कॉरपोरेट और हिंदुत्व के गठजोड़ का सबसे बड़ी चुनौती

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  • सिद्धार्थ

 

कॉरपोरेट और हिंदुत्व की राजनीति के इस गठजोड़ को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती किसानों के आंदोलन द्वारा मिल रही है, जिसे धीरे-धीरे देश के अन्य मेहनतकश तबकों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों का समर्थन  मिल रहा है और यह समर्थन निरंतर बढ़ता जा रहा है। 1991 के बाद के भारत के इतिहास का यह सबसे बड़ा जनांदोलन है, जिसके निशाने पर सीधे कॉरपोरेट घराने  और उनके राजनीतिक नुमाइंदे  हैं।

 

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में खड़ा किया गया गुजरात मॉडल हिंदुत्व की राजनीति और कॉरपोरेट के गठजोड़ की एक प्रयोगशाला था। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के अभियान में लगे आरएसएस के स्वयंसेवक और प्रचारक नरेंद्र दामोदरदास मोदी 3 अक्टूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री बने।  मुख्यमंत्री बनने के पांच  महीने के भीतर ही उनके नेतृत्व में 28 फरवरी 2002 को गुजरात नरसंहार को अंजाम दिया गया और इसके लिए गोधरा कांड का सहारा लिया गया। गुजरात नरसंहार में सैकड़ों मुसलमानों (आधिकारिक तौर पर स्वीकृत 790) का कत्लेआम किया गया और सरेआम मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। कइयों को जिंदा जला दिया गया। इस नरसंहार ने नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा बना दिया। खुले तौर पर कॉरपोरेट समर्थक नीतियों एवं फैसलों ने उन्हें कॉरपोरेट जगत का भी चहेता बना दिया। उन्होंने हिंदुत्व की  राजनीति और कॉरपोरेट के गठजोड़ के आधार पर गुजरात मॉडल खड़ा किया। जिसका मूल था- हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के आधार पर वोट हासिल कर सत्ता हथियाना और इस सत्ता का इस्तेमाल हिंदू राष्ट्र की परियोजना एवं कॉरपोरेट घरानों के मुनाफों एवं हितों की पूर्ति के लिए करना। इसके बदले में कॉरपोरेट घरानों ने मोदी जी की चुनावी जीत को सुनिश्चित बनाने के लिए और हिंदू राष्ट्र की परियोजना को अंजाम देने के लिए अपनी तिजोरी खोल दी और अपनी मीडिया और भाड़े के बुद्धिजीवियों को उनकी सेवा में लगा दिया। यह संघ और कॉरपोरेट के  परस्पर लेन-देन का एक सौदा था, जिसके मध्यस्थ (दलाल) नरेंद्र मोदी बने। करीब 14 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने कॉरपोरेट को आश्वस्त कर दिया था कि वे उनके हितों की पूर्ति एवं रक्षा के लिए किसी हद तक जा सकते हैं और संघ को इस बात के लिए मुतमईन कर दिया कि हिंदुत्व  राष्ट्र की परियोजना  को आगे बढ़ाने के लिए कोई  भी कदम उठाने में उन्हें किसी तरह की हिचक नहीं होगी। अपनी इन्हीं कारगुजारियों के चलते नरेंद्र मोदी 2014 में आरएसएस और कॉरपोरेट के चहेते के  रूप में प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार बने और बाद में भारत के प्रधानमंत्री भी। हिंदू राष्ट्र की परियोजना को उन्होंने राष्ट्रवाद का जामा पहनाया और कॉरपोरेट हितों की पूर्ति को विकास जैसा खूबसूरत शब्द दे दिया। इस तरह उन्होंने राष्ट्रवाद और विकास के  चैंपियन के रूप में खुद को भारत की जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। भारतीय जन का एक बड़ा हिस्सा उनके विकास और राष्ट्रवाद के इस छलावे का शिकार भी बना और अभी भी बन रहा है। विभिन्न चुनावों में मोदी जी को मिले वोट इसके सबूत हैं।

2014 से 2020 के बीच इन करीब साढ़े छह वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रवाद (हिंदू राष्ट्र) और विकास ( कॉरपोरेट हितों की पूर्ति) का खेल ही खेला है। इस खेल को निरंतर किसी न किसी रूप में चुनौती भी मिलती रही है। अप्रैल 2018 में दलित-बहुजन समाज ने इसे एससी-एसटी एक्ट के खात्मे (सर्वोच्च न्यायालय द्वारा, जिसे केंद्र सरकार का अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था) के बाद चुनौती दी और मोदी सरकार को झुकना पड़ा। 2019 में सीएए-एनआरसी विरोधी जनांदोलन ने उससे भी बड़ी चुनौती पेश की, जिसका प्रतीक शाहीन बाग बना और जिसका अगुवा वे मुस्लिम महिलाएं बनीं, जिन्हें संघ-भाजपा ने सबसे अधिक दबी-कुचली एवं पिछड़ी महिलाओं का प्रतीक बना दिया था। लेकिन कॉरपोरेट और हिंदुत्व की राजनीति के इस गठजोड़ को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती किसानों के आंदोलन द्वारा मिल रही है, जिसे धीरे-धीरे देश के अन्य मेहनतकश तबकों और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों का समर्थन  मिल रहा है और यह समर्थन निरंतर बढ़ता जा रहा है। 1991 के बाद के भारत के इतिहास का यह सबसे बड़ा जनांदोलन है, जिसके निशाने पर सीधे कॉरपोरेट घराने  और उनके राजनीतिक नुमाइंदे (नरेंद्र मोदी) हैं।

प्रश्न उठता है कि आखिर वर्तमान किसान आंदोलन कॉरपोरेट और हिंदुत्व के गठजोड़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्यों है और इसके वैचारिक, सांगठनिक, सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक और ऐतिहासिक कारण क्या हैं?

किसी भी आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत जनसहभागिता होती है। वर्तमान किसान आंदोलन पंजाब और अब हरियाणा में जनांदोलन बन चुका है और धीरे-धीरे देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी जनांदोलन का शक्ल अख्तियार कर रहा है। तीन कृषि कानूनों- कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, च्मूल्य आश्वासन तथा कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौताज् – बनने से पहले जब इन्हें अध्यादेश के रूप में 5 जून को जारी किया गया था, तो सबसे पहले पंजाब के किसानों के बीच इसके खिलाफ सुगबुगाहट शुरू हुई। लोकसभा द्वारा इसे 17 सितंबर को पास करने के बाद यह विरोध और तेज हो गया। जब आनन-फानन में राज्यसभा ने संसदीय नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए इसे 20 सितंबर को पास कर दिया और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की मुहर के बाद यह कानून बन गया, तो पंजाब में बड़े पैमाने पर  इसका विरोध शुरू हो गया। यह विरोध धीरे-धीरे व्यापक जनांदोलन बनने लगा और भाजपा के सहयोगी अकाली दल की मंत्री (हरसिमरत कौर बादल) को भाजपा के कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा और अंततोगत्वा अकाली दल एनडीए से भी बाहर हो गया। अकाली दल का अलग होना इस बात का सबूत था कि पंजाब में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ व्यापक जनमत है। इस जनांदोलन के दबाव में पंजाब के भाजपा के कुछ बड़े नेताओं ने भी भाजपा से इस्तीफा दे दिया।  इसमें भाजपा के प्रदेश  महासचिव मलविंदर सिंह कंग भी शामिल थे। स्थानीय स्तर के कई सारे भाजपा नेताओं ने भी इस कानून की खिलाफत किया और कई सारे लोगों ने इस्तीफा भी दिया। अकाली दल का एनडीए से अलग होना और भाजपा के नेताओं के इस्तीफे इस बात के सबूत थे कि पंजाब में इन तीन कृषि कानूनों का समर्थन करते हुए अपनी राजनीतिक जमीन बनाए रखना बहुत कठिन था, क्योंकि पंजाब में यह जनांदोलन बन चुका है। पंजाब के किसान इन कृषि कानूनों के विरोध में करीब 2 महीने तक पंजाब में संघर्ष करते रहें। पंजाब के साथ ही यह किसानों का जनांदोलन धीरे-धीरे हरियाणा में फैलने लगा। देश के अन्य कोनों में भी इन कृषि कानूनों के विरोध में किसानों ने प्रदर्शन किया और अपने विरोध की आवाज केंद्र सरकार तक पहुंचाने की कोशिश की।लेकिन केंद्र सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अंततोगत्वा किसानों को बाध्य होकर बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए 26 नवंबर को च्दिल्ली कूच करेंज् की कॉल देनी पड़ी। पहले हरियाणा सरकार और बाद में केंद्र सरकार ने पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों की लाठियों, पानी की बौछारों और आंसू गैस के गोलों के दम पर दिल्ली कूच कर रहे किसानों को रोकने-कुचलने की कोशिश की और सफलता न मिलने पर किसानों को बुराड़ी (दिल्ली) के मैदान तक आने की इजाजत दी। लेकिन किसानों ने बुराड़ी आने से इंकार कर दिया, क्योंकि किसानों ने रामलीला मैदान या जंतर-मंतर जाने के लिए कूच किया था। साथ ही उनका कहना यह भी था कि बुराड़ी का मैदान वास्तव में सरकार द्वारा तैयार एक अनाधिकारिक  जेल है और वे जेल में कैद होने के लिए नहीं आए हैं। उन्होंने दिल्ली के सिंघु और टिकरी बार्डर पर ही डेरा डाल दिया और  अब यह डेरा फैलते-फैलते कई किलोमीटर के दायरे में फैल चुका है और इन दोनों बार्डरों पर आंदोलनरत किसानों की बस्तियां सी बस गई हैं, जो फैलती और सघन होती जा रही हैं। पंजाब एवं हरियाणा के साथ ही देश के अन्य हिस्सों के किसान धीरे-धीरे इन जनांदोलनकारी बस्तियों के नागरिक, देश के अन्य हिस्सों से आए किसान बनते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने भी अपना डेरा डाल दिया है और देश के अन्य हिस्सों के किसान भी इस डेरे में शामिल होते जा रहे हैं और कारवां बढ़ता जा रहा है।

पंजाब में किसानों के इस जनांदोलन को बहुसंख्य लोगों का समर्थन प्राप्त है। पंजाबी फिल्म समुदाय का बहुलांश हिस्सा मुखर तौर पर इस आंदोलन के साथ है, खिलाडिय़ों ने भी इस आंदोलन को अपना खुला समर्थन दिया है। पंजाबी मध्यवर्ग भी इसके साथ खड़ा है, व्यापारी इसका खुलकर समर्थन कर रहे हैं। खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों ने भी इस आंदोलन के साथ अपनी एकजुटता जाहिर की है। पंजाबी गीतकारों द्वारा आंदोलन के पक्ष में लिखे गए और गाए गीत लाखों की संख्या में लोगों ने पसंद किया है। पंजाबी किसान समुदाय के साथ , उन अल्पसंख्य हिंदुओं को छोड़कर पंजाब में हर कोई खड़ा है, जो हर कीमत पर आरएसएस और भाजपा के साथ खड़े हैं, क्योंकि हिंदुत्व के प्रभुत्व की वैचारिकी ने उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया है और उनके कानों को बहरा कर दिया है। कोई भी व्यक्ति इन तथ्यों को देख सकता है, जिसने आंदोलनकारी किसानों के बीच एक या दो दिन भी बिताया हो। सबसे बड़ी बात यह है कि इस जनांदोलन में बूढ़े-जवानों के साथ बड़ी संख्या में किशोर लड़के-लड़कियां भी शामिल हैं। गाहे-बगाहे मासूम बच्चे भी आंदोलनकारियों की सेवा करते दिख जाते हैं। सारी दुनिया ने करीब 5-6 वर्ष की उस मासूम लड़की को देखा, जो आंदोलनकारियों को रोटी परोस रही थी। इस आंदोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी देखने लायक है, सिंघु बार्डर की तुलना में टिकरी बार्डर पर महिलाएं बड़ी संख्या मंा मौजूद हैं। तीन महिलाएं अपनी शहादत भी दे चुकी हैं, जिसमें एक महिला मजदूरनी थी। न केवल पंजाब, बल्कि पंजाब के बाहर भी इस आंदोलन के साथ पंजाबी समुदाय, विशेषकर सिख समुदाय खड़ा है। देश-दुनिया के कोने-कोने से सिख समुदाय इस संकट और संघर्ष की घड़ी में तन-मन और धन से आंदोलनकारी किसानों के साथ खड़ा है।  यह वही सिख समुदाय है, जो दुनिया के किसी कोने में संकट में पड़े लोगों की मदद के लिए दौड़ पड़ता है, बिना देश, राष्ट्र, धर्म, समुदाय, लिंग और जाति-पांती का खयाल किए।

पंजाब के साथ ही यह आंदोलन हरियाणा में भी जनांदोलन बनता जा रहा है। हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के लिए भाजपा सरकार को समर्थन जारी रखना मुश्किल होता जा रहा है। अखबारों की सूचनाओं के अनुसार दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के 10 विधायकों में से 7 विधायक किसानों के दबाव के चलते बगावत की मुद्रा में हैं। दुष्यंत चौटाला के लिए अपने विधायकों को एकजुट रखना मुश्किल होता जा रहा है। हरियाणा में किसान मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर  और उप मुख्यमंत्री का घेराव कर रहे हैं, जिसके चलते दोनों को अपने कई कार्यक्रम रदद् करने पड़े। आज स्थिति यह है कि हरियाणा का कोई भी मंत्री कृषि कानूनों के पक्ष में बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, जबकि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा पार्टी का निर्देश है कि भाजपा के मंत्री, सांसद, विधायक और अन्य नेता कृषि कानूनों के फायदे बताने के लिए सभाएं और मीटिंग करें। सिंघु बार्डर और हरियाणा बार्डर दोनों जगहों पर हरियाणा के किसानों-नौजवानों द्वारा भाईचारे के बैनर लगाए गए हैं और इसी नाम से लंगर चल रहे हैं, क्योंकि हरियाणा की सरकार ने इसे पंजाबी सिख किसानों का आंदोलन कहकर हरियाणा के किसानों को उनसे अलग करने की कोशिश की थी। इतना ही नहीं हरियाणा सरकार ने पंजाब के साथ पानी के बंटवारे का सवाल आंदोलन के बीच में उठाकर पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच फूट डालने की कोशिश की, लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। इस संदर्भ में पूछने पर हरियाणा के एक किसान ने कहा कि जब फसल और खेत अंबानी-अडानी के हाथ में चला जाएगा, तो क्या पानी डूब मरने के लिए इस्तेमाल करेंगे।

सिंघु बार्डर और टिकरी बार्डर पर डेरा डाले किसान हरियाणा की सीमा में हैं, जहां हरियाणा के गांवों-कस्बों के लोग हर तरह से उनकी मदद कर रहे हैं। धीरे-धीरे पंजाब और हरियाणा के किसान पूरी  तरह एक दूसरे के साथ एकजुट हो चुके हैं और बचे-खुचे एकजुट हो रहे हैं, जबकि हरियाणा के संघी मुख्यमंत्री ने अपनी सारी ताकत पंजाब और हरियाणा के किसानों को बांटने और इस आंदोलन को तोडऩे में लगा दिया। कम से कम पंजाब और हरियाणा के किसी राजनेता के लिए इन कृषि कानूनों के पक्ष में खड़ा होना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता जा रहा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री चौधरी विरेंद्र सिंह खुलकर आंदोलनकारी किसानों के पक्ष में खड़े हो गए हैं। पंजाब की आबादी करीब तीन करोड़ और हरियाणा की आबादी  ढाई करोड़ से अधिक है, शायद ही कोई इस तथ्य से इंकार करे कि इस आबादी का बड़ा हिस्सा इन तीन कृषि कानूनों को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मान रहा है। वह भविष्य के उस खतरे से वाकिफ है, जब इन कानूनों का इस्तेमाल करके कॉरपोरेट उनके मालिक बन बैठेंगे, वह अपनी स्वतंत्रता खो देगा और उसकी फसल और बाद मंक जमीन के मालिक कॉरपोरेट बन बैठेंगे और वह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के नाम पर कॉरपोरेट का गुलाम या अपनी खेती से बेदखल होकर भाड़े का मजदूर बन जाएगा। अकारण नहीं है कि इस किसान आंदोलन के निशाने पर कॉरपोरेट-विशेषकर मोदी जी के मित्र कहे जाने वाले अंबानी और अडानी हैं।

यह सच है कि पंजाब और हरियाणा दो ऐसे प्रदेश हैं जहां किसान आंदोलन जनांदोलन में तब्दील हो चुका है और पंजाब के सिख किसान इस आंदोलन के अगुवा दस्ते (वैनगार्ड) हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि यह आंदोलन कोई पंजाब और हरियाणा तक सीमित है। यह देशव्यापी जनांदोलन बन चुका है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान पहले ही इसमें सक्रिय तौर पर हिस्सेदार हैं और उन्होंने दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर अपना डेरा डाल दिया है, उनके साथ वहां देश के विभिन्न हिस्सों के किसान शामिल हो रहे हैं, जिसमें उत्तराखंड के तराई इलाके के किसान भी शामिल हैं। इसके साथ राजस्थान के भी किसान अच्छी-खासी संख्या में इस आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहे हैं। महाराष्ट्र के किसानों का एक बड़ा जत्था इस आंदोलन में शामिल होने के लिए आ चुका है। देश के अन्य हिस्सों से भी किसान इस आंदोलन में शामिल होने के लिए निरंतर आ रहे हैं, जो नहीं आ पा रहे हैं, वे अपने-अपने प्रदेशों-जिलों में इस किसान आंदोलन के समर्थन में आवाज बुलंद कर रहे हैं। यदि देशव्यापी पूरे परिदृश्य को देखें तो यह एक देशव्यापी जनांदोलन की शक्ल तेजी से अख्तियार कर रहा है। मजदूर संगठनों और ट्रेड यूनियनों के बड़े हिस्से खुला समर्थन देकर इस आंदोलन को ताकत प्रदान कर रहे हैं। सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बार्डर पर किसान-मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं। ट्रेड यूनियनों के नेता किसानों के मंच पर आकर उन्हें वैचारिक-सांगठनिक समर्थन के साथ आर्थिक मदद भी दे रहे हैं। सामाजिक समूह के तौर पर दलित-बहुजन संगठन भी पूरी ताकत के साथ इस आंदोलन के पक्ष में हैं, क्योंकि वे इस आंदोलन को हिंदू राष्ट्र और कॉरपोरेट गठजोड़ को झुकाने वाली शक्ति के रूप में देख रहे हैं। अन्य उत्पीडि़त सामाजिक समूहों की भी सहानुभूति इस आंदोलन के साथ है, जिसमें अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों (विशेषकर मुस्लिम-ईसाई)  भी शामिल हैं। इस आंदोलन के साथ इनकी गहरी सहानुभूति दिखाई दे रही है, क्योंकि मोदी के शासनकाल में हिंदुत्व की राजनीतिक और कॉरपोरेट के गठजोड़ के सबसे बड़े निशाने वही बने। सच तो यह है कि हिंदुत्व की राजनीतिक और कॉरपोरेट के वर्चस्व विरोधी सभी शक्तियां इस आंदोलन के साथ एकजुट हो रही हैं और इस आंदोलन को देश और देश के जन को बचाने के एक मौके के रूप में देख रही हैं और वास्तव में यह ऐतिहासिक मौका है भी।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि व्यापक जनसहभागिता वाले किसी बड़े जनांदोलन के बिना कोई बड़ा परिवर्तन संभव नहीं होता है और न ही अन्यायी सत्ता को झुकाया या उखाड़कर फेंका जा सकता है, लेकिन व्यापक जनसहभागिता के साथ जनांदोलन का संगठित होना भी जरूरी होता है, नहीं तो कभी भी उस जनांदोलन को भटकाया या तोड़ा जा सकता है। वर्तमान किसानों की व्यापक जनसहभागिता के बाद दूसरी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह पूरी तरह संगठित है। 40 किसान संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले यह आंदोलन हो रहा है और वही मोर्चा इसको नेतृत्व दे रहा है। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के बैनर तले संगठित देश के 450 से अधिक किसान संगठनों का इसे समर्थन प्राप्त है। जिस संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले यह किसान संघर्ष कर रहे हैं, उनमें बहुलांश संगठन लंबे समय से किसानों के बीच काम कर रहे हैं और उनके बीच उनकी पूरी स्वीकृति है।  इसमें एक बड़ा हिस्सा वामपंथी विचारधारा वाले संगठनों का है, जो दशकों से किसानों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस आंदोलन में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी है और कई मामलों में वे इस आंदोलन की रीढ़ भी बने हुए हैं, क्योंकि उनके पास प्रशिक्षित एवं समर्पित कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की एक पूरी टीम है। सिंघु बार्डर और टिकरी बार्डर पर लाखों  किसानों के उपस्थित होने के बावजूद  भी जो अनुशासन, नियोजन एवं व्यवस्था दिखाई दे रही है, उसमें इन किसान संगठनों की अहम भूमिका है। जनसहभागिता के स्तर पर भले ही इस आंदोलन में स्वत: स्फूर्तता का तत्व है, जो हर जनांदोलन में होता है और होना भी चाहिए, लेकिन यह जनांदोलन पूरी तरह संगठित है, व्यापक जनसहभागिता के बाद यह दूसरा कारण है, जिसके चलते इस आंदोलन को  विभ्रमित कर पाने, बांट पाने और तोड़ पाने  में नरेंद्र मोदी की सरकार खुद को असफल पा रही है, हालांकि उन्होंने इसे तोडऩे के लिए हर करतूत किया।

जनसहभागिता और संगठन के बाद बड़ा तत्व होता है, दोस्त-दुश्मन की पहचान। इस जनांदोलन के निशाने पर कॉरपोरेट और उनके दोस्त नरेंद्र मोदी है। आंदोलन में शिरकत कर रहे हर व्यक्ति की जुबान पर यह बात है कि यह मोदी की सरकार नहीं है, यह अंबानी और अडानी की सरकार है, मोदी उनके पालतू चाकर से अधिक कुछ नहीं है। आंदोलन में लगे पोस्टर और नारे भी इस बात के सबूत हैं। अधिकांश नारों के निशाने पर अंबानी-अडानी और मोदी हैं। किसान इस बात को बखूबी समझ रहे हैं कि इन तीन कृषि कानूनों का उद्देश्य खेती और किसानों पर कॉरपोरेट के वर्चस्व एवं मालिकाने को स्थापित करना है। किसान यहां तक कह रहे हैं कि हो सकता है कि दो-तीन सालों तक कॉरपोरेट किसानों को उनके उत्पादों का अच्छा दाम दें और सरकार भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदारी करती रहे, लेकिन अंतिम उद्देश्य सरकारी खरीदारी को खत्म करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को तहस-नहस कर देना और सरकारी मंडियों को उजाड़ देना और किसानों को पूरी तरह कॉरपोरेट की दया पर छोड़कर  उन्हें उनका  जरखरीद गुलाम बना देना है। किसानों के दिल-दिमाग में यह बात भीतर तक बैठ गई है कि मोदी सरकार सिर्फ और सिर्फ देश को हिंदू-मुस्लिम के बीच बांटकर वोट बटोर रही है और अंबानी-अडानी की सेवा कर रही है। अकारण नहीं है कि पंजाब में किसानों के निशाने पर अंबानी के पेट्रोल पंप, माल और टॉवर आदि हैं। इतना ही नहीं, किसानों ने बड़ी संख्या में अंबानी के जीओ प्रोडक्ट एवं सिम को छोड़ा है। हाल के आंकड़े बता रहे हैं कि 1 करोड़़ से अधिक लोगों ने जीओ नेटवर्क छोड़कर अन्य नेटवर्क अपनाया यानि अपना नंबर पोर्ट कराया। किसान यह भी समझ रहे हैं कि मुख्यधारा की मीडिया के मालिक यही अंबानी-अडानी हैं और यह गोदी मीडिया है। किसानों के  मंचों पर कॉरपोरेट के मालिकाने वाली गोदी मीडिया निशाने पर है। अंबानी-अडानी और मोदी-परस्त कई सारे मीडिया घरानों को किसानों के बीच दुश्मन की तरह देखा जा रहा है। किसान सिर्फ और सिर्फ वैकल्पिक मीडिया और सोशल मीडिया पर भरोसा कर रहे हैं और मुख्यधारा के सिर्फ उन मीडिया हाउस के मीडियाकर्मियों से बात कर रहे हैं, जिनके बारे में उनकी राय है, ये मीडिया हाउस अंबानी-अडानी या मोदी के जरखरीद गुलाम नहीं हैं और एक हद तक तटस्थ रिपोर्टिंग करते हैं। अडानी-अंबानी और मोदी की तरह ही मुख्य मीडिया घरानों को अपने दुश्मन के रूप में देख रहे हैं। शायद आजादी के बाद पहली बार किसी बड़े जनांदोलन के सीधे निशाने पर सत्ता और पूंजीपतियों का गठजोड़ और उनकी मददगार मीडिया आई है।

ये तीनों कानून देशी कार्पोरेट घरानों के साथ पश्चिमी दुनिया ( यूरोप- अमेरिका) उन विशालकाय खाद्य कंपनियों  के हितों की पूर्ति के लिए भी है, जिनकी नजर भारत भारत पर है, ये कंपनियां उन चीजों को भारत में पैदा करना चाहती है,जिन्हें भौगोलिक परिस्थितियों के चलते वे यूरोप और अमेरिका में पैदा नहीं कर सकती है और जिन चीजों की मांग यूरोपीय-अमेरिकी ( यूएस) उपभोक्ताओं के बीच है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बनिला ( एक फल) है। अमेरिका में बनिला पैदा नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसे और इससे बने खाद्य पादर्थों की अमेरिकी उपभोक्ताओं के बीच बहुत मांग है। जिसे भारत में पैदा किया जा सकता है और केरल में इसकी शुरूआत भी हो गई है। असल में यूरोपीय- अमेरिकी खाद्य कंपनियां चाहती हैं कि भारत पेट भरने वाले अनाज ( गेंहू आदि) यूरोप-अमेरिका से आयात करे और ऐसे खाद्य पदार्थों का उत्पादन करे जो यूरोप-अमेरिका में पैदा नहीं हो सकते है। ये विशालकाय यूरोपीय-अमेरिकी कंपनियां भारत की पूरी खाद्य ऋंखला को तहस-नहस करके यूरोप-अमेरिका की जरूरतों की हिसाब भारत की खाद्य ऋंखला नए सिरे गढऩा चाहती हैं, जिसे भारत की जरूरतों के हिसाब से नहीं,बल्कि पश्चिमी दुनिया के उपभोक्ताओं की जरूरतों के हिसाब गढ़ा जाएगा। जिसके परिणामस्वरूप भारत फिर से अपने लोगों का पेट भरने के लिए पश्चिमी दुनिया पर निर्भर हो सकता है और उत्सा पटनायक ने अपने हाल के एक लेख में इस स्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने उदाहरण देकर बताया है कि जो करीब 104 देशों ने खाद्यान्न के मामले में अपनी आत्मनिर्भरता खोकर आयात पर निर्भर हो गए, वहां आज अन्न का अभाव हो गया है और पेट भरने के लिए दंगों की स्थिति पैदा हो चुकी है। इसके साथ भारत ने विश्वव्यापर संगठन के साथ जो समझौता किया है, उस समझौते की शर्तें भी भारत की न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था को तोडऩे के लिए बाध्य करती हैं। यह कानून न सिर्फ अंबानी -अडानी की जरूरतों को पूरा करता है, इसके साथ ही यह विशालकाय यूरोपी- अमेरिकी कंपनियों के हितों के लिए बनाया गया है। इस तथ्य से किसान नेता भी रूबरू हैं।

दुश्मन की पहचान के साथ इस किसान आंदोलन की विशेषता अपने दोस्तों की पहचान है। वे अपने दायरे को व्यापक बना रहे हैं। वे साफ शब्दों में कह रहे हैं कि ये तीन कृषि बिल  सिर्फ किसानों को तबाह करने के साथ ही खेती पर निर्भर तबकों-वर्गों की रोजी-रोटी को पूरी तरह असुरक्षित कर देंगे, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीददारी के खात्मे के साथ फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया को खत्म कर दिया जाएगा। इसके साथ खाद्य पदार्थों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी देर-सबेर खत्म कर  दिया जाएगा। इसके खत्म होते ही देश की 80 करोड़ जनता को प्राप्त एक हद तक खाद्य सुरक्षा भी खत्म हो जाएगी। हम सभी को याद होगा कि कोरोना काल के दौरान खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वीकार किया था कि भारत में 80 करोड़ लोगों को सरकारी खाद्य सस्ते दर पर या नि: शुल्क उपलब्ध कराने की आवश्कता है। फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के खात्मे और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विनाश के साथ ही खाद्य पदार्थों पर भी देशी-विदेशी कॉरपोरेट जगत नियंत्रण कायम कर लेगा और मनमाने दाम पर उपभोक्ताओं को बेचेगा और बड़े पैमाने पर मुनाफा वसूल करेगा। आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि असल में इन तीन कृषि बिलों का असली उद्देश्य यही है। आंदोलनकारी किसानों द्वारा नरेंद्र मोदी द्वारा देश को हिंदू-मुस्लिम में बांटने और राज करने की नीति को भी निशाने पर ले रहे हैं। आंदोलनकारी किसानों के बीच और मंचों पर हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-आपस में हैं, भाई-भाई का नारा गूंज रहा है। इसके साथ ही  किसान-मजदूर एकता का नारा भी चारों तरफ गूंज रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में किसान भारतीय आम मेहनतकश जनता के साथ एकता कायम कर रहे हैं और बंटवारे की हर दीवार को गिराने का प्रयास करते हुए, व्यापक मोर्चा कायम करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कानून एक तरफ भारत की व्यापक अवाम के हित में नहीं हैं, तो दूसरी तरफ मोदी जी के दोस्त अंबानी-अडानी और विदेशी कंपनियाों  के हितों के लिए बना है। उनका कहना है कि किसान आंदोलन देश के व्यापक अवाम के हितों के लिए भी संघर्ष कर रहा है। किसान आंदोलन दोस्त-दुश्मन की पहचान की स्पष्ट समझ ने इसे भारत की उस व्यापक अवाम के साथ इस आंदोलन के साथ जोड़ दिया है, जो कॉरपोरेट और हिंदुत्व के गठजोड़ को देश और देश की व्यापक अवाम के लिए खतरा मानते हैं।

व्यापक जनसहभागिता, संगठित आंदोलन और दोस्त-दुश्मन की स्पष्ट पहचान के साथ इस आंदोलन की चौथी विशेषता यह है कि यह मेहनतकश किसानों का आंदोलन है। हमारे देश में ठीक से भूमि सुधार न होने के चलते दो तरह के किसान हैं, एक वे जो जमीन के मालिक तो हैं, लेकिन वे खुद के खेतों में काम नहीं करते हैं, पहले वे दलितों के श्रम का इस्तेमाल करके खेती करते थे और जमींदारी उन्मूलन के बाद बंटाई पर खेती दे देते हैं या आधुनिक मशीनों एवं मजदूरों का इस्तेमाल करके खेती करते हैं। ऐसे ज्यादातर किसान पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और देश के कई अन्य हिस्सों में पाए जाते हैं, ये मुख्यत: अपरकॉस्ट के  लोग हैं, जो कागजों में तो किसान हैं, लेकिन ये किसी तरह से किसान की परिभाषा में नहीं आते हैं। न तो इनकी आय का मुख्य स्रोत खेती है और न ही ये अपने खेतों में अपने परिवार के साथ काम करते हैं। अपने चरित्र में ये मुख्यत: परजीवी हैं। किसानों का दूसरा समुदाय मध्य जातियों के किसानों का है, जिन्हें वर्ण व्यवस्था ने शूद्र ठहरा दिया, जिन्हें पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है। इस किसान आंदोलन की रीढ़ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों के यही किसान, मुख्यत: सिख-जाट किसान हैं। इनकी आय और समृद्धि का मुख्य स्रोत इनकी खेती है और इन खेतों में अपने परिवार के साथ ये हाड़-तोड़ परिश्रम करते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि ये मजदूरों के श्रम का अपने खेतों में इस्तेमाल नहीं करते हैं और उनके साथ इनका कोई अन्तर्विरोध नहीं है, लेकिन ये मूलत: मेहनतकश किसान हैं। इन्हीं किसानों ने अपने श्रम के दम पर भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया। यही हरित क्रांति के वाहक थे और कऱीब 40 वर्षों तक अधिकांश भारत का पेट भरा। विश्व इतिहास इस बात का साक्षी  है कि कृषि की उत्पादकता अन्य तत्वों की अपेक्षा मुख्यत: कृषि भूमि के मालिक की श्रम के प्रति नजरिए पर निर्भर करती है। यदि खेत के मालिक के आय का मुख्य स्रोत कृषि है और श्रम का बड़ा हिस्सा पारिवारिक श्रम है, तभी खेती उत्पादक बनती है। यहां मैं पूंजीवादी फार्मिंग की बात नहीं कर रहा हूं, जो करीब एक उद्योग की तरह संचालित होती है। इस किसान आंदोलन के रीढ़ मेहनतकश किसान होने के चलते ही यह संघर्ष अकूत मुनाफा की हवस रखनेवाले कॉरपोरेट घरानों और मेहनतकश किसानों के बीच का संघर्ष बन गया है और इसी चरित्र के चलते देश के अन्य मेहनतकश तबके इसके साथ खुद को एकजुट महसूस कर रहे हैं। इस आंदोलन की रीढ़ मेहनतकश किसान होने के चलते ही यह आंदोलन इतना मजबूत दिख रहा है। वैसे भी आंदोलन के सबसे अगुवा दस्ते सिख अपनी मेहनतकश चरित्र के लिए पूरी दुनिया में जाने और सराहे जाते हैं।

इस आंदोलन के अगुवा दस्ते (वैनगार्ड) पंजाबी सिख किसानों की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इस आंदोलन को एक मजबूत आंदोलन बना रही है। सिख समुदाय ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था और जातिवादी पितृसत्ता के दायरे से बाहर का समुदाय है। ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण और द्विज-गैर-द्विज का बंटवारा नहीं है। गुरूनानक ने आज से 550 वर्ष पूर्व जिस सिख पंथ की स्थापना की थी, समता उसका मुख्य तत्व है। मूर्ति-पूजा और वैदिक ब्राह्मणवादी कर्मकांडों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। यह पुरोहितवाद से भी दूर है यह एकेश्वरवाद में विश्वास करता है, विभिन्न देवी-देवताओं और अवतारों के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। गुरू ग्रंथ साहिब में किसी भी वर्ण-जाति के पोषक संत-महात्मा की वाणी को कोई जगह नहीं दी गई है। उसकी जगह कबीर और रैदास जैसे  वर्ण-जाति व्यवस्था विरोधी और समता एवं श्रम की संस्कृति के पोषक संतों की वाणियों को इसमें जगह मिली है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पंजाबी सिखों को वर्ण-जाति की बीमारी ने छूआ नहीं, जब इस देश में इस्लाम और ईसाइयत जैसे धर्म वर्ण-जाति के शिकार हुए, तो सिख धर्म कैसे बच पाता। लेकिन हिंदू धर्म के दायरे के वर्ण-जातिवाद और सिखों के बीच जातीय भेदवाव की उपस्थिति में जमीन-आसमान का  अंतर है। सिखों का कोई गुरु या मुख्य ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब किसी भी तरीके से जाति-पांति को मान्यता नहीं देता है। सच तो यह है कि सिख धर्म वैदिक-सनातनी हिंदू धर्म के लिए चुनौती देते हुए पैदा हुआ और समता एवं मानव सेवा इसका मुख्य नारा बना। सिखों के सामाजिक-सांस्कृतिक और धर्म के इस समतावादी और मानवतावादी स्वरूप को कोई भी व्यक्ति इस किसान आंदोलन में देख सकता है। जिस तरह की उदात्तता, सामूहिकता, बंधुता और सेवा भाव दिख रहा है, उसका एक बड़ा श्रेय सिख धर्म के मूल चरित्र को भी जाता है।

ऐतिहासिक तौर पर सिख कौम अपने स्वाभिमान एवं अन्याय के खिलाफ लडऩे वाली कौम रही है, वे शहीद होना तो जानते हैं, लेकिन झुकना नहीं जानते हैं। सिख गुरुओं की शहादत का एक लंबा इतिहास रहा है, वे अत्याचारी शासकों के खिलाफ अपने मान-सम्मान एवं स्वाभिमान की रक्षा के लिए संघर्ष करते रहे हैं। आधुनिक काल में ऐतिहासिक गदर आंदोलन की रीढ़ सिख रहे हैं। 1857 के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में सिख रहे हैं। करतार सिंह सराभा, भगत सिंह और उधम सिंह की तस्वीरें किसान आंदोलन के मुख्य पोस्टरों में शामिल हैं। आंदोलन में शामिल अधिकांश किसान खुद को सिख गुरुओं, गदर पार्टी के नेताओं और करतार सिंह सराभा एवं भगत सिंह के वारिस के रूप में देखते हैं। वे अपनी इस क्रांतिकारी विरासत के जज्बे से लैस हैं। मोदी और उनकी सरकार को अत्याचारी शासकों के एक कड़ी के रूप में देख रहे हैं और खुद उनके खिलाफ संघर्षरत योद्धा की तरह देख रहे हैं। अभी तक इस आंदोलन में करीब 40 लोग शहीद भी हो चुके हैं।

उपरोक्त विभिन्न कारकों ने इस आंदोलन को एक मजबूत और व्यापक जनांदोलन बना दिया है। प्रश्न यह उठता है कि इस जनांदोलन का भविष्य क्या है, क्या इनके आगे झुकते हुए मोदी सरकार तीन कृषि कानूनों को वापस ले लेगी या किसान आंदोलन को पराजय का सामना करना पड़ेगा। अभी तक के तथ्य यह बता रहे हैं कि सरकार अपने कॉरपोरेट मित्रों और कॉरपोरेट-परस्त अर्थशास्त्रियों के दबाव और सलाह के चलते तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं है और इस आंदोलन को तोडऩे की तरह-तरह से कोशिशें कर रही है। कॉरपोरेट समर्थक अर्थशास्त्री और लेखक-पत्रकार यह कह रहे हैं कि यदि सरकार पीछे हटती है, देश एवं दुनिया के कॉरपोरेट जगत में गलत संदेश जाएगा। सरकार द्वारा पीछे न हटने का एक अन्य कारण नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं की गढ़ी गई छवि है, जिसका संदेश यह है कि मोदी कभी भी जनता के खिलाफ कोई काम नहीं करते, वे सारे काम राष्ट्रहित में करते हैं और ये कृषि कानून भी राष्ट्रहित में है, जैसे नोटबंदी को राष्ट्रहित में बताया गया। साथ ही उन्होंने अपनी यह छवि भी बना रखी है कि वे कभी पीछे नहीं हटते। पीछे हटने से उनकी महानायक की छवि टूट सकती है। मोदी का सारा खेल ही छवि पर टिका हुआ है। दूसरी तरफ किसान और उनके नेता भी किसी भी तरह से पीछे हटने को तैयार नहीं है। वे अपनी इस मुख्य मांग पर डटे हुए हैं कि तीनों कृषि बिलों को वापस लिया जाए और इसे वापस कराए बिना वे अपने घरों को वापस नहीं जाएंगे और साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाया जाए। इसके साथ उनकी कुछ अन्य मांगें भी हैं। किसान आंदोलन भी लंबे संघर्ष के लिए तैयारी कर रहा है। एक महीने से ऊपर हो जाने के बाद भी किसान आंदोलन कहीं भी थका और कमजोर नहीं लग रहा है, इसके उलट निरंतर उसका विस्तार हो रहा है और वह मजबूत हो रहा है। किसान आंदोलन और उसके नेता इसे आर-पार की लड़ाई मानकर लड़ रहे हैं। किसान नेता और अधिकांश किसान यह कह रहे हैं कि बिना इन तीन कृषि बिलों को वापस कराए, हम पीछ हटने वाले नहीं हैं, क्योंकि यह हमारे अस्तित्व  और आने वाली पीढिय़ों के अस्तित्व का सवाल है। साथ ही यह सवाल खेती-किसानी और उससे जुड़े लोगों के अस्तित्व का सवाल बन गया है, जिस पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट जगत पूरी तरह शिंकजा कसना चाहता है।

लड़ाई निर्णायक है, एक तरफ राजसत्ता अपनी पूरी लाव-लश्कर के साथ कॉरपोरेट के हितों के लिए खड़ी है, तो दूसरी तरफ दोस्त-दुश्मन की पहचान रखने वाला संगठित जनांदोलन है, जिसे देश की एक बड़ी आबादी का समर्थन प्राप्त है। क्या होगा? कैसे होगा? यह फिलहाल भविष्य के गर्भ में है, लेकिन यह ऐसा जनांदोलन नहीं है, जिसे मोदी सरकार आसानी से तोड़ सके और यदि वह ऐसा करने की जुर्रत करती है, तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

अब तक किसानों और सरकार के बीच छह दौर की बात-चीत हो चुकी है। छठे दौर  बात-चीत ( 30 दिसंबर) को हुई । कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि सरकार ने किसानों की चार मांग- तीन कृषि कानूनों को रद्द करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनान, इलेक्ट्रिसिटी अमेंडमेंट बिल 2020 और पराली जलाने पर किसानों को जुर्माना- में अंतिम दो को मान लिया है। किसानों का कहना है कि उनकी मुख्य मांग तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की  है, जब तक ये तीन कृषि कानून रद्द नहीं होते हैं, तब तक किसान अपना आंदोलन जारी रखेंगे। अगले दौर की बात-चीत के लिए 4 जनवरी  2021 का समय तय  हुआ है। इसका निहितार्थ है कि आंदोलन 2021 में भी जारी रहेगा। n

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