अपराध, पर दंड कहां है?

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बहुमत या प्रचंड बहुमत में सत्ताधारी ऐसे निर्णय लेते हैं जो उनकी महत्वाकांक्षाओं के अलावा उनकी सनकों का भी प्रमाण होते हैं। इसका एक कारण जनमत को लेकर उनका यह विश्वास रहता है कि वे जो चाहे कर सकते हैं, जनमत उनके साथ रहेगा।

यह मानना कि मानव जीवन में अंतत: दैवीय न्याय जैसी कोई चीज होती है, कुल मिलाकर अतार्किक, अवैज्ञानिक और निराधार है। 21वीं सदी के इस पूर्वाद्ध में किसी ईश्वरीय न्याय की अपेक्षा, और भी गहन अज्ञानता का नमूना है। यदि कोई न्याय होता है या हो सकता है, ‘यदिÓ इसमें महत्वपूर्ण है, तो वह मानव या मानव समाज द्वारा ही संभव है। यह न्याय दो तरह का हो सकता है। सामाजिक और राजनीतिक। सामाजिक न्याय की अपनी सीमाएं है, इसलिए भी कि वह परंपराओं और मान्यताओं पर आधारित होने के कारण अक्सर अतार्किक और निर्मम होने में भी देर नहीं लगाता। विशेषकर परंपरागत समाजों में। आधुनिक संदर्भ में वह निश्चित ही ज्यादा सक्रिय और प्रभावशाली भूमिका निभाता है, इस अर्थ में कि तब वह राज्य नामक संस्था को, नियमों की सीमा के पार जाकर भी, स्थिति को आंकने को विवश करता है। पर स्थापित मूल्यों की सीमा में न्याय राज्य व्यवस्था के अंतर्गत ही संभव है।

सत्ता बचाने के लिए अक्सर सत्ताधारियों द्वारा नियमों का उल्लंघन और अनदेखी अपवाद से ज्यादा नियम है। इतिहास आदिकाल से आज 21वीं सदी तक दमनों और कत्लेआमों से भरा है। लोकतंत्र इसका अपवाद नहीं है। बहुमत या प्रचंड बहुमत में सत्ताधारी ऐसे निर्णय लेते हैं जो उनकी महत्वाकांक्षाओं के अलावा उनकी सनकों का भी प्रमाण होते हैं। इसका एक कारण जनमत को लेकर उनका यह विश्वास रहता है कि वे जो चाहे कर सकते हैं, जनमत उनके साथ रहेगा। जनमत की आड़, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, इसीलिए सत्ता के विभिन्न अवयवों का दुरुपयोग करने का बहाना बनती देखी जा सकती है।

पर महत्वपूर्ण यह है कि बिना न्याय व्यवस्था के, फिर वह चाहे कितना भी आडंबर क्यों न हो, कोई भी समाज टिक नहीं सकता है। यहां तक कि तानाशाहियां भी। स्वयं उन समाजों में भी जो तानाशाहों या लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ उठाकर सत्ता में आते हैं और सामान्यत: भावात्मक या अन्य किसी तात्कालिक कारणों से, जिसमें अक्सर घृणा एक महत्वपूर्ण कारक है, प्रचंड बहुतमत पा जाते हैं, अक्सर इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि वे देश और समाज के अंतिम ‘भाग्य विधाताÓ हैं। यहां यह नहीं भुलाया जा सकता कि प्रचंड  बहुमत अक्सर भावात्मक या असामान्य स्थिति की उपज होते हैं, जिनमें विवेक और वस्तुपरकता का अभाव होता है।

ऐसे सत्ताधारी अक्सर यह मानने लगते हैं कि उन्हें कभी हटाया नहीं जा सकता और वे समाज और देश के संदर्भ में अंतिम सत्य हैं। और अक्सर यह उनके जीते जी गलत भी नहीं होता। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति वर्तमान सत्ताधारियों, विशेष कर उनके नेता या नेताओं के व्यवहार में अपने चरम पर नजर आ रही है।

इधर, कई विधानसभाओं के चुनावों में, इस अंक के प्रकाशित होने तक, या तो वोट डाले जा चुके थे या फिर डाले जाने थे, जिनमें गुजरात राज्य का चुनाव भी है, जहां एक और पांच दिसंबर को मतपत्र पड़ेंगे। गुजरात वह राज्य है जहां से वर्तमान प्रधानमंत्री आते हैं। जब वह राज्य के मुख्यमंत्री थे तब दिसंबर 2002 में गोधरा कांड  हुआ था जिसमें रेल के एक डिब्बे में 57 हिंदू तीर्थयात्री इस स्टेशन में जल कर मरे थे। आरोप है कि इस में जानबूझ कर आग लगाई गई थी और इसके बाद गुजरात में इतने भयावह मुस्लिम विरोधी दंगे हुए थे, जितने संभवत: भारत विभाजन के दौरान कुछ इलाकों में हुए होंगे। गुजरात दंगों को लेकर राज्य सरकार पर आरोप रहा है कि उसने यही नहीं कि समय पर कदम नहीं उठाए बल्कि इनमें उसकी जाने-अनजाने भागीदारी भी रही। और इसके प्रमाण भी हैं। पर इसका नतीजा यह हुआ कि वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जबर्दस्त वोट मिले। इसके बाद गुजरात में ही नहीं बल्कि देश में भाजपा ने सांप्रदायिक विभाजन का एजेंडा अपनाया और केंद्र में सत्ता पाई तथा विगत दो चुनावों से वहां जमी हुई है। सांप्रदायकीकरण की नीति फिलहाल भाजपा का आधार हो गई है और मोदी उसके सर्वमान्य नेता, जिसे न पार्टी के भीतर से और न ही बाहर से चुनौती दी जा सकती है। देखने लायक यह है कि यह ध्रुवीकरण किस कीमत पर होता रहा है, विशेषकर गुजरात में जो बाकी देश में भी भाजपा के लिए रोल मॉडल है और जिसने गरीब देश के एजेंडे को ही बदल दिया है। अगर एक ओर सांप्रदायिकता भाजपा की मुख्यनीति है, तो दूसरी ओर पूंजीवाद उसकी आर्थिक नीतियों का आधार हो चुका है जो मंहगाई, बेरोजगारी और निजीकरण, आदि कई रूपों में हमारे सामने है।

गुजरात के दंगों में कई शर्मनाक घटनाएं हुईं जिनमें कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी और 31 अन्य लोगों को दंगाइयों ने जिंदा जला दिया, पर उन्हें पुलिस की कोई मदद नहीं मिली। दूसरी घटना जो दूसरा प्रमाण है वह है नरोदा पाटिया की, जिसमें तत्कालीन राज्य सरकार की एक मंत्री को अदालत ने आरोपी पाया और सजा हुई।

पर उस दौर की सबसे बर्बर घटना उस परिवार से संबंधित है, जिसके 14 सदस्यों को मार डाला गया था, उनमें एक तीन वर्ष की बच्ची तक थी। बच्ची की मां बिल्किस बानो से, जो उस समय गर्भवती थी, दंगाइयों ने बलात्कार किया था और अगर वह बच गईं तो इसलिए कि वह बेहोश हो चुकी थीं। दंगाई बलात्कारियों  ने उन्हें मरा मान लिया था। अंतत: इन सब बलात्कारियों पर मुकदमा चला और उन्हें लंबी लंबी सजाएं हुईं।

पर यह मौका 20 वर्ष पहले हुए इन दंगों को याद करने का नहीं है। अगर इन्हें याद करना पड़ रहा है तो यह महज संयोग नहीं है। अब तक साबरमती में न जाने कितना पानी बह कर सौराष्ट्र की खाड़ी में गिर चुका है। बेहतर होता कि इस पूरी घटना को निजी और सार्वजनिक तौर पर अनावश्यक न याद किया जाता। संभवत: वही बेहतर सभ्यता होती और वही उत्कृष्ट संस्कृति, उस राज्य की जहां दुनिया की पुरातनतम सभ्यता के धौलावीरा तथा लोथल जैसे प्रमाण मौजूद हैं।

इन दंगों में बर्बरता और अमानवीयता के जो ‘मानदंडÓ स्थापित किए गए वे अकल्पनीय हैं। इनमें एक उदाहरण माया कोडनानी है जो पेशे से स्त्री रोग चिकित्सक हैं। उन्हें अहमदाबाद के नरोदा पाटिया इलाके में दंगा करने के आरोप में 28 साल की सजा हुई थी, पर 2018 में उन्हें छोड़ दिया गया। कल्पना कीजिए एक डॉक्टर दंगों में शामिल थी! अनुमान लगाइए वह शिक्षा जो आदमी आदमी के बीच भेद न करने की आधारभूत शिक्षा देती है, हर पीड़ा को सिर्फ पीड़ा मानना सिखाती है, स्तब्ध करने वाली बात यह है कि धार्मिक कट्टरता या सत्ता की भूख, इन सब आधारभूत मूल्यों को ही भुलाने काफी साबित होती है। ऐसा भी नहीं था कि जिन 97 लोगों को उस दिन नरोदा पाटिया में मारा गया वे, वो दंगाई भी नहीं थे, जिन्होंने गोधरा में रेल के डिब्बे में आग लगाई थी। माना उपद्रवियों को यकीन नहीं होगा कि हत्यारों को जो दंड मिलेगा वह काफी नहीं होगा, जबकि राज्य में भाजपा की सरकार थी। सवाल है, क्या धर्म विवेक और दया के मूलभूत मानवीय मूल्यों को नहीं मानता जो दुनिया के हर धर्म का आधार बताए जाते हैं?

संयोग देखिए कि नरोदा पाटिया से कुछ ही मील की दूरी पर उससे 87 साल पहले साबरमती के तट पर दुनिया को अहिंसा का उपदेश देने वाले और इतिहास में सबसे ज्यादा चर्चित गुजराती, मोहनदास कर्मचंद गांधी ने अपने सबसे पहले आश्रम की स्थापना की थी जो बाद में साबरमती आश्रम के रूप में जाना गया।

पर हुआ क्या?

दिसंबर, 2022 के राज्य विधानसभा के चुनावों से कुछ समय पहले ही केंद्र की नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार ने गोधरा कांड के 14 दंडितों को छोड़ दिया। कहानी कुछ और भी है, इन अपराधियों को गुजरात सरकार द्वारा बीच-बीच में लगतार पैरोल पर छोड़ा जाता रहा था। पर इसका चरम यह है कि भाजपा के टिकट पर इस बार नरोदा पाटिया से जो उम्मीदवार हैं वह भी चिकित्सक हैं। उनका नाम डॉक्टर पायल कुलकर्णी है। पायल 2002 के नरोदा पाटिया दंगों के एक आरोपी मनोज की बेटी हैं जिन्हें आजीवन कैद की सजा हुई थी। कटे पर नमक यह है कि पायल की मां रेशमा कुलकर्णी पहले से ही सैजपुरा अहमदाबाद की कॉरपोरेटर हैं। स्पष्ट है कि भाजपा ने इन घटनाओं को लेकर कभी न कोई अफसोस जताया या किसी तरह का अपराध बोध महसूस किया, बल्कि दंगाइयों को उनके कारनामों के लिए नियोजित तरीके से पुरस्कृत किया जाता रहा है।

आज गुजरात का ध्रुवीकरण किस हद तक हो गया है इसका उदाहरण संभवत: मोरवी का वह पुल है जो गत माह के शुरू में टूटा था और जिसके कारण नदी में गिरने से सौ से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई थी। इस पूरे मामले में सरकार ने ओरेवा कंपनी के मालिक जयसुखभाई पटेल को 140 साल पुराने पुल को ‘रिनोवेट’ करने का ठेका दो करोड़ में दिया था, पर वह खुलते ही गिर गया और उसमें 141 आदमी मरे। इलेक्ट्रॉनिक घडिय़ां बनाने वाले उस व्यक्ति को हाथ तक नहीं लगाया गया है जिसकी कंपनी को इसकी देखभाल और उससे टिकट लगा कर पैसे कमाने का ठेका दिया गया था। पकड़े गए हैं उसके कर्मचारी, जिनमें गार्ड  तक शामिल हैं। ऐसा क्यों हुआ इसका एक संकेत इस समाचार से मिलता है कि एसोशिएश ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म के अनुसार गुजरात में कुल इलॅक्टोरल बॉंड्स का 94 प्रतिशत अकेले भाजपा को मिला। यह राशि थी 174 करोड़। जबकि इसी दौरान कांग्रेस को सिर्फ 11 करोड़ मिले थे। इसी पैसे से राज्य में चुनाव के दौरान भाजपा 50-50 किमी लंबे रोड शो कर रही थी।

सांप्रदायिकीकरण का स्तर यह है कि जब भी जो भी पत्रकार, सिवाय उन लोगों के जिनके परिवार के लोग डूबकर मरे हैं, आम आदमी से पूछता था कि क्या पुल का टूटना कोई मुद्दा है तो अधिसंख्य मतदाता बिना किसी झिझक के कहते थे कि नहीं वह मुद्दा नहीं है। वह तो असावधानी है। यानी वोट भाजपा को ही मिलेगा। ऐसा लगता है मानो सत्ता पर हिंदुत्व के कब्जे के अलावा कोई मुद्दा नहीं रह गया है और हिंदुत्व ने सामान्य आदमी के विवेक को इस हद तक ग्रस लिया है कि वह स्वतंत्र होकर सोचने की स्थिति में ही नहीं है। जबकि स्पष्ट है कि इस पुल के गिरने का मुख्य कारण सत्ता का भ्रष्टाचार है।

चिंता का विषय अब यह नहीं है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। बल्कि यह है कि क्या यह हमारे समाज के पूर्ण अपराधीकरण का आधार बनने जा रहा है, जिसका नेतृत्व भाजपा करती नजर आ रही है।

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