हंगामा है क्यों बरपा

Share:

– एक संवाददाता

इजराइली मूल के नादव लेपिड अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के फिल्मकार हैं और भारतीय फिल्म महोत्सव आइआइएफआइ से उनका पुराना नाता है। इस बार वह अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिता खंड के अध्यक्ष थे।

 

भारत के 53वें अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के समापन्न समारोह में 28 नवंबर को गोवा में जूरी के अध्यक्ष नादव लेपिड के बयान से जो हंगामा खड़ा हुआ है वह एक मायने में सत्ता बनाम कला के संबंधों से जुड़ा है।

यह बात समझ लेनी चाहिए कि लेपिड अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के फिल्मकार हैं और भारतीय फिल्म महोत्सव (आइआइएफआइ) से उनका पुराना नाता है। उनकी फिल्म सिनानिम्स को 2019 में बर्लिन फिल्मोत्सव में गोल्डन बीयर (स्वर्णिम भालू) से सम्मानित किया जा चुका है। वह भारतीय फिल्मोत्सव में आते रहे हैं। 2018 में उनकी फिल्म किंडरगार्टन की अभिनेत्री सारित लैरी को आइआइएफआइ का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिल चुका है। यह बात रेखांकन योग्य है कि लेपिड की फिल्म एहेदस नी  को 2021 में कान फिल्म समारोह में जूरी सम्मान प्रदान किया गया था। उनकी लगभग सभी फिल्में चर्चित रही हैं। इससे एक बात साफ है कि वह बेमतलब कोई विवाद पैदा नहीं करते। इसके अलावा भी भारत-इजराइल संबंध काफी निकट के हैं। इसलिए यह मानना कि उनकी मंशा किसी भी रूप में भारत या भारतीय फिल्मों की भत्र्सना करना रही होगी, ऐसा लगभग असंभव है। तथ्य यह है कि उन्होंने जो भी कहा है, वह बेहद संतुलित और स्पष्ट था।

जूरी के अन्य सदस्यों में अमेरिकी निर्माता जिंको गोतोह, फ्रांसीसी फिल्म एडीटर पास्केल शेवांसे, फ्रांसीसी फिल्म डाक्यूमेंटरी फिल्मकार और आलोचक जेवियर अंगुलो बर्तुरेन तथा भारतीय फिल्म निर्देशक सुदिप्तो सेन थे। सेन कैसे फिल्मकार हैं इसके बारे में उनकी निर्माणाधीन फिल्म द केरला स्टोरी से समझा जा सकता है। फस्र्टपोस्ट के अनुसार इस फिल्म के एक प्रोमो में नायिका कह रही है, ”मैं नर्स बनकर मानवता की सेवा करना चाहती थी अब मैं आइएसआइ की आतंकवादी फातिमा बा हूं जो अफगानिस्तान की जेल में है। मैं अकेली नहीं हूं।” आगे व यह भी कहती है कि ”मेरी जैसी 32 हजार लड़कियां और भी हैं जो सीरिया और यमन के रेगिस्तान में दफ्न हैं’’, आदि आदि। अपने झुकाव में सेन सत्ता के निकट प्रतीत होते हैं। यद्यपि सेन ने अपने वक्तव्य में कहा है कि लेपिड ने जो कहा वह उनका अपना मत था और जूरी के सब सदस्यों  की यह राय नहीं थी तब सवाल है जब लेपिड मंच से इतनी गलत बात कह रहे थे तो सेन ने उन्हें टोका क्यों नहीं? क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं है? विशेषकर इसलिए कि क्या तब उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि लेपिड कितनी विवादास्पद बात बोल रहे हैं? यह इसलिए भी जरूरी था क्यों कि कश्मीर फाइल्स की तारीफ प्रधान मंत्री भी कर चुके थे और जब लेपिड बोल रहे थे तब मंच पर सूचना और प्रसारण मंत्री भी बैठे हुए थे।

इंडियन एक्सप्रेस में 29 नवंबर को पहले पन्ने पर प्रकाशित रिपोर्ट के अुनसार सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर, आशा पारेख, अक्षय कुमार, अंशुमन खुराना और राणा दाग्गुबती जैसी हस्तियों की उपस्थिति में अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिता खंड के अध्यक्ष के तौर पर बोलते हुए लेपिड ने कहा था,

”सामान्यत: मैं कागज में लिखे को नहीं पढ़ता। इस बार मैं सटीक होना चाहता हूं। मैं समारोह के निदेशक का इस के कार्यक्रमों की सिनेमाई उत्कृष्टता, विविधता और संश्लिष्टता के लिए आभार प्रकट करना चाहता हूं। अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिता में, जो कि समारोह का मुख्य कार्यक्रम है,15 फिल्में थीं। इन में से 14 में सिनेमेटिक गुणवत्ता थी…और इन को लेकर खासा संवाद हुआ। हम, यानी हम सब लोग, 15वीं फिल्म द कश्मीर फाइल्स से विचलित हो गए। वह हमें प्रोपेगेंडा लगी, बेहूदी (वल्गर) फिल्म, जो इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के कलात्मक प्रतियोगिता खंड के लिए अनुपयुक्त थी।‘’

स्पष्ट है कि नादव लेपिड ने आयोजकों और समारोह की गुणवत्ता की तारीफ ही की। यह  भूलाया नहीं जाना चाहिए कि लेपिड किस स्तर के फिल्मकार हैं। यानी उनकी कलात्मक समझ और मानवीय सरोकारों से संबद्धता पर शंका नहीं की जा सकती। वैसे भी उनके साथ और जो अन्य तीन, जिनमें फ्रांसीसी तथा अमेरिकी फिल्मों से जुड़े व्यक्ति थे, उनमें से किसी एक ने भी इस टिप्पणी के लिखे जाने तक किसी भी प्रकार की कोई असहमति लेपिड के वक्तव्य से नहीं जाहिर की थी।

सबसे बड़ी बात यह है कि हर कलात्मक कृति फिर चाहे वह नाटक हो, उपन्यास हो, कविता हो या फिर फिल्म, अंतत: वह मानवीय विडंबना, उसकी पीड़ा और उसके सरोकारों को ही व्यक्त करती है। पर जब कोई कृति अपनी बात कहने के लिए कलात्मकता की जगह सपाट बयानी का इस्तेमाल करती है तो फिर वह कुल मिला कर प्रोपेगेंडा हो जाती है। इस में दो राय नहीं हैं कि अनुराग क श्यप की कश्मीर फाइल्स  में चाहे जितनी भी सच्चाई हो पर उसका आंकलन एक कलात्मक कृति के रूप में ही किया जाएगा। लेपिड ने कश्मीर में जो गुजरा उस को नकारने की कोई बात नहीं कही। बल्कि उन तथ्यों को प्रस्तुत करने की निर्देशक, फिल्मकार की सीमा पर टिप्पणी की। अगर कश्मीर पंडितों की त्रासदी पर कश्यप ने डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाई होती और उस पर इस तरह की टिप्पणी की गई होती तो निश्चित ही वह गलत होता और उसकी आलोचना सही होती और कहा जा सकता था कि वह असंवेदनशील हैं।

अजीब विडंबना इस विवाद में इजराइली राजदूत का कूदना है। आखिर क्या यह यों ही हुआ होगा? हद यह है कि लेपिड से तब तक कहीं किसी ने यह नहीं पूछा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा जब तक की हंगामा नहीं हो गया? लेपिड ने जो किया सो किया पर राजदूत ने अनावश्यक हस्तक्षेप कर स्थिति को बिगाडऩे में ही योगदान दिया है। इस पर इंडियन एक्सपे्रस के 30 नवंबर के संपादकीय की ये पंक्तियां काबिले गौर हैं: ”इजराइल के भारत में राजदूत नाओर गिलान ने लेपिड की भत्र्सना की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और और फिल्मकार की टिप्पणी से जो धृष्टता हुई है उसके लिए भारत से माफी मांगी। एक राजदूत का यह एक ऐसे मामले में अनावश्यक हस्तक्षेप था जिससे उनका या इजराइली राज्य का कोई सरोकार नहीं था।”

Visits: 111

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*