किसी समाज, विशेषकर लोकतांत्रिक समाज, का आधार वे नैतिक मूल्य होते हैं जो अंतत: उसके विकास का आधार बनते हैं। कहने की जरूरत नहीं, अनैतिकता और मूल्यहीनता पर ना तो कोई देश या समाज पनप सकता है, ना ही विकसित हो सकता है। नैतिकता ही उन कानूनी तरीकों का भी आधार होती है जो समाज को प्रत्यक्षत: न्याय दिलवाने का आधार बनते हैं।
दूसरी ओर, विशाल जनसंख्या और बड़े भौगोलिक आकार वाले राष्ट्रों में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अविश्वास, जो मूलत: किस्म-किस्म के भेदभावों के कारण जन्म लेता है, अंतत: अराजकता, मारकाट और यहां तक कि राष्ट्रों के विघटन का कारण बनता है। इसलिए भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता वाले समाजों को बांधने का आधार सिर्फ लोकतांत्रिक संस्थाओं की नैतिकता ही हो सकती है, जो सीमेंट का काम करती है।
भारत के संदर्भ में, देश के बंटवारे, दक्षिण का हिंदी विरोधी आंदोलन, 1984 के सिख विरोधी दंगे और फिर गुजरात में 2002 में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों को याद करते हुए इस संदर्भ में, ज्यादा स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं है। गुजरात के दंगे आज दो दशक बाद भी हमारे मन-मस्तिष्क में ही नहीं, बल्कि दैनंदिन जीवन में भी बरकरार हैं। इसने समाज में जिस तरह का जहर घोला है वह सिर्फ उस एक तस्वीर के लिए ही नहीं जिसमें एक वयस्क आदमी हाथ जोड़ कर रोते हुए अपने प्राणों की भीख मांग रहा है, या फिर उर्दू के पहले कवि वली गुजराती या वली दक्खिनी की मजार को बुल्डोजरों से नेस्तानाबूद किए जाने के कारण नहीं, बल्कि और भी कई ऐसे कारणों से है जिनका संबंध भारतीय संविधान के उन कई अधारभूत सिद्धांतों और आदर्शों से है, जिनके बिना इस विशाल देश पर विखंडन और विभाजन की तलवार लटकती रहेगी।
गोधरा में जो हुआ वह निहायत बर्बर किस्म का अपराध था जिसमें 59 यात्री जल कर मरे थे। जो अपराधी थे उनको दंडित किया जाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी थी। पर सरकार ने जिस तरह से शवों का प्रदर्शन होने दिया और उसके बाद भड़के दंगों को वह नियंत्रित करने में ही असफल रही/या ये होने दिए गए वह अपने आप में प्रमाण हैं। इन दंगों में, जो पिछले दो दशक के वक्फे में सबसे भयावह थे, एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे और कई गुना ज्यादा बेघर हुए तथा अर्से तक कैंपों में रहे। ये ऐसी बड़ी घटनाएं हैं जिनकी छीजन हमारे समाज में गहरे घर कर चुकी हैं।
वैसे भी अनैतिकता समाज की नस-नाडिय़ों में, धीरे-धीरे ही सही, किसी घातक जीर्ण रोग की तरह गहरे उतरती जाती है। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कार्यपालिका की भूमिका और उसके बाद आती है न्यायपालिका की भूमिका। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में हर संस्था दूसरे पर अंकुश का काम करती है, इसलिए उनकी स्वायत्तता और स्वतंत्रता महत्वपूर्ण कारक हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वही होगा जो आज हमारे सामने घट रहा है।
इस संदर्भ में शर्मनाक यह है कि वे लोग, जिनकी जिम्मेदारी इन भयावह दंगों को रोकना थी, ऐसा लगता है, इन चूकों के लिए शर्मिंदा होना तो रहा दूर, किसी भी तरह के अनुताप से मुक्त, निडर बने हुए हैं। वह मानने को तैयार नहीं हैं कि कहीं भी ऐसा कुछ हुआ है जो अन्यायपूर्ण था और जिस पर पश्चाताप तो कम से कम किया ही जाना चाहिए। उसके कम से कम दो मंत्री तो दंगों में सहभागिता के लिए गिरफ्तार भी हुए, वह कम गंभीर नहीं है। उनमें एक माया कोडनानी, जो लगभग चार वर्ष मंत्री रही थीं, को दंगों में अपनी भूमिका के लिए आजीवन कारावास की सजा हुई थी, पर बाद में उच्च न्यायालय ने उन्हें छोड़ दिया था। इसलिए यह न मानने, जैसा कि आरोप रहे हैं, का कोई कारण नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी और राज्य की उसकी सरकार की इनमें सहभागिता रही है।
इसलिए यह अचानक या अनजाने में नहीं है कि ये उन अपराधियों को, जिन्हें बिलकीस कांड में अपने बर्बर अपराधों के लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, किसी भी कीमत पर बचाने में नहीं जुटे होते। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम मध्यकाल में नहीं रह रहे हैं जब सत्ताधारियों के कारनामे अपनी पूरी वीभत्सता के साथ, आम जनता तक पहुंचते ही नहीं थे। सच यह है कि अब वे छिपते नहीं हैं। इसलिए हत्याओं और सामूहिक बलात्कार के इन अपराधियों को जिस तरह से सरकारी व्यवस्था ने अपने राजनीतिक आकाओं के इशारों पर साल-दर-साल छूट दी वह पूरी राज्य और कानून व्यवस्था पर से एतबार उठा देने के लिए काफी है। पर यह दृष्टिहीनता का चरम उदाहरण है। सत्ता की लालसा अक्सर व्यक्तियों को विवेक और दृष्टिहीन बना देती है।
सत्य यह है कि गुजरात के सांप्रदायिक दंगों की विकरालता इतनी व्यापक थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि 1,594 मामलों की नए सिरे से जांच हो और इस तरह 600 गिरफ्तारियां की गईं। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की गुजरात पुलिस और उच्च न्यायालय को लेकर यह टिप्पणी काबिले गौर है कि ”जब जांच एजेंसियां आरोपियों की मदद करती हों, गवाहों को झूठी गवाही के लिए धमकाया जाता हो और अभियोजक (प्रोसिक्यूटर) इस तरह काम करता हो मानो कि वह आरोपी को बचा रहा हो, जब अदालत मात्र दर्शक बन गई हो, निष्पक्ष मुकदमा हो ही नहीं सकता और न्याय उसका शिकार बन जाता है…। (क्रिस्तोफ जेफ्फरलॉट, ‘स्टपिंग बैक फ्राम जस्टिस’, इंडियन एक्सप्रेस, 25 अगस्त, 2022)
इन्हीं में से एक मामला उस 19 साल की लड़की का भी था जो तब पांच महीने की गर्भवती थी। इसका नाम था बिलकीस बानो, जिसके परिवार के 15 सदस्यों की उसी के सामने हत्या की गई जिसमें उसकी तीन वर्ष की बेटी भी थी, जिसे पटक कर मारा गया। इसके बाद इस लड़की से उसके 20 पड़ोसियों ने बलात्कार किया और उसे मरा मान कर छोड़ दिया गया। संक्षेप में अगर कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने उसका साथ न दिया होता तो गुजरात पुलिस ने तो मामले को जनवरी, 2003 में साक्ष्य न होने के चलते बंद कर दिया था। पर जब मामला सर्वोच्च न्यायालय गया तब मामले की फिर से जांच हुई और इस बीच केंद्र ने नया सरकारी वकील नियुक्त किया तथा मुकदमे को मुंबई स्थानांतरित कर दिया। तब 2008 में जो फैसला आया उसमें 20 में से 13 आरोपियों को सजा मिली और इनमें से भी 11 आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
निश्चय ही यह सब अचानक नहीं हुआ था। अगर हुआ भी था तो भी अंतत: इन्हें जिन अपराधिक मानसिकता के लोगों ने सत्ता तक पहुंचने लिए भुनाया, उस सब को आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता है।
स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के ‘पावन पर्व’ के बहाने अब गुजरात में जिस तरह से राज्य और केंद्रीय सरकार के तालमेल ने, आजादी के बाद के संभवत: भीषणतम हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान हुई बर्बरताओं में जो जघन्यतम अपराध हुए थे, उनमें सबसे बर्बर और अमानवीय अपराध के 11 आजन्म कैद की सजा पाए दंडितों को, कानून की आड़ में छोड़ा, वह उस अनैतिकता और मूल्यहीनता का उदाहरण है जिसकी संभावना की ओर शुरू में इशारा करने की कोशिश की गई है। असल में ‘पावन पर्व की मुक्ति’ से पहले भी इन अपराधियों को, जिनमें उच्च जाति के ब्राह्मण पुरुष भी शामिल थे, रह-रह कर पेरोल पर छोड़ा जाता रहा था। तब से ये सज्जन बिल्किस को धमकी देने से बाज नहीं आते थे। पर चूंकि राज्य में सरकार भाजपा की रही है उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया, सिवाय बिलकीस और उसके परिवार को यह संदेश देने के कि जितनी जल्दी हो यहां से भाग जाओ।
उसके बाद क्या हुआ या हो रहा है उसे भी जेफ्फरलॉट के शब्दों में ही कहना बेहतर है। उन्होंने लेख के अंत में लिखा है, ”…सितंबर, 2013 में जाकिया जाफरी ने अपना अंतिम निवेदन (फाइनल सब्मीशन) रखा।
”कुछ महीने बाद स्थितियां बदल गईं, मात्र इसलिए नहीं कि भारत सरकार बदल गई, बल्कि लगने लगा कि सर्वोच्च न्यायालय का नजरिया (एप्प्रोच) भी बदल गया है। कई लोग जिनमें कोडनानी और बजरंगी भी शामिल थे, बिल्किस बानो के दंडितों की तरह – मुक्त कर दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय जो इसके बाद भारत सरकार का विरोध करता नहीं लगा, ने इन सारे मामलों को अपने पाले में रख लिया।‘’
निश्चय ही हिंदू सांप्रदायिकता का इतिहास भी सौ साल से कम पुराना नहीं है। पर सांप्रदायिकता के सबक अगर कोई सीखना चाहे तो ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। सांप्रदायिकता से उपजी अराजकता और हिंसा के उदाहरण हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं फिर चाहे वह पाकिस्तान हो, अफगानिस्तान या फिर श्रीलंका। इन तीनों ही देशों के संकट मूलत: सांप्रदायिकता से ही संबंध रखते हैं फिर चाहे श्रीलंका के संदर्भ में वह पारिवारिक तानाशाही के तौर पर ही क्यों न सामने आए हों। एक सवाल पाकिस्तान के संदर्भ में भी पूछा जा सकता है कि आखिर वहां एक ही धर्म के लोगों के इक_ा हो जाने के बावजूद लोकतंत्र और शांति क्यों नहीं हो पाई? क्यों वह देश लगातार अशांत और अविकसित नजर आता है? स्पष्ट है कि धर्म किसी भी तरह एक आधुनिक राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विशेषकर न्याय ऐसी संस्था है जिसकी सक्रियता, तटस्थता और संवेदनशीलता देश/समाज और उसकी गतिशीलता को बनाए रखने का ही काम नहीं करती है, बल्कि आम नागरिक का, न्याय व्यवस्था के माध्यम से, व्यवस्था और समाज में विश्वास बनाने और बचाए रखने का भी आधार बनती है। इसलिए यह कहना अर्थहीन है कि इसे बचाए रखना हर सत्ताधारी का सर्वोच्च कर्तव्य होना चाहिए। पर हुआ क्या है?
हुआ जो भी हो, पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम एक लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं जहां अभी वोट देने का अधिकार है। सबक सिर्फ यह है कि उसका इस्तेमाल विवेक से, भविष्य को ध्यान में रख मानवीय मूल्यों को बचाने और आगे बढ़ाने के करना होगा। वरना…
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