आत्महत्या : सामाजिक दायित्व की असफलता

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  •  उत्तरा बिष्ट 

 

शायद बहुत कम लोग मल्लपुरम, केरल की रहने वाली नौवी कक्षा की छात्रा, देविका बालाकृष्णन को जानते होंगे। देविका ने इस वर्ष दो जून को आत्महत्या की थी। देविका, अनुसूचित जाति के दिहाड़ी मजदूर की बेटी थी, जो अपनी बेटी के लिए उसकी ऑनलाइन कक्षाओं के शुरू होने तक न तो फोन और न ही टीवी खरीदने की स्थिति में था। इनके अभाव के चलते देविका ऑनलाइन कक्षा में शामिल नहीं हो पा रही थी। असहाय देविका को कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने अपनी जान ले ली। उसने आत्महत्या का सबसे क्रुर तरीका अपनाया। मिट्टी के तेल की बोतल जो उसके अधजले शरीर को पास मिली वह न सिर्फ सबूत थी बल्कि उसकी मृत्यु की साक्षी भी। देविका केवल 14 वर्ष की थी।

2017 में मिस्र की एलजीबीटीक्यूआइए + कार्यकर्ता, सारा हीगाजी को एक लेबनानी बैंड, मशरुवीलैला के संगीत समारोह में इंद्रधनुषी झंडा फहराने के लिए मिस्र की पुलिस ने गिरफ्तार किया और जमानत मिलने तक तीन महीने उसे प्रताडि़त किया। अपराधी करार दिए जाने के डर से वह कनाडा भाग गई। तीन साल अपने परिवार से दूर (कनाडा आने के एक माह बाद उनकी मां का देहांत हो गया था) रहने, मानसिक तनाव और घबराहट के दौरों से जूझते हुए उसकी जीने की चाह ही खत्म हो गई और उसने 13 जून को टोरेंटो के अपने अपार्टमेंट में आत्महत्या कर ली। साराह की एकमात्र इच्छा अपने देश में अपने भाई-बहनों के साथ प्रेम से रहने मात्र की थी। वह सिर्फ 30 वर्ष की थी।

टीकटॉक कलाकार (इनफ्लूएंसर) सिया कक्कड़ ने 25 जून को दिल्ली में आत्महत्या की थी। 16 वर्ष की सिया लगभग सैलिब्रिटि थी। उसके लगभग 11 लाख दर्शक थे। सिया की मृत्यु के कुछ हफ्तों बाद, एक और18 वर्षीय टीकटॉक कलाकार ने, आत्महत्या की। दोनों मानसिक तनाव की शिकार थीं।

यह सभी, लगभग अज्ञात, आत्महत्याएं हिंदी सिनेमा जगत के उभरते प्रतिभाशाली अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के एक हफ्ते पहले या बाद में घटीं। सारा हीगाजी ने तो सुशांत की आत्महत्या से एक दिन पहले ही आत्महत्या की थी। सुशांत की पूर्व मैनेजर, दिशा सालियन ने भी एक हफ्ते पहले ही आठ जून को आत्महत्या की थी। आश्चर्य  है  कि ये सब लड़कियां थीं जो सुशांत से कम उम्र की थीं।  जाहिर है उनसे बहुत कम चर्चित थीं, इसलिए उनकी मृत्यु से  ज्यादातर लोगों को न गहरी पीड़ा हुई और न ही इसकी कोई चर्चा।  ऐसी कई बातें हैं जिनसे समाज का पाखंड या दोगलापन सामने आ जाता है, जो मृत्यु के बाद भी लोगों भेदभाव करता है। निश्चित रूप से यह लेख लिखने के पीछे मेरी मंशा न तो सुशांत की आत्महत्या को छोटा दिखाने की है और न ही इन पांच लड़कियों की आत्महत्या को ज्यादा गंभीर या ध्यान देने योग्य मान कर बचाव करने की है।

 

आत्महत्या के कारण

एक शोधकर्ता के रूप में जिसकी शोध का अहम मुद्दा आत्महत्या और उसके कारणों को जानना है, मैं निरंतर सोच रही हूं की इन आत्महत्याओं को किस संदर्भ में देखा जाए जिससे कि इस विषय पर एक समझ बन सके, फिर चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो।

कुछ बातें बिलकुल स्पष्ट हैं, उन्हें बहुत कम स्पष्टीकरण की जरूरत है। सभी आत्महत्याएं एक तरह से मदद की ओर इशारा करती हैं या अपेक्षा रखती हैं। जब लोग सबसे ज्यादा असहाय या कमजोर महसूस करते हैं, तभी वह ऐसा कदम उठाते हैं जो अपने आप में चरम साहसिक नजर आए। कुल मिलाकर अपनी जान लेना कोई आसान बात नहीं है। कई बार तो, आत्महत्या करने वाला उम्मीद करता है कि उसे बचा लिया जाएगा, पर मदद बहुत देर से पहुंचती है। ज्यादातर आत्महत्याएं सोचे-समझे तरीके से की जाती हैं और उनके पीछे कोई न कोई कारण होता है जो ज्यादातर मामलों में अबूझा ही रह जाता है। जो लोग आत्महत्या से मरते हैं वे किसी अपराध के दोषी नहीं बल्कि अपनी स्थिति का ही शिकार होते हैं। जैसा की अमील दुर्खीम ने अपनी महत्त्वपूर्ण  किताब ऑन सुसाइड (आत्महत्या पर) में लिखा है, सामाजिक स्थितियां न केवल आत्महत्या का सबसे बड़ा खतरा होती हैं बल्कि वे उसका सबसे बड़ा कारण भी होती हैं।

उनके अनुसार, यह एक सामाजिक समस्या ही है जो विश्वभर में मौजूद है पर लोगों को अलग-अलग तरह से, स्थिति के अनुसार प्रभावित करती है। आत्महत्या का कारण पीडि़त व्यक्ति से नहीं बल्कि समाज से जुड़ा होता है जो उनके प्रति क्रुर होता है। आत्महत्या का कोई एक नहीं बल्कि कई कारण होते हैं जो इस घातक कदम के लिए जिम्मेदार होते हैं।

हर आत्महत्या दुखद होती है। हर आत्महत्या एक ऐसी जिंदगी को छीन लेती है जो अर्थपूर्ण रूप से जीवन गुजार रही होती या हमारे बीच उपस्थित होती। कलाकार अनंत काल से आत्महत्या करते आए हैं शायद इस शब्द ‘आत्महत्याÓ की खोज से भी पहले से। उनकी आत्महत्या को ज्यादा बड़ा आघात माना जाता है उन अनगिनत बेनाम आत्महत्याओं के मुकाबले जो सिर्फ एक आंकड़ा भर होती हैं। इस वर्ष जनवरी में, इकनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में बताया गया था कि एनसीआरबी के मुताबिक, 2018 में 10,349 किसानों ने आत्महत्या की थी।

प्राचीन यूनानी और रोमन सभ्यताओं के समय से ही समाज आत्महत्याओं की वैधता को लेकर भेदभाव बरतता आया है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ईसाई धर्म शुरुआत से ही, आत्महत्या को ऐसा ‘अपराधिक कामÓ मानता आ रहा है जो दंडनीय है। दंड के रूप में या तो आत्महत्या करने वाले को दफनाया नहीं जाता था या उसके परिवार वालों को बहिष्कृत किया जाता था।

आत्महत्या समाज के खिलाफ किया गया काम माना जाता है। इस तरह के कदमों को अपनी हत्या करना कहने से, उन्हें समाज से बाहर करने की कोशिश करने या फिर इसके अस्तित्व के प्रति अनजान बनने से इसे रोकने में मदद नहीं मिली है। समाज अपनी संकीर्ण मानसिकता के कारण इस पूरे कृत्य में अपनी आपराधिक भागीदारी को देखने के लिए कभी तैयार नहीं हुआ है।

जीवन (इरोज, यूनानी प्रेम या जीवन का देवता) को मृत्यु की ललक (थनाटोस, ग्रीक मृत्यु का देवता) से बचाए रखने की मूल प्रवृत्ति मनुष्यों में पशुओं से ज्यादा बड़ी है। परिस्थिति की विकरालता उसको जीवन के खिलाफ खड़ा कर देती है।

यहां महत्त्वपूर्ण यह है कि किसी भी आत्महत्या की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसे न सिर्फ गंभीरता से लिया जाना चाहिए, इसकी जांच होनी चाहिए और इस पर चर्चा भी होनी चाहिए जिससे कि इससे जुड़े मुद्दों और कारणों को जाना जा सके। कोशिश होनी चाहिए कि किसी एक पर जरूरत से ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाए और दूसरे को नजरअंदाज न कर दिया जाए।

हम में से अधिसंख्य लोगों को अक्सर आत्महत्या करना बेमतलब या बेतुका काम लगता है, पर समाज का एक छोटा हिस्सा ऐसा भी है जो आत्महत्या को मुक्ति या वीरता के ऐसे कदम के रूप में देखता है जो पीडि़त को उसकी परेशानियों से जीवन भर के लिए मुक्ति दिला देता है।

हाल ही में अल्बेयर कामू के प्रबंध द मिथ ऑफ सीसीफस को कक्षा में पढ़ाते हुए लगा कि इस सवाल को कि जीवन को नष्ट करना क्या सही है या नहीं, दरकिनार नहीं किया जा सका। आत्महत्या एक अस्तित्व संबंधी संकट है। लोगों ने इससे निबटने के लिए संघर्ष किया है और इस के आगे घुटने भी टेके हैं।

संकट के क्षणों में हम में से कइयों के दिमाग में आत्महत्या का विचार गहराने लगता है। कामू के लेख को सिराहाने रख और इसे जिस तरह पढ़ा जाना चाहिए – नकारात्मकता से बचते हुए और मौत को हराते हुए – तो यह आपको मजबूत बनाएगा। लेकिन अधिसंख्य लोगों को ज्ञान के माध्यम की यह अय्याशी कभी उपलब्ध नहीं होती।

मानसिक तनाव के शुरुआती चिन्ह दूसरों को शायद ही दिखलाई दें ठीक उसी तरह जिस तरह कि आत्महत्या के विचार अदृश्य होते हैं। जो लोग आत्महत्या के बारे में सोच रहे होते हैं वे कभी किसी को इसके बारे में नहीं बताते। बल्कि कई बार आत्महत्या से बच निकलने वाले खुद बताते हैं कि उन्होंने उसके प्रलोभन से अपने आप को किस तरह बचाया। एक क्षण या चिंगारी ऐसी होती है जो आत्महत्या का तात्कालिक कारण बन जाती है और ज्यादातर मामलों में यह मानसिक तनाव और व्यग्रता होती है। जब कोई आत्महत्या होती है, तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया उसके कारणों के बारे में पता लगाने की होती है। पिछले तीन महीनों में देश के सोशल मीडिया ने एक तार्किक और निष्पक्ष जांच के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है।

सुशांत के निरजीव शरीर को तस्वीरों को तब तक दिखाया गया जब तक तक कि लोग मृत्यु के बाद दिवंगत के प्रति सम्मान को लेकर बेचैन नहीं हो गए। उनकी मृत्यु को एक तमाशे में बदल दिया गया, लगभग एक वीभत्स दृश्य में, जिससे ओछे किस्म के प्रचार और शर्मनाक अमानवियता की दुर्गंध आती है।

उनसे जुड़े हुए लोग अपने आप को सनसनीखेज पत्रकारिता और अनिर्दिष्ट या दिशाहीन रोष के गहरे दलदल में पाते हैं। उनकी सामूहिक चेतना (कलेक्टिव कांसेंस) ने रिया चक्रवर्ती में एक अपराधी तलाश लिया जिस पर वे काले जादू, नशे के दुरुपयोग और यहां तक कि हत्या का दोषी मान चुके हैं।

देश की सर्वोच्च जांच एजेंसियां — सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने ओवर टाइम मशक्कत कर रिया चक्रवर्ती के रूप में एक अपराधी को ढूंढा और उसे घंटों आतंकित कर अंतत: एक माह जेल में रहने को भी मजबूर कर दिया। लगता नहीं है कि अभी भी जांच पूरी हो चुकी है।

एक तरफ देश, उनकी मृत्यु के ‘कैसे हुईÓ और क्यों हुई की उलझन में फंसा हुआ है, वहीं वह अपराधी के लिए फांसी का फंदा लिए तैयार भी खड़ा है। अपने टीवी के सामने बैठे ये लोग घंटों-गैर जिम्मेदाराना तरीके से दिखाई जा रही खबरों का उपभोग करने में लगे हैं, इस बात के प्रति लापरवाह की शायद और कई लोग अपने आप को उसी स्थिति में पा रहे हों जिसमें कि देविका, दिशा, सारा और सुशांत जैसे लोग थे।

अगर रिया चक्रवर्ती सुशांत सिंह की हत्या या उसे जबरन आत्महत्या करने पर मजबूर करने की दोषी है तो उसे जरूर दंडित किया जाएगा। उसने जांच की कार्यवाही में पूरा साथ दिया है और निस्संदेह वह उन जांच करने वाली एजेंसियों के फंदे से अपनी गर्दन बचा नहीं पाएंगी। पर इस बीच हमें न कोई फैसला सुनाना चाहिए और न ही उसका मीडिया ट्रायल करना चाहिए जिससे कि वह खुद आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाए (जैसा कि बताया जाता है कि खुद उसने राजदीप सरदेसाई के साथ हुई बातचीत में यह कहा था)।

बजाय इसके कि किसी एक व्यक्ति को अन्य किसी की आत्महत्या का दोषी करार देने के, यह समय पुन: विचार करने का और इस समस्या पर पारदर्शी तरीके से विचार करने और उसे सुलझाने का है। सुशांत ही नहीं पर देविका या सारा या सिया की आत्महत्या का दोषी कौन है? क्यों ऐसे प्रावधान नहीं हैं जिनके अंतर्गत देविका, दिशा, सारा और सुशांत की आत्महत्याओं को सनसनीखेज बनाने पर रोक लग सके? क्यों मानसिक बीमारी को आज भी हमारे समाज में एक वर्जना (टेबू) माना जाता है। क्यों उस मानसिक तनाव को, जो आत्महत्या के लक्षणों की ओर संकेत करती है, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता? और, अंतत: क्यों जाति, लिंग, सामाजिक स्तर व शोहरत के पैमाने पर आत्महत्या को मापा जाता है या उसका आकलन किया जाता है।

10 सितंबर को विश्व भर में आत्महत्या बचाव दिवस के रूप में माना जाता है। वे लोग जो टीवी पर सुशांत से जुड़ी अगली खबर देखने के लिए बैचेन थे, इस दिन और उसके महत्त्व से बेखबर थे?

सरकार द्वारा चलाई जाने वाली हेल्पलाइन भी आत्महत्या को रोकने में ज्यादा प्रभावी साबित नहीं हुई है? हर साल बोर्ड की परीक्षा के बाद अक्सर खराब नतीजे आने के डर से स्कूली छात्रों के आत्महत्या के मामले सुनने में आते हैं। दूसरी ओर युवाओं में घरेलू समस्याओं और काम के दबाव से आत्महत्याओं के मामले बढ़ रहे हैं।

इधर दक्षिणी एशिया के देश बढ़ते आत्महत्या के मामलों के कारण पिछले कुछ वर्षों से लगातार खबरों में रहे हैं फिर चाहे वह बांग्लादेश हो, नेपाल हो, श्रीलंका हो, पाकिस्तान हो या फिर भारत हो। कोविड-19 के कारण भी आत्महत्याएं बढ़ी हैं।

मानसिक तनाव और व्यग्रता के असर को पहचानना, मनोचिकित्सकों की मदद लेना पीडि़त की मदद और सहानुभूति के लिए मौजूद रहना तथा उससे तनाव से जुड़ी बात करना- कुछ तरीके हैं जो सकारात्मक नतीजे दे सकते हैं। हर उस जिंदगी की, जो आत्महत्या के कारण गंवाई जा चुकी है कि सामूहिक जिम्मेदारी ले कर नई परंपरा शुरू कर सकता है।

ऐसे देशों से जहां आत्महत्या के मामले बिल्कुल कम हैं उनसे संवाद और दिशा- निर्देश लिए जा सकते हैं। आखिरी बात, पिछले दिनों जो अनगिनत घंटे सेलिब्रिटी की आत्महत्या के कारण ढूंढने में इंटरनेट साइटों और टीवी चैनलों में लगा दिए गए हैं और जिनका अब भी अंत नहीं दिख रहा है उसकी जगह आज ज्यादा जरूरत आत्महत्या के बारे में जानने की, उस पर संवाद करने की, उसके खतरे से सचेत करने की, मानसिक तनाव से ग्रस्त लोगों को मदद को हाथ बढ़ाने की और आत्महत्या को एक मानसिक रोग की तरह देखने के कलंक से अलग करने की जरूरत है।

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