- तरुण भारतीय
आंख खुलते ही व्हाट्सएप संदेश देखा कि कांग स्पेलिटी नहीं रहीं। वह 28 अक्टूबर की रात 11 बजे चल बसीं।
डॉमियासियाट् की महामाता (मैट्रिआर्क) कांग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिन ने अपनी भूमि पर यूरेनियम के खनन की अनुमति देने से मना कर दिया था। अपनी जमीन की तीस साल की लीज के लिए 45 करोड़ रुपए की रकम के प्रस्ताव पर उन्होंने कहा था, ”पैसे से मेरी आजादी नहीं खरीदी जा सकती।
आज आपकी अनुपस्थिति के मायने खोजते हुए मैं वह कहानी कहना चाहता हूं जिसे दुनिया को बताने की कोशिश मैंने कुछ समय पहले की थी।
मेरे पास एक कहानी है। बहुत सालों पहले मैं मेघालय के पश्चिमी खासी हिल्स के डॉमियासियाट् गांव में था जो भारत के सबसे बड़े यूरेनियम भंडार के ऊपर बसा हुआ है। उन दिनों शिलॉन्ग से फ्लांगडिलोयन जाने वाली एकमात्र बस से सुबह निकलकर और आठ घंटों और लगभग पचास किलोमीटर की यात्रा के बाद शाम को वाहकाजी पहुंचकर वहां से एक घंटे की दूरी पैदल तय कर आप तब कुलजमा सात घरों वाले उस गांव पहुंचा करते थे। मैं कॉंग स्पेलिटी लिंगडोह-लांगरिन से मिलना चाहता था। प्रति वर्ष डेढ़ करोड़ रुपए के हिसाब से तीस सालों तक मिलने वाली पैंतालीस करोड़ रुपए की पेशकश के बावजूद उन्होंने अपनी जमीन यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (यूसीआईएल) को लीज पर देने से मना कर दिया था। एटॉमिक मिनरल्स डिवीजन (एएमडी) के साथ अपने गांव में यूरेनियम की खोज और खनन की जांच करने आए डखार (गैर-खासी) लोगों को निकाल बाहर करने में वह अग्रसर थीं।
जब हम डॉमियासियाट् पहुंचे, वह वहां मौजूद नहीं थीं। बाजार के लिए काली मिर्च और तेजपत्ता इकठ्ठा करने वह जंगल गई हुई थीं। गांव में कोई भी यह बता पाने की स्थिति में नहीं था कि वह कब लौटेंगी। हमारी किस्मत अच्छी थी कि वह अगले ही दिन लौट आईं। पश्चिमी खासी हिल्स में होने के कारण माउकिरवाट के एक दोस्त को साथ मैं यह सोचकर ले गया था कि खासी के मराम बोली से अपने परिचय से वह तर्जुमा कर पाएगा। मैंने कॉंग स्पेलिटी से उनकी जमीन के बारे में पूछा- कि उनके पास कितनी जमीन है यानी वही सब समाजशास्त्रीय डाक्यूमेंट्री किस्म की बकवास। मेरे मित्र का किया हुआ अनुवाद उनकी समझ में नहीं आया और हमें महसूस हुआ कि पश्चिमी हिस्से से होने के बावजूद वह मराम से उतनी परिचित न थीं। इसलिए वह दुगुना तर्जुमा हो गया- पहले अंग्रेजी से मराम और फिर गांव के मुखिया द्वारा उसका खासी के स्थानीय प्रकार में और फिर यही उलटी दिशा में।
मुखियाने बताया कि दो पहाडिय़ों की मालकिन होने के बावजूद उनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने अपनी जमीन यूसीआईएल को लीज पर क्यों नहीं दी तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि पेड़ों के एक झुरमुट की तरफ तपाक से बढऩे लगीं। हम उनके पीछे गए। पेड़ों के उस झुरमुट के पीछे दरअसल एक छोटा सा झरना और तलैया थे। वह रुकीं और मेरी तरफ (जो जंगल के चितकबरे प्रकाश में नहाया था) मुड़कर आजादी के बारे में कुछ कहा, जैसे कि इस जमीन को बेचना उनके लिए अपनी आजादी को बेचने जैसा है और क्या पैसे से इस नदी, इस भूमि, इस झरने को खरीदा जा सकता है। जाहिर सी बात है कि यह सब समझने में मुझे जरा वक्त लगा मगर वहां एक तरह की ईडननुमा या स्वर्गनुमा शांति में खड़े-खड़े (विचारों की) स्पष्टता के अश्रुओं ने मुझे अवाक कर दिया।
चंद महीनों बाद कुछ स्थानीय खासी प्रतिष्ठितों (राजनीतिज्ञ, ठेकेदार, युवा नेता समझ लें) के साथ यूसीआईएल द्वारा आयोजित की जा रही जादूगोड़ा, झारखंड के यूरेनियम खानों की परिचय यात्रा (एक्सपोजर ट्रिप) में जुगाड़ बिठाकर शामिल होने का मौका मुझे मिला। इसका उद्देश्य था उन तथाकथित असत्य बातों का प्रतिकार करना जो खासी में रूपांतरित प्रसिद्ध दस्तावेजी फि़ल्म ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ाÓ दिखा-दिखा कर यूरेनियम आंदोलन कथित तौर पर फैल रहा था। यूसीआईएल के एक वरिष्ठ बंगाली अधिकारी को मैं अच्छा लगा। वही संस्कृति वगैरह को लेकर बातें करना। मैंने अपनी जिंदगी में कभी टैगोर पर इतनी बात नहीं की। तो एक दिन मैं उनसे पूछ बैठा यूरेनियम खनन के कारण होने वाले लोगों के विस्थापन के बारे में। उन्होंने हक्का-बक्का होकर मेरी तरफ देखा- कैसा विस्थापन, हम उनका पुनर्वास करेंगे – इतना आसान तो है। कितनों का पुनर्वास करना है, ज्यादा से ज्यादा हजार। हम इन्हें पैसा देंगे, इनके लिए घर भी बनाएंगे, कुछ लोगों को रोजगार देंगे, ये ‘रीचÓ (संपन्न) हो जाएंगे और वैसे भी ये कितने अनुत्पादक लोग हैं, उनके पास जमीन भले ही है लेकिन उन्हें उसकी कीमत पता नहीं, कड़ी मेहनत करते हैं मगर मेहनताना नहीं मिलता।
यह स्वामित्व के मुद्रीकरण से मिलने वाली आजादी बनाम जमीन से जुड़े रहने से मिलने वाली आजादी का मामला था।
देश के पूर्वोत्तर इलाके में बाहरी लोगों के प्रति भय (जेनोफोबिआ) को लेकर होने वाली बहसों में सामंती भूमिहीनता और शोषण के इलाके से आने वाले हम जैसों को इस बात का जरा भी इल्म नहीं होता कि उन लोगों से कैसे पेश आया जाए जो जमीन को महज उत्पादन का कारक नहीं बल्कि एक कल्पना, रिहाइश के लिए एक ईडन (स्वर्ग) समझते हैं।
किसी मारवाड़ी, बंगाली या बिहारी की समझ और किसी मुंडा, खासी या नागा की समझ के बीच के द्वंद्व के पीछे है उनके इतिहास का अलग-अलग होना। जमीन के निजीकरण, उसे हड़पे जाने, श्रम के जिंस (कमोडिटी) में बदलते जाने और ऊंच-नीच (हायरार्की) के पवित्रीकरण के साथ रहते आए लोगों के लिए कॉंग स्पेलिटी को समझ पाना मुश्किल है। जो लोग यह सोचते हैं कि एक बीघा जमीन आखिर हमें आजाद करती है और जो यह सोचते हैं कि चंद पहाडिय़ों से आप अमीर नहीं हो जाते, यह उनके बीच की तफावत है। यह उत्पादकता की दुनिया बनाम साझी जगहों के जिए जाने वाले सपने की बात है।
यह घनी आबादी वाले समाजों के खिलाफ विरल जनसंख्या वाले समुदायों की बात है।
अनु.: भारत भूषण तिवारी
-समयांतर, नवंबर 2020
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