- असद ज़ैदी
आज का भारत लेखक के भीतर एक खौफ पैदा करता है और भारत के भविष्य को लेकर दहशत भरी गहरी दुश्चिंता भी। इस खौफ और दुश्चिंता को आजादी में महसूस किया जा सकता है। यह खौफ हिंदू राष्ट्रवाद का खौफ है, जिसने अश्वमेध के अपने घोड़े को छोड़ दिया है, जो आजादी के बाद के भारत की जितनी भी और जैसी भी सकारात्मक उपलब्धियां थीं, उन सबको रौंदता आगे बढ़ रहा है ।
मित्र मंगलेश डबराल कोरोना महामारी का निवाला बनकर इस दुनिया से एकदम ही चले गए। हिंदी कविता के एक युग को वह अपने साथ ले गए। यह ऐसी क्षति है जो लंबे अरसे तक महसूस की जाएगी। कुछ चीजें हमेशा के लिए खो जाती हैं; और वो क्या चीजें हैं उनकी अभी फेहरिस्त बनाना भी मुमकिन नहीं है। मेरे लिए तो वह अधूरी बातों और हर तरह के अफसोस और मलाल का एक पहाड़ जैसा बोझ छोड़ गए हैं, जो कमोबेश ऐसा ही बना रहेगा। इस मौत का असर उनके सभी दोस्तों पर जिंदगी भर, जितनी भी जिस जिस की जिंदगी है, बचा रहेगा। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो मरना बंद नहीं करते बल्कि मरते ही चले जाते हैं। मंगलेश का मरना जल्दी खत्म नहीं होने वाला; वह जिंदगी से तो गए लेकिन मौत से नहीं जाएंगे। किसी लड़ाई में हताहत एक सैनिक के बारे में सेसर वाय्येखो की कविता की भावाक्रांत पंक्ति याद आती है – लेकिन मुर्दा, अफसोस, मरता ही गया।
उन हिंदी कवियों में जो आजादी के आसपास या बाद के वर्षों में जन्मे वह सर्वोपरि थे। पिछले लगभग पचास साल से वे हिंदी की समकालीन कविता की केंद्रीय उपस्थिति थे। इस बीच हिंदी में कुछेक कवि, संस्थान-समर्थित महाकवि और ‘अंतरराष्ट्रीय’ सितारे उभरे और अस्त हुए, मंगलेश की विनम्र और आश्वस्त हस्ती ज्यों की त्यों बनी रही। हम सबको मालूम था कौन कितना कवि है। कवि इब्बार रब्बी ने उनके जाने के बाद अपने मख्सूस और सहज नाटकीय अंदाज में कुछ इस तरह की बात कही — ”अरे भाई वह चुंबक था, चुंबक! बताओ, हमारे बीच से चुंबक चला गया! जब तक वो था लगता था, बहुत कुछ हो रहा है, काफिला साथ है, कविता सुरक्षित है। अब क्या, सब खाली, कहीं कुछ नहीं, सब खतम! काफिला था ही कहां, वही काफिला था!’’ रब्बी की बात से किसे ऐतराज हो सकता है! ‘आप बे-बहरा है को मोतकदे-मीर नहीं।‘ एक और मित्र कवि ने कहा, यह आदमी एक सपने की तरह आया और चला गया। उसकी कविता भी।
समकालीन हिंदी कविता मंगलेश का इलाका था और वह इसके हरदिल अजीज नुमाइंदे थे। यह भूमिका उन्हें किसी ने नहीं दी, किसी से उन्होंने छीनी नहीं, किसी संस्था, संगठन, किसी आचार्य-दल, किसी मित्र या शत्रु का इसमें हाथ नहीं। वह ऐसे प्रतिनिधि थे जिसे कभी प्रतिनिधित्व करने की जरूरत ही न पड़ी, कभी वह टोपी नही पहनी। अपनी पीढ़ी का यह बेताज बादशाह एक साधारण नागरिक के चोले में पांच शहरों में संपादकी की एक दर्जन फुटकर नौकरियां करता और बाद के वर्षों में अनुवाद और फ्री-लांसिंग के छोटे-मोटे काम करके, जरूरत के तहत हर तरह के साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में हिस्सा लेता हुआ गुजारा करता रहा। छोटे-मोटे समझौते वह कर लेता था, पर वह कभी किसी का दरबारी, किसी का क्रीत-दास, किसी के हाथ का खिलौना नहीं बना। एक असुरक्षित जीवन में जितनी संप्रभुता और गरिमा मंगलेश बनाए रख सकते थे उन्होंने बनाए रखी। सच तो यह है कि तमाम तरह की मामूली व्यावहारिकताएं और मजबूरियों के तहत काम करते हुए इस दुनिया से वह कमोबेश बेदाग ही गुजर गए। कोई बड़ा नैतिक या राजनीतिक अपराध, दुष्कर्म या डिफॉल्ट उन्होंने नहीं किया। वह उन मूल्यों के प्रति वफादार बने रहे जो उन्हें कुछ विरासत में मिले थे और कुछ उन्नीस सौ साठ के दशक के अंतिम और सत्तर के दशक के आरंभिक वर्षों की क्रांतिकारी लहर ने युवा मंगलेश के दिलो-दिमाग में पैदा किए थे। उन्होंने अपनी जवानी को याद रखा।
उस समय कविता में मंगलेश का आना भी हिंदी साहित्य की एक यादगार आमद थी। हवा जिसमें बदलाव के आसार पहले ही से मौजूद थे, उनके आते ही जैसे बदल गई। उस समय की कविता करीब एक दशक से सांस्कृतिक यथास्थिति, भाषिक आडंबर और रूढिय़ों से लड़ रही थी। श्रीकांत वर्मा और राजकमल चौधरी से शुरू होकर उस समय की बीटनिक प्रवृत्तियों और अकवितावादी नकार और अवांगार्दिज्म से होते हुए रैडिकल वाम आंदोलनों के उदय और विस्तार से रू-ब-रू थी और वहां से भी प्रेरणा हासिल कर रही थी। धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, और लगभग उसी समय वेणुगोपाल और आलोक धन्वा की आवाजें सुनाई देने लगी थीं। यह समाज और राजनीति में भी युगीन परिवर्तन और नई संभावनाओं के खुलते दिखाई देने का दौर था। यह नक्सलवादी आंदोलन और सांस्कृतिक परिदृश्य में अचानक मुखर होती वाम उपस्थिति तथा हिंदी साहित्य में लोहियावादी प्रभाव के विघटन और शीतयुद्धीय जोश के उतार का दौर भी था। इसी दौर में मुक्तिबोध की केंद्रीयता सामने आने लगी और शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे पुराने और कमोबेश किनारे कर दिए कवियों के महत्त्व पर युवा पीढ़ी का ध्यान गया।
इन्हीं वर्षों में टिहरी के काफलपानी गांव से मंगलेश चंद्र डबराल ‘मयंक’ नाम का एक युवक देहरादून आया जहां बहुत जल्दी ही उसने ‘मयंक’ उपनाम और चंद्र शब्द से छुटकारा पा लिया। (मंगलेश का कहना था कि ऐसा उन्होंने जगूड़ी के जेरे असर किया, और यह कि जगूड़ी ही ने पहली बार समकालीन कविता और साहित्य में आधुनिकता की जरूरत की तरफ उनका ध्यान खींचा था।) फिर कुछ समय बाद यह युवक दिल्ली पहुंचा। उसके साथ कुछ पहाड़ी हवा थी जो हरदम उसके पास रही, सेकुलर दिमाग और साम्यवाद के लिए उम्मीदों से भरा दिल था, और कविता की ऐसी विनम्र लेकिन आधुनिक और तराशी हुई भाषा जो उस समय हिंदी में किसी के पास न थी। इस हल्की खनक भरी तरल, पारदर्शी भाषा ने अंत तक उसका साथ दिया। उनके ऐसा सधा हुआ लहजा, मंजी हुई संवेदना और शब्दों को बरतने का ढंग किसी समकालीन कवि के पास न था। उसकी कविता का पाश्र्व शास्त्रीय या रागदारी वाले संगीत और क्लासिकल सिनेमा से बना था। उनका पहला कविता संग्रह सन 1981 में छपा लेकिन उसके छपने का इन्तिजार दस साल पहले ही हो रहा था। उनके समकालीनों को शुरू ही में लग गया था कि एक मुकम्मल कवि उनके बीच में मौजूद है। मंगलेश की कहानी उस समय की ऐतिहासिक गतिमयता और सांस्कृतिक परिस्थिति में वह सही वक्त पर सही जगह पाए गए युवक की कहानी है। वह हिंदी कविता में एक नए मनुष्य को लेकर आया जिसने कविता की उपलब्ध भाषा को सभ्य बनाने का काम किया। एक प्रगतिकामी इंसान के बतौर उसे यह अहसास था कि संस्कृति एक बारूदी सुरंगों से भरा मैदान है और हर साहित्यिक परंपरा के भीतर एक बर्बरता छिपी होती है, कि साहित्य कोई सेवा नहीं सतत संघर्ष है।
साठ के उत्तराद्र्ध और सत्तर के उस दशक के पूर्वाद्र्ध में दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, बनारस, हैदराबाद, कलकत्ते और पंजाब के शहरों में जमा युवा लेखक-कवियों का जीवन सामूहिकता, अनोखी निजता, प्रतिष्ठान-विरोधी अश्रद्धा और राजनीतिक बल्कि क्रांतिकारी आशावाद के सम्मोहक मेल से बना था। यही मिश्रण अभिरुचि और विचारों के मामले में भी देखा जा सकता था। कवि लोग राजनीति ही नहीं, कला, संगीत, रंगमंच, सिनेमा, दूसरी जबानों के साहित्य में सक्रिय रूप से रुचि लेते थे और विभिन्न विधाओं, भाषाओं और माध्यमों के बीच संवाद को शर्त मानते थे। सांस्कृतिक बहुलतावाद, अंतरराष्ट्रीयतावाद, सेकुलर और धर्मनिरपेक्ष दृष्टि, जाति और क्षेत्रगत संकीर्णता का निषेध, वाम या वाम-लिबरल विचारधारा से सहज मैत्री कवियों की इस पीढ़ी की पहचान थी। उस समय हिंदी, पंजाबी, तेलुगु, बांग्ला, नेपाली और उर्दू का कवि होना लगभग एक ही भाषा का कवि होना था। देशज और लोक के नाम पर प्रतिक्रियावादियों की जवाबी कार्रवाई शुरू न हुई थी।
मंगलेश की कविता, उनका गद्य और उनका उस समय का जीवन इन्हीं मूल्यों की तर्जुमानी करता था। मंगलेश की शख़्सियत और काम में वह पुरानी हवा किसी न किसी हद तक अंत तक बरकरार रही। समय के साथ बाद में उभरे आंदोलनों, खासकर स्त्री-मुक्ति और मानवाधिकार आंदोलन, का असर और इन आंदोलनों के प्रति के प्रति दोस्ताना रूख उनके काम में देखा जा सकता है।
बरस बीते, दशक गुजरे। यही मंगलेश अपने समय के सबसे अच्छे सांस्कृतिक संपादक या अखबारों के मैगजीन एडिटर बनकर उभरे, उन्होंने सैकड़ों लेखकों, कवियों और टिप्पणीकारों की प्रिभा को पहचाना और प्रोत्साहित किया, और हिंदी पट्टी के सांस्कृतिक जीवन में एक सकारात्मक और प्रभावशाली भूमिका निभाई। ये अखबार औद्योगिक घरानों से या फिर नई-पुरानी लुटेरी पूंजी से संचालित थे। मंगलेश अपनी कार्यकुशलता, मेहनत और प्रतिष्ठा से जितनी स्वायत्तता हासिल कर सकते थे उन्होंने की, और जब तक इस तरह गाड़ी चल सकती थी चलाई। इस दौर में वह हिंदी के अजातशत्रु थे। (उनसे मेरा एक सर्कुलर संवाद इस तरह हुआ। बोले, यार आजकल ये सब बदमाश मुझे अजातशत्रु कहकर बदनाम कर रहे हैं। मैं : ठीक बात है। तुम हो। मंगलेश : कैसे? क्यों? मैं : क्योंकि तुम अपराजेय हो। बोले, अच्छा! अपराजेय कैसे हूं? मैं : ऐसे कि तुम अजातशत्रु हो!) यही अजातशत्रु जब वह मैगजीन एडिटर न रहा और हिंदी उद्योग ने उसे मुक्त कर दिया तो वह अजातशत्रु न रहा, हर तीसरा दोस्त उसका शत्रु, हर दूसरा हितचिंतक उसका अहित चाहने वाला बन गया। इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में वह एक वल्नरेबुल इंसान था, आधी साहित्यिक दुनिया की ईष्र्या, द्वेष, वैचारिक घृणा और ओछेपन का शिकार। भारतीय फासीवाद और सांप्रदायिकता का उसने हर मंच से विरोध किया।
मंगलेश हमेशा आशावाद-भरी बातें करते रहते थे, लेकिन उनकी इन बातों में भरोसा कम, दिलासा ज्यादा होता था। वह खुश और पुर-उम्मीद इसलिए दिखते थे कि इसे वह अपनी जिम्मेदारियों में गिनते थे। इसलिए भी कि बुनियादी तौर पर वह कुछ चिंतित, उदास तबियत के, लेकिन निहायत फिक्रमंद और दरियादिल इंसान थे। एक दिन का जिक्र है, कुंवर नारायण की शराफत, नेकदिली और रवादारी की बात चल रही थी, फिर दूसरे नए-पुराने दिवंगत कवियों की बात होने लगी जिनकी कमी उन्हें खलती थी, जैसे रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध, शमशेर, फैज, जीवनानंद, रूजेविच, वीरेन, नवारुण भट्टाचार्य, विष्णु खरे, आगा शाहिद अली। फिर गालिब का वह शेर याद आया: ”सब कहां कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं/ खाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गईं।‘’ गम और मलाल की ऐसी अन्तिमता को ठीक न जानकर इन्होंने कहा कि पार्टनर, असल बात तो यह है कि : ”दायम आबाद रहेगी दुनिया/ हम न होंगे कोई हम सा होगा।‘’ मुझे हंसी आ गई। उन्होंने कहा : ”क्यों हंसते हो?’’ मैंने कहा, ”प्रियवर, तुम्हें इस समय अपने पक्ष में और गालिब की काट में कौन याद आया! दुनिया के सबसे परास्त और उदास कवियों में से एक, नॉस्टैल्जिया और अवसाद की प्रतिमूर्ति, नासिर काजमी।‘’ वह भी हंसे। बात बदलकर कहा, ”लेकिन ‘हम सा’ अद्भुत है, कोई हिंदी कवि होता तो ‘हम जैसा’ कर देता। ‘हम सा, हम सा’ क्या बात है!’’ यह क्लासिक मंगलेश थे-हर बात को भाषा, लहजे, अंदाज, तजरे-बयान, बिंबात्मकता और मुहावरे में पहचानने वाले। उनके समकालीनों में और बाद में आने वालों में किसी ने इन चीजों पर इतना ध्यान न किया होगा।
उसके अपने निजी दुख थे जिन्हें उसने जब्त और गरिमा से झेला। वह कौन असंवेदनशील पुराना दोस्त होगा जिसने बाद के दिनों में मंगलेश के अंदर एक थके हुए आदमी, एक पराजित पिता, एक कलपते हुए किशोर को न देखा हो?
लेकिन वह एक कवि था और उसने अपना काम किया।
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