‘मनुस्मृति’ में सवर्ण स्त्री

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– कनक लता

इस लेख का उद्देश्य मुख्यत: ‘सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार’ के आरोप पर मंथन करना है, न कि सवर्ण-पुरुषों, निम्नवर्णीय-स्त्रियों और पुरुषों के व्यभिचार पर। क्योंकि सवर्ण-पुरुषों का किसी भी तथाकथित उच्च या निम्नवर्णीय-स्त्रियों से व्यभिचार ब्राह्मण-विधान के अनुसार ‘व्यभिचार’ नहीं, उनका ‘विशेषाधिकार’ था।

 

अभी थोड़े ही समय पहले दो ऐसी फिल्में आई हैं, जिनमें दलितों और सवर्णों के द्वंद्वात्मक-संबंधों को आधार बनाया गया है— ‘दहाड़’ और ‘कटहल’; ‘दहाड़’ में गंभीरतापूर्वक, जबकि ‘कटहल’ में बहुत ही अश्लील और भौंडे तरीके से, एक तरह से दलित-स्त्रियों की हैसियत दिखाते और मजाक उड़ाते हुए। ‘कटहल’ में एक दलित-महिला पुलिस अधिकारी को ब्राह्मण-पुरुष से प्रेम करते दिखाई गया है, जिसे सवर्ण-समाजकेदर्शकों ने बहुत ही सहजता से स्वीकारा है। लेकिन यदि नायक-नायिका की जातियां परस्पर बदल दी जाएं, जिसमें नायक दलित हो और नायिका सवर्ण, तो क्या वत्र्तमान सवर्ण-दर्शक उसे भी इतनी ही सहजता से लेगा?

भारतीय-समाज में वास्तविक धरातल पर तो स्थिति और भी जटिल है, जहां ऐसी दर्जनों घटनाएं पिछले कुछ समय में घटित हुई हैं, जिसमें दलित-लड़की और सवर्ण-लड़के की शादी को, अथवा सवर्ण-लड़की और दलित-लड़के की शादी को नकारते हुए ऐसे जोड़ों की हत्या सवर्णों द्वारा बड़े जोशो-खरोश से की गईं; हालांकि कई बार पहले मामले में छूट दी गई, लेकिन दूसरे मामले में इसे कत्तई बर्दाश्त नहीं किया गया। अल्मोड़ा के दलित-लड़के जगदीश की हत्या पिछले ही साल की बात है। यह अलग बात है कि अपुष्ट जानकारी के अनुसार आरएसएस द्वारा सवर्णों को गुप्त रूप से यह निर्देश-सा दिया गया है कि सिविल सेवा और अन्य प्रतिष्ठित, ताकतवर एवं मोटे वेतन वाले पदों पर चयनित होने वाले दलित लड़के-लड़कियों की शादी सवर्ण लड़के-लड़कियों से करके उनको उनके अपने समाज में जाने से रोक दिया जाए, अन्यथा उनके कारण उनके समाज में और भी तेजी से बदलाव आएंगे, जिसे रोकने के लिए उनको उनके समाज से यथासंभव दूर रखना जरूरी है।

लेकिन एक सामान्य दलित-लड़के का प्रेम और विवाह सवर्ण-लड़की से होना सवर्ण-समाज को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हो पाता है, जिसकी बेहद ठोस आधार शिला दो हजार साल से भी पहले दूसरी सदी ईसापूर्व में पुष्यमित्र शुंग के संरक्षण में मनु ने ‘मनुस्मृति’ में रखी थी, जिसे आनेवाले समय में औशनवस्मृति, बौधायनस्मृति, वशिष्ठस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, स्कंदपुराण आदि ने और आगे बढ़ाया1।

 

सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचारिणी होने का सवाल

इस लेख का उद्देश्य मुख्यत:’सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार’ के आरोप पर मंथन करना है, न कि सवर्ण-पुरुषों, निम्नवर्णीय-स्त्रियों और पुरुषों के व्यभिचार पर। क्योंकि सवर्ण-पुरुषों का किसी भी तथाकथित उच्च या निम्नवर्णीय-स्त्रियों से व्यभिचार ब्राह्मण-विधान के अनुसार ‘व्यभिचार’ नहीं, उनका ‘विशेषाधिकार था। इसलिए ‘अनुलोम-विवाह’, जिसकी अनुमति मनु और अन्य ब्राह्मणों ने दी थी, केअनुसार ताकतवर सवर्ण-पुरुष अपना भय दिखाकर अपने से निम्न किसी भी वर्ग, जाति या समाज की कन्या से जबरन या कभी-कभी प्रेमपूर्वक भी (जो इक्का-दुक्का ही होते होंगे) यौन-संबंध बना सकता था। अत: निम्नवर्णीय वंचित-स्त्रियों का स्वेच्छा से सवर्ण-पुरुषों के साथ व्यभिचार में शामिल होने का सवाल ही नहीं उठता, उनकी जातीय-स्थिति के कारण सवर्ण-पुरुषों द्वारा उन पर केवल बलात्कार ही स्वाभाविक लगता है। जहां तकवंचित-पुरुषों के सवर्ण-स्त्रियों से व्यभिचार का प्रश्न है, तो क्या शूद्रवर्णीय-पुरुष इतना साहस कर सकता था कि वह सवर्ण-स्त्रियों, उनमें भी ब्राह्मण-स्त्री, से प्रेम कर सके? क्या उनके ऐसे अपराधों के लिए सनातनी-धर्मग्रंथों में अत्यंत कठोर दंड का प्रावधान नहीं होगा? शायद मृत्युदंड? और जब शूद्रोंकी यह हालत थी, तब कैसे संभव है कि दलित-अन्त्यज और आदिवासी-समाज का कोई भी पुरुष किसी भी ब्राह्मण या सवर्ण-स्त्री के साथ प्रेम करने और यौन-संबंध बनाने का दुस्साहस करता होगा; वह भी तब, जब सवर्णों के गांवों-नगरों में प्रवेश की मनाही के कारण वे सवर्ण-स्त्रियों के घरों तक किसी भी तरह नहीं पहुंच सकते थे?

इसलिए आदिवासी, दलित और शूद्र-समाजों के स्त्री-पुरुषों का स्वयं आगे बढ़कर सवर्ण स्त्री-पुरुषों से प्रेम करना लगभग असंभव था। लेकिन यह भी सत्य है कि ‘प्रतिलोम’ यौन-संबंध बने थे और ब्राह्मण-ग्रंथकारों ने कहा कि ऐसे संबंधों से नई-नई सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा हुईं। तब जो प्रश्न हमारे सामने खड़े होते हैं, उनमें से एक तो यही कि क्या सवर्ण-स्त्रियां स्वयं ही सारे बंधनों को तोड़कर अपने-अपने घरों की दहलीज पार कर शूद्र, अछूत-अन्त्यज तथा आदिवासी-पुरुषों के संपर्क में आईं?

मनुस्मृति सहित औशनवस्मृति, बौधायनस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, वशिष्ठ स्मृति, स्कंद पुराण आदि जैसे पचासों ब्राह्मण-ग्रन्थों में ‘अनुलोम-विवाह’ के साथ-साथ ‘प्रतिलोम-विवाह’ की बड़े पैमाने पर मौजूदगी से तो यही निष्कर्ष निकलता है2। जब मनुसे भी पहले से शैवों, शाक्तों, बौद्धों के यहां और मनुके लगभग 8-9 सदी बाद वज्रयानी-बौद्ध-सिद्धों ( 7वीं-8वीं से 12वीं-13वीं सदी) की बात करते हुए आधुनिक विद्वान् बहुत दबे-ढंके रूप में व्यंग्य से अवर्ण-स्त्रियों के साथ-साथ सवर्ण-स्त्रियों के भी ब्राह्मण-व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोह स्वरूप वंचित-पुरुषों से यौन-संबंधों की बात करते हैं, तो संदेह की गुंजाइश भी बहुत कम रह जाती है—”ऊंच-नीच कई वर्ण की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे।‘’ 3 ‘वीभत्स विधान’ अर्थात ‘यौन-संबंध’ अकारण तो नहीं है कि सवर्ण-स्त्रियों के इस विद्रोही रुख से ब्राह्मण और उसकी समस्त व्यवस्थाओं की चूलें हिल उठीं, समस्त सवर्ण-समाज त्राहिमाम कर उठा।

तात्पर्य यह कि सवर्ण-स्त्रियों ने सवर्ण-समाज से विद्रोह किया और उनके विधि-विधानों और नियम-कायदों से परेशान होकर उनकी अवहेलना भी की; बेशक जितनी बड़ी संख्या में ये संस्कृत ग्रंथ बता रहे हैं, उतना नहीं, बल्कि सीमित संख्या में। जिसके अनेक प्रमाण इतिहास और ब्राह्मण-ग्रंथों में छिटपुट रूप से बिखरे हुए हैं; जिसमें अनेक ऋषियों, राजाओं, मिथकीय चरित्रों आदि के जन्म बड़े ही बेतुके ढंग से होते हुए बताए गए हैं। उनमें से कोई घड़े में से पैदा हुआ है, कोई सूप से, कोई मछली के पेट से, कोई ओस से, कोई किसी के पसीने से, कोई खीर खाने से, कोई फल खाने से, कोई देवताओं के ‘आशीर्वाद’ से, कोई ऋषियों के ‘आशीर्वाद’ से…आदि। इससे कम-से-कम यह तो साबित होता है कि अनपढ़-जनता को जो बताया जाता रहा है, उसमें से ”सब कुछ विश्वसनीय नहीं’’ था; कुछ तो ऐसा था, जिस पर धर्म का आवरण चढ़ाया जा रहा था।

ब्राह्मणों की समस्या क्या थी?

यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि जो मनु और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथकार बताने की कोशिश कर रहे हैं, वही अक्षरश: सच है; अर्थात् वंचित-समाजों की उत्पत्ति सवर्ण-स्त्रियों के बड़े पैमाने पर व्यभिचार से हुई; तब तो यह मानना पड़ेगा कि सवर्ण-स्त्रियों के प्रेम-संबंध बहुत बड़े पैमाने पर भारत के विद्रोही मूलनिवासी-समाजों से बने थे।

इस बात से यह संकेत मिलता है कि ब्राह्मणों को दो स्तरों पर चुनौतियां मिल रही थीं—एक तो अपने ही घरों में अपनी स्त्रियों से; दूसरा, समाज में वंचित-जातियों से। घरों में कैद और सैकड़ों प्रतिबंधों में जकड़ी स्त्रियां अपने विरुद्ध सवर्ण-पुरुषों द्वारा बनाए अमानवीय नियमों का विरोध कर रही थीं, जबकि बाहर सैकड़ों मूलनिवासी-समाज और आर्येत्तर-समाज के लाखों मनुष्य आर्यों के प्रभुता और वर्चस्व को चुनौती देतेहुए उनका सशस्त्र-प्रतिरोध कर रहे थे। स्त्रियों, मूलनिवासियों और आर्येत्तरों का यह प्रतिरोध समय बीतने के साथ लगातार बढ़ता जा रहा था, जिसमें महत्वपूर्ण सहयोग शैवों, शाक्तों, बौद्धों, जैनियों और अन्य ब्राह्मणेत्तर-संप्रदायों से मिल रहा था, सर्वाधिक बौद्धों से।

मनु के समय तक यह चरम पर जा चुका था, अन्यथा पुष्यमित्र शुंग (मनु का संरक्षक) बौद्धों का सिर काटकर लानेवाले को स्वर्ण-मुद्राएं देने की घोषणा नहीं करता। जब ठीकठाक संख्या में स्त्रियां एवं वंचित समाज मिल गए, तो सबसे अधिक ब्राह्मणों को चुनौती मिली, क्योंकि उन दोनों पीडि़त-समाजों को बंधक बनाने के सभी नियम उन्होंने ही बनाए थे।

जिन स्त्रियों को सवर्ण-समाज, सर्वाधिक ब्राह्मण, ने सूर्य की किरणों और हवाओं के स्पर्श तक से भी दूर रखा था और उनके जन्म लेने के साथ ही उनको ‘संस्कारों’ की घुट्टी में निरंतर ‘पतिव्रत-धर्म’, ‘पति-परायणता’, ‘पति-भक्ति’, ‘पति-आज्ञाकारिता’ जैसे अत्यावश्यक ‘सद्गुण’ भरे थे; उन्हीं में से कुछेक स्त्रियां अब प्रतिबंधों को तोड़कर ‘सनातनी-संस्कारों’ के ऊपर पैर रखकर अपने-अपने घरों की दहलीजें लांघकर वंचित-जातीय ‘अन्य पुरुषों’ के साथ यौन-संबंधों की ओर बढ़ रही थीं। जो सवर्ण-स्त्रियां अपनी इच्छा से अपना जीवन तक नहीं जी सकती थीं, जीवन जीना तो दूर, वे अपना भोजन, पहनावा आदि भी स्वेच्छा से तय नहीं कर सकती थीं, उन्हीं स्त्रियों द्वारा अपनी पसंद के पुरुषों से प्रेम करना सनातनी-समाज, उसमें भी ब्राह्मण-वर्ग, कैसे बर्दाश्त करता? भला इससे अधिक ‘कलियुग’ और क्या हो सकता था? उनकी आनेवाली पीढिय़ां अपने ब्राह्मण-पूर्वजों के प्रति तब कैसे सम्मान रख पातीं? दूसरी बात, उन सवर्ण-स्त्रियों से उत्पन्न ‘सवर्ण-संतानों’ के बारे में कैसे निश्चयपूर्वक कहा जा सकता था कि वे उनके अपने पतियों की औरस-संतानें हैं, न कि उनके ‘प्रेमियों’ की?

दूसरी तरफ, समाज में वंचित-जातियां सवर्णों के वर्चस्व को लगातार चुनौती देते हुए उनकी राजनीतिक और सामाजिक-सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिशें कर रही थीं, अनेक जगहों पर इसमें अच्छी-खासी सफलता भी उन्हें मिल रही थी। मनु के समय तक मौजूद शूद्रवर्णीय-नंदों को पुष्यमित्र शुंग के द्वारा उखाड़ दिए जाने के बावजूद यह निश्चित नहीं था कि कोई और निम्नवर्णीय सत्ता कायम नहीं होगी। इसकेअलावा, वंचित-समाज सवर्णों की स्त्रियों के जरिए उनकी संतानों के रक्त में अपना रक्त मिलाकर उनकी ‘रक्त शुद्धता’ और ‘नस्लीय श्रेष्ठता’ के अहंकार को करारी चोट पहुंचा रहे थे।

वास्तव में यही वह कांटा था, जिससे समस्त सवर्ण-समाज आहत था।

 

 

 

कांटे से कांटा निकालने की कोशिश

उपरोक्त समस्या से मुक्ति हेतु ब्राह्मण-व्यवस्थापकों ने वह रास्ता निकाला, जिससे इन दोनों को एक साथ काबू किया जा सकता था। वह रास्ता था, विद्रोही-मूलनिवासी और आर्येत्तर-समाजों को जानबूझकर ‘अवैध-संबंधों’ और ‘व्यभिचार’ से उत्पन्न ‘वर्णसंकर’ जातियों के रूप में अपने संस्कृत-ग्रंथों में उल्लिखित करना; खासकर सवर्ण-स्त्रियों और निम्न-जातियों के व्यभिचार से उत्पन्न; और स्त्रियों, सवर्ण-स्त्रियों सहित, को ‘अति-कामुक’ और ‘व्यभिचारिणी’ साबित करना। इसके लिए मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति आपस्तंब आदि जैसे ब्राह्मण-ग्रंथकारों ने ‘प्रतिलोम’ संबंधों को अनैतिक, धर्म-विरुद्ध, व्यभिचार-युक्त स्थापित किया और उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गए।

लेकिन उन्होंने एक और दांव खेला। उन्होंनेजिस तरह वंचित-जातियों को ‘वर्णसंकर’ और ‘मिश्रित-रक्त’ रूप में प्रचारित-प्रसारित किया, उसी तरह से सवर्ण-स्त्रियों के ‘व्यभिचार’ (जो वास्तव में उनका पितृसत्ता और ब्राह्मण-वर्चस्व से विद्रोह था) में लिप्त होने की बात को संपूर्ण समाज के सामने उजागर नहीं किया, बल्कि बड़ी चतुराई से छिपा लिया, अपनी भावी पीढिय़ों को संकेत-भर देकर, ताकि सवर्ण-स्त्रियों द्वारा सनातनी-पुरुषों की अदम्य-शक्ति और उन पर वर्चस्व की अवहेलना और सनातनी-नियमों की धज्जियां उड़ाने की कथा उनके कालखंड से बाहर न जा सके और अपनी भावी-पीढिय़ों के सामने उनकी ‘इज्जत’ बची रहे। साथ ही, उनके ‘रक्त और नस्ल की शुद्धता’ का भ्रम भी समाज और भावी-पीढिय़ों के सामने कायम रह सके। लेकिन सनातनी-स्त्रियों के ‘व्यभिचार’ में लिप्त होने के संकेत उन्होंने इसलिए अवश्य दिए, ताकिभविष्य में सनातनी-समाज के जागरूक-पुरुष याद रख सकें कि मौका मिलने पर सवर्ण-स्त्रियां भी उनकी व्यवस्थाओं में छेद करने से बाज नहीं आती हैं, इसलिए उनको हर युग में मर्यादाओं के साथ-साथ पिता, भाई, पति, पुत्र की कठोर निगरानी और नियंत्रण में रखना जरूरी है।

 

सैकड़ों जातियां ब्राह्मणों का मारक हथियार

‘अनुलोम-संबंधों’ को स्वीकृति देने के बावजूद मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों में जिन सैकड़ों जातियों के जन्म क उल्लेख है, वे ‘अनुलोम’ और ‘प्रतिलोम’ यौन-संबंधों से उत्पन्न बताई गई हैं। जैसे ब्राह्मण स्त्री और शूद्र-पुरुष के संबंध से ‘चाण्डाल’ जाति की उत्पत्ति, ब्राह्मण स्त्री और सूत पुरुष से ‘वेनुक’ जाति, ब्राह्मण स्त्री और वैदेशिका पुरुष से ‘चर्मोपजीवी’, ब्राह्मण-स्त्री और आयोगव-पुरुष से ‘चर्मकार’, ब्राह्मण-स्त्री और निषाद-पुरुष से ‘नापित’/’नाई’, ब्राह्मण-स्त्री और विदेह-पुरुष से ‘रजक’/’धोबी’, ब्राह्मण-स्त्री और माहिष्य-पुरुष से ‘लौहकार’/’लुहार’, ब्राह्मण-स्त्री और चाण्डाल-पुरुष से ‘श्वपाक’ (कुत्ते का मांस खानेवाली जाति) आदि की उत्पत्ति बताई गई है। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य-स्त्रियों से उनसे निम्न-सवर्णों और वंचित-पुरुषों के संबंधों से भी सैकड़ों जातियों की उत्पत्ति होने की बात कही गई है। सवर्ण-पुरुषों के वंचित-समाजों की स्त्रियों से व्यभिचार से भी कई वंचित-जातियों की उत्पत्ति बताई गई है। इससे यह स्थापित होता है कि भारत की वंचित-जातियां (आदिवासी, दलित और शूद्र) यहां की मूलनिवासी नहीं, न ही कोई सम्मानजनक अस्तित्व वाले समाज हैं, बल्कि अलग-अलग जातियों की स्त्रियों के अलग-अलग जातियों के पुरुषों के साथ ‘व्यभिचार और अवैध-संबंधों की पैदाइश’ हैं; यह भी कि इनकी उत्पत्ति आर्यों के भारत आने के बाद हुई है।

इस तरह केवल सैकड़ों जातियों का निर्माण करके विद्रोहिणी-स्त्रियों को ‘व्यभिचारिणी’ साबित कर दिया गया, जबकि वंचित-जातियों को उन स्त्रियों के अवैध-संबंधों और व्यभिचार की पैदाइश। लेकिन कभी भी न तो स्त्रियां, ब्राह्मण-स्त्रियों सहित, और न ही कभी वंचित-समाज ‘मनुस्मृति’ सहित अन्य ग्रंथों में लिखी गई इन अपमानजनक बातों के बारे में जान पाया; क्योंकि उनमें से किसी कोभी संस्कृत-ग्रंथ पढऩे-सुनने की अनुमति नहीं थी। इसलिए यह सच दो हजार सालों तक सामने आने से बचा रहा और ब्राह्मण अपने खेल में सफल हो गया। केवल सवर्ण-पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी आज तक एक-दूसरे के चरित्र को गालियां देने के लिए ‘त्रिया चरित्र’ शब्द का प्रयोग करती हैं; जबकि दूसरी तरफ समाज के अनपढ़ ही नहीं कई अति-शिक्षित लोग भी यही धारणा बनाए बैठे हैं कि वंचित-जातियां ‘वर्णसंकर’ हैं, जिनकी उत्पत्ति स्त्रियों के व्यभिचार से हुई है और केवल ब्राह्मणों का रक्त ही शुद्ध और पवित्र है।

 

वंचित-जातियां : उत्पत्ति का सच

लेकिन जब हम इतिहास और ब्राह्मण-ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तो बड़ी ही दिलचस्प बातें पता चलती हैं। संस्कृत-ग्रंथों की ही परस्पर तुलना से पता चलता है कि अलग-अलग ग्रंथकारों ने एक ही जाति की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बात बताई है; साथ ही एक ही तरह के संबंध से अलग-अलग जातियों की उत्पत्ति भी बताई है—”दो जातियों के मेल से एक तीसरी जाति का उत्पन्न होना तो समझ में आता है, परंतु उन्हीं दो जातियों के मिश्रण से भिन्न-भिन्न संकर जातियां कैसे बन सकती हैं? परंतु मनु और उनके अनुयायी यही कह रहे हैं। ”5 जैसे, क्षत्रिय-पिता और वैश्य-माता की संतान को ‘सूतसंहिता’ (स्कंदपुराण का एक भाग) ‘अम्बष्ठ’ कहती है, जबकि बौधायनस्मृति ‘क्षत्रिय’ और याज्ञवल्क्यस्मृति ‘महिष्य’ कहती है; लेकिन मनुस्मृति ‘अम्बष्ठ’ को ब्राह्मण-पिता और वैश्य-माता की संतान कहती है। दर्जनों जातियों के बारे में ऐसी ही परस्पर-विरोधी बातें कही गई हैं। इनमें से कोई तो गलत जानकरी दे रहे हैं।

अब, जरा इतिहास में देखते हैं। मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों में जिन सैकड़ों वर्णसंकर जातियों के नाम बताए गए हैं, उनमें से अधिकांश भारत की मूलनिवासी-जातियों और आर्येत्तर-जातियों (मुख्यत: जो आर्यों के पहले भारत आए)के नाम हैं; जिन्होंने आर्यों के क्रूर अत्याचारों के खिलाफ किसी-न-किसी रूप और अंश में आवाज उठाई, उनके वर्चस्व, खासकर ब्राह्मण-वर्चस्व, को कड़ी चुनौती और टक्कर दी थी। जैसे—निषाद (मछुआरा), मागध, चांडाल, चर्मकार, श्वपाक, महीष्य, नापित/नाई, भैरव, मालाकार, रजक/धोबी, रथकार, लौहकार…आदि।

यह भी कि इतिहास की सामान्य समझ रखने वाला विद्यार्थी तक जानता है कि भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में चमड़े की वस्तुएं (चर्मकार, चर्मोपजीवी), मिट्टी के बर्तन (कुम्हार), कपड़े (बुनकर, धानुक/धुनिया), विविधधातुओं के हथियार एवं औजार (लौहकार/लुहार) जैसे बेहद जरूरी सामान बनानेवाले मानव-समुदाय अचानक प्रकट नहीं हुए, बल्कि वे सभ्यताओं के विकास के एकदम शुरुआती चरणों में ही अस्तित्व में आने लगे थे, आर्यों के भारत सहित दुनिया भर में फैलने से भी हजारों वर्षों पहले से। यही बात पशुपालकों (महिष्य), मछुआरों और नाविकों (निषाद) जैसे मानव-समुदायों पर भी लागू होती है।

इस विषय में बहुत ठोस तर्क देते हुए डॉ. अम्बेडकर अनेक उदाहरण देकर मनुस्मृति सहित समस्त ब्राह्मण-ग्रंथकारों की घृणित मानसिकता को कठघरे में खड़ा करते हैं—”मनु के अनुसार ‘मागध’, वैश्य-पुरुष और क्षत्रिय-नारी से उत्पन्न जारज संतान है। वैयाकरण पाणिनी, ‘मागधÓ शब्द की व्युत्पत्ति एकदम अलग बताते हैं। उनके अनुसार, ‘मागध’ का अर्थ है मगध देश का वासी। मोटे तौर पर मगध वह क्षेत्र है जिसे आज बिहार का पटना और गया जिला कहा जाता है। पुरातन काल से ही मागधों को स्वतंत्र एवं सार्वभौम लोग बताया गया है। उनका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में आया है। जरासंध मगध का प्रसिद्ध राजा था, जो पांडवों का समकालीन था।‘’ इसी तरह ‘निषाद’ के संबंध में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ”मनु का कथन है कि निषाद, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री की जारज संतान हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य इससे बिल्कुल भिन्न है। निषाद भारत की एक जनजाति थी, जिसका स्वतंत्र राज्य और राजा थे। यह एक बहुत प्राचीन जनजाति है। रामायण में गुहा निषादराज बताया गया है, जिसकी राजधानी श्रृंगवेरपुर थी। जब राम वनवास पर थे, तब गुहा ने उनका आतिथ्य किया था।‘’9

लेकिन इन ग्रंथकारों के असली षड्यंत्र को आंबेडकर उजागर करते हैं, ”इनसे यह पता चलता है कि मनु ने किस तरह इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा और अत्यंत सम्मानित तथा शक्तिशाली जनजातियों को जारज घोषित कर उन्हें अपमानित किया।…यह स्पष्ट है कि मनु ने जिन जातियों को जारज कहा है उनमें से कई कत्तई इस श्रेणी में नहीं थीं और उनकी उत्पत्ति स्वतंत्र थी। फिर भी मनु और अन्य स्मृतिकार उन्हें जारज बताते है। यह पागलपन क्यों? क्या उनके पागलपन का कोई उद्देश्य है?…उनकी व्याख्या से मनुष्यों और विशेषकर स्त्रियों के चरित्र के बारे में क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं? यह स्पष्ट है कि इन पुरुषों और महिलाओं के बीच अवैध संबंध रहे होंगे, क्योंकि चातुर्वर्ण व्यवस्था ने इस तरह के संबंधों को प्रतिबंधित कर दिया था।…परंतु इतनी बड़ी संख्या में चांडालों या अछूतों का पैदा होना क्या इस ओर इंगित नहीं करता कि समाज में व्यापक स्तर पर दुराचार व्याप्त था?…क्या मनु को यह अहसास था कि संकर जातियों के संबंध में उनके सिद्धांत के प्रतिपादन से इस देश की एक बड़ी आबादी पर नीच का ठप्पा लग गया और उनका सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से ह्रास हुआ? उन्होंने यह क्यों कहा कि वे जातियां मिश्रित हैं, जबकि वास्तव में उनका स्वतंत्र अस्तित्व था?’’10

स्पष्ट है कि ब्राह्मण-वर्गों द्वारा किया गया यह पागलपनपूर्ण षड्यंत्र भारत की विद्रोही, स्वतंत्रताप्रिय एवं संघर्षशील मूलनिवासी एवं आर्येत्तर जातियों के विरुद्ध उनकी घृणा का ठोस परिचायक है। इसलिए मनु के समय तक बताई जा रही छ: सौ से अधिक जातियों के अस्तित्व में आने के पीछे गहरा षड्यंत्र ही दिखाई देता है, इसके अलावा और कुछ भी नहीं है। सचमुच में ऐसी कोई भी बड़ी नृजातीय घटना नई जातियों की उत्पत्ति के बारे में नहीं घटी थी।

 

वर्णसंकर कौन

लेकिन यदि ‘वर्णसंकरता’ के लिहाज से सवर्ण-आर्यों के अस्तित्व की खोजबीन की जाए, तो आर्य ही कहीं अधिक ‘वर्णसंकर’ और ‘अवैध संबंधों’ से उत्पन्न दिखाई देते हैं। क्योंकि सर्वप्रथम तो यही कि आर्य जब भारत आए, तो उनके साथ आर्य-स्त्रियां केवल गिनी-चुनी ही आई थीं, जो हर आर्य-पुरुष के लिए अपर्याप्त थी। इसलिए भारत-भूमि पर कब्जा करने के साथ-साथ वे अपने जातीय अस्तित्व की रक्षा के लिए संतान प्राप्ति हेतु यहां के समाजों से उनकी स्त्रियों को छीनकर, लूटकर उनपर अपना अधिकार करते गए। आगे चलकर उन्हें निर्जीव संपत्ति की तरह उपहारों और दान-दक्षिणा के रूप में भी लेने-देने लगे। भारतीय स्त्रियों की सुसभ्यता, परिष्कृत नागरिक जीवनशैली और सुरुचिपूर्ण तौर-तरीकों ने भी उनको उनकीअसभ्य-कबीलाई आर्य स्त्रियों की तुलना में खूब आकर्षित किया। भगवतशरण उपाध्याय आर्यों के भारत आने के समय (ऋग्वैदिक-काल) से ही इसकी शुरुआत के बारे में लिखते हैं: ”ऋ ग्वैदिक राजाओं और ऋ षियों के अंत:पुर की सीमाएं फैल चलीं। देशीय जातियों की नारियां इनमें भर चलीं। राजा और श्रीमान अपने प्रसाद का प्रदर्शन प्रसादकों को ‘नारियों से भरे रथों’ के दान से करने लगे। इन दलित नारियों की नागरिकता आर्यों की सहचरियों की ग्राम्यता से कहीं अधिक स्तुत्य सिद्ध होतीं, कहीं अधिक आकर्षक, और आर्य प्राय: उनके लावण्य के वशीभूत हो जाते।‘’11 अत: भारत में प्रवेश के साथ ही आर्य संतानें ‘वर्णसंकर’ रूप में पैदा होने लगीं। इसलिए यह अकारण नहीं है कि मनु आदि ने ‘अनुलोम-संबंधों’ को स्वीकृति दी।

दूसरा, आगे चलकर उनकी अनेक विद्रोहिणी-स्त्रियां वंचित-समाजों के पुरुषों से प्रेम करने और यौन-संबंध बनाने के बावजूद उन्हीं सवर्ण-आर्यों के घर-परिवारों में रहती थीं और उनकी संतानें वहीं जन्म लेती थीं। और यदि यह साबित हो जाए कि अपनी वंशवृद्धि के लिए कोई और उपाय न देख आर्यों को उन्हीं संतानों को अपनाना पड़ा होगा, तो इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा। यहां-वहां बिखरे हुए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ महाभारत, रामायण सहित सैकड़ों पौराणिक-कथाएं तो यही कहती हैं। क्योंकि हम इसका उल्लेख नहीं पाते हैं कि बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मण-स्त्रियां और अन्य सवर्ण-स्त्रियां, जिनका प्रेम संबंध वंचित जातियों और आर्येत्तर जातियों से हुआ, अपने-अपने सवर्ण समाज को छोड़कर उन्हीं गरीब वंचित-समाजों में आ गई थीं। यदि ऐसा होता, तो दो घटनाएं घटित होतीं।

पहली बात, कि भारत में हमेशा से बहुत ही कम आबादीवाले आर्यों की स्त्रियां यदि अपने-अपने परिवारों, समाजों को छोड़कर वंचित समाजों के अपने प्रेमियों के साथ रहने लगतीं, तो आर्य पुरुषों के लिए स्त्रियां बचती ही नहीं; तब आर्यों की वंश वृद्धि पूर्णत: ठप्प हो जाती। क्योंकि मनुस्मृतिकार द्वारा उल्लिखित वंचित-पुरुषों से सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार से उत्पन्न किसी भी ‘वर्णसंकर’ जाति की जितनी बड़ी आबादी थी, उसके लिए तो बड़ी संख्या में सवर्ण-स्त्रियों की जरूरत थी। जैसे, मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण स्त्री और शूद्र पुरुष से उत्पन्न ‘चाण्डाल’ जाति के निर्माण के लिए लाखों ब्राह्मण-स्त्रियों का लाखों शूद्र पुरुषों से संबंध जरूरी था; केवल दो-चार ऐसे संबंधों से तो इतनी बड़ी जाति की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

हम विविध कालखंडों में लिखे गए ब्राह्मण-ग्रथों में देख भी सकते हैं कि चांडालों ने सवर्णों की सत्ता को सैकड़ों बार चुनौती दी और इतनी बड़ी चुनौती दो-चार या कुछ सौ लोगों द्वारा तो कत्तई नहीं दी जा सकती। आंबेडकर लिखते हैं, ”चांडालों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि प्रत्येक ब्राह्मण-स्त्री किसी शूद्र की रखैल रही होगी तब भी चांडालों की आबादी इतनी नहीं हो सकती थी, जितनी है।‘’12 ठीक इसी तरह, केवल ब्राह्मण-स्त्रियों के विविध निम्न-जातियों से यौन-संबंधों से उत्पन्न जातियों(चर्मकार, चर्मोपजीवी, वेनुक, रेनुक, तक्षवृत्ति, नापित/नाई, भागलब्ध, रजक/धोबी, लौहकार/लुहार, वर्धकी, श्वपाक आदि) के लिए भी करोड़ों ब्राह्मण-स्त्रियों की जरूरत हुई होगी। 13

यह तो केवल ब्राह्मण-स्त्री के वंचित-जातियों और वर्णसंकर जातियों के साथ यौन-संबंधों से उत्पन्न संतानों के कुछ उदाहरण हैं। इसमें अभी वे उदाहरण शामिल नहीं हैं, जिनमें ब्राह्मण स्त्री के यौन संबंध उससे निम्नवर्णीय क्षत्रियों और वैश्यों के साथ हुए और नई जातियां पैदा हुईं। यदि थोड़ी देर के लिए मनुस्मृति आदिकी बातों पर विश्वास करलिया जाए कि करोड़ों आबादीवाली वंचित-जातियों की उत्पत्ति ब्राह्मण-स्त्री के उनसे निम्न-जातियों के पुरुषों सेसंबंध से ही हुई है, तो यह तो तय है कि ऐसी स्थिति में एक भी ब्राह्मण-स्त्री शायद ही ब्राह्मण-पुरुषों के लिए बची होगी। क्या ब्राह्मण-स्त्रियों की इतनी आबादी थी, कि इतनी सारी वंचित-जातियां वे पैदा कर सकें? और जब इतनी सारी जातियों की उत्पत्ति ब्राह्मण-स्त्री के व्यभिचार से हो रही थी, तो यह निश्चित निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक ब्राह्मण-स्त्री ने अपने समाज को छोड़ा होगा और अन्य जातियों के पुरुषों के साथ चली गई होंगी।

दूसरी बात, तब तो यह भी तय है कि आज यदि ब्राह्मण-जातिअस्तित्व में है, तो निश्चित रूप से उन्होंने निम्नवर्णीय-शूद्रों, अवर्णीय-अन्त्यजों तथा आदिवासियों की स्त्रियों से विवाह करके या बलपूर्वक अपनी वंशावली कायम रखी; क्योंकि क्षत्रिय और वैश्य-वर्णों की स्त्रियां भी, मनुस्मृति एवं अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों के कथनानुसार ब्राह्मण-स्त्रियों की तरह ही अपने से निम्नवर्णीय-पुरुषों से व्यभिचार करते हुए सैकड़ों जातियों का सृजन करने में व्यस्त थीं और उनमें से भी कोई स्त्री शायद ही अपनी जाति की वंशवृद्धि के लिए उपलब्ध रही होगी। और जब क्षत्रिय एवं वैश्य-पुरुषों के लिए ही उनकी स्त्रियां उपलब्ध नहीं थीं, तो ब्राह्मणों के लिए कहां से उपलब्ध होतीं? तब तो ब्राह्मणों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए वंचित-जातियों की स्त्रियों को ही अपने घरों में जगह देनी पड़ी होगी! अन्य सवर्ण-जातियों की स्थितिभी यही रही होगी।

तब मनुस्मृति के ही अनुसार ‘मिश्रित-रक्त’ किसका साबित हुआ? ‘वर्णसंकर’ कौन हुआ? ऐसे में उनकी ‘रक्त-शुद्धता’ और ‘नस्लीय-शुद्धता’ का जातीय-अहंकार किस हद तक खोखला साबित होता है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है।

यहां एक और प्रश्न, क्या ब्राह्मण-पुरुषों को उनसे नाराज आक्रोशित विद्रोही-मूल निवासी वंचित जातियों ने अपनी बेटियां सहज ही दी होंगी? या उन्होंने जबरन उनसे लड़कियां छीनीं, उठाई अथवा चुराई होंगी? और यदि उन्होंने ऐसे ही कार्य करके अपनी जातिका अस्तित्व मिटने से बचाया है, तब तो यह भी तय है कि ऐसे रिश्ते कम-से-कम स्वस्थ तो कत्तई नहीं कहे जा सकते, उन्हें केवल बलात्कार और व्यभिचार ही माना जा सकता है, उसके अलावा और कुछ नहीं। आखिर मनु ने विवाह के आठ प्रकारों में उनको भी ऐसे ही तो नहीं रखा है, जिनमें लड़कियां उनके परिवारों से छीनकर, लूटकर, चुराकर, खरीदकर प्राप्त की जाती हैं? तब यह कैसे मान लिया जाए कि वर्तमान ब्राह्मण-जाति ‘अवैध-संबंधों’ एवं ‘बलात्कार से उत्पन्न’ नहीं है? यही बातें क्षत्रियों और वैश्योंकेअस्तित्व पर भी लागू होती हैं। तब क्या सवर्ण-आर्यों के माथे पर लगे इस कलंक को छिपाने के लिए भी उन्होंने मूलनिवासियों एवं आर्येत्तरों के अस्तित्व के बारे में ऐसी बातें अपने धर्मग्रन्थों में कहीं?

यदि सवर्ण-स्त्रियों ने इतने बड़े पैमाने पर ‘व्यभिचार’ किया, जिसके बारे में मनुस्मृति और अन्य ग्रंथ बता रहे हैं; तो यह भी समझना होगा कि उनके साथ ऐसा क्या हुआ या हो रहा था कि आर्यों के आने के बाद से लेकर भक्तिकाल के ठीक पहले तक (लगभग 1500 ई.पू. से 13वीं-14वीं सदी तक) के लगभग तीन हजार सालों तक, इतनी बड़ी संख्या में वे बार-बार विद्रोह करती रहीं और उन्होंने ब्राह्मणों के धर्मदंड, राजाओं के राजदंड, ईश्वर के भय, स्वर्ग-नरक की फिक्र, सामाजिक-अपमान तक के डर को अपने-अपने दिलों से निकाल बाहर फेंका और अपने-अपने घर-परिवारों को छोड़कर विद्रोह के लिए निकल पड़ीं और कई बार अतिरेकवादी रास्ता भी अपनाया? आखिर ‘पतिव्रता’ सवर्ण-स्त्रियों ने ऐसा क्यों किया होगा? वे साधनहीन निम्नवर्णीय शूद्र-पुरुषों एवं ‘मनुष्य’ श्रेणी से बाहर रखे गए दीनहीन दलित अन्त्यज और वनवासी-आदिवासी-पुरुषों की ओर ही क्यों आकृष्ट हुईं, उनके संपर्क में आईं, उनसे प्रेम किया, यौन-संबंध भी बनाए? इन साधनहीन निम्न-समाजों में ऐसा क्या खास था, जो साधन-संपन्न सवर्ण-समाज में नहीं था? यहां यह समझना जरूरी है कि उन सवर्ण-स्त्रियों ने यदि बहुत बड़ी संख्या में न भी सही, केवल थोड़ा-बहुत भी, उपरोक्त कदम उठाए, तो किस कारण, कि ब्राह्मणों के पसीने छूट गए और मनु जैसे उनके ग्रंथकारों द्वारा उन्हें रोकने के लिए पुरुषों को आदेश दिया गया कि परिवार में पिता, भाई, पति और पुत्र परिजन-स्त्रियों पर कठोर नियंत्रण और निगरानी रखें? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि वंचित-समाजोंने उन विद्रोहिणी-स्त्रियों का साथ क्यों दिया?

 

  1. आत्म-सम्मान की हत्या

हम देख चुके हैं कि सवर्ण-स्त्रियां भी मूलत: उन्हीं वंचित-समाजों का हिस्सा थीं, जिनको आर्यों ने अपनी वंश-वृद्धि के लिए शुरुआत में ही वंचितों से छीन लिया; लेकिन बाद में वंचितों को विवश किया कि वे अपनी कन्याएं स्वयं ही उन्हें दें—”सत्तर सैकड़ा जनता को अपनी सुंदर लड़कियों को वैध या अवैध रूप से रनिवास में भेजने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था। कितनी ही जगह तो नव-विवाहिता की प्रथम रात भी सामंत के लिए रिजर्व थी, चाहे वह हाथ से छूकर ही छुट्टी दे दे। उस वक्त साधारण जनता के आत्म-सम्मान की बात करना भी फिजूल है।‘’ 14 उसके बाद उन स्त्रियों के साथ आर्यों ने जो दुव्र्यवहार किया, क्या उन्होंने स्त्रियों और उनके मूल-समाजों को विद्रोही नहीं बनाया होगा? क्या उन्होंने ब्राह्मणों का प्रतिरोध करने हेतु कोई तरकीब नहीं सोची होगी?

आर्यों के भारत पर कब्जे से लेकर मनुस्मृति- कार तक और उससे आगे भी, स्त्रियों को जितनी तरह की बेडिय़ों में बांधा गया, उनमें सर्वाधिक कष्टदायक थे—उनके अस्तित्व पर परिवार के पुरुष-मात्र का कठोर नियंत्रण, बहुविवाह, पुरुष-व्यभिचार, स्त्रियों की हैसियत ‘यौन-दासीÓ और’गृह-दासीÓ तक सिमटना, वेश्यावृत्ति और देवदासी-प्रथा, सती-प्रथा आदि।

  1. स्त्री-पुरुषों के लिए अलग-अलग यौन-प्रतिमान

आर्य अपनी स्त्रियों के यौन-जीवन सहित जीवन के एक-एक क्षण पर कठोर नियंत्रण रखते थे, जबकि स्वयं उन्मुक्त भोग-विलास में आकंठ डूबे रहते थे। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं: ”विश्वामित्र-वशिष्ठ-भारद्वाज के समय में भी ब्राह्मणों का जीवन भोग शून्य नहीं था, फिर हमारे इस काल (छठी-सातवीं से ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में बौद्ध-सिद्धों का काल) के बारे में क्या पूछना?’’15 इसके लिए उन्होंने व्यवस्थाएं भी एक से बढ़कर एक बनाई थीं, ‘लेकिन ब्राह्मणों की एक और भी व्यवस्था थी—स्त्री-रत्नं दुष्कुलादपि, इसलिए श्रोत्रिय ब्राह्मण भी शूद्रा सुंदरी से पार्शव (शूद्रा स्त्री में ब्राह्मण का पुत्र)संतान पैदा करने का पूरा अधिकार रखता था।‘’16 तात्पर्य कि ब्राह्मण को किसी भी कन्या लेने का पूरा हक था।

दूसरी तरफ आर्यों की विवाहिताओं(जो दरअसल वंचित-समाजों की बेटियां थीं) की अपने पतियों को लगातार दर्जनों से लेकर सैकड़ों स्त्रियों से वैध-अवैध तरीके से भोग-विलास करते देखकर मानसिक-दशा क्या रही होगी? क्या उनका स्वाभिमान आहत नहीं हुआ होगा?—”ऊंची जाति के पुरुषों की आक्रामक कामुकता को उनकी जातियों ने बूढ़े पुरुषों और विधुरों के विवाह की छूट के माध्यम से औचित्य प्रदान कर रखा है। इसके साथ ही, जमींदार या भू-स्वामी ने कितनी रखैलें रख रखी हैं उससे उसके ऊंचे कद का निर्धारण होता है। ऊंची जाति के पुरुषों की अतिशय कामुकता की तुष्टि शूद्र और अछूत स्त्रियों के साथ संबंध के माध्यम से होती है। इसे अनुचित नहीं माना जाता, वहीं जातियों के परिवारों के सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी उनकी स्त्रियों पर होती है, कारण यहां सम्मान का सीधा संबंध उनकी यौनता से है। वे यौनता के कायदों का कठोर पालन कर अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह करती हैं।‘’17

बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि सवर्ण-पुरुषों की अनियंत्रित कामुकता ने ‘वेश्यावृत्ति’ और ‘देवदासी’ प्रथा का विस्तार किया, जिन्होंने घरों में विवाहिताओं के और बाहर ‘वेश्या’ और ‘देवदासी’ बनाई जा रही स्त्रियों के आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाई। दोहरे लाभ के लिए ”वेश्यावृत्ति को राजा पालते थे। उन्हें आर्थिक लाभ होता था।‘’18 जिसमें से मोटी-मोटी दान-दक्षिणा ब्राह्मणों और मंदिरों-मठों के पुजारियों को देकर उन्हें खुश रखकर अपने पक्ष में रखते थे। इससे भी वीभत्स रूप ‘देवदासी-प्रथा’ का था, भारतीय समाज में जिसकी मौजूदगी और सवर्ण-समाज द्वारा स्वीकृत होने के विषय में भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं—”…बाबुल(बेबीलोन) के मंदिरों का उस बाबुली सभ्यता पर इस मात्रा में आतंक था कि वहां नारी, व्यभिचार से परे कोई वस्तु नहीं समझी जाती थी। प्रत्येक नारी प्रथमत: देवता की भोग्या थी—जड़ देवता के स्वयं अशक्त होने के कारण अपना वह कार्यांश चेतन देवता अर्थात् अपने पुजारी को सौंपती थी ! इस प्रकार का आचरण भारत के इतिहास में भी अनजाना नहीं हैं।‘’ 19

आगे चलकर इस प्रथा ने बेहद वीभत्स रूप लिया, जिसके गढ़ बने मंदिर, ”मंदिर सामूहिक व्यभिचार एवं आमोद-प्रमोद के स्थल थे।…यही कारण है कि मंदिरों का निर्माण सुनसान जगहों में किया गया।…बहुत से मंदिर सुनसान जगहों में हैं, जहां मंदिर के पुजारियों की घृणित काम-लिप्सा की तृप्ति हेतु (देवदासियों द्वारा) सेवा स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।‘’20 वत्र्तमान में जितने भी मंदिर अति-कठिन स्थानों पर स्थित हैं, जैसे दुर्गम पहाड़ की चोटी पर, निर्जन वन्य-स्थलों या जंगलों के बीच में, जहां आसानी से जनसाधारण तो क्या साधन-संपन्न व्यक्ति भी नहीं पहुंच पाता है; वे इस मामले में संदेह पैदा करते हैं। क्या सचमुच ही ऐसे मंदिरों का संबंध अतीत में किसी-न-किसी रूप में देवदासी-व्यवस्था से रहा होगा?

 

  1. स्त्रियों के जीवित रहने पर नियंत्रण

सवर्ण-अवर्ण स्त्रियों के अस्तित्व को अपमानजनक बनाने के साथ-साथ उनकेजीवन को पुरुष-इच्छा, उनमें भी ब्राह्मण-इच्छा, के अधीन रखा गया। कोई स्त्री कब तक जिंदा रहेगी, यह पुरुष तय करने लगे। आगे चलकर इसके लिए ‘सतीप्रथा’ जैसी परंपराएं भी बनाई गईं, जिनका एक प्रमाण मनु से पहले रचित महाभारत(लगभग 400 ई.पू.) में (पांडु की दूसरी पत्नी माद्री का पांडु के साथ सती होना) मिलता है, जिसका आगे चलकरतेजीसे विकास हुआ—”अंगिरा, हारीत आदि पूर्वमध्यकालीन स्मृतियों तथा अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की।‘’ 21 शायद मनु काल में इसकी मौजूदगी के बारे में ब्राह्मण ग्रंथ जानबूझ कर नहीं बताते और बाद के समय में भी केवल जिक्र-भर ही मिलता है। इसीलिए इसकी असली वीभत्सता, भयावहता, स्त्रियों में इसके प्रति भय और आतंक की जानकारी विदेशियों (जैसे बर्नियर, अंग्रेज-अधिकारी आदि) से मिलती है; जिन्होंनेबहुत बाद में आंखों देखा हाल लिखा: ”मैंने बहुत सारी ऐसी विधवाओं को देखा जो श्मशान घाट में उपस्थित डोम लोगों का आश्रय लेती हैं…ऐसी विधवाएं जो मृत्यु से डरती हैं, चिता में जलकर मरना होगा सोचकर आतंकित हो उठती हैं, ऐसी ही औरतें डोम की शरण में जाकर जीवन-रक्षा करती हैं। वे जानती हैं कि डोमों के घर आश्रय लेकर बाकी जीवन सुखमय नहीं होगा। कोई उन्हें श्रद्धा या अच्छी नजर से नहीं देखेगा। जो औरत चिता में जलकर मरने की अपेक्षा डोमों के घर रहकर जिंदा रहना पसंद करती हैं, इस देश के लोगों ने इसे घोर अधर्म माना है। ऐसी औरतों को महापापिष्ठा के रूप में घोषित किया जाता है।‘’22 लेकिन ‘सती-प्रथा’ को महिमा मंडित करके प्रस्तुत करनेवाले आधुनिक-साहित्यकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया; इतिहासकारों ने भी केवल सूचना-भर देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली।

लेकिन कुछ बुद्धिजीवी जरूर इसको कठघरे में खड़ा करते हैं: ”…भारत में हजारों-लाखों औरतों को पति की मृत्यु के बाद जिंदा जला दिया गया। यह एक ऐसी भयंकर परंपरा थी, जिसके लिए किसी के मन में नारी-हत्या का पश्चाताप नहीं हुआ और न ही इतिहास में ऐसे लोगों को हत्यारे की संज्ञा दी गई।‘’23

इसलिए यह प्रश्न जरूर उठना चाहिए कि जब साहित्यकार और इतिहासकार यह दावा करते हैं कि वे सत्ताधारकों की प्रशस्तियां नहीं लिखते, बल्कि मानवतावाद और मानववाद की भावना से ओतप्रोत होकर लिखते हैं, तब उन्होंने अतीत के उपरोक्तपक्षों पर क्यों चुप्पी साध ली? इसे समझना होगा।

यदि वे स्त्रियों पर तमाम अत्याचारों को उनकी पूरी नग्नता के साथ उकेरते, तो समाज के पुरुषों को ही नहीं स्त्रियों को भी यह पता चल जाता कि ऋग्वैदिक युग से मनु और उसके बाद तक उनकी जिन पूर्वजा-स्त्रियों को प्रताडऩाओं से डरा-धमकाकर, ‘धर्म’ और ‘ईश्वर’ का डर दिखाकर, ‘सतीलोक’ और ‘गऊ-लोकÓ की रानी बनाने का सपना दिखाकर घरों की चारदीवारी में कैद रखा गया था, उन्होंने उसी कैद को तोडऩे की सैकड़ों सफल-असफल कोशिशें कीं; उनको जिस ‘पातिव्रत्य’ और ‘पति-भक्ति’ की बेडिय़ों से कसकर जकड़ा गया था और जिन्हें तोडऩे की उन्हें सख्त मनाही थी, उन्हीं बेडिय़ों को उन्होंने सैकड़ों बार तोड़ा और ‘पतिव्रता’ और ‘पति-भक्त’ के रूप में गुलाम बननेसे इंकार किया।

यदि लेखक सत्य बता देते, तो यह सवाल उठता कि सवर्ण-स्त्रियों के विद्रोह स्वरूप वंचित-वर्गीय पुरुषों के साथ जिस व्यभिचार की बातें कही जाती हैं, क्या उन ‘व्यभिचारपूर्ण’ प्रेम-संबंधों की पहल स्वयं उन स्त्रियों ने ही की थी? यदि हां, तो क्यों? और जब इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिशें होतीं, तो उस मोटे पर्दे में आग लग जाती, जिसके पीछे कई सत्यों को ढंक रखा गया था। पता चला जाता कि वंचित-समाज तो सवर्ण-स्त्रियों तक पहुंच ही नहीं सकता, इसलिए सवर्ण-स्त्रियां ही विद्रोही बनकर उन तक आई थीं। आधुनिक-विद्वान् जानते थे कि यदि यह सत्य उभरकर सामने आ जाता, तो क्या हो सकता था?

इसके बाद समस्त तानों बानों के तार एक-एक करके उधडऩे लगते—’वर्णसंकरता’ से वंचित-जातियों का ही नहीं ब्राह्मणों औरअन्य सवर्णों के सत्य से ब्राह्मणों की जातीय-पवित्रता, रक्त-शुद्धता, नस्लीय-श्रेष्ठता का अहंकार तक। इसलिए खामोशी मेंही भलाई थी।वैसे भी अधिकांश इतिहासकारों और साहित्यकारों का संबंध आखिरकार उसी सवर्ण-समाज से है। इसलिए भला वे ऐसा कुछ भी क्यों लिखते, जिससे उनकी ही जाति पर ‘वर्णसंकरता’ और ‘अवैध-संतति’ होने का ठप्पा लगे?

इस मंथन से कई बातें स्पष्ट होती हैं। एक, सवर्ण-स्त्रियों ने ब्राह्मणीय-व्यवस्थाओं से आजिज आकर विद्रोह किया, निम्नवर्णीय-पुरुषों से प्रेम भी किया, यौन-संबंध भी बनाए और संतानें भी उत्पन्न कीं; लेकिन यह सब इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ कि उनके तथाकथित व्यभिचार से सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा हो जाएं। दूसरा, सवर्ण-स्त्रियों की जनसंख्या भी इतनी बड़ी नहीं थी कि अपनी पूरी स्त्री-आबादी का प्रयोग करके वे व्यभिचार द्वारा सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा कर दें। तीसरा, यदि मनुस्मृति पर विश्वास करके यह मान लिया जाए, कि समस्त सवर्ण-स्त्रियां व्यभिचार में लिप्त हुईं और सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा कीं, तो निश्चित है कि सवर्ण-पुरुषों के लिए एक भी सवर्ण-स्त्री नहीं बची होगी। तब सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों, ने अपनी वंशवृद्धि के लिए जरूर कमजोर वंचित-वर्गों की स्त्रियां छीनीं, लूटी, उठाई, चुराई होंगी। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सवर्ण पुरुष-रक्त में वंचित स्त्री-रक्त का मिश्रण हुआ और सवर्णों की जातियां आरंभ से ही ‘वर्णसंकर’ होती गईं। चौथे, लूटी, छीनी, उठाई, चुराई गई स्त्रियों से सवर्ण-पुरुषों का प्रेम नहीं हो सकता, उनसे तो जबरन संबंध बनाए गए होंगे, जिन्हें ‘बलात्कार’ कहा जाता है; अत: सवर्ण समाज ‘बलात्कार की पैदाइश’ साबित हुआ; यदि मनुस्मृति पर विश्वास किया जाए तो।

पांचवे, मनुस्मृति में शामिल अधिकांश ‘वर्णसंकर’ वंचित-जातियां यहां की मूल-निवासी और आर्येत्तर-जातियां हैं; जिनका अस्तित्व आर्यों के भारत आने से पहले से है। इसलिए उनको ‘वर्णसंकर’ कहना मनु और अन्य ब्राह्मणों की विद्वेषपूर्ण जातीय-मानसिकता का परिचायक है। छठे, अंतत: इससे यही साबित होता है कि मनु जैसे ब्राह्मणों ने स्त्रियों और वंचित-जातियों में अपनी जातीय-पहचान के प्रति हीनता बोध की भावना भरने के लिए स्त्रियों को ‘व्यभिचारिणी’ और वंचितों को ‘सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार का परिणामÓ कहा; ताकि ये दोनों अपने होने पर हमेशा घृणाभाव और अपराधबोध से भरे रहें और कभी भी विद्रोह न करें। मनु इसमें बेहद सफल भी हुए।

लेकिन इस समय जब सवर्ण-समाज में उसी मनुस्मृति और उसके युग की पुनर्वापसी की जबर्दस्त इच्छा और तैयारी दिखाई दे रही है, तो उसे ऊपर उल्लिखित तमाम पक्षों पर भी ठीक से गौर कर लेना चाहिए। क्योंकि यह भी हो सकता है कि उसका दांव उल्टा पड़ जाए ! द्द

संदर्भ सूची

 

1.पृष्ठ-153-157, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां, फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, जनवरी 2023

  1. पृष्ठ-153-157, वही
  2. पृष्ठ-7, रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती, इलाहाबाद, 2004

4.पृष्ठ-154-157, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां

  1. पृष्ठ-158, वही
  2. पृष्ठ-161, वही
  3. पृष्ठ-152, वही
  4. पृष्ठ-163, वही
  5. पृष्ठ-163, वही
  6. पृष्ठ-163-165, वही
  7. पृष्ठ-69, भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1978
  8. पृष्ठ-165, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां
  9. पृष्ठ-154-157, वही
  10. पृष्ठ-18-19, राहुल, हिंदी काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, 1945
  11. पृष्ठ-39, वही
  12. पृष्ठ- 40, वही
  13. पृष्ठ-15, प्रियदर्शिनी विजयश्री (हिंदी अनुवाद विजय कुमार झा), देवदासी या धार्मिक वेश्या? :एक पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (2010)
  14. पृष्ठ-476, रांगेय राघव, प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण
  15. पृष्ठ-109, भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण
  16. पृष्ठ-76-77, अतुल कृष्णविश्वास, देवदासी, सती-प्रथा और कन्या-हत्या , दिल्ली, 2008
  17. पृष्ठ-382, हरिशंकर कोटियाल, प्राचीन भारत का इतिहास, डी.एन. झा व कृष्ण मोहन श्रीमाली (संपा.), हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1998
  18. पृष्ठ-63, अतुल कृष्णविश्वास, देवदासी, सती-प्रथा और कन्या हत्या
  19. पृष्ठ-36, वही

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