(16 सितम्बर 1942 – 13 जून 2020)
त्यर पहाड़, म्यर पहाड़,
रौय दु:खों को ड्योर पहाड़
बुजुर्गोंलै ज्वौड़ पहाड़,
राजनीति लै ट्वौड़ पहाड़,
ठ्यकदारों लै फ्वौड़ पहाड़ ,
नानतिना लै छवौड़ पहाड़
ग्वाव न गुसैं, घेर न बाड़
त्यर पहाड़, म्यर पहाड़,
(तेरा पहाड़ मेरा पहाड़/पुरखों के संघर्ष से बना पहाड़/ राजनीति ने तोड़ा पहाड़/ भूमाफियाओं ने उजाड़ा पहाड़/ युवाओं ने छोड़ा पहाड़/ अब न कोई देखभाल/न है कोई पहरेदार )
इन पंक्तियों के रचयिता हीरा सिंह राणा ठेठ कुमाऊंनी लोक परंपरा के कवि और गायक थे। इस पर भी उनकी रचनाओं और प्रस्तुतियों में सामाजिक चेतना और राजनैतिक जागरूकता देखी जा सकती है। पृथक उत्तराखंड आंदोलन से भी जुड़े रहे थे। उन्होंने हिंदी में भी समान रूप में लिखा है। अपने सृजनात्मक लेखन, लोकसंगीत और मधुर कंठ के लिए जाने जानेवाले राणा की तीन प्रकाशित पुस्तकें हैं, ‘प्योली और बुरांशÓ, ‘मनख्यु पड्यौवÓ और ‘मानिला डानिÓ। ‘स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड का योगदानÓ को प्रदर्शित करने के लिए, उन्होंने इसी नाम से गीत नाट्य की रचना भी की।
उनका जन्म पश्चिमी अल्मोड़ा के मानिला के निकट के एक गांव में हुआ था। ग्रामीण रामलीला से वह लोक गायिकी की ओर उन्मुख हुए। इस बीच आजीविका उपार्जन के लिए वह दिल्ली पहुंचे और यहां कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं।
उनके पहले गीत ‘आ लीली बाकरी ली छू..Ó को व्यापक सराहना मिली. इसके बाद के उनके कई गीत ‘रुपसा रमूली, घुंघरु नि बजा छम छमÓ, प्रकाशित ‘मैं छूं हिरु डढोईक पीडै की गढोईÓ जैसे गीत लिखे। ‘कैले बजे मुरलीÓ और ‘लसका कमर बांधा/हिम्मत का साथा, फिर भोला उज्याली हौली,कब तक रौली राताÓ उनकी अत्यंत लोकप्रिय रचनाएं हैं। सन् 1971- 72 में उन्होंने दिल्ली के भारतीय कला केंद्र बैले टोली में एक गायक के रुप में जुड़कर कार्य किया.
हीरासिंह राणा को अपनी बेजोड़ रचनाओं औरप्रभावशाली गायन शैली से मिली सफलता में हुडुके और बांसुरी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इन वाद्यों के चलते,उन्हें अन्य किसी साजबाजे की जरूरत नहीं रहती थी,
वह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली सरकार की कुमांउनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषा अकादमी के उपाध्यक्ष थे।
– हरि सुमन बिष्ट
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