त्रेपन सिंह चौहान (4 अक्टूबर 1971 -13 अगस्त, 2020): ‘असली इंसान’ का जाना

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  • इंद्रेश मैखुरी

 

वह 1998 का साल था। उस साल उच्चतम न्यायालय ने 2 अक्टूबर, 1994 को उत्तराखंड आंदोलन के दौरान गठित मुजफ्फरनगर कांड के संदर्भ में 1996 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को खारिज कर दिया था। मुजफ्फरनगर कांड के मुख्य अभियुक्तों में से एक अनंत कुमार सिंह ने उच्चतम न्यायालय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी और उच्चतम न्यायालय ने उनके हक में फैसला दिया। इस फैसले को लेकर उत्तराखंड में काफी गुस्सा था। इसी फैसले की प्रतियां लेकर दिल्ली के कुछ युवाओं के साथ त्रेपन सिंह चौहान, श्रीनगर (गढ़वाल) आए। त्रेपन भाई आइसा के नेताओं योगेश पांडेय, कैलाश पांडेय, अतुल सती आदि से मिले और प्रस्ताव रखा कि मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को बरी करने के फैसले की प्रतियां जलाई जानी चाहिए। वह इस फैसले से इस कदर उद्वेलित थे कि उत्तराखंड में घूम-घूम कर आंदोलनकारियों से इस फैसले की प्रतियां जलाने को कह रहे थे। लेकिन अधिकांश जगह पर लोगों ने कदम पीछे खींच लिए। श्रीनगर(गढ़वाल) के हमारे साथियों ने त्रेपन भाई को सहर्ष स्वीकार किया। उस शाम श्रीनगर के गोला बाजार में उस फैसले की प्रतियां जलाई गईं। प्रतिवाद का यह कार्यक्रम वह हम तक लेकर आए और इस तरह त्रेपन चौहान से पहली मुलाकात हुई।

उसके बाद बात, मुलाकतों का सिलसिला मीटिंगों, गोष्ठियों और प्रदर्शनों के बीच चलता रहा। राज्य बनने के साथ ही उत्तराखंड में थोक के भाव, बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं बनाने का सिलसिला भी शुरू हुआ। इस छोटे से राज्य में 500 से अधिक परियोजनाएं बनाने का ऐलान हुआ। उस सिलसिले की रफ्तार 2013 की आपदा के बाद आए उच्चतम न्यायालय के फैसले से ही कुछ थमी। त्रेपन चौहान आंदोलनकारियों के उस हिस्से में शामिल थे जो यह मानते थे कि बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं स्थानीय लोगों के लिए विनाशकारी हैं। इनके खिलाफ अभियान में वह सक्रियता पूर्वक जुटे रहे। उनके गृह क्षेत्र घनसाली के फलेंडा में जब ऐसी ही परियोजना निर्माण की कोशिश हुई तो इसके खिलाफ वह आंदोलन में उतर पड़े। स्थानीय ग्रामीणों को उन्होंने संगठित किया और प्रदेश तथा देश के तमाम आंदोलनकारियों का जमावड़ा त्रेपन भाई की पहल पर इस इलाके में हो गया।

वर्ष 2004 में जब पुराना टिहरी डूब रहा था तो उस पर अध्ययन रिपोर्ट के लिए हमारी पार्टी-भाकपा(माले) की ओर से पार्टी के राज्य कमेटी सदस्य अतुल सती और मैं वहां गए। उस दौरान फलेंडा आंदोलन के सिलसिले में कुछ ग्रामीण महिला-पुरुष, नई टिहरी जेल में बंद थे। हमने उनसे मुलाकात की। वे ठेठ पहाड़ी महिला-पुरुष थे, जिनको त्रेपन भाई ने अपने संसाधनों की लड़ाई में उतार दिया था। लड़ाई के महत्त्व को वे समझ चुके थे, इसलिए कई दिनों की जेल के बावजूद उनके हौसले पस्त नहीं थे। त्रेपन भाई मानते थे कि बड़ी परियोजनाओं के बजाय छोटी जल विद्युत परियोजनाएं बननी चाहिए, जिन्हें स्थानीय लोग सहकारिता के आधार पर संचालित करें। इस तरह के प्रयोग उन्होंने अपने इलाके में किए भी।

त्रेपन भाई वाम-जनवादी आंदोलनों के अनन्य सहयोगी थे और इन शक्तियों के हर तरह की मदद के लिए हर समय तैयार रहते थे। 2007 में जब अतुल सती बद्रीनाथ विधानसभा से चुनाव लड़ रहे थे तो त्रेपन भाई चुनाव अभियान में सहयोग करने आए। उसी दौरान हमने देखा कि उनके पास एक चैलेंजर है। हमने उनसे वह मांग लिया और उन्होंने तत्काल ही अपने लिए खरीदा गया, वह नया चैलेंजर हमें दे दिया।

बीते कुछ सालों से देहरादून में त्रेपन भाई निर्माण मजदूरों को संगठित करके उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। मजदूर बस्तियों में सक्रियता पूर्वक संगठन निर्माण की प्रक्रिया में वह और उनके साथी शंकर गोपालकृष्णन लगे हुए थे। ।

कुछ वर्षों पहले घनसाली क्षेत्र में घसियारी प्रतियोगिता का आयोजन त्रेपन भाई ने किया। पहाड़ी महिलाओं के लिए यह घास काटने की प्रतियोगिता थी, जिसमें विजेता महिलाओं को चांदी के मुकुट और नकद धनराशि इनाम में दी गई थी। उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि पर यमुना और हे ब्वारी जैसे उपन्यास भी उन्होंने लिखे।

स्वास्थ्य के मोर्चे पर त्रेपन भाई निरंतर जूझते रहे। 2010 में वह पैनक्रियाटिक कैंसर के शिकार हो गए। लेकिन कुछ ही सालों में इससे जूझते हुए, कैंसर को हरा कर वह पुन: सक्रीय सामाजिक जीवन में उतर पड़े। निर्माण मजदूरों का संगठन, घसियारी प्रतियोगिता और हे ब्वारी व भाग की फांस जैसे उपन्यास इस बीमारी से निपटने के बाद उनकी सक्रियता की मिसाल हैं।

बीते कुछ सालों से वे मोटर न्यूरोन्स के रोग से ग्रसित थे। उनके साथी शंकर गोपालकृष्णन बताते हैं कि प्रति एक लाख लोगों में पांच या छह लोगों को यह रोग होता है। शंकर कहते हैं कि ”त्रेपन और मैं आपस में मजाक करते थे कि असाधारण आदमी को बीमारी कैसे साधारण होती, इसलिए असाधारण रोग हुआ।‘’ इस रोग के चलते उनके शरीर के विभिन्न अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। लेकिन मस्तिष्क से वह पूरी तरह सक्रिय थे। उनकी जिजीविषा और जीवटता इस रोग के दौरान जबरदस्त तरीके से उभर कर आई। उनके साथी शंकर गोपालकृष्णन ने उनके लिए अमेरिका से एक आई ट्रेक यंत्र मंगवाया, जिसकी मदद से वह आंखों की पुतलियों से लिख सकते थे। इस यंत्र की मदद से वह अपना उपन्यास ललावेद लिख रहे थे। इसी यंत्र की मदद से वह फेसबुक पर पोस्ट लिखते थे और व्हाट्स ऐप पर भी संदेशों का जवाब देते थे।

अस्पताल में भर्ती होने के कुछ महीने पहले उन्होंने मुझे व्हाट्स ऐप पर संदेश भेजा, ”अपने लेखों को संभाल कर रखना, फिर मैं बताऊंगा इनका क्या करना है।‘’ शंकर ने बताया कि अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान जब एक दिन शंकर उनसे मिलने गए तो उन्होंने शंकर को मैसेज लिखा कि ”तुम आज डाउन लग रहे हो, घबराओ नहीं सब ठीक हो जाएगा।‘’ सोचिए क्या जीवट आदमी था। खुद चलने,फिरने,बोलने से लाचार लेकिन दूसरे के लिखे हुए की चिंता; खुद अस्पताल में साथ छोड़ते शरीर के साथ आईसीयू में भर्ती लेकिन दूसरे को हतोत्साहित न होने के लिए दिलासा देता हुआ।

बीते अक्टूबर में राजा बहुगुणा के साथ उनके घर गया। दो-एक बार अन्य साथियों के साथ भी जाना हुआ। राजा भाई से उन्होंने कहा कि आप लोग बहुत महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। शमशेर सिंह बिष्ट के देहावसान के बाद उन पर छपी पुस्तक की चर्चा करते हुए फेसबुक पर त्रेपन भाई ने लिखा कि अपना जीवन संघर्षों में खफा देने वालेअन्य कार्यकर्ताओं पर भी  लिखा जाना चाहिए। इस मुलाकात में त्रेपन भाई और उनके परिवार के जज्बे को देख कर राजा भाई काफी खुश हुए। राजा भाई ने कहा कि वह ”असली इंसान हैं। असली इंसान (द स्टोरी ऑफ अ रियल मैन) एक ऐसे रूसी फाइटर पायलट की कहानी है, जो युद्ध में अपनी दोनों टांगे गंवाने के बाद अपनी लगन और जिजीविषा के बल पर नकली टांगों से लड़ाकू विमान उड़ाता है. ऐसी ही अदम्य जिजीविषा तो त्रेपन भाई में थी।

टिहरी जिले के भिलंगना ब्लॉक के केपार्स गांव में जन्में त्रेपन सिंह चौहान 13 अगस्त, 2020 को जिंदगी का सफर पूरा करके चल दिए। उनकी पत्नी के अलावा एक बेटा और बेटी हैं। ऋषिकेश के पूर्णानंद घाट पर उनका अंतिम संस्कार करके लौटते हुए उनका बेटा कई तरह से अपने पिता को याद कर रहता है। कई बार इस बच्चे की बात दिल को काटती हुई प्रतीत होती है। पिता द्वारा बीमारी के चलते वर्षों से झेले जा रहे कष्टों के बारे में जिक्र करते हुए 14 साल का अक्षत कहता है, ”हमारे लिए तो अच्छा नहीं हुआ पर पापा के लिए अच्छा हो गया। जिस शरीर से वह इतनी तकलीफ में थे, उससे आजाद हो गए।‘’ जहीन बाप का सयाना बेटा!

अपने पिता को याद करते हुए फिर अक्षत कहता है, ”पापा घाटा सहन कर लेते थे पर गलत काम नहीं करते थे। पापा ने मुझ से कहा कि कुछ और बनना, न बनना पर अच्छा आदमी जरूर बनना।‘’ यही बनना बच्चे तू जो तेरे पिता थे, जो तुझे बनने को तेरे पिता कह गए। यह तेरे पिता की आकांक्षा और दुनिया की जरूरत है।

फिर मिलना तो होगा नहीं त्रेपन भाई पर आंदोलन-संघर्ष के मोर्चे पर खड़े होकर हम आपको हमेशा याद रखेंगे।

 

मयांतर, सितंबर, 2020

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