काला पानी: विवाद के निहितार्थ

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  • प्रेम पुनेठा

भारत और नेपाल के बीच सीमा तय करने के लिए 1816 में हुई सुगौली संधि के लगभग 204 साल बाद 2020 में भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद बहुत गंभीर हो गया है। नवंबर में भारत ने जम्मू-कश्मीर का विभाजन किया और नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। इसमें पूर्व की तरह कालापानी को भारतीय सीमा के अंदर दिखाया गया था। इस पर नेपाल ने भारत के इस नक्शे पर आपत्ति की और कालापानी को विवादित क्षेत्र बताया। इसके बाद आठ मई को भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के ब्यास घाटी में 80 किलोमीटर सड़क मार्ग का उदघाटन किया। यह सड़क लिपूलेख दर्रे से चार किलोमीटर पहले तक ही जाती है। धारचूला से लिपूलेख दर्रे तक के मार्ग को कैलाश मार्ग भी कहा जाता है और यह भारत से कैलाश मानसरोवर को जाने के लिए पौराणिक और धार्मिक मार्ग माना जाता है। इस सड़क के निर्माण के बाद दिल्ली से लिपूलेख दर्रे तक दो दिन में पहुंचा जा सकता है।

इस पर नेपाल ने अपनी आपत्ति दर्ज की और भारत के काठमांडू स्थित राजदूत को बुलाकर विरोध दर्ज कराया। नेपाल का कहना था कि भारत ने 26 किमी सड़क उसकी जमीन में बनाई है। नेपाल के कुछ राजनीतिक संगठनों ने प्रदर्शन कर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। भारत ने इस मामले को शांत करने के लिए कहा कि सड़क पिछले बीस साल से बन रही थी और पुराने पैदल रास्ते का ही विस्तार किया गया है। पूरी सड़क भारतीय क्षेत्र में है लेकिन नेपाल ने इसे स्वीकार नहीं किया। नेपाल ने नया नक्शा जारी कर दिया। इसमें कालापानी, लिपूलेख और लिंपियाधुरा को नेपाल में दिखाया गया। भारत ने नेपाल के नए नक्शे को अस्वीकार कर दिया है।

 

कालापानी का विवाद

गोरखा शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1814 में युद्ध शुरू हुआ और दिसंबर 1815 में दोनों के बीच संधि हुई जिसे मार्च 1816 में काठमांडू दरबार से स्वीकृति मिली। इसी संधि ने गोरखा राज्य और ब्रिटिश इंडिया के बीच सीमाओं का निर्धारण किया। इसके अनुसार काली नदी पश्चिम में दोनों राज्यों के बीच सीमा रेखा मानी गई और गोरखा शासकों ने अपने भूमि संबंधी दावे छोड़ दिए। काली नदी को सीमा रेखा तो माना गया लेकिन काली के उदगम का कोई स्थान निर्धारित नहीं किया गया। काली नदी का उदगम किसे माना जाए यही कालापानी के विवाद के मूल में है। नेपाल का दावा है कि 1860 से पहले के नक्शों में कालापानी का उदगम स्थान लिंपियाधुरा दिखाया गया है इसलिए लिंपियाधुरा ही काली नदी का उदगम है। नेपाल यहां से निकलने वाली जलधारा को काली नदी कहता है और इसे भारत में कुटी यांगटी कहा जाता है। कुटी यांगटी नदी कालापानी की ओर से आ रही जलधारा से गुंजी के पास मिलती है। इस तरह लिपूलेख-लिंपियाधुरा-गुंजी एक 385 वर्ग किमी का एक त्रिकोण बनता है, जिस पर नेपाल अपना दावा करता है। नेपाली दावे के विपरीत भारत का दावा है कि काली नदी का उदगम कालापानी है और ब्रिटिश नक्शों में भी यह दर्शाया गया है। लिंपियाधुरा से निकलने वाली धारा कुटी यांगटी है। इसलिए कालापानी और लिपूलेख काली नदी के पश्चिम में होने के कारण स्वाभाविक तौर पर भारतीय ही माने जाएंगे।

 

ब्यास घाटी का विभाजन

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में तवाघाट से लिपूलेख तक का क्षेत्र ब्यास घाटी कहलाता है। इसमें गुंजी से नीचे के इलाके को निचली ब्यास घाटी और इसके ऊपर के इलाके को ऊपरी ब्यास घाटी कहा जाता है। इस घाटी में रहने वाले रं जनजाति के लोगों को ब्यासी कहते हैं। ब्यासी लोग काली नदी के दोनों ओर रहते हैं लेकिन काली नदी को सीमा मानने के कारण ब्यास समुदाय विभाजित हो गया। इसके सात गांव काली के पश्चिम में होने के कारण भारत में और दो गांव तिंकर और छांगरू नदी के पूर्व में होने के कारण नेपाल में चले गए। दोनों ही ओर के ब्यासी समुदाय का मुख्य व्यवसाय तिब्बत से व्यापार था और भारत के लोग लिपूलेख दर्रे का और नेपाल के लोग तिंकर दर्रे का प्रयोग करते थे। नेपाली व्यापारी अपसी सुविधा से लिपूलेख दर्रे का प्रयोग भी करते थे क्योंकि यह सबसे सुविधाजनक दर्रा था और दोनों ओर के व्यापारियों की मंडी ताकलाकोट थी।

देशों की सीमाओं के निर्धारण में ब्यासी पहला समुदाय था जो दो देशों में विभाजित हो गया। इसका कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के पास इस क्षेत्र के सही नक्शों का अभाव था। इस कारण ब्यास समुदाय को विभाजित होना पड़ा। यदि कंपनी के पास सही नक्शे होते तो काली नदी सीमा रेखा गर्ब्यांग होती और उसके ऊपर तिंकर नदी सीमा रेखा होती क्योंकि तभी ब्यास समुदाय को एक रखा जा सकता था। तिंकर नदी तिंकर दर्रे से निकलकर गर्ब्यांग के पास काली नदी से मिलती है। इसके दूसरी ओर छांगरू गांव है। हिमालय के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले इतिहासकारों का भी मानना है कि ऊपरी ब्यास घाटी में काली की जगह तिंकर नदी को सीमा रेखा माना जाना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

लिपूलेख के दर्रे को लेकर दो सौ वर्षों तक किसी तरह का विवाद भारत और नेपाल के बीच नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि तिब्बत व्यापार करने वाले दोनों ओर के लोगों में सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं था। ऊपरी ब्यास घाटी के विभाजन के बाद भी गुंजी और गर्ब्यांग के लोगों की जमीनें छांगरू गांव में थीं, इसके दस्तावेज वहां लोगों के पास माजूद हैं। खुली सीमा के कारण वे नदी पार जाकर खेती करते थे, पशुओं के लिए चारा लाने और यहां तक कि यारसा गम्बू के बुग्यालों (मिडोज या घास के मैदान) में भी जाते थे। यह स्थिति सन 2000 और उसके कुछ बाद तक रही थी।

 

‘ग्रेट गेम’:  पूर्वी छोर

उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटेन और फ्रांस में पूंजीवादी व्यवस्था का विश्व नेता बनने की होड़ थी लेकिन 1815 में नेपालियन की पराजय से फ्रांस की पूंजीवाद का विश्व नेता बनने की चाह समाप्त हो गई। लेकिन जल्दी की रूस ने ब्रिटेन को चुनौती देनी शुरू कर दी लेकिन रूस काला सागर और भूमध्य सागर के माध्यम से योरोप की एक ताकत बनना चाहता था और उसकी मंशा योरोप और भारत के बाजारों और संसाधनों पर कब्जा करने की थी पर1853 से शुरू हुए क्रीमिया युद्ध की पराजय और रूस पर थोपी गई शर्तों ने उसे काला सागर और भूमध्य सागर में कमजोर कर दिया। अब रूस के पास भारत तक पहुंचने के लिए एकमात्र रास्ता मध्य एशिया से होते हुए जमीनी रास्ता रह गया था। रूस और ब्रिटेन के बीच ग्रेट गेम का थिएटर अफगानिस्तान बन चुका था और उनके बीच अफगानिस्तान को लेकर संघर्ष शुरू हो चुका था। 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी और अफगानों के बीच पहला युद्ध हो चुका था और अंग्रेज अपनी समर्थक सरकार वहां बना चुके थे।

इस ‘ग्रेट गेम’ का केंद्र अफगानिस्तान जरूर था लेकिन इसका एक सिरा ब्रिटिश कालीन कुमाऊं और गढ़वाल भी था, जिसकी सीमाएं तिब्बत से लगती थीं। हिस्ट्री ऑफ उत्तराखंड फ्रॉम स्टोन एज टू 1949 में अजय रावत ने बताया है कि किस तरह उत्तराखंड ‘ग्रेट गेमÓ का हिस्सा किस तरह था। रूस को लगता था कि अगर वह जमीनी रास्ते से भारत पहुंचता है तो वह तिब्बत पार कर ही पहुंच सकता है। इसमें भी कुमाऊं और गढ़वाल के दर्रे उसके काम आ सकते हैं और उनमें भी लिपूलेख का दर्रा सबसे महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह सबसे आसान दर्रा था और दूसरा यह गंगा के दोआब के सबसे पास था। ईस्ट इंडिया कंपनी की तिब्बत में शुरुआती दौर में कोई विशेष रूचि नहीं थी लेकिन वह इसे चीन और रूस के साथ एक ‘बफर स्टेट’ के तौर पर बनाए रखना चाहता था। लेकिन जब उसे रूस की रुचि तिब्बत में बढ़ती हुई दिखायी दी तो उसने कुमाऊं क्षेत्र के दर्रों की ओर ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने तिब्बत के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करने की कोशिश की। इसलिए जो इतिहासकार इस सिद्धांत के समर्थक हैं  कि इतना महत्त्वपूर्ण होने पर लिपूलेख का नियंत्रण नेपाली शासकों को देने का सवाल नहीं उठता था, भले ही ब्रिटेन के संबंध नेपाल के शासकों से बहुत अच्छे थे।

नेपाल और भारत के बीच सीमाओं का निर्धारण सुगौली की संधि रही है पर सीमाएं हमेशा वहीं नहीं रहीं जो 1816 में निर्धारित की गई थीं। अंग्रेजों से अपने संबंधों के चलते गोरखों ने 1857 के विद्रोह को कुचलने में उनकी मदद की थी और इसके बदले में 1860 में ब्रिटिश शासकों ने पश्चिमी तराई के चार जिले कंचनपुर, कैलाली, बर्दिया और बांके नेपाल को वापस कर दिए थे। इस क्षेत्र को 1816 की संधि के बाद से अंग्रेजों ने अपने पास रखा हुआ था। 1930 के दशक में जब शारदा डैम और नहर का निर्माण किया जा रहा था तो उसमें नेपाल का कुछ भूभाग डूब क्षेत्र में आ गया था तो इसके बदले में अंग्रेजों ने नेपाल को तराई के दो गांव दिए थे जो काली नदी और शारदा के दक्षिण में पड़ते हैं और इसी स्थान पर नेपाल अपना पहला ड्राई पोर्ट बना रहा है। इन सभी अवसरों पर नक्शों में आवश्यक संशोधन किया गया। इसके अलावा काली और शारदा के बहाव की धारा बदलती रहती है।

 

बदलता सामरिक महत्त्व

अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भारत-चीन युद्ध से पहले तक इसका कोई सामरिक महत्त्व नहीं था क्योंकि तब तिब्बत से लगी सीमाएं शांत थीं। तिब्बत, नेपाल और भारत के इस मिलन बिंदु पर छह माह के व्यापार के अलावा कोई हलचल नहीं रहती थी। 1962 के बाद इस स्थान का भारत के लिए महत्त्व काफी अधिक बढ़ गया। तब भारत ने अपनी उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास किया। जब लगभग दो दशक के बाद भारत और चीन के बीच दोबारा संबंध सामान्य होने लगे तो 1981 में लिपूलेख दर्रे से कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू की गई और इसके एक दशक बाद 1992 में भारत-चीन सीमा व्यापार शुरू किया गया। इस बीच कैलाश यात्रा और सीमा व्यापार को देखते हुए भारतीय सैन्य बलों ने अपनी उपस्थिति प्रभावी कर दी। इसके बाद ही नेपाल में कालापानी इलाके को लेकर हलचल शुरू हो गई। इसका नेतृत्व नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां करती रही हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे नेपाली राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। ये पार्टियां भारत को एक विस्तारवादी देश के तौर पर मानती रही हैं। 1992 में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले कालापानी के मुद्दे पर सबसे मुखर थी और बाद में माओवादियों ने कालापानी के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया।

2004 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने इसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखा और इस पर वाजपेयी ने इसका अध्ययन करने के बाद कार्यवाही का आश्वासन दिया लेकिन कोई कार्यवायी नहीं हुई। इसके बाद 2014 में इस मुददे के समाधान के लिए काम करने का वादा किया गया लेकिन कोई भी बात इस मामले में आगे नहीं बढ़ी। 2015 में भारत और चीन के बीच लिपूलेख दर्रे से व्यापार बढ़ाने को लेकर हुए समझौते का नेपाल ने विरोध किया था कि इस समझौते से पहले भारत और चीन ने नेपाल को विश्वास में नहीं लिया। इस मामले में चीन ने पहली बार दखल 2017 में डोकलाम विवाद के समय दिया। वर्तमान विवाद के समय चीन ने कहा कि कालापानी विवाद भारत और नेपाल के बीच का मामला है और दोनों को इसका समाधान करना चाहिए।

राजनाथ सिंह द्वारा कैलास मार्ग का उद्घाटन करने के बाद नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार पर अंदर और बाहर से कुछ करके दिखाने का दबाव काफी ज्यादा था इसलिए उसने कठोर प्रतिक्रिया ही नहीं की बल्कि संविधान संशोधन कर नया नक्शा पारित किया गया है। दरअसल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर केपी ओली की स्थिति कमजोर हो रही है। पिछले दिनों दो विवादित विधेयकों को वापस लेने से ओली पर पद त्याग का दबाव बना हुआ था और इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए ओली सरकार ने कालापानी को सेफ्टी वॉल्व की तरह प्रयोग किया है और उग्र राष्ट्रवाद की भाषा का उपयोग कर पार्टी के अंदर और संसद के अंदर विरोधियों को अपने पीछे खड़ा कर लिया। लेकिन इससे स्थिति काफी जटिल हो गई है हालांकि नेपाली संसद में चर्चा के लिए यह विषय नहीं रखा गया इससे दोनों देशों को वार्ता के लिए माहौल बनाने का समय मिल गया है। सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत और नेपाल दोनों को समझदारी से काम लेना चाहिए और जल्द से जल्द वार्ताएं शुरू करनी चाहिए। साथ ही किसी भी तरह के तनाव को बढ़ाने से बचना चाहिए। दस्तावेजों की जांच के बाद यह पता लगाना चाहिए कि वास्तविक स्थिति क्या है? और इसको कैसे सुलझाया जा सकता है?  n

समयांतर, जून 2020

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4 Comments

  1. समयांतर की तरफ से भी प्रेम पुनेठाजी को बधाई!

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