प्रकाशक जो मेरा लेखक था

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– पंकज बिष्ट

 

मेरे लिए आश्चर्य था कि श्याम बिहारी राय (1934-10 मार्च 2020) ने हिंदी में पीएचडी की हुई थी और साहित्य की समझ में वह किसी से उन्नीस नहीं थे फिर भी उन्हें शैक्षणिक काम क्यों नहीं मिला होगा! आज कह सकता हूं कि ऐसा क्यों हुआ होगा। राय साहब हिंदी अकादमिक दुनिया के कटु आलोचक थे और अक्सर बतलाते थे कि किस तरह से फलां अचार्य हैं जिनके पास अगर आप शोध करने जाएं तो वह विषयों की एक सूची आप के हाथ में थमा देंगे। उसमें जो विषय होते हैं वे के राम की लक्ष्मण रेखा के पार नहीं जाते थे। ऐसे मुंहफट बल्कि एक सीमा तक ‘बदजुबान’ आदमी को हिंदी जैसा गुरु-शिष्य चाटुकार संप्रदाय कैसे सहन करता! उनके साथ यह व्यवहार तब हुआ जब कि उन्होंने सागर से नंददुलारे वाजपेयी जैसे व्यक्ति के निर्देशन में पीएचडी की थी और उनका विषय भी कोई बहुत रेडिकल नहीं था।

 

यह सन 1971 की बात है। आजकल के संपादक लंबी छुट्टी पर थे। सहायक संपादक के रूप में श्रवण कुमार पत्रिका देख रहे थे। वह हाल फिलहाल ही तबादला हो कर आए थे। मुझे उनकी मदद के लिए लगा दिया गया था। श्रवण कुमार कहानीकार थे और कमलेश्वर के ‘समानांतर कहानी आंदोलनÓ से निकट से जुड़े थे। उनके कारण अक्सर कोई न कोई कहानीकार आजकल के दफ्तर आया करता था। इसी दौरान मेरी रमेश उपाध्याय, गौरीशंकर कपूर और सबसे बड़ी बात है इब्राहिम शरीफ से मुलाकात हुई, जो उन दिनों खासे चर्चित लेखक थे। इन सारे लोगों से मिलने का कारण यह था कि वे लोग जिस दफ्तर में काम कर रहे थे वह तिलक मार्ग स्थित पटियाला हाउस के दूसरी ओर डालमिया या बैनेट कोलमैन कंपनी की विशाल दो मंजिला कोठी में हुआ करता था। कोठी इतनी बड़ी थी कि इसके आंगन में ज्ञानपीठ की पार्टी कम से कम 1984 तक तो होती ही रही थी। वहीं अज्ञेय से हुई अत्यंत निराशाजनक मुलाकात का मैंने अपने लेख (‘अज्ञेय: छवि और प्रतिछवि) में विस्तार से जिक्र किया है। मैं डालमिया या बैनेट कोलमैन इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उस कोठी के पीछे के एक हिस्से में डालमिया का भी एक दफ्तर था जिसमें मेरा एक बीए का सहपाठी काम करता था। संभव है कोठी को लेकर डालमिया के बच्चों और रमा जैन के बच्चों के बीच विवाद रहा हो।

फिलहाल जो हो, मेरा वहां जाना श्रवण कुमार के साथ ही हुआ था। विशेषकर तब जब इब्राहिम शरीफ चेन्नई (तब मद्रास) से दिल्ली आया करते थे। उनका आना इस हद तक लगा रहता था कि हर डेढ़-दो महीने में वह दिल्ली में होते थे। अंदाज लगाईये यह तब कितना मुश्किल हुआ करता होगा – 48 घंटे की इतनी जल्दी-जल्दी रेल यात्रा। तब उस रूट पर राजधानी एक्सप्रेस जैसी कोई चीज नहीं थी। उस दौरान कमलेश्वर भी एक बार प्रकाशन विभाग आए थे।

श्याम बिहारी राय से परिचय इसी हिंदी विकास परिषद नामक संस्था के दफ्तर में हुआ था जिसमें ये सारे लोग काम करते थे। चूंकि वहां कई लेखक जमा थे, दफ्तर का माहौल बड़ा जीवंत रहा करता था। लेखन के अलावा राजनीति की खूब बातें होती थीं। पर राय साहब (मैं उन्हें तब भी राय साहब ही कहा करता था) की भागीदारी सामान्यत: एक दूरी के साथ रहती थी। वह आते जाते कोई चुटीली-सी बात कह कर अपने काम में लग जाते थे। अपने आप में यह बात कम आकर्षक नहीं थी कि वे लोग हिंदी में समाज विज्ञान का एक विश्वकोश (एनसाइक्लोपीडिया) तैयार करने में लगे थे। इब्राहिम शरीफ का आधिकारिक पद क्या था यह तो मुझे पता नहीं पर वह उस परियोजना के एक तरह से डिफैक्टो संपादक थे। जहां तक याद पड़ रहा है संभवत: श्याम बिहारी राय के जिम्मे उसके उत्पादन का काम था। इस कारण वह अक्सर थॉमसन प्रेस, फरीदाबाद भी जाया करते थे जहां वह मुद्रित हो रहा था। उस संस्था के सर्वेसर्वा मोटूरी सत्यनारायण थे जो मद्रास में रहते थे।

हम लोग, जिसमें इब्राहिम शरीफ और राय साहब तो होते ही थे, अक्सर बरास्ता कर्जन रोड, जो अब कस्तूरबा गांधी मार्ग कहलाता है, कनाट प्लेस तक पैदल ही जाया करते थे और कॉफी हाउस बैठ कर वहां से नौ बजे के आसपास निकला करते थे। इसका कारण यह भी था कि उन दोनों को वहां से जनकपुरी आदि को सीधी बस मिल जाया करती थी। इस बैठकी से मुझे यह तो पता चल ही गया कि इब्राहिम शरीफ, गौरीशंकर कपूर और सुधीर चौहान क्लासमेट ही नहीं रहे हैं बल्कि साथ में केरल में पढ़ाते भी रहे हैं। कम से कम गौरीशंकर कपूर का उस परियोजना से जुड़ा होने का कारण शरीफ ही थे। जहां तक सुधीर चौहान का सवाल है वह तब तक दिल्ली में अध्यापन शुरू कर चुके थे। मिलने का यह सिलसिला लगभग चार साल चला।

उन लोगों से उड़ती-उड़ती सुनी बातों से मुझे ऐसा भ्रम था कि मोटूरी कोई तमिल कांग्रेसी नेता हैं जिन्होंने अपने संबंधों के कारण एक मोटी रकम सरकार से हिंदी के नाम पर ऐंठी हुई है और यह योजना उसी के तहत चल रही है। स्पष्ट था कि शरीफ उनके राइटहैंड थे इसलिए यहां का काम भी संभाले थे। वरना किसी ऐसे आदमी का दफ्तर का मुखिया रखा जाना, जो स्थानीय न हो समझ में आने वाला नहीं था। यह वह जमाना था जब इंटरनेट जैसे किसी चमत्कारिक माध्यम की कल्पना तक असंभव थी। पर मेरी कई धारणाएं या कहिए जानकारियां गलत थीं। मोटूरी सत्यनारायण आंध्र के थे और अत्यंत प्रभावशाली और साधन संपन्न संस्था, दक्षिण भारत प्रचार सभा के अध्यक्ष होने के कारण चेन्नई में रह रहे थे। इब्राहिम शरीफ भी आंध्र ही के थे और इसी कारण मद्रास में थे। वह दिल्ली में पढ़े थे इसलिए दिल्ली के कई लोगों को जानते थे जो उनके सहपाठी रहे होंगे।

पर मोटूरी सत्यनारायण कोई छोटे-मोटे आदमी नहीं थे। वह राज्यसभा के सदस्य ही नहीं बल्कि संविधान परिषद के सदस्य भी रह चुके थे, जो छोटी बात नहीं थी। इससे भी बड़ी बात यह थी कि वह हिंदी के प्रबल समर्थक थे और हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिलवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था।

विश्वकोश का पहला खंड तो निकला पर दूसरा जब तक प्रेस जाता, दफ्तर बंद हो गया। यानी जो अनुदान मिल रहा था वह रुक गया था। इस तरह संपादकीय विभाग के सारे कर्मचारी बेकार हो गए और उन्होंने इधर-उधर नौकरियां तलाश लीं थीं या तलाश रहे थे। दूसरे खंड के मुद्रण तक श्याम बिहारी राय ही बचे रह पाए थे।

तब मेरे लिए आश्चर्य था कि श्याम बिहारी राय ने हिंदी में पीएचडी की हुई थी और साहित्य की अपनी समझ में वह किसी से उन्नीस नहीं थे फिर भी उन्हें शैक्षणिक काम क्यों नहीं मिला होगा। वह दिल्ली क्यों आए और कैसे आए यह उन्होंने कभी नहीं बतलाया पर यह नहीं छिपाया कि वह अमेरिकी संस्था पीस कोर में रहे थे। शायद हिंदी पढ़ाते थे। पर आज कह सकता हूं कि ऐसा क्यों हुआ होगा। राय साहब हिंदी अकादमिक दुनिया के कटु आलोचक थे और अक्सर बतलाते थे कि किस तरह से फलां अचार्य हैं जिनके पास अगर आप शोध करने जाएं तो वह विषयों की एक सूची आप के हाथ में थमा देंगे। उसमें जो विषय होते हैं वे कुछ इस तरह के होते हैं: राम काव्य में सीता, राम कथा में लक्ष्मण की भूमिका, राम की पितृभक्ति, भरत की राम भक्ति आदि-आदि। यानी राम की ‘लक्ष्मण रेखाÓ के पार नहीं जाते थे।

मैं हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाता था पर राय साहब गंभीर बने रहते थे। यह कोई एक बार की बात नहीं थी। इस कारनामे को वह अक्सर दोहराते थे। ऐसे मुंहफट बल्कि एक सीमा तक ‘बदजुबानÓ आदमी को हिंदी जैसा गुरु-शिष्य चाटुकार संप्रदाय कैसे सहन करता! उनके साथ यह व्यवहार तब हुआ जब कि उन्होंने सागर से नंददुलारे वाजपेयी जैसे व्यक्ति के निर्देशन में पीएचडी की थी और उनका विषय भी कोई बहुत रेडिकल नहीं था बल्कि रामचंद्र शुक्ल की आलोचना के घिसे घिसाए विषय को लेकर था। जहां तक मुझे याद है वह अपनी थीसिस पर कभी बात नहीं करते थे। इसे ग्रंथशिल्पी ने छापा भी नहीं।

वह अपने वामपंथी झुकाव के बावजूद पीस कोर में कैसे गए, न उन्होंने बतलाया और न ही मैंने कभी पूछा। पर यह निश्चित है कि वहां उन्हें अच्छी-खासी तनख्वाह मिलती होगी। इसका एक प्रमाण यह है कि उनके पास एक कीमती जापानी एसएलआर कैमरा था जो वह मुझे अक्सर उधार दे दिया करते थे। उसे खरीदने की बात कम से कम तब मैं सोच भी नहीं सकता था। पीस कोर में उनके साथ उपन्यासकार और नाटककार सुरेंद्र वर्मा भी काम करते थे इस बात का पता एक दिन काफी हाउस में चला जहां हमें संयोग से सुरेंद्र वर्मा मिल गए थे। वहां वे दोनों अमेरिकी कालेजों से निकले ‘समाज सेवाÓ के लिए भारत आए बच्चों को हिंदी सिखाते थे। स्पष्ट है कि यह राय साहब की मजबूरी थी। एक पीएचडी किए व्यक्ति के लिए नौसिखियों को हिंदी सिखाना किसी पीड़ा से कम नहीं है। पर जो हुआ अंतत: वह उनके और हिंदी के लिए लाभप्रद ही रहा।

 

पर सवाल है?

इस पर भी सवाल तो है ही कि उन्हें पीस कोर क्यों छोडऩा पड़ा?

इसका कारण न उन्होंने बतलाया और न ही अपनी आदत के कारण मैंने पूछा। एक दूसरे की निजी बातों को जानने की कोशिश करना हम दोनों की प्रकृति में ही नहीं था। इसके अलावा जो बात हम दोनों की प्रकृति में थी वह थी अपने बारे में, जहां तक हो सके, बात ना करना। तथ्यों को जांचने के बाद अब मैं कह सकता हूं कि पीस कोर के बंद होने का कारण 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध था। अमेरिका ने भारत पर दबाव डाला था कि वह तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हस्तक्षेप न करे। इंदिरा गांधी इस पर राजी नहीं हुईं। अमेरिका ने दंड स्वरूप कई प्रतिबंध लगाए उनमें से एक पीस कोर को भारत से वापस बुलाना भी था। उस दौरान भारत में पीस कोर के कुछ नहीं तो चार-पांच हजार स्वयं सेवक तो होंगे ही। और इन्हें देखने के लिए लंबा चौड़ा तामझाम भी था। पर मजे की बात यह है कि इसके बाद भारत सरकार ने आज तक कभी पीस कोर को भारत घुसने नहीं दिया है। लगे हाथों यहां यह याद कर लेने में बुराई नहीं है कि जॉन एफ कैनेडी के इस ‘ब्रेन चाइल्डÓ के पीछे यह विचार काम कर रहा था कि जो ‘मानव सेवाÓ सौ वर्ष पहले तक ईसाई पादरी कर रहे थे, उसे पीस कोर आगे बढ़ाएगा। तीसरी दुनिया जानती है कि इस ‘मानव सेवाÓ ने किस प्रकार से योरोपीय उपनिवेशवाद को साकार करने में मदद की।

यद्यपि घपला कूटनीतिक था पर शिकार श्याम बिहारी राय भी हो गए थे। सामाजिक विश्वकोश के दूसरे खंड के प्रेस में जाते ही वह भी बेरोजगार हो गए। यह 1974 की बात है। यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि राय साहब उन आदमियों में नहीं थे जो बहुत ज्यादा दोस्त बनाते हैं। मद्रास वाले मद्रास चले गए और जिनके घर या संबंधी दिल्ली में थे वे उनके साथ हो लिए पर जहां तक राय साहब का सवाल था उनके लिए कोई ऐसी जगह नहीं रही जहां वह जा सकें और बेरोजगारी का अपना समय काट सकें। जहां तक मुझे मालूम है उनका दिल्ली में कोई संबंधी है, यह भी शायद ही किसी ने सुना होगा।

अब राय साहब बेनागा हमारे दफ्तर आने लगे। हम लोग साथ ही लंच करते, लाइब्रेरी जाते और शाम को कॉफी हाउस पहुंच जाते। इस तरह दिन कटने लगे। इस बीच उन्होंने आजकल के लिए कुछ लेख भी लिखे। वह सब दबाव में था। उनका स्वयं लेखन में नहीं, अच्छे लेखन को संजोने में विश्वास था, यह अब कहा जा सकता है। जैसा कि मैं किया करता हूं मैंने फौरन उन्हें काम पर लगा दिया। जुलाई 1974 में उनकी लिखी भगवत शरण उपाध्याय की किताब भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण व भारतीय संस्कृति के स्रोत की समीक्षा आजकल में प्रकाशित हुई। और मार्च 75 तक उनकी कुछ समीक्षाएं और लेख भी छपे पर उसके बाद उनका लिखा कुछ भी शायद ही कहीं प्रकाशित हुआ होगा, जबकि स्वयं मैं आजकल में कुछ वर्षों के अंतराल के 1998 तक तो रहा ही था।

इसी बेरोगारी के दौरान एक दिन उन्होंने मुझ से पूछा, क्या डा. माहेश्वर को जानते हैं?

सौभाग्य से मैं उन्हें जानता था।

तब उन्होंने बतलाया कि मैक्मिलन में सुना है एक जगह है। माहेश्वर हमारे कॉफी हाउस के मित्र थे और उनके लेखन के कारण तो मैं उन्हें कोलकाता से ही जानता था। वह प्रौढ़शिक्षा या ऐसे ही किसी विभाग में थे जिसकी नौकरी छोड़ उन्होंने ब्रिटिश प्रकाशन गृह मैक्मिलन की भारतीय सब्सीडियरी कंपनी में नौकरी पकड़ ली थी। मैक्मिलन अपने अकादमिक प्रकाशनों के लिए जाना जाता था इसलिए हिंदी में भी कमोबेश वही नीतियां लागू हुईं। माहेश्वर के अलावा उनसे पहले से ही एक और हिंदी के डाक्टरेट वहां संपादक  या प्रधान संपादक के तौर पर कार्यरत थे।

खैर उसी दिन या अगले ही दिन हम दोनों माहेश्वर से मिलने दरियागंज पहुंचे। मैक्मिलन का हिंदी का दफ्तर उसी गली में पहली मंजिल पर था जहां आगे हंस का कार्यालय है। कुछ समय बाद वह दफ्तर वहां से कुछ आगे जैन सेकेंड्री स्कूल की ओर एक बहुमंजिली इमारत में चला गया था। माहेश्वर ने मेरा तो किया ही श्याम बिहारी राय का भी स्वागत किया। उन्हें नौकरी मिलने में देर नहीं लगी। राय और माहेश्वर की जोड़ी सफल रही और जल्दी ही महेश्वर हिंदी के प्रधान संपादक बन गए।

ऐसा लगता है जैसे नियति ने राय साहब को बनाया ही प्रकाशन व्यवसाय के लिए था। वह काम उन्हें पसंद भी था। अपने विचारों में जितने वह रेडिकल और व्यवहार में मुंहफट थे संभवत: वह शिक्षक के रूप में सफल भी नहीं होते। वह अक्सर प्राध्यापकों के लिए एक शब्द ‘गधाÓ है का प्रयोग करते थे, जिसे याद कर मुझे अब भी हंसी आ जाती है।

उसके बाद मेरी और उनकी मुलाकातें कम हो गईं। हां, काम के लिए उनके पास जाना होता ही रहता था। मार्च, 76 में मेरा विवाह हुआ और मुझे पैसे की कुछ तंगी हुई। मैकमिलन उन दिनों बहुत सारा काम बाहर से करवा रहा था। मैंने भी उनसे कहा होगा या उन्होंने स्वयं ही मुझे कई काम दिए, जिसमें अनुवाद देखने से लेकर पांडुलिपियां संपादित करना तक होता था। वैसे भी वह सब की मदद करते ही रहते थे। एक किताब का भी मैंने अनुवाद किया पर उसमें मेरा नाम नहीं गया। यह मेरे ही कारण हुआ। वह भी उस अनुवाद से प्रसन्न नहीं थे। सौभाग्य से उन्होंने मुझे ‘गधाÓ नहीं कहा। कहा भी होगा तो किसी ने मुझे बताया नहीं।

अब याद नहीं पड़ता कि वह मेरे विवाह के स्वागत समारोह में आए थे या नहीं पर यह तय है कि मैं उनके विवाह में शामिल नहीं हुआ था इसलिए कि मुझे कोई सूचना ही नहीं थी। बल्कि मुझे वर्षों तक पता ही नहीं चला कि उन्होंने विवाह कर लिया है। उन्होंने बहुत देर से विवाह किया था और वह प्रेम विवाह था। इस पर भी कहा नहीं जा सकता कि वह किस हद तक सफल था। बाद में वह स्वयं दिल्ली के पूर्वी इलाके में रहने लगे थे और उनकी पत्नी व इकलौती बेटी शहर के पश्चिमी छोर पर। मैं नहीं जानता ऐसा क्यों था, न ही मैंने कभी पूछने की कोशिश की। पर यह सामान्य तो किसी भी तरह नहीं था।  इसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं: अहं, महत्वाकांक्षा या फिर सांस्कृतिक टकराव। या फिर उनका अपने काम से इतना गहरा लगाव कि उसके बाहर की दुनिया उनके लिए अर्थहीन होती गई हो।

मैंने उन्हें कभी भावुक होते भी नहीं देखा था। पर अपनी पत्नी के देहांत के बाद संभव: 2014 या 2015 में पुस्तक मेले के ही दौरान पहली बार वह अपनी बेटी से मुझे मिलवाने के दौरान इतने भावुक हुए कि उनकी आंखें भर आईं और सिर्फ इतना कह पाए कि यह मेरी बेटी है। इसके आगे के शब्द उनके रुंधे गले से निकल नहीं पाए।

कहा नहीं जा सकता कि उनका बचपन कैसा रहा होगा। जैसा भी रहा हो, यह निश्चित है कि वह खासा विरोधाभासी होगा। अपने विचारों में, मेरा तात्पर्य राजनीतिक-सामाजिक मान्यताओं से है, वह खासा उदार और प्रगतिशील थे पर अपने व्यवहार में और नई चीजों को अपनाने में उतने ही जड़ थे। लगभग अडिय़ल गांधीवादी या फिर गुरुकुली अंदाज वाले। उदाहरण के लिए उनका टेलीविजन विरोध या फिर मोबाइल फोन न लेना याद किया जा सकता है।

 

नीपा  में संपादक

यह मुझे याद नहीं आ रहा है कि मैक्मिलन कब बंद हुआ लेकिन उसके बाद वह नीपा (एनआइईपीए, नेशनल इंस्टीट्यू ऑफ एड्यूकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन) में संपादक के पद पर लग गए।

मैं इस बीच दो तीन दफ्तरों से घूमघाम कर वापस प्रकाशन विभाग आ गया था। उन दिनों प्रकाशन विभाग पटियाला हाउस में ही था। एक दिन राय साहब अचानक प्रकट हुए। यह बात 1994 की होनी चाहिए। पता चला कि वह अपने रिटायर कर दिए जाने के खिलाफ हाई कोर्ट जा रहे हैं। इस मुकदमेबाजी के दौरान उनका दो-एक दफा और भी हमारे दफ्तर आना जाना हुआ। वह इस बात के लिए कोर्ट गए थे कि नीपा ने उन्हें अकादमिक श्रेणी का नहीं माना था और 60 वर्ष की उम्र में रिटायर कर दिया था। अगर माना जाता तो वह तत्कालीन नियमों के अनुसार दो वर्ष बाद रिटायर होते। इसके बाद न वह आए और न ही उन्होंने कोई सूचना दी। बाद में पता चला फैसला उनके खिलाफ गया है।

इस के एक डेढ़ वर्ष बाद ही उन्होंने 1996 में ग्रंथशिल्पी की शुरुआत कर दी थी। मेरे रिटायर्मेंट लेने के एक वर्ष बाद समयांतर की भी शुरुआत हुई। संभवत: ग्रंथ शिल्पी के दफ्तर मैं उसकी स्थापना के दस एक साल बाद ही गया हूंगा। मेरे और राय साहब के बीच नई नजदीकी की शुरुआत विश्वपुस्तक मेले से हुई। हमने प्रकाशन के एक आध वर्ष बाद ही मेले में भागीदारी शुरू कर दी थी और तब हम अपनी औकात के अनुसार सिर्फ स्टैंड लिया करते थे जो खासा सस्ता हुआ करता था। उन दिनों ग्रंथ शिल्पी और प्रकाशन संस्थान के बीच समझौता था और ग्रंथशिल्पी उसी के साथ मिल कर प्रदर्शनी में भाग लेता था।  विश्वपुस्तक मेला भी तब दो साल की अवधि में हुआ करता था।

इसी दौरान ग्रंथ शिल्पी और प्रकाशन संस्थान के बीच असहमति बढ़ी और वे अलग हो गए। हमारी उनके साथ भागीदारी की शुरूआत इसके बाद हुई। अब हमारे नाम एक पूरा स्टैंड हुआ करता था पर हमें उसके लिए एक अंश ही देना होता था। 2018 तक यह सिलसिला चला। 2019 में हमें स्टॉल मिला ही नहीं। ग्रंथ शिल्पी एक वर्ष पहले ही आगे भागीदारी न करने का फैसला कर चुका था। हमने निर्णय किया कि हम मेले में उपस्थिति बनाए रखेंगे। चूंकि इधर स्टॉल काफी मंहगा हो चुका था। हमने कु कमीशन कमाने की उम्मीद में ग्रंथ शिल्पी की कुछ किताबें रखीं पर हम उनकी बहुत सीमित ही बिक्री ही कर पाए थे। मेले से पहले भी मैं उनसे मिला था। उन्होंने सूचीपत्र देते हुए कहा आप चुन लीजिए। हमने चुनने में गलती यह करी कि अधिसंख्य किताबें विचारधारात्मक या फिर बड़े लेखकों की चुन लीं। जो सजिल्द थीं, इसके अलावा भी मंहगी थीं। इन्हें छात्र खरीदने की स्थिति में नहीं होते हैं। ऊपर से दुर्भाग्य यह कि इसी बीच जनेवि और जामिया में छात्रों पर आक्रमण हुए और सब कुछ अस्तव्यस्त हो गया। छात्र आ ही नहीं पाए थे।

अपने सहयोगी चौबे जी के कहने पर मैंने उनसे कुछ पेपर बैक मांगने का निर्णय किया। पर दिक्कत यह थी कि वह पेपर बैक सिर्फ कैश पर दे रहे थे। जैसे ही उन्होंने आपत्तियां कीं मैंने उनसे कह दिया कि जो आपकी शर्तें औरों के लिए हैं वही हम पर भी लागू होंगी। उसके बाद उन्होंने कुछ नहीं कहा। हमें किताबें मिलीं पर कैश पर नहीं क्रेडिट पर।

 

समयांतर के मित्र

फरवरी के शुरू में ही मैं और ठाकुर प्रसाद चौबे उनके दफ्तर गए थे। हिसाब-किताब करने। जैसा कि कह चुका हूं, हिसाब कोई लंबा-चौड़ा  नहीं था। राय साहब ने पैसे गिने बिना ही सीधे जेब में रख लिए। जब वह हमारे पुस्तक मेले के अनुभव पूछने लगे तो हमने बता दिया कि स्टॉल इतने छोटे हो गए हैं कि उनमें किसी और के साथ सहयोग करना संभव नहीं रहा है। इस पर तुरंत उनका सुझाव था कि अगली बार आप किसी को अपने साथ नहीं रखना। हम आपके साथ रहेंगे। किस को पता था कि अगले महीने क्या होने वाला है?

वैसे जो भी छोटी और प्रगतिशील विचारों वाली पत्रिका उनसे विज्ञापन मांगती वह उसे दिया करते थे। पर समयांतर के साथ दूसरी बात थी। समयांतर अकेली ऐसी पत्रिका थी जिसे ग्रंथ शिल्पी का विज्ञापन पिछले 12 वर्ष से बराबर मिलता आ रहा था। यह राशि कोई बहुत ज्यादा नहीं थी, सिर्फ ढाई हजार रुपया पर अगर इसे 12 से गुणा कर के देखें तो साल भर में समयांतर जैसी पत्रिका के लिए खासी बड़ी रकम बन जाती है।

इसमें कोई शंका नहीं कि ग्रंथ शिल्पी ने जो किताबें छापीं, वे दुनिया के शीर्ष समाज विज्ञानियों की रहीं हैं। इसके साथ ही यह भी सही है कि वे किताबें लगभग क्लासिक हैं। उन्होंने जिन प्रतिष्ठित भारतीयों की किताबें छापीं उनमें भी मुश्किल से ही कोई मूल रूप में हिंदी में लिखी गई हो। यह बात खासा निराश करने वाली है। ग्रंथ शिल्पी ने निश्चय ही हिंदी में सामाजिक विज्ञान पर कुछ मौलिक किताबें छापीं पर इनकी संख्या बहुत कम है। गिरीश मिश्र, पूरनचंद्र जोशी,अयोध्या सिंह, कृष्णकांत मिश्र, जबरीमल्ल पारख, सुधा सिंह, रामशरण जोशी और कमलानंद झा की किताबें अपवाद हो सकती हैं। पर जिस प्रकाशक ने दुनिया के चुनींदा समाज विज्ञानियों की ढाई-पौने तीन सौ किताबें छापी हों उसके पास समाज विज्ञान की दस भी मौलिक किताबों का न होना क्या बतलाता है? स्पष्टत: ग्रंथ शिल्पी की जो सीमा है वह असल में भारतीय समाज की सीमा है। भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी में, सामाजिक विज्ञान या प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों पर मौलिक किताबें शायद ही लिखी जाएंगी।

श्याम बिहारी राय जिस तरह के दृष्टिसंपन्न, विवेकवान प्रकाशक-संपादक थे वह यह कर सकते थे और कई मामलों में उन्होंने करने की कोशिश भी की। कुछ लेखकों को विशिष्ट कामों के लिए अग्रिम राशि दी भी पर वह हो नहीं पाया। लेखकों और अनुवादकों ने उनकी सरलता और उदारता का लाभ उठाया, पर काम करके नहीं दिया।

इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि यह चुनौतीपूर्ण काम सीमित संसाधनों वाले किसी भी एक व्यक्ति से नहीं हो सकता। राय साहब अपने साथ ऐसे लोगों को नहीं जोड़ पाए। पर इससे भी बड़ी बात यह है कि संभवत: उम्र उनके साथ नहीं थी।

ताजा कागज की गंध की मादकता और मुद्रित अक्षरों में समोये ज्ञान के तिलस्म के आवरण को अनावृत्त कर वृहत्तर समाज तक ले जाने के आकर्षण ने श्याम बिहारी राय को हिंदी आलोचना के पंडिताऊ और जड़ माहौल में धक्कमपेल करने से रोक दिया था। उस ठहरी हुई दुनिया में जाने से जो आज भी रामचंद्र शुक्ल द्वारा खेंची गई लक्ष्मण रेखा में सीमित है। आपार ‘वामपंथी चिंतनÓ के बावजूद हिंदी समाज का दुर्भाग्य है कि वह इसे पार नहीं कर पाया है।

एक मित्र और संपादक होने के  नाते कह सकता हूं कि वह लेखक के रूप में अपनी सीमाओं को जानते थे। उन्होंने जबर्दस्ती का लेखक बनने …नौकरी, पदवृद्धि या निजी प्रदर्शन प्रियता के लिए… कभी नहीं लिखा। प्रकाशन उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता का विस्तार था जो उन्होंने व्यवसाय के तौर पर नहीं बल्कि आनंद और संतोष के लिए किया। संभवत: मैं अकेला संपादक हूं जो उनसे किसी पत्रिका के लिए लिखवा सका हो और वह भी लगभग आधी सदी पहले। पर यह कोई गर्व की बात नहीं है। बल्कि उस दौर की उनकी विकट मजबूरी का संकेत मात्र है।

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