजपुरी क्षेत्र की पलायन की त्रासद कहानी की शुरुआत आज से करीब 200 वर्ष से अधिक समय पहले शुरू होती है। प्रश्न यह उठता है कि इसकी शुरुआत क्यों हुई और यह निरंतर जारी क्यों रहा है? इस प्रश्न का उत्तर एक विस्तृत जवाब की मांग करता है। आलेख की सीमा का ध्यान रखते हुए मैं अत्यंत संक्षिप्त उत्तर देने की कोशिश करूंगा। 22 मार्च, 1912 से बिहार बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। ब्रिटिश शासन की स्थापना से पहले इसे बंगाल सूबा कहा जाता था। सन 1717 में मुर्शिद कुली खां के सूबेदार बनने के बाद सूबा बंगाल मुगलों के नियंत्रण से धीरे-धीरे स्वतंत्र हो गया। इसी बीच 1617 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत में मुगल शासक जहांगीर की इजाजत से अपना पहला कारखाना खोला। इसके बाद कलकत्ता, बंबई और मद्रास ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियों के केंद्र बन गए। स्थिति में निर्णायक राजनीतिक परिवर्तन तब आया, जब 1757 में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई।

सन1764 में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद बंगाल सूबा पूरी तरह अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। बक्सर के युद्ध में बंगाल के सूबेदार मीर कासिम, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला की संयुक्त सेना अंग्रेजों से हार गई। अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को बेदखल तो नहीं किया, लेकिन वह नाममात्र का शासक बनकर रह गया। अवध इलाके पर भी अंग्रेजों ने अपना शिकंजा कस लिया। बंगाल की दिवानी यानी राजस्व वसूली का पूरा अधिकार उसे मिल गया। यह सब कुछ इलाहाबाद की संधि के तहत हुआ।

सन 1765 की इलाहाबाद संधि के तहत मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दिवानी (मालगुजारी वसूल करने का अधिकार) सौंप दिया। दूसरे शब्दों में, समृद्ध सूबा बंगाल के लाभदायक संसाधनों का पूरा-पूरा नियंत्रण उसे सौंप दिया। 1774 में वॉरने हेस्टिंग्ज जब गवर्नर जनरल बना, तो उसने अवध के एक बड़े इलाके का अधिग्रहण कर लिया। पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) का बड़ा इलाका भी इसमें शामिल था। इसका निहितार्थ यह है कि 1774 तक बिहार और पूर्वांचल की नियति एक हो गई।

इसी के साथ बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी मिलने के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक मालगुजारी वसूल करना बन गया यानी खेती और किसानों का अधिक से अधिक दोहन। दोहन करने की यह जिम्मेदारी जमींदारों को सौंप दी गई। अंग्रेजों को सिर्फ इससे मतलब था कि अधिक से अधिक मालगुजारी मिले। दोहन इतना अधिक था कि जब 1769-70 का अकाल पड़ा तो, बंगाल प्रेसीडेंसी की एक तिहाई आबादी भूख से मर गई। इसके बाद लार्ड कार्नवॉलिस ने जमींदारों के साथ स्थाई बंदोबदस्त किया।

बंगाल, उड़ीसा और बिहार की एक-एक इंच जमीन अब जमींदारी का हिस्सा बन गई। अब जमींदारों को उस पर तय मालगुजारी देनी थी। जमींदारों को जमीन पर निजी मालिकाना भी दे दिया गया, वे उसे बेच सकते थे, रेहन रख सकते थे, किसी को दे भी सकते थे। हां, यदि कोई जमींदार मालगुजारी देने में नाकाम रहा तो सरकार उस जमींदारी को जब्त और नीलामी कर सकती थी। ऐसे में किसान पूरी तरह जमींदारों के रहमो-करम पर निर्भर हो गए। लगान न चुका पाने की स्थिति में वे असामियों की संपत्ति जब्त कर सकते थे और असामी इसकी कहीं शिकायत नहीं कर सकते थे। कहने की जरूरत नहीं है कि करीब सभी नए और पुराने जमींदार उच्च जातियों के लोग थे। बिहार की सारी जमींदारी भूमिहारों, राजपूतों, ब्राह्मणों और कायस्थों के हाथों में थी। इक्का-दुक्का पिछड़ी जातियों या अन्य जातियों के ही छोटे-मोटे जमींदार थे।

ब्रिटिश शासन ने ज्यादा से ज्यादा मालगुजारी वसूलने के उद्देश्य से जमींदारी को अधिक से अधिक कीमत पर बेचा करती थी। यह कीमत इतनी अधिक थी कि 1794 से 1807 के बीच आधे से अधिक जमींदार तय मालगुजारी नहीं दे पाए और उनकी जमींदारी नए जमींदारों को नीलाम हो गई। यह सब कुछ किसानों पर तो कहर बनकर टूटा और उनकी कमर ही पूरी तरह टूट गई।

मुख्यत: बंगाल प्रेसीडेंसी से की गई मालगुजारी की वसूली से ब्रिटिश शासन और उसका व्यापार-कारोबार चलने लगा। इसके साथ इसी राजस्व के आधार पर ब्रिटिश शासन ने देश के अन्य हिस्सों पर युद्धों के माध्मय से नियंत्रण किया। इन युद्धों का खर्चा भी बंगाल प्रेसीडेंसी से ही जुटाया जाता था। ब्रिटिश सत्ता ने अपना सारा भार जमींदारों पर डाल दिया, जमींदारों ने अपना भार किसानों पर डाल दिया। इन जमींदारों और अन्य बिचौलियों ने मिलकर किसानों को लूट कर तबाह ही कर डाला। हां, गांवों के उच्च जातियों के किसानों ने सारा बोझ पिछड़ी जातियों के किसानों और मेहनकश दलित समाज पर डालने की भरपूर कोशिश की। जिसका कुछ रूप प्रेमचंद के उपन्यास गोदान में दिखाई देता है। हर गांव में पंडित दातादीन-मातादीन, झिंगुरी सिंह, पटेश्वरी लाल और सहुआइन का गठजोड़ था। जिसके ऊपर राय साहब जैसे जमींदार थे, जिनका गठजोड़ नए-नए उभरते मिल मालिक खन्ना, पत्रकार ओंकार नाथ शुक्ला और मेहता-मालती जैसों और सबसे बढ़कर अंग्रेजों से था। ऊपर से नीचे तक सब मिलकर रैयतों का खून चूस रहे थे और उन्हें कंगाली की चरम स्थिति में पहुंचा दिया था। जैसी कि पहले चर्चा की जा चुकी है, अवध के एक हिस्से के रूप में वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश भी अंग्रेजों के नियंत्रण में 1774 में ही आ गया था।

उद्योग धंधों का उदय

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कलकत्ता जैसे शहरों में व्यापार एवं उद्योग धंधों का भी विकास हुआ। इसके लिए मजदूरों की जरूरत पड़ी। असम चाय बागानों के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ी। बाद में रेलवे, कोयला खदानों और अन्य जगहों पर हाड़तोड़ परिश्रम करने वालों की आवश्यकता पड़ी। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के तबाह किसान और ग्रामीण खेतिहार दलित मजदूर कलकत्ता और असम रोजी-रोटी की तलाश में गए, कुछ रंगून (बर्मा-वर्तमान मयंमार भी गए)। दलितों के लिए इस परिस्थिति का मायने थोड़ा भिन्न था। यह उनके लिए उच्च जातियों के चंगुल से निकलने का एक अवसर भी लेकर आया। गांवों के दलित समाज के लिए कलकत्ता जैसे शहर रोजगार देने वाले नए केंद्रों के रूप में उभरे। कुछ तो जमींदारों की हत्या करके भी इन शहरों में भाग गए। इस स्थिति ने ब्राह्मणवादी संरचना पर खड़े जातिवादी ग्रामीण समाज के इंतहा शोषण-उत्पीडऩ और अपमाजनक सामाजिक व्यवहार से एक हद तक मुक्ति पाने का अवसर भी उन्हें उपलब्ध कराया, भले ही वहां भी उन्हें सबसे निचले दर्जे के और सबसे कठिन एवं श्रमसाध्य काम ही मिले। फिर मुक्ति का दरवाजा नहीं, तो एक छोटी खिड़की तो खुली ही। जातिवादी जकड़ से निकलकर थोड़ी सी सांस लेने का अवसर कलकत्ता जैसे शहरों ने उन्हें उपलब्ध कराया। ज्ञान-विज्ञान की नई रोशनी भी कुछ हद तक वहां जाने वालों को मिली। लेकिन कुल मिलाकर बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक ग्रामीण खेतिहर समाज पर ब्रिटिश साम्राज्य के खर्चों, जमीदारों, सरकारी अफसरों-कर्मचारियों के खर्चों, नए-नए पैदा हुए सूदखोरों और गांव के उच्च जातीय परजीवी किसानों के एक हिस्से का बोझ भी उठाना पड़ा। यह बोझ हिमालय जितना भारी था। इतना बोझ उठाने की स्थिति में खेतिहर समाज नहीं था और उनमें से कुछ ने पलायन का रास्ता चुना और फिर शुरू हो गया, इस क्षेत्र से पलायन का सिलसिला, जो आज भी जारी है।

 

ग्रामीण अर्थव्यवस्था

ब्रिटिश शासन की अधिकतम मालगुजारी वसूलने की चाहत और भारतीय जमींदारों, सूदखोरों, बिचौलियों एवं गांवों में प्रभुत्वशाली उच्च जातियों के गठजोड़ की लूट ने बिहार एवं पूर्वांचल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को इस कदर खोखला कर दिया कि गांवों को छोड़कर पलायन करने के अलावा एक बड़े हिस्से के पास कोई चारा नहीं बचा। वह इस कदर कंगाली, तबाही एवं बर्बादी के कगार पर पहुंच गए कि गुलाम बनकर गिरमिटिया मजदूर के रूप में धरती के दूसरे कोनों पर जाने को विवश हो गए। मान लिया कि ब्रिटिश शासन तो विदेशी शासन था, उसने भारतीय किसानों-खेतिहर मजदूरों को तबाह कर पलायन के लिए मजबूर किया, प्रश्न यह है कि आजादी के बाद यह न केवल जारी रहा, बल्कि बिहार एवं पूर्वांचल से यह विवश पलायन बढ़ता ही गया।

हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि कृषि भूमि या खेती की आय ही ब्रिटिश साम्राज्य और पुराने एवं अंग्रेजों के आने के बाद पैदा हुए भारतीय शोषकों की आय का मुख्य स्रोत थी। किसान और खेतिहर श्रमिक जो कुछ पैदा करते, उसका बहुलांश हिस्सा इन शोषकों की जेब में चला जाता और किसान एवं खेतिहर मजदूरों के हिस्से कंगाली आती और उन्हें घर-गांव छोड़कर पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता। इसका सीधा मतलब था कि गांवों की बहुलांश आबादी को कंगाली से बचाने और उन्हें विवश पलायन से रोकने के लिए सबसे बुनियादी और एकमात्र उपाय भूमि सुधार था, जिसका आजादी के बाद एक ही अर्थ था, वह यह कि जमीन जोतने वाले काश्तकारों के हाथ में जाए और जमीन के लगान पर जीने वाले जमींदारों एवं भूस्वामियों के हाथ से जमीन का हस्तानांतरण किसानों के हाथों में हो और आजादी के आंदोलन के दौरान इसका बढ़-चढ़कर वादा भी किया गया, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।

 

ग्रामीण भूमिहीन परिवार

हालिया आंकड़े बताते हैं कि बिहार के 60.7 प्रतिशत ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं, यदि इसमें एक एकड़ से कम जमीन वाले परिवारों को शामिल कर दिया जाए, तो यह आंकड़ा 92.2 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। जैसा कि हम देख चुके हैं कि बिहार से मजदूर के रूप में पलायन करने वाले लोगों का 85 प्रतिशत भूमिहीन परिवारों से है। 36.61 प्रतिशत ग्रामीण परिवार निजी स्तर पर सक्रिय सूदखोरों के गहरे कर्ज में डूबे हुए हैं। औसत तौर पर प्रति परिवार 34,336 रुपए का कर्ज है, जिस पर वे 60 से 120 प्रतिशत तक वार्षिक ब्याज चुकाते हैं।

बिहार में भूमिहीन परिवारों या करीब-करीब भूमिहीन परिवारों के आंकड़ों में निरंतर वृद्धि होती रही है और उसी अनुपात में पलायन भी बढ़ता रहा है। 1993-1994 में 67 प्रतिशत लोग भूमिहीन या करीब-करीब भूमिहीनता की स्थिति में थे। यह अनुपात सन 2000 आते-आते 75 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। सन 1991 से 2001 के बीच में बिहार के लोगों के राज्य से बाहर पलायन में 200 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

प्रश्न यह है कि आखिर बिहार में ऐसा भूमि सुधार क्यों नहीं हो पाया जो सही अर्थों में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करता और कृषि की उत्पादकता में वृद्धि होती। हम जानते हैं किसी भी समाज में कृषि की उत्पादकता में वृद्धि औद्योगीकरण का आधार बनता है। जब किसान के पास कृषि से अतिरिक्त आय होती है, तो वह पुन: उसे कृषि में निवेश करता है, जिससे कृषि उपकरणों के साथ नए बीज, कीटनाशक और कृषि जरूरतों की मांग बढ़ती है। अतिरिक्त आय का एक हिस्सा वह अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए खर्च करता है, इससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ती है। इसके साथ ही कृषि में कार्य करने वाले मजदूरों की मजदूरी में भी वृद्धि होती है, उनका भी उपभोग का स्तर बढ़ता है। ये सभी चीजें मिलकर औद्योगीकरण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। निसंदेह इसमें बहुत सारे अन्य तत्व भी शामिल होते हैं। कहने का कुल निहितार्थ यह है कि बिहार को भूख, गरीबी, बेरोजागारी और इससे पैदा हुए पलायन के दलदल से निकालने के लिए भूमि संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाले भूमि सुधार और उसके साथ बड़े पैमान पर औद्योगीकरण की जरूरत थी, लेकिन यह आज तक हो नहीं पाया है। यही स्थिति कमोबेश उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र की भी रही है।

ऐसा नहीं है कि बिहार में भूमि-संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाले भूमि सुधारों का प्रयास नहीं हुआ। बिहार पहला राज्य था जिसने सबसे पहले 1947 में जमींदारी उन्मूलन बिल पास किया। 1948 में इसमें सुधार करके पुन: इसे जमींदारी उन्मूलन एक्ट के रूप में पास किया गया। 1950 में भूमि सुधार कानून पास किया गया। एक एक्ट के माध्मय से जमीन, जंगल, नदी-नाले, पोखरों, खनिज संपदा आदि पर जमींदारों का कानूनी अधिकार समाप्त कर दिया गया। कानून तो पास हो गया, लेकिन इसके व्यवहारिक रूप लेते-लेते 1959-60 तक का समय बीत गया। इस कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर जमींदारों ने विभिन्न रूपों में जमीन का बड़ा हिस्सा अपने पास बचा लिया। जमींदारों ने जमींदारी उन्मूलन को रोकने के लिए बड़ी संख्या में मुकदमे दायर किए। इतना ही नहीं उन्होंने जमींदारी उन्मूलन की क्षतिपूर्ति के रूप में तब करीब 38 करोड़ 40 लाख रुपया लिया। हथुआ, दरभंगा, डुमरावां और रामगढ़ आदि जगहों के जमींदारों के पास आज भी हजारों एकड़ जमीन विभिन्न रूपों में पड़ी हुई है। विविध रूपों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाला भूमि सुधार बिहार की समृद्धि एवं विकास के लिए न हासिल हो सकनेवाला एजेंडा ही बना रहा।

वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद सबसे मुख्य वादा भूमि सुधार लागू करने का किया था, जिससे बिहार का पिछड़ापन दूर किया जा सके। उन्होंने पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार के वास्तुकार डी. बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में भूमि सुधार आयोग गठित किया। 2005 में गठित इस आयोग ने 2008 में अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की। आश्चर्य की बात यह है कि आज तक बिहार सरकार ने उस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का न्यूनतम कदम भी नहीं उठाया है।

स्पष्ट है कि इतने विराट पैमाने पर इस इलाके के मजदूरों की वापसी के रूप में दिख रही आज की इस भीषण त्रासदी की जड़ें काफी गहरी हैं। ये नासूर बन चुकी हैं और क्रांतिकारी सर्जरी की मांग कर रही हैं। मरहम-पट्टी और कॉस्मेटिक लीपापोती से इसका इलाज संभव नहीं है, बल्कि इससे यह नासूर और ज्यादा फैलता जाएगा। इतनी सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका शिकार हो रहे लोग ही सक्षम नेतृत्व के तहत इसका इलाज करने में भी सक्षम हैं। लेकिन पक्ष-विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों का तो ऐसा कोई एजेंडा ही नहीं है पर आमूलचूल परिवर्तन जिनका एजेंडा था, शायद वे लोग ही इन क्रांतिकारी शक्तियों को गोलबंद करने से डरने लगे हैं।  n

समयांतर, जून 2020

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2 Comments

  1. Bahut hee bariki se pravasi majduron ka jikra karte girmitiya majduron ka bhi vistaar se varran kr diya, bahut vistaar se likhne ke liye bahut bahut badhaee.

  2. आपको सिद्धार्थ जी का लेख पसंद आया, इसके लिए धन्यवाद !

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