छोटी छोटी बातें बड़े बड़े प्रसंग

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लगता है हमारी सरकारें मान कर चल रही हैं कि जनता को लगातार बहकावे में रखा जा सकता है। कोविड-19 महामारी की आड़ में वह कुछ किया जा रहा है जो आम जनता के हित में नहीं हैं और जिसके दूरगामी परिणाम आर्थिक-सामाजिक संकट को गहराने का ही काम करेंगे, पर दिखाया उन्हें महान उद्देश्य के तौर पर है।

उदाहरण के लिए पर सरकार के प्रत्यक्षत: बचत कार्यक्रमों को लिया जा सकता है। ये कार्यक्रम ऊपर से जितना मासूम लगते हों, सवाल है, क्या यह उतने हैं? एक छोटा-सा उदाहरण लें। कथित तौर पर अपव्यय को रोकने के लिए केंद्रीय सरकार ने और संभवत: राज्य सरकारों ने भी, इस वर्ष कलेंडर नहीं छापे। इस निर्णय के पक्ष में तर्क यह हो सकता है कि महामारी का दौर है, उद्योगधंधे ढप हैं। करों की उघाई हो नहीं पा रही है, इसलिए सरकार ने सिवाय अनिवार्य के, अन्य खर्च बंद कर दिए हैं। दूसरा यह कि हम डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके हैं इसलिए परंपरागत कलेंडरों की उपयोगिता/अनिवार्यता नहीं रही है।

परंपरागत कलैंडर अपनी पंचागीय महत्ता के अलावा कलात्मकता व सजावट के लिए भी याद किए जाते हैं। इसलिए ये निम्न, निम्न मध्य वर्ग के घरों की दीवारों पर सम्मान के साथ टंके नजर आते हैं। इनका प्रचारात्मक महत्त्व भी किसी अन्य माध्यम से कम नहीं है। चूंकि केंद्रीय सरकार ने कलेंडर नहीं छापे इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के सभी संस्थानों ने भी नहीं छापे। यही हाल लगभग सभी राज्य सरकारों का रहा। भारत जैसे देश में जहां आधुनिक से आधुनिक और पुरानी से पुरानी चीजें सह अस्तित्व बनाए हुए हैं इस तरह के इकतरफे निर्णय सत्ताधारियों की असंवेदनशीलता को बतलाते हैं। वैसे भी देश का विकास जिस तरह हुआ है और जैसी आर्थिक और सामाजिक विषमता हमारे चारों ओर है उसे देखते हुए भी इस तरह के निर्णय नासमझी का उदाहरण ही कहे जाएंगे।

इसलिए तर्क हो सकता है कि अगर ऐसा है तो बहुत सी ऐसी चीजें अभी भी प्रयोग में हैं जिन्हें अपनी सीमाओं के अलावा स्पष्ट रूप से हानिकारक, बल्कि अमानवीय होने के कारण, दशकों पहले खत्म कर दिया जाना चाहिए था। उदाहरण के लिए गटरों को साफ करने वाली मशीनें एक अनिवार्यता के रूप में देश भर में कब की आ चुकी होतीं। सफाई की बात इसलिए की जा रही है कि देश की राजधानी में 27 मार्च को दो सफाई कर्मी गटर में उतरने के दौरान मारे गए। उससे सिर्फ पांच दिन पहले एक और सफाई कर्मी इसी तरह, इसी दिल्ली में, गटर में मरा था। यह कोई अपवाद नहीं, देशव्यापी परिघटना है। शायद ही कोई वर्ष ऐसा जाता हो जब इस तरह की मौतें न होती हों।

पर देश की राजधानी दिल्ली को सुंदर बनाने और इस बहाने अपनी कलात्मकता के निशान इतिहास में छोड़ जाने की मंशाओं के हजारों सालों के अवशेष इस शहर के कोने-कोने में देखे जा सकते हैं। सत्ताधारियों की पुरानी बीमारी कुतुब मीनार को लीजिए। महल टूट गए हैं, किले ध्वस्त पड़े हैं पर मीनार विगत 800 साल से अटल है। ऐसा ही कुछ अंग्रेज करना चाहते थे। इसी मंशा से उन्होंने रायसीना की पहाड़ी को चमकाया, नया शहर नई दिल्ली बसाया, पर खुद ज्यादा रह नहीं पाए। स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी भी इस प्रलोभन से बच नहीं पा रहे हैं। अगले दो साल में जो 20 हजार करोड़ खर्च किए जाने हैं, उन्हें इस संदर्भ से काट कर देखने की गलती न की जाए।

दूसरी ओर है दिल्ली का ‘सबसे लोकप्रिय’ मुख्यमंत्री है, उस बेचारे की अपनी समस्याएं हैं। स्वदेश प्रेम के शेयर इस समय सबसे ज्यादा उठान पर हैं। वह भी ‘दिल्ली से चल कर दिल्ली’ पहुंचना चाहता है। दिल्ली की सरकार ने 45 करोड़ की लागत से महानगर के चप्पे चप्पे में पांच सौ गगन चुंबी झंडे लहराने तय किए हैं। वहां पर देश भक्ति के गीत गाने के लिए 10 करोड़ का अतिरिक्त प्रावधान है। पर जहां तक गटर की सफाई के दौरान मरने वालों की अमानवीय और शर्मनाक घटनाएं हैं उन्हें रोकने का न तो कोई राज्य स्तर का और न ही देशव्यापी कार्यक्रम है। वैसे कोई चाहे तो यह काम एक दिन में हो सकता है।

केरल की एक कंपनी ने 2018 में एक रोबोट बना दिया है जिसकी कीमत 40 लाख है। यह बिना किसी आदमी को गटर में उतरे सीवर लाइनें साफ कर देता है। अगर दिल्ली सरकार चाहती तो वह इस देशभक्ति के नाम पर किए जाने वाले ‘झंडा-नाटक’ की जगह सौ से ऊपर रोबोट खरीदकर इस अमानवीय और शर्मनाम परंपरा को सदा के लिए खत्म करने की पहल कर सकती थी। पर किसी सफाई कर्मचारी की इस महान संस्कृति वाले देश में क्या औकात है! साफ है कि इस समाज में उसका कोई स्थान नहीं है।

भारत का आजादी के बाद का ‘सबसे ताकतवार’ प्रधान मंत्री भी दिल्ली में ही बैठता है। मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन शुरू किया हुआ है जिस पर अब तक सिर्फ 57 हजार करोड़ खर्च किए जा चुके हैं। निश्चय ही ये शौचालय बनाने में लगाए गए हैं। चूंकि गांव तो छोड़ आज भी देश के कई शहरों में निकासी की उचित नालियां और सिवर व्यवस्था नहीं है, परिणामस्वरूप स्वच्छ भारत अभियान ने जहां-तहां सेप्टिक टैंकों का अंबार लगा दिया है। यह सब तो ठीक है पर उन्हें किस तरह साफ किया जाएगा, उसकी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं की गई है। नतीजा: टाइम्स आफ इंडिया (28 मार्च) के अनुसार हर पांचवे दिन देश में एक सफाई कर्मचारी की बली स्वच्छता की देवी को चढ़ती है। यानी अनुमानत: 73 सफाई कर्मी हर वर्ष मैनहोलों/सेप्टिक टैंकों को साफ  करते हुए शहीद होते हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं, सच्चाई निश्चय ही कई गुना विकराल हो सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय का 2014 का फैसला है कि काम के दौरान मरने वाले हर सफाई कर्मी के परिवार को दस लाख दिए जांए। पर यह कितना मुश्किल है इसका उदाहरण मुंबई में 2017 में मरे सफाईकर्मी सचिन का है, जिसकी पत्नी को आज तक धेला नहीं मिला है और वह लगातार भटक रही है। अंदाज लगा सकते हैं कि गरीब अनपढ़ों के लिए यह मुआवजा वसूल कर पाना कितना कठिन काम है। ऐसी अमानवीयता, ह्दय हीनता और बर्बरता दुनिया के किसी और सभ्य व लोकतांत्रिक कहलाने वाले देश और समाज में क्या ही मिलेगी!

याद कीजिए मोदी जी का सात साल पुराना चित्र, जब वह लंबी डंडीवाला झाड़ू लेकर दिल्ली की सड़कों को साफ करने निकले थे। प्रतीकवाद हमारी संस्कृति का आधार है। यहां स्वच्छता अभियान चलते हैं पर उन अभियानों के सहभागी सफाईकर्मी शायद ही होते हों। ‘दलित आदिवासी शक्ति अधिकार मंच’ के अनुसार सिर्फ भारत की ही राजधानी में पिछले साढ़े तीन साल में (अगस्त 2017 से मार्च 2021) तक कुल मिला कर 11 लोगों की मौत सिविरों में हुई है। क्या हमारे रहनुमाओं का गलती से भी इस ओर ध्यान गया होगा?

 

कलैंडर कथा

इस वर्ष केंद्रीय सरकार ने ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों ने भी कोरोना के कारण आई आर्थिक मंदी की आड़ लेकर कलैंडर-डायरियां आदि नहीं छापे। इससे केंद्र और राज्य सरकारों ने आखिर कितने करोड़ की बचत की होगी? अगर यह सवाल न उठाएं तो भी,यह पूछा जाना चाहिए कि क्या उस पैसे का इस्तेमाल किल्लत झेल रही सरकारों ने पूरी मितव्ययिता से किया होगा?

यह सवाल ही हास्यास्पद है? या अप्रासंगिक है? जरा एक नजर इस बात पर डालिए कि केंद्र की और राज्य की भाजपा सरकारें ही कितने रुपए का हर वर्ष विज्ञापन करती हैं? जो सामने है वह देखें: मोदी सरकार ने वर्ष 2019-2020 में प्रति दिन सिर्फ एक करोड़ 95 लाख रुपए अपने प्रचार पर खर्च किए, यानी उस वर्ष कुल 713.20 करोड़ रुपए इस मद में खर्च हुए। इसी तरह दिल्ली की केजरिवाल सरकार का खर्च एक वर्ष का 78 करोड़ था।

स्पष्टत: यह जानने के लिए अतिरिक्त श्रम की जरूरत नहीं है कि हमारी सरकारों की वरियता क्या है?

इस वर्ष मार्च के शुरू में ही उत्तराखंड की सरकार का, हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ का ‘दिव्य भाव एवं सुरक्षित कुंभ 2021-हरिद्वार’ शृंखला का कई-कई पृष्ठों का विज्ञापन सभी भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं और अन्य माध्यमों में प्रकाशित हुआ और अब भी हो रहा है। यह तब है जब देश में चारों ओर कोविड -19 जोर मार रहा है। हरिद्वार से समाचार आ रहे हैं कि वहां किसी तरह की कोई सावधानी नहीं बरती जा रही है। यों भी सवाल है सरकार ऐसे समय में जब शहर दर शहर तरह तरह की बंदिश में हों, इस भयावह महामारी ने दुनिया भर में तबाही मचा दी हो, अर्थव्यवस्थाएं तहस-नहस हो गई हों, लोग बेरोजगार हो भूख से मरने के कगार पर हों, ऐसी धार्मिकता क्यों फैलाने में लगी है, जो भक्तों के लिए ही जानलेवा साबित हो?

सब जानते हैं क्यों? पर विडंबना देखिए ‘देवभूमि’ का नया मुख्यमंत्री आते ही कोविड का शिकार हो गया है!

आप उत्तर प्रदेश को ही लीजिए जहां एक योगी सत्ता संभाले है। उनके विज्ञापन का बजट कितना हो सकता है इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। मार्च के मध्यमें जब उनकी सरकार के चार वर्ष पूरे हो रहे थे देश की पत्र-पत्रिकाएं राज्य सरकार के पांच-पांच, छह-छह पेजों के रंगीन विज्ञापनों से भरी हुई थीं। समाचार चैनलों में लंबे लंबे विज्ञापन आ रहे थे। पत्र-पत्रिका दक्षिण की हों या उत्तर की अगर वे मोदी और योगी सरकार की आलोचक नहीं हैं तो हर तिमाही या छमाही में उनमें चार-छह पृष्ठ का योगीमय विज्ञापन देखने को मिलना आम बात है। क्या बेहतर नहीं होता कि उप्र सरकार इस पैसे को गटर में मरने वाले अभागे लोगों की स्थिति को सुधारने में लगाती? अजीब संयोग है कि पिछले पांच वर्षों में सबसे ज्यादा, 52 सफाई कर्मचारी मैनहोलों में उत्तर प्रदेश में ही मरे हैं। अंग्रेजी दैनिक दि हिंदू की रिर्पोट के अनुसार इनमें से अधिकांश को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मुआवजा भी नहीं मिला।

 

तारीख की तारीख

इस संपादकीय की शुरुआत कलैंडर से की थी। बात खत्म करने का समय आ गया है। सवाल हो सकता है अगर सरकार कलैंडर पर खर्च नहीं कर रही हो तो आपत्ति क्या हो सकती है?

कलैंडर छापना, डायरियां छापना आदि काम, जो केंद्रीय व राज्य सरकारों के अलावा उनके विभिन्न विभाग व संस्थान कराते रहे हैं, इस काम को कोई अंबानी, अडाणी या टाटा नहीं करते हैं। उसमें उन्हें कितना पैसा मिलेगा? बहुत हुआ तो पांच-दस करोड़। असल में इसे वे लोग करते हैं जो विगत आठ वर्ष से भाजपा को वोट देते रहे हैं पर उनकी औकात, राजनीतिक बिसात में, न के बराबर है। निश्चय ही ये वे लोग तो नहीं ही होंगे जो चुनावी बांड खरीदते हैं। पर हां, ये वे लोग हैं जो देश के विभिन्न शहरों में फैले छोटे-मोटे प्रेस चलाते हैं। इनमें से अधिकांश के पास एक वोटर आईडी भी जरूर है, उसे साधने के राजनीतिक दलों के पास कई तरीके हैं। विशेषकर भाजपा बखूबी जानती है वोट कैसे सकेरा जाता है। इसलिए फिलहाल चिंता किस बात की? जब देश आगे बढ़ता है, थोड़ा बहुत बलिदान भी होता ही है।

ये वो प्रेस हैं जिनमें दस बीस से सौ पचास तक कर्मचारी काम करते हैं। कोविड के कारण छोटे प्रेसों का काम गत वर्ष लगभग ठप्प रहा था। कई प्रेस बंद थे चूंकि छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाएं तो बंद थीं हीं, किताबों की भी छपाई नहीं हो रही थी। यहां तक कि बड़े -बड़े अखबारों ने अपने पृष्ठ कम कर दिए थे। पत्रकारों से लेकर प्रेस के कर्मचारियों तक की छंटनी क र दी गई थी। अगर सरकार कलैंडर और डायरियों छापती तो निश्चय ही इन छोटे प्रेसों को थोड़ा-बहुत ही सही, काम मिलता। इन से जुड़े कई और छोटे-मोटे काम निकलते, जो इन्हें सजाने से लेकर बाइंडिंग आदि के होते हैं, कई और का पेट भरते। इस तरह से उन असुरक्षि छोटे कर्मचारियों की रोटी रोजी का जुगाड़ होता जो किसी तरह जान बचाए हुए हैं।

पर इससे सरकार का क्या सरोकार! सेंसेक्स तो कुलांचे मार रहा है। अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने का और बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है!

साफ है कि मामला इतना सीधा नहीं है। कैसे? आप दीवार पर लटकने वाले कागज के कलैंडर इस्तेमाल नहीं करेंगे तो फिर दैनंदिन जीवन, शादी-ब्याह, छुट्टी, स्कूल, परीक्षाएं, पर्यटन वगैरह की किस तरह योजना बनाएंगे? सरकार कहती है, सबके हाथ में फोन जो है, उससे काम चलाएं। बेहतर फोन लें, सुविधा भी बेहतर होगी। ऑन लाइन का जमाना बिजली की तरह गिरा है। पढ़ाई तक इसी माध्यम से हो रही है, तारीख भी देख लीजिए। नतीजा, वे बड़े-बूढ़े जिन्हें अब तक ऑन लाइन का चस्का नहीं लग पाया था और जो घर के किसी कोने में बैठे अब भी अखबार ही पढ़ते हैं, उनका भी उद्धार निश्चित है। देश-दुनिया की बड़ी-बड़ी डिजिटल कंपनियों का कारोबार यों ही नहीं बढ़ा है। उनका ‘डाटा कारोबार’ यानी आम आदमी के बारे में सूचना जुटाने-बेचने का धंधा, जो इस समय दुनिया का सबसे लाभकारी धंधा है, और चमकेगा। आपको क्या लगता है, अंबानी की आय में होने वाली अकल्पनीय बढ़ोतरी यों ही हो गई है?

 

नौकरी जहां है

इधर अमेरिकी सरकार ने अपने नागरिकों को, अर्थव्यवस्था के कोविड से प्रभावित होने के कारण, नकद एक हजार चार सौ डालर देने का फैसला किया है। तर्क है कि लोगों के हाथ में जब पैसा जाएगा तो वे खर्च करेंगे और अर्थव्यवस्था पटरी पर जल्दी लौटेगी। हमारी परम लोकप्रिय सरकार ने ठीक उल्टा काम किया है। उसने सुनिश्चित किया कि टाटा को काम मिले, अंबानी को मिले और हां, अडाणी को भी मिले। सरकार ने स्पष्ट कर दिया है उसका काम नौकरी देना नहीं है।

टाटा के बारे में बात करते हैं। वह 20 हजार करोड़ की लागत का सेंटर विस्टा का निर्माण कर रहा है, जिसे उसे 2022 तक पूरा करना है। निश्चय ही वह इसके लिए ज्यादा से ज्यादा मशीनों का इस्तेमाल करेगा। जल्दी है! हर मशीन दस बीस नहीं सौ दो सौ श्रमिकों को बेरोजगार करेगी। हम मानव श्रम संपन्न देश हैं। कहने वाले कहते रहें, आदमी को काम न मिलना भुखमरी और सामाजिक अस्थिरता पैदा करेगा। पर यह हमारे नेतृत्व से परे की चिंता है। वह हड़बड़ी में है कि भारत आधुनिक जल्दी से जल्दी हो।

स्पष्ट तौर पर सरकार हाथ झाड़ चुकी है।

जो मरे, सो मर गए। बेरोजगार सिर्फ बेवकूफ हुए क्यों कि अंबानी ने पिछले वर्ष हुए लॉकडाउन में प्रति घंटा 90 करोड़  रुपए कमाए। उनकी कुल आमदनी बढ़कर 6,58,400 करोड़ पर पहुंच गई है। निश्चित है कि वह देश के कई राज्यों की सालाना आय से ज्यादा ही होगी। दूसरी ओर एक और अडाणी सेठ हैं जिन्होंने उसी लॉकडाउन काल में 1,257.12 अरब रुपए कमाए। अब उनकी कुल आय 3,630 अरब रुपए आंकी गई है। ये आंकड़े उस धरती के नहीं हैं, जहां लॉक डाउन के दौरान प्राण बचाने के लिए भागते लोग भेड़ बकरियोंकी तरह सड़कों पर मरे।

इसलिए उसी दुनिया की बात करते हैं जहां के हम हैं। हमारी दिल्ली! राष्ट्र की राजधानी क्षेत्र के कई नगर निगम दिवालिया हो चुके हैं। सही समय पर तनख्वाह दे पाने में असमर्थ हैं। डाक्टरों को यहां हर दूसरे महीने तनख्वाह के लिए हड़ताल करनी होती  है। सफाई कर्मचारियों की बात हो ही चुकी है।

आम आदमी की कीमत लाखों नहीं, हजारों से भी नीचे गिर चुकी है। इस पर भी पक्का नहीं कि किसी को सम्मान जनक नौकरी और आय का साधन मिलेगा। सरकारी कंपनियां नीलामी के लिए बाजार में लाइन में लगी हैं। जमीन-जायदाद बिकाऊ है। क्या बताना होगा खरीदार कौन होगा?

जानते हैं उन्हें कौन खरीदेगा और पैसा कहां से आएगा, पर फिलहाल हम नहीं जानते। बहुत कुछ जो जानना चाहिए।

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