पुरुष बर्बरता की हार

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  • अंजलि देशपांडे

प्रिया रमानी जीत गईं, इसी बात को  तकनीकी रूप से सही शब्दों में कहा जाए तो कहना पड़ेगा की वह बरी हो गईं। यही इस केस की विडंबना भी है और इसकी ऐतिहासिकता भी। कायदे से उनको कठघरे में खड़ा होना ही नहीं चाहिए था। कायदे से आरोपी एम जे अकबर को होना चाहिए था जिन्होंने दो दशक पहले यौन शोषण की मंशा से परेशान (उनका सेक्सुअल हरासमेंट) किया। लेकिन यौन हिंसा की खास बात यही है कि जो प्रताडि़त होती है वही कठघरे में होती है। धीरे-धीरे ये स्थितियां बदल रहीं हैं और इसमें प्रिया जैसी साहसी महिलाओं का योगदान याद किया जाएगा।

शायद इसे इस तरह कहना बेहतर होगा कि एम जे अकबर प्रिया रमानी से हार गए। ”यौन हिंसा गरिमा और आत्मविश्वास का हरण करती है। प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा गरिमा के अधिकार की कीमत पर नहीं की जा सकती, अतिरिक्त मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट रविंद्र पांडे ने अपने फैसले के इन शब्दों के साथ इतिहास में अपना नाम दर्ज कर लिया।

जैसा कि चेन्नई की गायिका चिन्मयी श्रीपदा ने कहा, ”क्या दिन था वह भी!… क्या फैसला है! (फैसले की) हर पंक्ति ने हर उस सवाल का जवाब दे दिया जो एक क्रूर, निर्मम और निष्ठुर समाज ने हमारे मुंह पर थूका था…।‘’  श्रीपदा युवा गायिका हैं और यौन उत्पीडऩ की आपबीती ‘मीटू’ पर कह देने के बाद से उन्हें कोई काम नहीं दिया गया। इस तरह समाज सबल पुरुषों के पक्ष में खड़ा होकर औरत को मुंह खोलने की सजा देता है। क्या आश्चर्य है कि अधिकांश महिलाएं चुप ही रह जाती हैं!

मोबाशर जावेद अकबर भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े नामों में गिने जाते थे। वह सिर्फ 25 साल की उम्र में साप्ताहिक संडे के संपादक बन गए थे और बाद में अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ और एशियन एज के भी संस्थापक संपादक रहे। वह पत्रकारिता को नई ऊर्जा देने के लिए जाने जाते हैं। उनके नेतृत्व में बहुत सी महिला पत्रकारों को रिपोर्टिंग के ऐसे मौके मिले जिन्हें उन दिनों स्त्रियों के बूते के बाहर समझा जाता था। अब वह सदा सर्वदा के लिए स्त्रियों पर यौन आक्रमण के लिए जाने जाएंगे, उनकी साख को यह नुकसान उनकी अपनी ही हरकतों का उचित नतीजा है। अकबर की महिला पत्रकारों के प्रति इस तरह के आपत्तिजनक व्यवहार की बात पत्रकार जगत में खूब जानी जाती थी और उनकी संपादकीय टीम को उनका ‘हरम’ कहा जाता था। जो बात नहीं जानी जाती थी वह यह कि कई युवा पत्रकारों ने उनका जोरदार प्रतिकार तब भी किया था।

प्रिया रमानी ने जो काम किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। पत्रकारिता के कार्यालयी माहौल को खुला और काफी सुरक्षित समझा जाता है और रात-बेरात किसी भी समय काम करना पड़ सकता है। इस सम्मानित पेशे में भी सुशिक्षित और प्रतिभाशाली संपादकों तक की सामंती मानसिकता पर पड़ा पर्दा फाड़ कर प्रिया रमानी ने कूड़ेदान में फेंक दिया। उनका साहस इस कारण भी बढ़ जाता है कि जब प्रिया ने अकबर को यौन उत्पीड़क बताया तब वह विदेश राज्य मंत्री थे।

23 साल की उम्र में प्रिया रमानी भारत के पहले अंतरराष्ट्रीय अखबार एशियन एज में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गईं जिसके संस्थापक संपादक 43 वर्षीय अकबर थे। खुद प्रिया का कहना है कि मैं उनके लेख पढ़ते हुए बड़ी हुई थी और बतौर पत्रकार अकबर उनके हीरो थे। उनको अकबर ने एक पांच सितारा होटल में बुला कर अपने कमरे में साक्षात्कार किया। रमानी का कहना है कि उन्होंने लेखन कौशल या पत्रकारिता से संबंधित कोई सवाल नहीं पूछा, मगर जानना चाहा कि वे शादी शुदा थीं या नहीं और उनका कोई बॉय फ्रेंड है या नहीं। फिर वे बिस्तर के पास जाकर दो व्यक्तियों के लिए बने सोफे पर बैठ गए और उसे अपने निकट बैठने के लिए कहा, पर वह कमरे से निकल गईं। उन्हें नौकरी तो मिल गई पर उन्होंने सिर्फ दस महीने इस अखबार में काम किया और बाद में वोग तथा अन्य कई जगह नौकरी की।

इस विषय पर प्रिया ने वोग में ही पहले लेख लिखा था जिसमें संपादक का नाम नहीं लिया गया था। बाद में उन्होने ‘मीटू’ में अकबर का नाम लिया। अकबर पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाने वाली वह पहली पत्रकार बनीं और फिर उसके बाद कोई लगभग 14 महिलाओं ने उन पर गंभीर आरोप लगाए, जिनमें गजाला वहाब की आपबीती इससे भी अधिक भयावह रही। गजाला प्रिया की प्रमुख गवाह भी बनीं।

 

किसकी मानहानि

अकबर ने प्रिया रमानी पर अपराधिक मानहानि का मुकदमा ठोक दिया। इस समय प्रिया बेंगलुरु में रहती हैं और दिल्ली में केस की सुनवाई के लिए उन्हें दिल्ली के कोई 20 चक्कर लगाने पड़े।

प्रिया रमानी के केस के कई आयाम हैं जो याद रखे जाएंगे। उनकी वकील रेबेका जॉन ने भी कहा है कि यह उनके करियर का सबसे महत्त्वपूर्ण केस है। इस ऐतिहासिक फैसले ने उस औरत को कठघरे में खड़े होने के बावजूद एक तरह से आरोपी मानने से इंकार कर दिया। ”यौन उत्पीडऩ के खिलाफ आवाज उठाने के लिए मानहानि की आपराधिक शिकायत के बहाने महिला को सजा नहीं दी जा सकती’’, न्यायाधीश रविंद्र कुमार पांडे ने अपने आदेश में कहा।

17 फरवरी को दो साल चली सुनवाइयों के बाद आया यह फैसला कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। इसने यौन उत्पीडऩ के मामलों में शिकायत की समय सीमा समाप्त कर दी है। इसने महिला की गरिमा के अधिकार को और संविधान की धारा 21 के तहत समानता के अधिकार को प्रतिष्ठा के अधिकार पर वरीयता दी। सबसे महत्त्व की बात यह है कि इस फैसले ने स्वीकार किया कि बिना छूए भी यौन प्रताडऩा दी जा सकती है, सिर्फ गंदे मजाक करना, अश्लील प्रस्ताव रखना, फोन पर या अन्य तरीकों से आपत्तिजनक संदेश भेजना, यह सब मौखिक यौन उत्पीडऩ है और यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उसने ‘कुछ किया तो नहीं।‘

अक्सर पूछा जाता है कि ‘मीटू’ में बोलने वाली औरतें इतने साल बाद क्यों बोल रही हैं, उस समय क्यों चुप रहीं, उन्होंने उस समय औपचारिक शिकायत क्यों नहीं की और यह भी कहा गया है कि मीडिया इस तरह की शिकायत का मंच नहीं है। ”महिलाओं को हक है कि वे शिकायत के लिए जो चाहें वह मंच चुनें, और दशकों बाद भी इसकी बात करें’’, अदालत ने कहा है। अदालत ने रेखांकित किया है कि प्रिया के साथ जब यह घटना घटी थी तब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ की शिकायत और निपटारे के लिए विशाखा गाइडलाइंस नहीं थीं। उस समय कोई भी मैकनिज्म नहीं था जिसके तहत ऐसी शिकायतें की जा सकती थीं।

फैसले में साफ कहा गया है कि ज्यादातर औरतें इसलिए चुप रहती हैं कि उनको ‘बदनामी’ का डर होता है, क्योंकि समाज उन्हीं को इसका दोषी समझता है। पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि ऐसा तुम्हारे साथ ही क्यों हुआड़ औरत ने ही आदमी को उकसाया होगा यह धारणा इस हद तक हमारे अवचेतन में घुसपैठ कर चुका है कि प्रताडि़त स्त्री खुद को ही गुनहगार समझती है, बार-बार खुद ही से पूछती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ, उसने क्या गलत किया था, सोचती रहती है कि काश वह उस कमरे में न गई होती, शराब न पी होती, हंसी न होती। जैसा कि इस फैसले में कहा गया है, उसका आत्मविश्वास डगमगा जाता है। ऐसे आक्रमण की यादें उसके पीछा करती हैं, वजूद के किसी कोने में दुबकी रहती हैं और कभी भी किस भी क्षण उछल कर उसे दबोच लेती हैं। मजिस्ट्रेट के आदेश में इस पीड़ा (ट्रॅामा) की समझ साफ झलकती है।

पुरुष प्रधान समाज में यौन उत्पीडऩ काफी व्यापक है लेकिन हर स्त्री तब तक अकेली होती है जब तक कोई और भी उसके साथ चुप्पी तोड़ नहीं देती। ‘मीटू’  का सबसे बड़ा योगदान यही है कि इसने इस अपराध के इर्द-गिर्द के सन्नाटे के षड्यंत्र को तोड़ा, साफ कहा कि इसके लिए स्त्री जिम्मेदार नहीं है और अकेली भी नहीं है।

इस चुप्पी को तोडऩे की बात तो लंबे समय से हो रही है पर इसने आंदोलन की शक्ल तब ली जब न्यूयॉर्क की अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक तराना बर्क को एक बार किसी औरत ने अपने यौन उत्पीडऩ की बात बताई। उसकी शर्मिंदगी से त्रस्त तराना ने जवाब दिया, ”मेरे साथ भी हुआ है।‘’ इसके बाद उन्होंने 2006 ‘मीटू’ या ‘मेरे साथ भी’ का आंदोलन चलाया जिसका एक मकसद था चुप्पी को तोडऩा। कानूनी कार्रवाई हो या न हो, औरतों को पता तो चले कि वे अकेली नहीं हैं। इसके पूरे एक दशक से भी ज्यादा समय के बाद हॉलीवुड के निर्देशक, हेनरी वाईनस्टाइन पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगा। तब तक ट्विटर आ चुका था। वाईनस्टाइन पर आरोप के दस दिन बाद हॉलीवुड की एक अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने 15 अक्टूबर, 2017 को ट्वीट किया कि अगर और किसी के साथ भी ऐसा हुआ है तो इसका जवाब ‘मीटू’ लिख कर दें। एक टीवी साक्षात्कार में मिलानो ने कहा कि वह रात में यह ट्वीट करके सो गईं। सुबह उठीं तो देखा इसके पचास हजार जवाब आ चुके थे! कुछ ही दिनों में ‘मीटू’ आंधी बन कर इंटरनेट पर छा दुनिया भर में फैल गया। कई बड़े नाम इसकी चपेट में आए। मुंबई फिल्म उद्योग के नाना पाटेकर और टीवी के मशहूर अभिनेता आलोक नाथ समेत कई शख्सियतों पर इल्जाम लगे। कई ऐसे पत्रकारों पर भी आरोप लगे जो खासे प्रगतिशील समझे जाते हैं। इनमें विनोद दुआ का नाम भी शामिल है।

लेकिन इनमें से ज्यादातर आरोपियों का कुछ नहीं बिगड़ा। क्षति उन महिलाओं की ही हुई जिन्होंने आवाज उठाई।

सर्वोपरि, प्रिया रमानी के मामले में यह साफ हो गया की यौन हिंसा के मामलों में चेतना का विभाजन अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसे सिर्फ महिलाओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करके लड़ा नहीं जा सकता। इसका यह मतलब नहीं कि महिलाओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त ना किया जाए पर यह लड़ाई सिर्फ महिलाओं की मौजूदा सत्ता में हिस्सेदारी के मार्ग से लड़ी नहीं जा सकती। प्रिया के मामले में पत्रकार जगत में भी मत विभाजन रहे और कई स्त्रियों को भी दूसरे खेमे में खड़ा पाया गया। यह तो सर्वविदित है ही कि हर औरत की चेतना का स्तर एक सा नहीं होता लेकिन इसमें कई महिलाओं की भूमिका पर भी सवाल खड़े हुए हैं। इनमें सीमा मुस्तफा का नाम महत्व का है जो 1980 के दशक मे नारी अधिकारों पर महिला संगठनों में भाषण देने भी आया करती थीं। गजाला वहाब ने कहा है कि जब अकबर ने दफ्तर के भीतर उनकी देह पर हाथ फेरा तब उन्होंने फौरन सीमा मुस्तफा को बताया जो डेपुटी न्यूज एडिटर थीं। गजाला के अनुसार, सीमा ने उनसे कहा कि तुम क्या करना चाहती हो यह तुम पर निर्भर है, पर खुद कुछ नहीं किया। सीमा ने अपने जवाबी लेख में कहा है कि उन्हें तो यह सब याद नहीं पर गजाला ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। उन्होने यहां तक कहा कि जिन लोगों ने दलितों के यौन उत्पीडऩ को कवर नहीं किया उनको अपने उत्पीडऩ की शिकायतें करने का हक नहीं है!

इस फैसले से सिर्फ एक महीने पहले, 19 जनवरी को, बॉम्बे उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने एक फैसले में कहा था कि कपड़े उतारे बगैर देह पर हाथ फेरने को पोक्सो (बच्चों पर यौन आक्रमण संबंधी कानून) के तहत यौन आक्रमण नहीं माना जा सकता!

अकबर की वकील भी एक महिला ही रहीं, गीता लूथरा। एक वकील की हैसियत से कोई भी केस लेने का उन्हें अधिकार है लेकिन अदालत में उनका आचरण वकील के काम की जरूरत से कुछ ज्यादा ही आपत्तिजनक रहा। जब गजाला गवाही दे रही थीं, पूरा समय वह और उनकी टीम हंसती रहीं। हो सकता है कि यह गवाह का विश्वास डगमगाने का कोई हथकंडा हो मगर यह सचमुच अदालत की मर्यादा के भी अनुकूल नहीं था और किसी उत्पीडि़ता को और भी उत्पीडि़त करने के समान कहा जाएगा।

प्रिया रमानी केस में फैसले के अगले ही दिन भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को यौन उत्पीडऩ के एक मामले में पूरी तरह निर्दोष घोषित करने वाला फैसला सर्वोच्च न्यायालय से आया।

हमने 1980 के दशक से शुरू करके काफी लंबा सफर तय किया है। उन दिनों बलात्कार की रिपोर्टिंग में कहा जाता था कि लड़की का ‘मुंह काला’ हुआ या उसकी ‘इज्जत लुट गई’ जिसका स्त्री मुक्ति आंदोलन लगातार विरोध करता रहा। पहली बार 1980 में स्त्रियों ने सड़कों पर खुले आम नुक्कड़ नाटकों और नारों में बलात्कार शब्द का इस्तेमाल करके मीडिया को मजबूर किया कि इसे लड़की की इज्जत लुटना कहना बंद करें। तब जाकर बलात्कार को उसके घिनौने नाम से पहचाना गया। यह अकेला अपराध है जिसमें अपराधी की इज्जत नहीं लुटती!

इसी तरह जिसे उस युग में ‘ईव टीजिंग’ या छेड़छाड़ कहते थे उसे यौन हिंसा और यौन आक्रमण कहने का चलन भी नारीवादियों के आंदोलन के इस नए चरण से ही निकला। शायद पहली बार निर्भया के मामले में ऐसा हुआ कि बलत्कृता के बजाय अपराधियों को बड़े पैमाने पर बेइज्जत किया गया। इस संघर्ष के कई पड़ाव हैं पर उनका लेखा-जोखा यहां नहीं लिया जा सकता।

बेशक आज टेक्नॉलोजी ने जो संभव कर दिखाया है वह अवसर पहले नहीं था। अब ट्विटर, फेसबुक आदि ऐसे मंच हैं जिन पर बेरोकटोक और बिना संपादक की मध्यस्थता के काफी कुछ कहा जा सकता है। यह भी सच है कि यह मौके सिर्फ मध्य वर्ग की महिलाओं को ही उपलब्ध हैं पर निश्चित रूप से जब माहौल बदलता है तब सर्वत्र इसका प्रभाव देखने को मिलता है हालांकि इसमें वक्त लगता है। प्तमीटू के बाद यौन उत्पीडऩ के मामलों की शिकायतों में 54 फीसदी बढ़ोतरी हुई है, ऐसा राष्ट्रीय अपराध रिसर्च ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है।

इस फैसले के महत्व को जानने के लिए रुचिरा गिर्होत्रा केस का जिक्र जरूरी है। पंचकुला में उस पर हरियाणा के एक पुलिस सुपरिटेंडेंट शंभू प्रसाद सिंह राठौड़ ने 1990 में आक्रमण किया था, जिसे उसकी एक सहेली ने देख भी लिया था। उन पर केस करने पर रुचिका को स्कूल से निकाल दिया गया। उसकी सहेली को धमकियां दी गईं। रुचिका के भाई को कई झूठे मामलों में फंसाया गया और हिरासत में यातनाएं दी गईं। रुचिका ने 1993 में आत्महत्या कर ली तब यह सुर्खियों में आया। यह केस 19 साल चला और अंतत: राठौड़ को सिर्फ छह महीनों की जेल की सजा सुनाई गई। और कुछ ही मिनटों में उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया। इस मामले में भी उनकी वकील भी एक औरत थी, आभा, जो उनकी पत्नी भी थीं। वह पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर जनरल तक पदोन्नति पाता रहा।

आज स्थितियां इतनी बदली हैं कि हाल में दिल्ली में गाड़ी में बैठी एक स्त्री को अपने गुप्तांग दिखाने वाले पुलिस अधिकारी को सोशल मीडिया पर प्रचार और पुलिस अधिकारियों से बातचीत के बाद गिरफ्तार किया गया। इसका यह अर्थ नहीं है कि लड़ाई खत्म हो रही है। अभी तो लड़ाई शुरू हुई है।

सन्नाटे के इस रेगिस्तान में कुछ पदचिन्ह बन रहे हैं। पगडंडी बन रही है। रास्ता भी बनेगा।

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