इतिहास का सांप्रदायीकीरण और पाठ्यक्रमों में बदलाव

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– जवरीमल्ल पारख

एनसीइआरटी और स्कूल की पुस्तकों में बदलाव पहली बार नहीं किया गया है। जबजब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है, चाहे राज्यों में या केंद्र में, उसने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश की है। इन कोशिशों के पीछे जो भी कारण वे बताते रहे हों, लेकिन उनका मकसद हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रमों में फेरबदल करना होता है, चाहे उसके लिए तथ्यों को छुपाना या उनको बदलना ही क्यों पड़े। 

पांच अप्रैल 2023 के दिन अंग्रेजी समाचारपत्र इंडियन एक्सप्रेस ने अपने मुखपृष्ठ पर पहली खबर राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसंधान परिषद (एनसीइआरटी) के पाठ्यक्रमों में किए जाने वाले बदलावों को बनाया था। रितिका चोपड़ा की इस विस्तृत रिपोर्ट में इतिहास, राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान की किताबों में किए गए फेरबदल को उदाहरण के साथ प्रस्तुत किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा 12वीं की राजनीति विज्ञान की पुस्तक में महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित विवरण में से कुछ अंशों को हटा दिया गया है। गांधी की हत्या से संबंधित अध्याय में लिखा गया था कि ‘गांधीजी के कार्यों को सभी लोग पसंद नहीं करते थे। दोनों समुदायों के चरमपंथी अपनी दशा के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते थेÓ। लेकिन इसके बाद जो लिखा गया उसे अब हटा दिया गया है। जो अंश हटाया गया उसमें लिखा था, ‘वे खासतौर पर उन लोगों द्वारा नापसंद किए जाते थे जो यह चाहते थे कि हिंदू भी बदला ले या भारत भी हिंदुओं का राष्ट्र बने, बिल्कुल वैसे ही जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का देश बना है। वे गांधीजी पर आरोप लगाते थे कि वे मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम करते हैं। गांधीजी का मानना था कि ये भटके हुए लोग हैं। वे इस बात में यकीन करते थे कि यदि भारत को केवल हिंदुओं का देश बना दिया जाता है तो भारत नष्ट हो जाएगा। हिंदू-मुस्लिम एकता पर उनके अटल विश्वास ने हिंदू चरमपंथियों को इस हद तक भड़का दिया था कि उन्होंने गांधीजी की हत्या करने की कई कोशिशें कीं। इन कोशिशों के बावजूद गांधीजी ने हथियारबंद सुरक्षा मुहैया कराने को अस्वीकार कर दिया’।

इसी तरह इसी पाठ में निम्नलिखित अंश भी हटा दिया गया है, ‘गांधीजी की मृत्यु ने देश के सांप्रदायिक माहौल पर जादुई असर डाला। विभाजन से संबंधित क्रोध और हिंसा अचानक शांत हो गई। सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाले संगठनों के विरुद्ध सरकार ने कार्रवाई की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगा दी गई। सांप्रदायिक राजनीति का असर कम होने लगा थाÓ। ये जो अंश हटाये गए थे, वे पिछले पंद्रह सालों से एनसीइआरटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा थे। इसी तरह 12वीं कक्षा के इतिहास की पुस्तक में गांधीजी के हत्यारे नाथुराम गोडसे का परिचय देते हुए लिखा गया था कि वह ‘पुणे का एक ब्राह्मण’ था और ‘एक चरमपंथी हिंदू समाचारपत्र का संपादक था जो गांधीजी को मुसलमानों का तुष्टिकर्ता कहकर निंदा करता था’।

यह तो महत्वपूर्ण है ही कि क्या-क्या हटाया गया, लेकिन यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि तथ्यों को संशोधित पाठों में किस तरह रखा गया है। गांधीजी की हत्या के प्रसंग से संबंधित संशोधित पैरा में कहा गया है, ’30 जनवरी की शाम को उनकी दैनिक प्रार्थना सभा में गांधीजी को एक युवक ने गोली मार दी थी। जिसने बाद में आत्मसमर्पण कर दिया। आत्मसमर्पण करने वाला हत्यारा नाथुराम गोडसे था’ (इंडियन एक्सप्रेस, 5 अप्रैल, 2023 से उद्धृत)। गांधीजी की हत्या से संबंधित जो अंश हटाये गए उनको जब इन दो पंक्तियों के साथ मिलाकर देखें तो समझ सकते हैं कि गांधीजी की हत्या के पीछे जो सांप्रदायिक ताकतें सक्रिय थीं और जिनसे नाथुराम गोडसे का संबंध था, उन सब बातों को हटाना एक तरह से उस इतिहास को मिटा देना है जिसके परिप्रेक्ष्य में ही गांधी की हत्या को समझा जा सकता है। उपर्युक्त पंक्तियों से यह बिल्कुल पता नहीं चलता है कि नाथुराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या क्यों की। लेकिन यह लिखकर कि हत्या के बाद गोडसे ने आत्मसमर्पण कर दिया, उसके हत्यारे चरित्र को हल्का करने की कोशिश है। यह वर्तमान के संदर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जो ताकतें उस समय भारत को हिंदुओं का देश बनाना चाहती थीं, उसी तरह जैसे पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र बना, वे ताकतें आज भारत पर राज कर रही हैं और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का उनका एजेंडा न केवल अब भी कायम है बल्कि वे इस दिशा में काम भी कर रहे हैं। स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव इसी एजेंडे के लिए उठाया गया कदम है। इस संदर्भ में गांधीजी का यह कहना कि ”यदि भारत को केवल हिंदुओं का देश बना दिया जाता है तो भारत नष्ट हो जाएगाÓÓ आज भी उतना ही सही कथन है। लेकिन आरएसएस-भाजपा गांधी के ऐसे किसी विचार को, जो उनके राजनीतिक एजेंडे के विरोध में जाता हो, कैसे बर्दाश्त करते और इसी का नतीजा है गांधी की हत्या से जुड़े सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को पाठ्यक्रम से हटाया गया है।

महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी सही कहते हैं कि ”संघ परिवार द्वारा ऐसा किया जाना कोई अनपेक्षित बात नहीं है।—वे इतिहास का लेखन अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। यह त्रासद है और हम सबके लिए चिंता का विषय भी है। वे पूरी दुनिया में भारत की छवि को मलिन कर रहे हैं और विश्व के सामने भारत को हंसी का विषय बना रहे हैं’’। तुषार गांधी यह भी कहते हैं कि ”उन्होंने इतिहास को फिर से लिखने और स्थापित इतिहास को बदनाम करने की अपनी इच्छा के बारे में हमेशा कोई रहस्य नहीं बनाया है। यह दो उद्देश्यों की पूर्ति करता है – वे इतिहास का एक सुविधाजनक संस्करण लिखने में सक्षम हैं जो उनके अनुकूल है और वहे गांधी को उस रंग में रंग सकते हैं, जिसमें वे उन्हें देखना चाहते हैं। मोहनदास करमचंद गांधी की वास्तविक पहचान और विरासत ने उन्हें हमेशा परेशान किया है’’( जनचौक, 6 अप्रैल 2023 से उद्धृत)। बात वही है जो गांधी ने कही थी कि यह देश केवल हिंदुओं का नहीं है, हिंदुओं, मुसलमानों सबका है और संघ परिवार उनके इसी विचार से डरते हैं क्योंकि यह विचार उनके हिंदू राष्ट्र की संकल्पना के बीच अब भी दीवार बनकर खड़ा है। प्रो. इरफान हबीब का यह भी कहना है कि ”महात्मा गांधी से संबंधित अंशों को हटाने का असर पूरे विश्व पर दिखाई देगा’’।

 

बदलाव पहली बार नहीं

एनसीइआरटी और स्कूल की पुस्तकों में बदलाव पहली बार नहीं किया गया है। जब-जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है, चाहे राज्यों में या केंद्र में, उसने पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश की है। इन कोशिशों के पीछे जो भी कारण वे बताते रहे हों, लेकिन उनका मकसद हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रमों में फेरबदल करना होता है, चाहे उसके लिए तथ्यों को छुपाना या उनको बदलना ही क्यों न पड़े।

सन 2014 में सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव की तीन कोशिशें की। पहली कोशिश 2017 में की गई जब 182 पाठ्यपुस्तकों में 1,334 परिवर्तन किए गए। दूसरी कोशिश तत्कालीन शिक्षामंत्री प्रकाश जावडेकर की देखरेख में 2019 में की गई और तीसरी कोशिश पिछले साल 2022 में हुई। कोरोना महामारी का बहाना लेकर मोदी सरकार ने यह फैसला किया कि स्कूली पाठ्यक्रमों का बोझ विद्यार्थियों पर कम किया जाए और इसके लिए पिछले साल कथित रूप से ‘पाठ्यक्रम विवेकीकरणÓ का कार्य संपन्न किया गया और इसी के तहत उन अंशों को हटाने का प्रस्ताव किया गया जिनमें उनके अनुसार या तो कई बार दोहराया गया था या जो अब अप्रासंगिक हो गए हैं। 2023-24 सत्र के लिए पाठ्यचर्याओं में संशोधनों को प्रस्तावित किया गया। ये संशोधन इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं नागरिक शास्त्र (राजनीति विज्ञान और समाजविज्ञान सहित)विज्ञान और हिंदी के पाठ्यक्रमों में भी किए गए। लेकिन 2022 में जो संशोधन प्रस्तावित किए गए थे, उनके अलावा भी कुछ संशोधन बिना पूर्व घोषणा के किए गए हैं। ये सभी तरह के संशोधन 2023-24 सत्र की पाठ्यक्रम में लागू कर दिये जाएंगे। हटाये गए पाठों में मुख्य रूप से गुजरात दंगे, मुगल दरबार, आपातकाल, शीतयुद्ध, नक्सलबाड़ी आंदोलन, कृषि और पर्यावरण संबंधी अध्याय, डार्विन का विकासवाद, वर्ण और जाति संघर्ष, दलित लेखकों का उल्लेख आदि शामिल हैं। महात्मा गांधी की हत्या संबंधी पाठों में किए गए संशोधन पिछले साल घोषित संशोधनों की सूची में शामिल नहीं हैं। उन्हें बिना पूर्व सूचना के हटाया गया है।

एनसीइआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव के मौजूदा अभियान में सर्वाधिक फेरबदल इतिहास की पुस्तकों में किया गया है। इतिहास संघ परिवार के निशाने पर सदैव से रहा है। वे चाहते हैं कि भारत के इतिहास को इस तरह पेश किया जाए जिससे उनके राजनीतिक मकसद को पूरा करने में मदद मिले। वे औपनिवेशिक शासकों की तरह भारतीय इतिहास को भी हिंदू और मुसलमान में विभाजित कर देखते हैं। उनकी नजर में यह देश केवल हिंदुओं का है और मुसलमान आक्रांता हैं। अपनी इस सांप्रदायिक दृष्टि के अनुसार वे इतिहास की पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में मुस्लिम शासकों का उल्लेख आक्रांता और आततायी के रूप में ही देखना चाहते हैं जिन्होंने हिंदू जनता का उत्पीडऩ किया था, उनके पूजा स्थलों को तोड़ा था और उनकी स्त्रियों को बेइज्जत किया था। स्वाभाविक है कि ऐसे इतिहास को पढऩे से हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत पैदा होगी और इस नफरत का लाभ उठाकर वे हिंदू राष्ट्र के प्रति अपने जनसमर्थन का विस्तार कर सकेंगे। कक्षा 12 के इतिहास विषयक पाठ्यक्रम से जो कई अध्याय हटाये गए हैं उनमें मुख्य रूप से मुगल साम्राज्य संबंधी अध्याय हैं। संशोधित पाठ्यक्रम के अनुसार ‘किंग्स एंड क्रॉनिकल्स: मुगल दरबारÓ (16वीं और 17वीं सदी) नामक अध्याय अब विद्यार्थी नहीं पढ़ पायेंगे जो इतिहास की किताब ‘थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री- भाग-दो, से हटा दिया गया है। भाजपा सरकार का मानना है कि मुगल आक्रमणकारी थे, इसलिए इनके इतिहास को क्यों पढ़ाया जाना चाहिए। इतिहास की पुस्तकों में से मुगलों का उल्लेख हटाने के पीछे मुख्य मकसद जैसाकि कुछ विद्वानों का मत है, पाठ्यक्र मों से संबंधित सारी बहस को इतिहास पर केंद्रित किया जाए और इस तरह वे अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे का प्रचार कर सकें जिसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलता है। एनसीइआरटी की 10वीं और 11वीं की पाठ्य पुस्तक थीम्स इन वल्र्ड हिस्ट्री से ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड्स’, ‘संस्कृतियों का टकराव’ और ‘औद्योगिक क्रांतिÓ अध्याय भी हटा दिये गए हैं।

 

 

 

मुगल और भारतीय इतिहास

इतिहास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे मनमाने ढंग से काटा-छांटा जा सके। तीन सौ साल से अधिक समय तक मुगलों का शासन रहा है और भारतीय इतिहास में यह काल बहुत महत्त्वपूर्ण भी रहा है। इस काल को पाठ्यपुस्तकों से तो हटाया जा सकता है, लेकिन इन तीन सौ सालों को हटाकर भारत का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। इन तीन सौ सालों का महत्व अलग-अलग शासकों के आपसी संघर्षों और युद्धों तक ही सीमित नहीं है और इन युद्धों की सच्चाई यह भी है कि अकबर का सेनापति एक राजपूत राजा था, तो महाराणा प्रताप का सेनापति एक पठान था जो उनकी तरफ से लड़ते हुए शहीद हुआ था। शिवाजी के तोपची मुसलमान थे। उस समय के शासक हिंदू हों या मुसलमान, उनकी सेना में हिंदू और मुसलमान दोनों होते थे। मुगल काल को युद्धों के लिए ही नहीं नयी शुरुआतों के लिए भी जाना जाता है। प्रशासनिक क्षेत्र का एक बेहतर ढांचा उन्होंने विकसित किया। मनसबदारी प्रथा, भूमि बंदोबस्ती, डाक व्यवस्था भी इसी काल की देन है। यही वह काल भी है जब एक शक्तिशाली भक्ति आंदोलन उदित और विकसित हुआ था और जिस दौर में नानक, कबीर, रैदास, मलिक मोहम्मद जायसी, मीरा, सूरदास और तुलसीदास जैसे महान संत और कवि पैदा हुए थे। विडंबना यह भी है कि एनसीइआरटी की हिंदी की पाठ्य पुस्तक से कबीर और मीरा के काव्य को भी हटा दिया गया है। इसी तीन सौ साल में उस साझा संस्कृति का विकास हुआ है जिसका गहरा असर आज भी देखा जा सकता है। भाषा, खान-पान, वेशभूषा, स्थापत्य, साहित्य, संगीत, नृत्य, चित्रकला यानी संस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिनकी परंपराओं का निर्माण इसी बहुस्तरीय साझेपन से हुआ है। यहां तक कि धर्म भी इस मेलजोल से अछूता नहीं रहा है। इस दौर में जो नए संप्रदाय, नए पंथ अस्तित्व में आये वे इसी मेलजोल और साझेपन के परिणाम रहे हैं। इन तीन सौ सालों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने का मतलब है हमारे वर्तमान की उस बुनियाद को खोखला करना जिसके बिना ना हमारा वजूद संभव है और न हमारी पहचान।

इतिहासकार प्रो. मृदुला मुखर्जी का मानना है कि इतिहास में फेरबदल की यह मुहिम यहीं रुकने वाली नहीं है। यह आगे भी जारी रहेगी। इरफान हबीब का स्पष्ट मत है कि ”इतिहास में किए जा रहे बदलावों के पीछे किसी तरह की बौद्धिक समझदारी काम नहीं कर रही है, बल्कि राजनीति है। इसका संबंध इतिहास से नहीं बल्कि मौजूदा राजनीति से ज्यादा है। आप मौजूदा पीढ़ी को असंबद्ध अतीत पढ़ाने जा रहे हैं। वे इतिहास को हिंदू और मुसलमानों में विभाजित कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि इतिहास को इस तरह से विभाजित नहीं किया जा सकता’’।

पाठ्यपुस्तकों में से इतिहास के अलावा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की न केवल महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है, अन्य कई प्रमुख घटनाओं, प्रसंगों और महापुरुषों को भी या तो हटा दिया गया है या उनमें फेरबदल किया गया है। संविधान सभा से संबंधित पाठ में विभिन्न समितियों का उल्लेख किया गया है जिनकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद और डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने की थी। लेकिन अब इस सूची में से स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री और स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद का नाम हटा दिया गया है। 10वीं की पाठ्यपुस्तक लोकतांत्रिक राजनीति-दो, में बदलाव पहली बार नहींÓ से ‘लोकतंत्र और विविधताÓ, ‘लोकप्रिय संघर्ष और आंदोलनÓ और ‘लोकतंत्र की चुनौतियांÓ अध्याय हटा दिये गए हैं। स्वतंत्र भारत में राजनीति से संबंधित पाठ्यचर्या में से ‘जन आंदोलन का उदयÓ और ‘एक दल के प्रभुत्व का दौरÓ पाठ भी हटा दिये गए हैं। कक्षा 11 की समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तक ‘अंडरस्टेंडिंग सोसाइटीÓ में से 2002 के गुजरात दंगों का संदर्भ भी हटा दिया गया है और इन दंगों के साथ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट का हवाला भी हटा दिया गया है। जिन अध्यायों को हटाया गया है उनसे आसानी से समझा जा सकता है कि इसके पीछे मकसद क्या है। मसलन, ‘एक दल के प्रभुत्व का दौरÓ दरअसल तानाशाही प्रवृत्ति की आलोचना प्रस्तुत करता है। आपातकाल को एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में ही देखा जाता था। लेकिन भारतीय राजनीति का मौजूदा दौर भी एक दल के प्रभुत्व के दौर के रूप में पहचाना जाने लगा है जो लोकतंत्र के विरुद्ध है। इस पाठ को हटाकर एक तरह से विद्यार्थियों को मौजूदा दौर के प्रति आलोचनात्मक रुख विकसित करने से रोका गया है। इसी तरह जनसंघर्षों और जन आंदोलनों से संबंधित पाठों को हटाना भी मौजूदा सत्ता की लोकतंत्र विरोधी तानाशाही प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति है जो किसी भी तरह के लोकतांत्रिक आंदोलनों और संघर्षों को जिसका अधिकार जनता को संविधान में मिला हुआ है, अपनी सत्ता के प्रति विद्रोह और इस तरह देशद्रोह के रूप में देखती हैं।

संघ-भाजपा केवल इतिहास और राजनीति के साथ ही छेड़छाड़ नहीं कर रहे हैं, अन्य विषयों के पाठ्यक्रमों के साथ भी कर रहे हैं। पिछले साल 11वीं के समाजशास्त्र की किताब अंडरस्टेंडिंग सोशियोलॉजीÓ में से कई विषय हटा दिये गए। इस पाठ्यपुस्तक के अध्याय तीन ‘पर्यावरण और समाजÓ के एक हिस्से जिसका शीर्षक है, ‘पर्यावरण की समस्याएं सामाजिक समस्याएं क्यों हैं?Ó में दी गई दो केस स्टडीज को हटा दिया गया है। एक केस स्टडी का संबंध विदर्भ से है जहां सूखे और कृषि संकट से जूझते किसानों की व्यथा-कथा बतायी गई है। इस अध्याय के लेखक पी साईनाथ हैं जिनकी किताब एवरीबडी लव्स अ गुड ड्राउट में एक ओर पानी के अभाव से जूझते किसान हैं तो दूसरी ओर इसी विदर्भ में वाटर पार्क और अम्यूजमेंट सेंटर्स में तरह-तरह के खेलों में पानी को बेतहाशा नष्ट किया जाता है। दूसरी केस स्टडी जिसमें दिल्ली जैसे महानगर में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती आर्थिक असमानता को विषय बनाया गया है, उसे भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। इन्हीं में से कई तथ्यों और आंकड़ों को हटा दिया गया है जिनसे यह समझा जा सकता है कि किस तरह अमीर और गरीब के बीच खाई ही नहीं बढ़ रही है, इसकी वजह से समाज में तनाव और संघर्ष भी बढ़ रहा है (जनचौक में अल्पयु सिंह के आलेख ‘एनसीइआरटी विवाद: इतिहास नहीं, बदला जा रहा है वर्तमान’, 10 अप्रैल 2023)। यह भी महज संयोग नहीं है कि समाजशास्त्र की पुस्तक में से वर्ण और जाति संबंधी पाठ को हटा दिया गया है और इस तरह हिंदू समाज के सबसे बड़े अभिशाप के बारे में विद्यार्थियों को अंधेरे में रखने की कोशिश की गई है।

 

डार्विन का डर

एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तकों में किए गए संशोधनों में सबसे खतरनाक है विज्ञान के पाठ्यक्रमों में किया गया बदलाव। सीबीएसइ के दसवीं के पाठ्यक्रम से जैविक विकास का सिद्धांत जो डार्विन के विकासवाद पर आधारित है, को हटा दिया गया है। यहां मोदी सरकार के एक मंत्री के कथन को याद किया जा सकता है जिसका कहना था कि डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत पूरी तरह से गलत है। हमारे किसी बाप-दादा ने बंदरों से मनुष्य बनते हुए नहीं देखा था। इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्तव्य को भी याद किया जा सकता है जो मुंबई में डाक्टरों की एक सभा के सामने दिया था और जिसमें उन्होंने यह दावा किया था कि मनुष्य के सिर पर हाथी का सिर लगाना यह बताता है कि हमारे पूर्वज सर्जरी में कितने आगे बढ़े हुए थे। स्पष्ट है कि जो पौराणिक कल्पनाओं को सच मानते हों वे विज्ञान के सिद्धांतों में कैसे यकीन कर सकते हैं। यही वजह है कि देश के 1,800 से अधिक वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और विज्ञान शिक्षकों ने एक खुला पत्र लिखकर एनसीइआरटी के दसवीं के पाठ्यक्रम में जैविक विकास के सिद्धांत को हटाये जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की है जिसका अध्ययन वैज्ञानिक चेतना के निर्माण और हमारे आसपास की दुनिया को समझने के लिए जरूरी है। दसवीं के पाठ्यक्रम से जो अध्याय हटाये गए हैं वे हैं: ‘चाल्र्स रॉबर्ट डार्विन, विकासवाद और मानव विकासÓ। इस खुले पत्र में मांग की गई है कि हटाये गए इन सभी अध्यायों को पाठ्यक्रम में वापस शामिल किया जाए (हिंदुस्तान टाइम्स, 21 अप्रैल, 2023 में नीरज पंडित की रिपोर्ट)।

एनसीइआरटी द्वारा इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाज विज्ञान, विज्ञान आदि की पाठ्यपुस्तकों में किए गए इन बदलावों का विरोध कई धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों ने किया है। देश-विदेश के 250 से अधिक इतिहासकारों ने बयान जारी कर सीबीएसइ के विद्यार्थियों के लिए एनसीइआरटी द्वारा तैयार की गई पाठ्यपुस्तकों में से कुछ अंशों को हटाये जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की है और इस निर्णय पर आश्चर्य व्यक्त किया है। इस बयान पर हस्ताक्षर करने वालों में रोमिला थापर, इरफान हबीब, मृदुला मुखर्जी, उपेंद्र सिंह, जयती घोष, अपूर्वानंद आदि शामिल हैं।

मौजूदा सत्ता द्वारा पाठ्यक्रमों में बदलाव का उद्देश्य शिक्षा के पूरे क्षेत्र को अपनी विचारधारा के दायरे में लाना है और ऐसा करते हुए वे अतीत और वर्तमान की उन सभी बातों को अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र से बहिष्कृत करना चाहते हैं जिनके बने रहने से उनके वैचारिक वर्चस्व को अंदर से ही चुनौती मिलने लगती है। महात्मा गांधी की हत्या हो या मुगल काल, गुजरात के दंगे हों या विभिन्न जन आंदोलन, आपातकाल हो या लोकतंत्र की चुनौतियां, नक्सलबाड़ी अंदोलन हो या जातिवादी उत्पीडऩ,डार्विन का विकासवाद या वैज्ञानिक चेतना पाठ्यक्रमों में इनका बने रहना उनके सांप्रदायिक और पुनरुत्थानवादी एजेंडे का प्रतिलोम पैदा कर सकता है। यही डर इन बदलावों के पीछे काम कर रहा है। इसलिए पाठ्यक्रमों के हिंदुत्वपरस्त संप्रदायीकरण की कोशिश का विरोध करना हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाये रखने के लिए जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि आगे आनेवाली पीढिय़ां, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक विवेक से वंचित रह कर मध्ययुगीन कूपमंडूकता के दलदल में न फंस जाए। भारत की बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक और बहुराष्ट्रीयतावादी पहचान को बनाये रखने के लिए भी यह जरूरी है। तब ही संघात्मक राष्ट्र के रूप में हम अपने वजूद को बनाये रख सकेंगे।

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