चुनाव की बिसात लड़कियों का मोहरा

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लड़कियों की विवाह की उम्र बढ़ाने के पीछे बड़ा कारण स्वयं विवाह करने के अधिकार को घटाना है। यह मंशा दो तरह से काम करती है, पितृसत्ता का विस्तार और लड़कियों के साथी चुनने के अधिकार को कम करना।

 

वर्तमान भाजपा सरकार के नेतृत्व की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे हर बार चुनाव लडऩे के लिए कोई ऐसा शगूफा चाहिए जो मनमोहक होने के साथ ही साथ इस नेतृत्व की चमत्कृत कर देने की क्षमता को भी सिद्ध करता हो। मोटे तौर पर देखें तो 2014 के चुनावों में जो वादा किया गया था ‘रामराज्य’ तो था ही, इसमें 15 लाख रुपए प्रति नागरिक को दिए जाने का उतना ही अविश्वसनीय वायदा भी जुड़ा था। यद्यपि इस बीच उल्टा गरीबी और असमानता बढ़ी है तथा जीवन यापन की अधारभूत चीजों के दामों में लगातार वृद्धि हुई है पर वायदों और दावों का सिलसिला थमा नहीं है। पिछले सात साल में नरेंद्र मोदी ने अपने असंभव वायदों को जन स्मृति से लोप करने का जो तरीका अपनाया, वह है पराक्रम प्रदर्शन का। बालाकोट पर आक्रमण या नोटबंदी, जिसके माध्यम से पांच सौ रुपए के नोटों को रातों रात चलन से जिस तरह से बाहर कर दिया गया उसका कारण सिर्फ यह सिद्ध करने की कोशिश रहा कि एक ओर हमने सरहदों पर दुश्मन को धूल चटा दी और दूसरी ओर सरहद के अंदर के काले धन का सफाया कर विकास का नया रास्ता बना दिया है। इधर पश्चिमी देशों से बड़ी कीमत पर खरीदे जा रहे सामरिक हथियारों का ऐसा प्रदर्शन किया जा रहा है मानो ये जहाज रातों रात वर्तमान सरकार के नेतृत्व में बनाए गए हों।

पर नोटबंदी की असफलता और कोविड के दौरान हुई अराजकता ने सिद्ध कर दिया है कि मोदी सरकार की राजनीतिक और आर्थिक मामलों की समझ कितनी सीमित है। यह इसलिए भी ध्यान देने योग्य है कि राजकीय पद पर होते हुए वह अपनी छवि और निजी हितों के लिए किस हद तक जा सकते हैं। नोटबंदी का एक मजेदार उदाहरण कानपुर में देखने को मिल रहा है। जिसमें सुगंधी के एक व्यापारी के घर से कर चोरी की 194.45 करोड़ की नकदी मिली है। यह स्वाभाविक भी है अगर कोई नकदी में बचत करेगा या कर छिपाएगा वह बड़े नोटों ही करेगा। कनौज में भी इसका बड़ा हिस्सा दो हजार के नोटों में था। दो हजार के नोट देश को किसकी भेंट हैं, बतलाने की जरूरत नहीं है। यह तो सिर्फ एक घटना है जो इस रूप में सामने आई है।

नोटबंदी का प्रेत

इस घटना का दूसरा प्रसंग और भी मजेदार है। 26 दिसंबर को छापे मारे गए थे और जिस व्यक्ति को पकड़ा गया उन सज्जन का नाम था पीयूष जैन। फौरन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहना शुरू कर दिया कि यह महोदय समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव से संबद्ध हैं। पर उसी दिन शाम तक पता चला कि जो जैन समाजवादी पार्टी के निकट हैं और जिन्होंने इस पार्टी के नाम से सेंट निकाला है, वह पीयूष नहीं बल्कि पुष्पराज जैन हैं। इस तथ्य के आने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने 28 तारीख को अपनी कानपुर की सभा में इस मामले को सपा से जोड़ते हुए कहा कि यह ”भ्रष्टाचार की सुगंध है’’। क्या ऐसा संभव है कि प्रधान मंत्री को तथ्यों का पता ही न हो, जब कि सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया इस बात से भरा हुआ था?

वायदे करना और यथार्थ को नाटक से ढकना जितना आसान है यथार्थ को बदलना उतना ही मुश्किल है। माना अगर पश्चिमी सीमा पर घुसपैठ रुकी भी है तो भी उत्तरी सीमा पर हजारों मील के क्षेत्र में नए संकट पैदा हो गए हैं। चीन ने भारतीय कूटनीत और सुरक्षा दोनों की नींव हिला कर रख दी है। कारण स्पष्ट है। नेतृत्व की अदूदर्शिता। पर जैसे जैसे सीमाओं पर संकट बढ़ रहा है घरेलू खपत के लिए नेतृत्व की नाटकीयता बढ़ती जा रही है। इसलिए भी कि केरल और बंगाल की हार तथा किसानों के आंदोलन से कभी पीछे न हटने की छवि के ध्वस्त हो जाने के बाद भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर आश्वस्त नहीं रहा है। यह कहना जरूरी नहीं है कि दिल्ली का तख्त उत्तर प्रदेश की नींव पर टिका है। रही सही कसर चंडीगढ़ नगर निगम के चुनावों ने पूरी कर दी है जहां भाजपा हारी ही नहीं है बल्कि उसके तीन पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष हार गए हैं। निश्चय ही यह पंजाब और हरियाणा में भी भाजपा के लिए खतरे की घंटी है।

इधर सारे हिंदी क्षेत्र में सांप्रदायिकता का जो विस्फोट दिखलाई दे रहा है क्या वह अचानक है? सब कुछ एक नियोजित क्रम में घट रहा है। पहले स्वयं को सनातनी कहने वाले लोगों ने दिल्ली से लगे गुरुग्राम में नमाज को लेकर एक सुलक्षित आंदोलन चलाया और अब अंबाला में क्रिसमस के अवसर पर चर्च पर आक्रमण किया गया। एक स्कूल में मनाए जा रहे क्रिसमस के नाटक पर भी अलग हंगामा हुआ। खबर आ रही है कि केंद्रीय सरकार ने मिशन ऑफ चैरिटीज के लिए आने वाली विदेशी सहायता को तकनीकी आधार पर रोक दिया है। मदर टेरेसा की यह संस्था मुख्यत: बंगाल में अनाथ और बेसहारा लोगों के बीच काम करती है। अब एफसीआरए नियम की आड़ ली जा रही है। बहुत संभव है मिशन ऑफ चैरिटीज की विदेशी मदद बंद न हो पर यह चेतावनी तो है ही।

इसी के समानांतर बाबाओं और साधुओं ने उत्तराखंड से लेकर छत्तीसगढ़ तक कानून की धज्जियां उड़ा दी हैं। पर यह सब अचानक नहीं है बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नया अध्याय है। ऐसा हो क्यों रहा है? क्यों कि भाजपा और उसका वर्तमान नेतृत्व किसी भी हाल में उत्तर प्रदेश पर कब्जा चाहता है।

 

घबराया हुआ नेतृत्व

गोकि भाजपा ने इस बीच कई राज्यों में चुनावों में अपनी आक्रामकता, धनबल और सत्ता के दुरुपयोग के चलते सफलता पायी है पर विशेष कर पहले केरल में कम्युनिस्टों और फिर बंगाल में त्रिणमूल के हाथों हुई हार ने उसे इस हद तक डरा दिया है कि उत्तर प्रदेश को लेकर उसकी नींद उड़ी हुई है।

राममंदिर के अलावा जिस बेशर्मी से विज्ञापनों की बरसात देश के गरीबी के सूचकांक में सबसे नीचे से तीसरे पायदान पर रह जाने वाले इस राज्य के शासक दल द्वारा की जा रही है उसको लोकतंत्र के अनिवार्य दुर्गुणों में मान कर अगर नजरंदाज कर भी दें तो भी नरेंद्र मोदी के हर दिन उत्तर प्रदेश दौड़ते हुए जाने और वहां जाकर सड़क पर सेना के विमान से उतरने के करतब, हवाई अड्डों की घोषणा जैसे अनगितन वायदे करने की कोशिशें कम मजेदार नहीं है। इसलिए भी कि अयोध्या नगरी में हुई जमीन की लूट भाजपा द्वारा गढ़े गए हिंदू धर्म के इस नए प्रतीक की पवित्रता को ही नहीं गिरा रही है बल्कि शासक दल की मंशाओं और क्षमता पर भी अंगुली उठाने में कसर नहीं छोडऩेवाली है। सर्वकालिक सत्य यह है कि यथार्थ को सदा के लिए छिपाया नहीं जा सकता विशेषकर सूचना के माध्यमों के विस्फोट के इसयुग में, जो बता रहे हैं कि देश के सबसे बड़े इस राज्य को मंदिर और हवाई जहाज नहीं सबसे पहले एक अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था चाहिए। चंडीगढ़ के परिणामों के साथ ही आई नीति आयोग की राज्यों में स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में रिपोर्ट के अनुसार केरल इस सूची में सबसे ऊपर और उत्तर प्रदेश इस सूची में सबसे नीचे है। इत्तफाक से 19 राज्यों की इस सूची में 15वें नंबर पर उत्तराखंड, 16वें नंबर पर राजस्थान, 17 नंबर पर मध्यप्रदेश, 18 नंबर पर बिहार और फिर उप्र है।

पर नरेंद्र मोदी हिमाचल प्रदेश में 28 तारीख को फिर अपना दावा दोहरा रहे थे कि लड़कियों की विवाह की आयु 21 वर्ष करने से उन्हें क्या क्या फायदे मिलेंगे। पर यहां चिंता दूसरी तरह की है। मोदी-योगी मिलकर काशी को जो चाहे बनाएं, अयोध्या में राम मंदिर के शिखरों को हिमालय से ऊंचा उठाएं पर इस तरह के फैसले सोच समझ कर करें जो आगे चल कर समाज के लिए परेशानी का बड़ा कारण बनने की संभावना से भरे हुए हैं।

 

विवाह की उम्र का खेल

संसद के शीतकालीन अधिवेशन में सरकार द्वारा विपक्ष के चरम विरोध के बावजूद लड़कियों की विवाह की आयु को 18 वर्ष से बढ़ा कर 21 वर्ष करने का प्रस्ताव किया गया है वह एक नहीं विभिन्न कोणों से खतरनाक है। खतरा तब और बढ़ जाता है जब स्वयं प्रधानमंत्री इसे सामाजिक क्रांति की ओर बढ़े एक और कदम की तरह प्रस्तुत करते हैं। वह कहते हैं कि इससे बेटियां पढ़ पाएंगी और समाज में आगे बढ़ पाएंगी। यानी कि वे नौकरियों और व्यवसायों के माध्यम से समाज में ज्यादा भागीदारी करेंगी। तर्क यह भी है कि विवाह की आयु को एक करना स्त्री पुरुष समानता की ओर एक कदम है। ऊपरी तौर पर ये बातें गलत नहीं कहीं जा सकतीं और सौभाग्य से इस बाल विवाह प्रतिबंधन (संशोधित) बिल 2021 को फिलहाल संसद की एक कमेटी को फिर से विचार करने के लिए भेज दिया गया है पर प्रधानमंत्री जिस तरह से इसको बढ़ाने में लगे हैं, चिंता का विषय वह है।

यद्यपि इस का आधार जया जेटली की गत वर्ष की रिपोर्ट है, पर लगता है सरकार ने इसकी ठीक से जांच नहीं करवाई। बल्कि कहना चाहिए, जैसा कि कुल लोगों का मानना है, उसकी मंशा ही वह नहीं है जो वह कह रही है बल्कि लड़कियों की विवाह की उम्र बढ़ाने के पीछे एक बड़ा कारण उनके स्वयं विवाह करने के अधिकार को तीन वर्ष के लिए घटाना है। यह मंशा दो तरह से काम करती है एक तो पितृसत्ता का विस्तार और दूसरा लड़कियों के साथी चुनने के अधिकार, विशेष कर अंतर जातीय व अंतर धार्मिक निर्णयों] को लटकाना और इस तरह भाजपा के परंपरागत वोट बैंक को मजबूत करना है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेसी नेता प्रियंका गांधी वाडरा द्वारा स्त्रियों को जिस तरह से प्रेरित करना शुरू किया है वह प्रदेश के अन्य राजनीतिक दलों से बच नहीं पाया है। स्पष्ट है कि यह लक्षण जो अपनी मात्रा में कम बड़ा नहीं है, किसी भी अन्य राजनीतिक भागीदार से बचा नहीं है फिर चाहे वह भाजपा हो या समाजवादी दल।

भाजपा ने लगता है केंद्र में अपने बहुमत का लाभ उठाते हुए ऐसा पैंतरा चलाया है जो उसे उम्मीद है कि स्त्रीयों के वोट हासिल करने में भी निर्णायक साबित होगा। वह एक तीर से दो शिकार करने के चक्कर में है।

इस संदर्भ में अगर केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी की मानें तो महिलाओं की विवाह की उम्र को 21 करना समानता की ओर कदम है। ऐसे समय में जब उस प्रदेश में चुनाव हो रहे हों जो संसद में उनका आधार प्रदेश है, स्त्रियों की विवाह योग्य उम्र को बढ़ाने के प्रस्ताव को तुरत फुरत पारित करना सामान्य नहीं माना जा सकता है, फिर चाहे उसे फिलहाल सेलक्ट कमेटी को ही क्यों न सौंप दिया गया हो। सैद्धंतिक स्तर पर यह बात आकर्षक लगती है पर सवाल है क्या वास्तव में ऐसा है? विशेष कर भारतीय स्थितियों में जहां महिलाओं में अशिक्षा का स्तर और रोजगार में उनकी स्थिति क्या है इस पर बात न की जा रही हो।

पहली बात तो यह है कि विवाह के लिए 18 वर्ष की उम्र वैज्ञानिक आधार पर सही है। इसीलिए दुनिया भर में यह वयस्क होने और विवाह करने की सही उम्र मानी जाती है। बाल विवाह को रोकने के लिए ही आजाद भारत में विवाह की उम्र 18 वर्ष तय की गई थी। यानी उसका आधार विज्ञान था।

दूसरा, वयस्क होने की उम्र चूंकि 18 वर्ष मानी गई है और उसके बाद हर देशवासी को हर तरह के अधिकार प्राप्त हैं, विवाह की आयु को बढ़ाना या घटाना अतार्किक है। इस मामले में लड़कों की विवाह की आयु को 21 वर्ष करना भी अतार्किक है। यद्यपि उसके पीछे तर्क जनसंख्या पर नियंत्रण था, जिसकी अब जरूरत नहीं रही है।

 

कानून व्यवस्था का मुद्दा

असल में विवाह का संबंध आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कारणों से है, अगर उन का ध्यान न रखा गया तो उसके दुष्परिणामों की गंभीरता से बचा नहीं जा सकता। जैसे कि देश के बड़े भाग में जिस तरह की आर्थिक और सामाजिक स्थितियां हैं उनमें लड़कियों की आयु को बढ़ाने के जो तत्कालिक परिणाम देखे जा सकते हैं उनमें सबसे पहला है लड़कियों के 21 वर्ष से पहले होने वाले विवाहों को रोक पाना आसान नहीं होगा और पूरा मुद्दा कानून व व्यवस्था का बन जाएगा। यह इसलिए भी संभव है क्यों कि आज, शारदा एक्ट के लागू किए जाने के लगभग सौ साल बाद भी, देश में होने वाले बाल विवाहों को, जिसमें लड़कियों की उम्र कम से कम 14 वर्ष की गई थी, पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका सीधा परिणाम यह होगा कि इस तरह के अधिकांश विवाह जो दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में होंगे, अवैध हो जाएंगे और ऐसे लोगों को बहुत संभव है, कानूनी उत्पीडऩ का सामना करना पड़े। विशेषकर सेना तथा अर्ध सैनिक बलों आदि सेवा में भर्ती लोगों की पत्नियों को कई तरह के सामाजिक लाभों से वंचित रहना पड़ सकता है। पर इससे भी ज्यादा खतरनाक है इस तरह के विवाहों से पैदा हुए बच्चों का अवैध हो जाना।

यह अचानक नहीं है कि अगले ही दिन हरियाणा की एक खाप पंचायत ने मांग की कि माता-पिता को लड़कियों का विवाह न्यूनतम आयु 18 वर्ष में करने की इजाजत होनी चाहिए। पर मजे की बात यह है कि खाप ने साथ में यह भी जोड़ दिया है कि लड़कियों की अदालत में विवाह करने की आयु 21 वर्ष की जानी चाहिए जिससे वे भाग कर या प्रेम विवाह न कर पाएं। तो क्या यह कानून एक तीर से दो शिकार करना चाहता है, यानी अंतर जातीय और अंतर धार्मिक विवाहों को रोकने का?

कम उम्र में विवाह को रोकने का सबसे प्रभावशाली तरीका अंतत: आर्थिक विकास और शिक्षा है, जिसकी ओर से सरकार ध्यान हटाना चाहती है क्यों कि आर्थिक विकास के हर पैमाने पर सरकार पिछड़ ही नहीं रही है बल्कि शिक्षा के निजीकरण ने गरीब तबकों के लिए उच्च शिक्षा पाना लगभग असंभव बना दिया है।

पिछले वर्ष जब वित्तमंत्री ने लड़कियों की मातृत्व में जाने की उम्र पर विचार करने के लिए एक पैनल का प्रस्ताव किया था, तब उन्होंने माताओं की मृत्यु दर घटाने और पोषण के स्तर को बढ़ाने की बात की थी। लेकिन जब कार्यकारी समूह की घोषणा की गई थी तब बात विवाह की उम्र और मातृत्व का माता और शिशु के स्वास्थ्य से संबंध के ही पड़ताल करने की की गई। यह बात ही अपने आप में सरकार की नीयत पर शंका पैदा करती है। वास्तव में वे माता ही स्वस्थ्य रह सकती हैं, जिनका पोषण सही तरीके से होता है, इसके साथ ही यह भी सही है कि जो स्त्रियां बड़ी उम्र में विवाह करती हैं और ज्यादा स्वस्थ रहती हैं, वह उम्र के कारण नहीं बल्कि बड़ी उम्र में विवाह करनेवाली स्त्रियां बेहतर आर्थिक पृष्ठभूमि की होती हैं।

स्पष्ट है कि सरकार इस संदर्भ में मूल मुद्दे को नकारने में लगी है और हवाई बातें कर रही है। यह कहना कि कम उम्र में विवाह न करने से स्त्रियों को आगे पढऩे और स्वालंबी होने का मौका मिलेगा विश्वसनीय नहीं है। सत्य एकदम उल्टा है। अगर लड़कियों को पढऩे लिखने की सुविधा दी जाएगी तो वे देर से विवाह करेंगी और तब मातृत्व को भी सुविधानुसार हासिल करने की स्थिति में होंगी। पर यथार्थ कुछ और ही है। शिक्षा के व्यावसायीकरण तथा सरकारी नौकरियों के कम होने ने स्त्रियों के रोजगार के अवसरों को कम ही किया है। निजी तंत्र उन्हें पसंद नहीं करता। यही नहीं सरकार इस दिशा में जो कर रही है वह कितना बड़ा ढकोसला है इसका उदाहरण बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना है, एक उदाहरण देखिए:

गत माह नौ दिसंबर को लोकसभा में प्रस्तुत महिला सशक्तीकरण पर नियुक्त संसदीय कमेटी की रिपोर्ट के अुनसार इस मद में 2016-2019 के दौरान रु 446.72 करोड़ दिए गए। इसमें से 78.91 प्रतिशत तो मीडिया के माध्यम से प्रचार पर ही खर्च कर दिए गए। इस के अलावा इस योजना के अंतर्गत 2014-15 से 2019-20 के लिए कुल बजटीय प्रावधान 848 करोड़ था। इस दौरान राज्यों को 622.48 करोड़ रुपये दिया गया पर इस में से सिर्फ 156.46 करोड़ यानी कि कुल 25.13 प्रतिशत का ही असली मद में खर्च हो पाया। यह तथ्य मात्र सरकार की मंशा ही नहीं बल्कि मीडिया की सहभागिता पर भी प्रश्न उठाता है।

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