खेती के साम्राज्यवादी पुनर्गठन से लड़ता किसान

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  • ज्ञानेंद्र सिंह

 

दिल्ली की संवेदनहीन दहलीज पर किसान आंदोलन दो माह से ज्यादा पूरे कर चुका है। कड़ाके की ठंड और बारिश की मार झेलते बार्डरों पर मोर्चा लिए हुए किसान अपने अस्तित्व को बचाने की आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं- 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड में शहीद हुए 24 साल के नौजवान के दादा के शब्दों में यह ‘’आखिरी आंदोलन’’ है।

केंद्र सरकार और किसानों के बीच चल रही वार्ताएं बेनतीजा रहीं। किसान आंदोलन ने दो-एक बैठकों के बाद ही बातचीत करके समाधान निकालने के बारे में सरकार की बेरुखी का खुलासा कर दिया था लेकिन फिर भी वे बातचीत की रस्म निभाते रहे, जब तक केंद्रीय मंत्री एकतरफा तौर पर बातचीत से पीछे नहीं हट गए। सुप्रीम कोर्ट को शिखंडी के तौर पर आगे करके कमेटी बनाने के सरकार के शुरुआती प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की कोशिशों का भी पर्दाफाश हो गया। कोर्ट द्वारा नियुक्त 4 सदस्यों में से एक भूपेंद्र सिंह मान को उसी किसान संगठन से निष्काषित कर दिया जिसके वह नेता थे। शर्मिंदगी से बचने के लिए उन्होंने खुद को कमेटी से अलग कर लिया।

बातचीत के लंबे और थकाऊ सिलसिले से ऊबे हुए किसान नेताओं ने 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र दिवस की एक समानांतर परेड का आयोजन करके सरकार को चुनौती दी कि यह देश उतना ही किसानों और आम जनता की भी है जितना कि देश के शासकों का। किसान नेताओं के इस आह्वान का व्यापक असर हुआ। लाखों किसान और मजदूर ट्रेक्टर ट्रालियों, कारों, मोटर साइकिलों और बसों में, तो बहुत से पैदल ही दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली की ओर कूच करते इस जनसैलाब को देखकर घबराई सरकार और प्रशासन-तंत्र ने 26 जनवरी के दिन आंदोलनकारियों को एक अराजक भीड़ में बदलने की पूरी कोशिश की। दिल्ली के रास्तों से अनजान किसानों को तयशुदा रूट से भटक जाने दिया। किसानों के बड़े पैमाने पर हुए शांतिपूर्ण मार्च और आम-जनता को भटक जाने दिया, किसानों के शांतिपूर्ण मार्च और आम-जनता द्वारा उनके स्वागत की अभूतपूर्व छवियों को सार्वजनिक होने से रोकने के हताशा भरे प्रयास में हिंसा की छिट-पुट घटनाओं को राष्ट्रीय गोदी मीडिया द्वारा लगातार दिखाया जाता रहा और आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई। किसान नेताओं पर झूठे केस लादे जा रहे हैं और उन्हें एक बड़ी साजिश का अंग बताया जा रहा है।जब गोदी मीडिया लाल किले पर हुई प्रशासन-प्रायोजित ‘हिंसा’ का आरोप आंदोलनकारियों पर मढ रहा था, भाजपा ने अराजक तत्वों को लेकर धरनास्थलों पर हमला किया और भारी पुलिस बल के साथ धरने उठाने की कोशिश की लेकिन किसान नेता राकेश टिकैत की बहादुरी और समर्थन की भावुक अपील ने प्रशासन की साजिश को नाकाम करके आंदोलन में नई जान फूंक दी है।

नेता अपनी ताकत को बटोरकर आगे की रणनीति बनाने में लगे हैं। दूसरी ओर सरकार है जो पूरी तरह अडिय़ल रवैया अख्तियार कर चुकी है। लाखों किसानों और नागरिकों के कष्ट और पीड़ा उसके ऊपर बेअसर साबित हुए हैं। रोजाना औसतन 2 किसान धरने पर दम तोड़ रहे हैं लेकिन पत्थरदिल मंत्रियों की नजर में जैसे उनकी जान की कोई कीमत नहीं। अपने को नेता कहने वाले लोग आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे संवाद करने के बजाय इधर-उधर कूद-फांद करते फिर रहे हैं, फर्जी किसानों और मनचाहे दर्शकों के बीच बयानबाजियां करते, कानून के फायदे गिनाते घूम रहे हैं। संसदीय प्रक्रियाओं का खून बहाने के बाद अब किसानों की मौत का तमाशा देख रहे हैं।

देश का हर संवेदनशील नागरिक बेचैन है। इस संकट का आखिर क्या समाधान निकलेगा? क्या सरकार झुकेगी और इन कानूनों को वापस ले लेगी? या फिर आंदोलनकारी थक कर टूट जाएंगे या उनको पुलिस-प्रशासन और मीडिया की ताकत से उखाड़ फेंका जाएगा? आखिर इन कानूनों के पीछे ऐसी क्या वजह है कि सरकार अपनी जनता, अपने लोगों की आवाज सुनने को तैयार नहीं है। ”गूंगी और बहरी’’ बन गई है।

 

वर्तमान संघर्ष की पृष्ठभूमि

आजादी के बाद देश के विकास का जो रास्ता अख्तियार किया गया था,1980 के दशक तक आते-आते वह ठहराव का शिकार हो गया। 1991 में उसे त्याग कर इलाज के तौर पर विश्व बैंक और मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नई नीतियों को अपना लिया गया। 1991 से लेकर 1994-95 तक देश के भीतर इन नीतियों का तीखा विरोध हुआ, जिसका नेतृत्व भाजपा से लेकर वामपंथ तक तमाम विरोधी पार्टियां या उनके द्वारा बनाये गए जन-संगठन कर रहे थे। भाजपा का स्वदेशी जागरण मंच तब काफी सक्रिय था और उनकी नजर में ‘डंकल प्रस्ताव’ ‘गुलामी का दस्तावेज’ था। लेकिन 1994 में ‘विश्व व्यापार संगठन’ और 1995 में इसी के तहत हुए ‘कृषि समझौते’ पर दस्तखत हो जाने के बाद एक के बाद एक पार्टियां और सरकारें उसी रास्ते पर चलती गईं।

विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के कृषि समझौते के तीन प्रमुख बिंदु थे: घरेलू कृषि-बाजार को खोलना, कृषि उत्पादन को घरेलू सहायता में कटौती और कृषि-निर्यात सब्सिडी में कटौती। कृषि-समझौते के लागू होते ही सरकारों ने चरणबद्ध ढंग से खाद्यान्नों और दूसरे कृषि-उत्पादों के विदेशों से आयात पर लगी रोक, कोटे और शुल्क हटाने शुरू कर दिए, कृषि-निर्यात को दी जाने वाली सब्सिडी और खेती की लागत (खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली, पानी, मशीनरी इत्यादि), फसल खरीद और भंडारण के लिए किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी क्रमश: काटी जाने लगी। इन नीतियों के परिणामस्वरूप हमारे देश में कृषि की लागत बढऩे लगी और सरकारी खरीद न होने से कीमतें अस्थिर हो गईं। भारतीय किसानों को बिलावजह बाजार में ऐसे विदेशी कृषि-उत्पादों से मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ा जिन्हें भारी सब्सिडी मिल रही थी। उदाहरण के लिए, अमरीका अपने 20 लाख 20 हजार किसानों को कुल कृषि उत्पादन के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा सब्सिडी दे रहा है, जबकि भारत में नेट सब्सिडी ऋणात्मक है।

इसके अलावा,1991 में स्वीकार किए गए अंर्तराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक निर्देशित ‘ढांचागत समायोजन कार्यक्रम’ के तहत भारत पर अपने बजट-घाटे को संतुलित रखने का भी दबाव है, जिसकी वजह से 2004 में वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम पारित किया गया। इन शर्तों के चलते भारत सरकार डब्लूटीओ में अनुमति होने के बावजूद सब्सिडी जारी नहीं रख पा रही है। उदाहरण के लिए, डब्लूटीओ के तहत अधिकतम 10 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदा जा सकता है। लेकिन भारत सरकार अभी केवल छह प्रतिशत खरीद रही है और उससे भी हाथ खींचने की कोशिश कर रही है।

डब्लूटीओ के तहत तमाम आयातों पर लगने वाले शुल्क और कोटे में भारी गिरावट से सरकार की आय घटती जा रही है और वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए वह आम जनता पर होने वाले खर्च में कटौती करती जा रही है। कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी के अलावा शिक्षा, इलाज, ग्रामीण विकास इत्यादि को मिलने वाली सरकारी सहायता भी कम होती गई है, जिससे किसान और खेत-मजदूर के परिवार पर अतिरिक्त खर्चों का बोझ बढ़ गया है। बजट के पहले सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार निजीकरण के कारण इलाज का ‘आउट आफ पाकेट’ खर्च 65 प्रतिशत तक बढ़ गया है। देश के 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों के लिए ये नीतियां विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। 1990 के दशक तक देश में किसानों की आत्महत्याएं चर्चा का विषय नहीं थीं, लेकिन इन नीतियों के लागू होने के साथ ही,1997 से देश में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगीं। कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होने लगे। 1997 से 2015 तक 3 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके थे। बड़े पैमाने पर हो रही किसानों की आत्महत्याओं और कृषि पर गहराते संकट के समाधान के लिए 2004 में स्वामीनाथन कमीशन का गठन किया गया जिसने 2006 तक अपनी पांच रिपोर्टें सरकार को सौंपीं। देश के किसानों को इस संकट से उबारने के लिए स्वामीनाथन कमीशन ने 200 से ज्यादा सुझाव सरकार को दिए थे, जिनमें किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य (सभी लागत, जिसमें जमीन का किराया और परिवार की मेहनत का मूल्य भी शामिल है, पर 50 प्रतिशत अतिरिक्त) दिए जाने, सार्वजनिक खरीद और वितरण प्रणाली का विस्तार करने, किसानों को सस्ते ऋण और किसान राहत-कोष के गठन से लेकर आदिवासियों को चरागाहों की गारंटी करने तक के सुझाव थे। तब से लेकर आज तक तमाम किसान संगठन कृषि-संकट के समाधान के लिए स्वामीनाथन कमीशन को लागू करने की मांग करते रहे हैं। दूसरी ओर, केंद्र में शासन करने वाली विभिन्न पार्टियों की सरकारें वोट लेते समय तो किसानों से स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का वायदा करती हैं, लेकिन सत्ता में आते ही उसे अव्यवहारिक बताने लगती हैं। दूसरी ओर, देश के किसानों और खेती को तबाह करने वाले डब्ल्यूटीओ समझौते, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों पर अमल बदस्तूर जारी रहता है।

 

साम्राज्यवादी एजेंडा

अधिकांश साम्राज्यवादी देश ठंडी जलवायु वाले हैं। वहां गन्ना, कपास, काफी जैसी अन्य फसलें चाहकर भी नहीं उगायी जा सकतीं, जिनके उत्पादों की उनके उपभोक्ताओं में भारी मांग है। दूसरी ओर, वे गेहूं, चावल, और मक्का जैसे खाद्यान्नों के विशाल भंडारों का उत्पादन करते हैं, जो उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा है। वे चाहते हैं कि भारत समेत अन्य तमाम विकासशील और गरीब देश उनसे खाद्यान्नों का आयात करें और अपनी खाद्यान्न की खेती को छोड़कर उनके और दुनियाभर के अमीर उपभोक्ताओं की जरूरतों की पूर्ति के लिए गन्ना, कपास, चाय और काफी जैसी नकदी फसलों का उत्पादन शुरू करें। इसे कृषि के विविधीकरण (डाइवर्सिफिकेशन) के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है। इसके अलावा धान की खेती में होने वाली पानी की भारी खपत को लेकर पर्यावरण संबंधी चिंताएं भी जाहिर की जा रही हैं ताकि धान की खेती की जगह किसान दूसरी फसलों की ओर रुख करें।

भारत में छोटे किसानों की बहुतायत है जो मुख्यत: अपनी खाने की जरूरत को पूरा करने के लिए अनाज उगाते हैं और उसका कुछ हिस्सा बेचकर अपनी बाकी जरूरतें पूरा करने की कोशिश करते हैं। मुनाफे के लालच में अगर वे टमाटर, कपास जैसी दूसरी नगदी फसलों की तरफ जाते भी हैं तो बाजार में उसकी खरीद और कीमत की कोई गारंटी नहीं होने के चलते जल्दी ही उन्हें भारी घाटा उठाना पड़ता है और वापस परंपरागत खेती की ओर लौटना पड़ता है। उदाहरण के लिए पंजाब में 1989 में पेप्सी कंपनी ने होशियारपुर के जहूरा में स्थित अपने टमाटर प्रोसेसिंग प्लांट के लिए टमाटर उगाने के लिए किसानों से कांट्रेक्ट किया। यह प्लांट अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए पैक्ड पेस्ट और चटनी बनाता था। इसके अलावा मूंगफली और हरी मिर्च की खेती के लिए भी किसानों के साथ कांट्रेक्ट किये गए थे, जिनके तहत कंपनी बीज, पौध से लेकर पैदावार के तरीके तक किसानों को बताती थी। लेकिन कुछ दिनों के बाद ही जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतियोगिता बढ़ी कंपनी ने फसल की गुणवत्ता के नाम पर किसानों को कम कीमत देनी शुरू कर दी जिसके चलते किसानों को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। देश के दूसरे हिस्सों में भी ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां किसानों ने भारी कर्ज लेकर मुनाफे की उम्मीद में कपास बोई लेकिन जब किसी वजह से, खराब बारिश या कीड़े लगनेकी वजह से उत्पादन अच्छा नहीं हुआ तो वे दाने-दाने को मोहताज हो गए।

 

इतिहास के सबक

अगर हम अंग्रेजों की गुलामी के अपने इतिहास को याद करें तो कृषि के साम्राज्यवादी पुनर्गठन की इन कोशिशों के परिणामस्वरूप होने वाली भावी तबाही के मंजर की कल्पना कर सकते हैं।

अंग्रेजों ने चीन से अपने व्यापार घाटे को पूरा करने के लिए भारत के किसानों को नील, चाय और अफीम की खेती करने के लिए बाध्य किया, जिसका परिणाम 1859 के नील-विद्रोह के रूप में सामने आया। 1860 के अमरीकी गृह-युद्ध के समय ब्रिटिश कारखानों की कपास की मांग की पूर्ति के लिए किसानों को कपास की खेती के लिए विवश किया गया। लेकिन जब युद्ध खत्म होने के बाद कपास की मांग घट गई, तो किसानों को बेसहारा छोड़ दिया गया, जिसके चलते 1870 के दशक में दक्षिण- पश्चिमी भारत में अकाल पड़ा और खाने के लिए दंगे हुए।

अमरीका और योरोप की जूट उत्पादों की मांग की पूर्ति के लिए पूर्वी भारत में, खासकर 1906-13 के बीच जूट की खेती को बढ़ावा दिया गया, जिसकी मांग 1930 के दशक तक खत्म हो गई। परिणामस्वरूप आया 1943-44 का बंगाल का अकाल। यह ऐसा अकाल था जिसकी वजह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि यही नीतियां थी। 1893-94 से 1945-46 के बीच देश के अलग-अलग इलाके में जूट, नील (बंगाल), अफीम, तंबाकू (बिहार), कपास (महाराष्ट्र और कर्नाटक) और चाय (असम) जैसी नकदी फसलों का उत्पादन 85 प्रतिशत बढ़ा जबकि खाद्यान्न उत्पादन में सात प्रतिशत की गिरावट आयी। 1900 में जहां देश में खाद्यान्न उपलब्धता प्रतिव्यक्ति 200 किलोग्राम थी, वह घटकर 1933-38 में 159 किलो और 1946 में मात्र 137 किलो रह गई। इसका परिणाम विनाशकारी अकालों और भुखमरी के रूप में सामने आया। जहां देश के 2000 सालों के पिछले ज्ञात इतिहास में केवल 17 अकाल पड़े थे, वहीं ब्रिटिश काल में 34 अकाल पड़े जिनमें करोड़ों लोग भूख से मारे गए, किसानों की आधी से ज्यादा आबादी नष्ट हो गई और बहुत से किसान और खेत मजदूरों को अंग्रेजों के उपनिवेशों में काफी, चाय के बागानों में काम करने के लिए फीजी, मारीशस वगैरह जाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

 

जब देश की किसान-मजदूर आबादी इस तबाही का सामना कर रही थी, अंग्रेज अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए अनाज और अन्य नगदी फसलों का निर्यात बढ़ाने में लगे थे। 1859-60 और 1879-80 के बीच खाद्यान्नों का निर्यात लगभग तीन गुना, कपास का दो गुना, जूट का सात गुना, चाय का लगभग 28 गुना और अफीम का 1.6 गुना बढ़ा। जबकि इसी दौरान 1865 में उड़ीसा, बंगाल, बिहार और मद्रास प्रेसीडेंसी के इलाके में 1876-78 के बीच उत्तरी पूर्वी भारत और दक्षिण भारत में भीषण अकाल पड़े जिनमें केवल मद्रास प्रेसीडेंसी में 50 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई। भले ही देश के शासक इस इतिहास को भूल गए हैं, किसानों की परंपरा में इन स्मृतियों के दंश आज भी ताजा हैं।कृषि के साम्राज्यवादी पुनर्गठन के इस एजेंडा की सबसे बड़ी बाधा है फसल की खरीद और वितरण का सरकारी ढांचा और देश का छोटा किसान जो अपने खाने की जरूरतों के लिए खेती करता है, व्यापार के लिए नहीं। एफसीआई के गोदामों में मौजूद अनाज के भंडार उनकी आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। वे किसी भी कीमत पर इस व्यवस्था को नष्ट करना चाहते हैं।

2006 से ही जब कारपोरेट पूंजी को खुदरा कारोबार में निवेश की इजाजत दी गई, बड़ी कंपनियां घात लगाये 18 अरब डालर के भारतीय खुदरा बाजार की ओर गिद्ध दृष्टि से देख रही हैं। भारतीय खुदरा बाजार पूरी तरह बिखरा हुआ है और असंगठित क्षेत्र की एक बड़ी आबादी के लिए जीविका का साधन है। जिसको कोई काम नहीं सूझता मोहल्ले में किराने की छोटी दुकान लगाकर बैठ जाता है। बड़ी कंपनियां चाहती हैं कि फसल उगाने, उसकी खरीद से लेकर थोक और खुदरा बिक्री तक की पूरी प्रक्रिया पर उनका नियंत्रण हो, लेकिन बड़ी संख्या में छोटे-किसानों और छोटे कारोबारियों की मौजूदगी और सरकारी खरीद और वितरण प्रणाली उनके इस मंसूब को पूरा नहीं होने दे रही। यही वजह है कि 2006 में बड़े जोर-शोर से खुदरा बाजार में उतरे टाटा, बिड़ला, अंबानी, रहेजा (आरपीजी समूह के मालिक) और फ्युचर ग्रुप जैसे बड़े कारपोरेट निवेशकों का जोश जल्दी ही ठंडा पड़ गया और खरीद और वितरण की इस व्यवस्था को नष्ट करना उनकी पहली प्राथमिकता बन गई। कारगिल, मोन्सेन्टो, अमेजन जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का इस मंसूबे को पूरा समर्थन है और वे खुद इस बंटरबांट में शामिल हैं।

 

“क्या एमएसपी पर खरीद असंभव है?

भारत सरकार अभी तक केवल 23 फसलों का ही एमएसपी घोषित करती है जिनमें 7 खाद्यान्न (धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, जौ, बाजरा, रागी),  5 दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), 7 तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, सफोला, रेशम,निगार सीड) और 4 नकदी फसलें (गन्ना, कपास, जूट और … शामिल हैं। 2019-20 में इन फसलों की एमएसपी पर खरीद की कुल कीमत 10.78 लाख करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन ये सारी की सारी फसलें बाजार में बिक्री के लिए नहीं आतीं। अलग-अलग फसलों का 50 से लेकर 95 प्रतिशत तक उत्पादन बिक्री के लिए बाजार में आता है और बाकी किसान अपने उपभोग के लिए रख लेते हैं। अत: हम मान सकते हैं कि कुल उत्पादन का लगभग 75 प्रतिशत बाजार में आता है।

 इसमें भी सारा का सारा खरीदने की जरूरत नहीं होती। अगर सरकार 25 प्रतिशत से 40 प्रतिशत के बीच खरीद करती है तो वही बाजार में कीमतों को कायम रख सकता है। इसके अलावा गन्ने की खरीद कुल लगभग 97,817 करोड़ की है जिसके भुगतान की जिम्मेदारी कानूनी तौर पर चीनी मिलों की है। पहले से ही भारत सरकार, एफसीआई और दूसरी एजेंसियों के जरिए धान, गेहूं, कपास, चना, मूंगफली, सरसों और मूंग की 2.7 लाख करोड़ के करीब की खरीद करती है। इस तरह इन तमाम 23 फसलों की एमएसपी पर खरीद सुनिश्चित करने के लिए 1.5 लाख करोड़ के आस-पास की रकम दरकार होगी।

भारत जैसे देश की सरकार के लिए क्या यह इतनी बड़ी रकम है?”

 

उत्पादन, खरीद और बिक्री तंत्र पर हमला

भारत के छोटे किसानों और छोटे व्यवसायियों की मेहनत से और सरकार के सहयोग और समर्थन से निर्मित कृषि उत्पादन, खरीद और बिक्री के मौजूदा तंत्र को एक बेहतर साधन संपन्न व्यवस्था द्वारा प्रतियोगिता में विस्थापित करने में अक्षम रहने के बाद इस ढांचे को तोडऩे के लिए तीन पूर्व शर्तें थीं:

  1. वर्तमान आपूर्ति श्रृंखला के समानांतर एक आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण के लिए जितना इन कंपनियों ने सोचा था उससे कहीं ज्यादा बड़े पैमाने के निवेश की जरूरत थी, क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के रहते किसान उनके ऊपर भरोसा करने को तैयार नहीं थे।
  2. इतने बड़े पैमाने पर निवेश के पहले वे यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि कृषि उत्पादों की खरीद पर इनमुट्ठी भर निगमों का पूर्ण नियंत्रण होगा और सरकार की ओर से मुनाफे का लौह आश्वासन होगा।
  3. क्योंकि मुनाफे के लिए खरीदे गए उत्पादों की बिक्री जरूरी होती है इसलिए उन्हें खाद्य पदार्थों के वितरण पर भी पूर्ण नियंत्रण चाहिए था जिसके बिना खरीद पर पूर्ण नियंत्रण बेमतलब होता।

मौजूदा तीनों कानून कारपोरेट समूहों की इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करते हैं और देश के छोटे किसानों (उत्पादकों) और खुदरा विक्रेताओं (वितरकों) से निपटने के हथियार के तौर पर उन्हें दिए गए हैं। डब्लूटीओ की 2015-16 की कृषि गणना में दिए गए भारत सरकार के प्रतिवेदन के मुताबिक देश के 99.43 प्रतिशत किसान (10 एकड़ से कम जोत वाले) ”कम आय और संसाधनों की कमी’’ के शिकार हैं। तो फिर वे कौन से लोग हैं जिनके पास बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त आय और संसाधन हैं?

सरकारी खरीद और भंडारण की व्यवस्था से पल्ला झाडऩे की सरकार लंबे समय से कोशिश कर रही है और सिर्फ किसान संगठनों के दबाव में खरीद करती है। नीति आयोग के एक सदस्य के अनुसार देश के 25 प्रतिशत के करीब कृषि उत्पादों की विदेशों में बिक्री की जरूरत है। कृषि लागत और मूल्य आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार को खरीद बंद कर देनी चाहिए क्योंकि भंडारण और रख-रखाव के खर्चे बहुत बढ़ गए हैं (कुल खर्च के 40 प्रतिशत से ज्यादा)। सरकार ने अपने बजट पूर्व जारी आर्थिक सर्वेक्षण में इन खर्चों को कम करने के लिए गरीबों को राशन पर दिए जाने वाले गेहूं और चावल के दाम बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून के संशोधन से संबंधित अपने एक नोट में उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की यह मंशा एकदम स्पष्ट हो जाती है- ”अब भारत में खाद्यान्नों की प्रचुरता है। 1955-56 की तुलना में गेहूं का उत्पादन 10 गुना, चावल का चार  गुना और दालों का ढाई गुना बढ़ चुका है और भारत कई कृषि उत्पादकों का निर्यातक है, इसलिए खाद्यान्नों की कमी के दौर के इस कानून को बदला जा रहा है, ताकि कृषि-बाजारों पर लगी पाबंदियां खत्म हो जाएं और उपरोक्त वस्तुओं के भंडारण और प्रसंस्करण के क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित हो सके।‘’ अमीर उपभोक्ताओं को अपील करने वाला यह तर्क भी दिया जा रहा है कि जब विदेशी बाजार से सस्ता अनाज खरीदा जा सकता है तो  सरकार अनाज की खरीद और भंडारण तथा वितरण का इतना भारी भरकम खर्च क्यों उठाये?

इस तरह की दलीलें वही लोग दे सकते हैं जो देश और दुनिया के इतिहास से अनजान हैं और सिर्फ तात्कालिक फायदा देख रहे हैं। वे उस चूहे की तरह हैं जो एक रोटी के टुकड़े के लालच में चूहेदानी में घुसकर अपनी जान गंवा देता है। अमरीका और योरोप में गेहूं और चावल का उत्पादन उनकी खपत से बहुत ज्यादा है। इस सस्ते अनाज को वे भारत जैसे बाजारों में ठेलना चाहते हैं और इसके लिए  देश की सरकार के साथ मिलकर हर तरह के छल-प्रपंच का सहारा ले रहे हैं। डब्लूटीओ  के भीतर कृषि उत्पादों की सब्सिडी को लेकर चल रही बहस इसका सटीक उदाहरण है।

2013 में बने भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर उसके फौरन बाद हुई डब्लूटीओ की बाली कांफ्रेंस में अमरीका और योरोपियन यूनियन की ओर से नाराजगी का इजहार किया गया। जी-33 समूह के देशों (इस समय इस समूह के कुल 47 सदस्य हैं जिनकी कृषि संकट और उसके समाधान में विशेष रूचि है) की मदद से भारत किसी तरह समझौते में एक ‘शांति की धारा’ जुड़वाने में कामयाब हो सका जिसके तहत सार्वजनिक भंडारों और वितरण के मुद्दे के स्थायी समाधान का रास्ता निकालने के कोरे आश्वासन के बदले उससे ‘व्यापार प्रोत्साहन समझौते’ पर दस्तखत करवाए गए जिसका मकसद था बड़ी व्यापार कंपनियों को भारत में व्यापार की छूट और प्रोत्साहन प्रदान करना- तथाकथित ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’। लेकिन जब दिसंबर 2017 की ब्यूनस आइरेस की मंत्री समूह की बैठक में भारतीय उद्योग और व्यापार मंत्री सुरेश प्रभु ने कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद और वितरण की व्यवस्था को तोडऩे के बारे में विचार करते समय एक बार ”80 करोड़ भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों के जिंदा रहने के लिए’’ इसकी जरूरत पर गौर करने की अपील की तो किसी का दिल नहीं पसीजा, उल्टे भारत पर सब्सिडी में पर्याप्त कटौती न करने की तोहमत लगायी गई।

मई 2018 में अमरीका ने दावा किया कि भारत 10 प्रतिशत की सब्सिडी की सीमा का उल्लंघन कर रहा है। बदनीयती से की गई इस गणना में आधार वर्ष 1986-88 की डालर की कीमतों को उसी वर्ष की दर (1 डालर =12.5 रुपए) से बदला गया जिससे 2013-14 में भारत के बाजार में गेहूं और चावल की खरीद 354 रुपए और 235 रुपए प्रति क्विंटल के रेट से होनी चाहिए थी जबकि सरकार ने उस साल क्रमश: 1,386 और 1,348 रुपए समर्थन मूल्य पर खरीद की थी। इस लगभग 1,000 रुपए प्रति क्विंटल खरीद को कुल उत्पादन से गुणा करके अमरीका ने दावा किया कि भारत गेहूं के कुल उत्पादन के 67 प्रतिशत और चावल के कुल उत्पादन के 77 प्रतिशत के बराबर सब्सिडी दे रहा है। जबकि 2013-14 के डालर रेट (1 डालर = 60.5 रुपए) और वास्तविक खरीद (जो कुल उत्पादन के 10 प्रतिशत से भी कम थी) के आधार पर गणना करने पर समर्थन मूल्य अंतरराष्ट्रीय बाजार मूल्य से लगभग 400 रुपए प्रति क्विंटल कम बैठ रहा था, अर्थात भारत में सब्सिडी ऋणात्मक थी।

 

“भारत मैक्सिको के आईने में

इस लेख में दी गई चेतावनियां अटकलबाजी या डराने वाली अफवाह नहीं हैं। वे दुनिया भर में कृषि पर निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभावों के अवलोकन के आधार पर निकाले गए स्पष्ट निष्कर्ष हैं। उदाहरण के लिए, यह ठीक वही माडल है जो 1990 के दशक से और खास तौर पर 1994 से (उत्तरी अमरीकी मुक्त व्यापार संगठन के तहत) मेक्सिको पर थोपा गया था।

मेक्सिको की सरकारी व्यापार एजेंसी (एफ.सी.आई. जैसी संस्था) को खत्म कर दिया गया।

कृषि-उत्पादन को दी जाने वाली तमाम सरकारी सहायता धीरे-धीरे खत्म कर दी गई।

मैक्सिको की मुख्य खाद्य फसल-मक्का पर सरकारी सब्सिडी धीरे-धीरे खत्म कर दी गई और इसके एवज में चुने हुए किसानों और उपभोक्ताओं के खातों में सीधे सहायता हस्तांतरित की गई।

मैक्सिको में, जो मक्का उत्पादन का गढ़ था और जहां मक्का की बहुत सारी किस्मों का बड़ा खजाना मौजूद था, अमरीकी मक्का का आयात तीन गुना बढ़ गया।

मैक्सिको में पारिवारिक जोतों की संख्या घटकर आधी से भी कम रह गई।

कृषि में रोजगारों में तेजी से गिरावट आयी, जबकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में पर्याप्त विकास के अभाव में खेती से उजड़े हुए किसानों को कोई दूसरे रोजगार नहीं मिल पाये।

इस तरह पूरे देश में बेरोजगारी आसमान छूने लगी।

गरीबी रेखा के नीचे आबादी बढ़ गई।

आधी से ज्यादा आबादी अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में और आबादी का पांचवां हिस्सा दो जून की रोटी का जुगाड़ करने में असमर्थ हो गया।

परिणामस्वरूप मांग के अभाव में मेक्सिको के सकल घरेल उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि की दर घट कर लैटिन अमरीका के देशों की न्यूनतम से भी कम हो गई।

बेघर और बेरोजगार हताश किसानों ने अपने पड़ोसी देश अमरीका में घुसने की कोशिश की जिससे प्रवासियों की संख्या में 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

तैयार खाद्य पदार्थों (जैसे मक्के से बनी टारटिल्ला रोटी) के दामों में भारी वृद्धि हुई।

मक्के के आटे के पूरे बाजार पर मेक्सिको की सिर्फ दो कपंनियों (जिनमें से मासेका समूह लगभग 85 प्रतिशत बाजार पर काबिज है) का कब्जा हो गया- यही वर्चस्व भारत में अंबानी, अडाणी और वालमार्ट हासिल करना चाहते हैं।”

 

कृषि सब्सिडी का जाल

डब्लूटीओ में कृषि सब्सिडी को तीन खानों में बांटा गया है- हरा, नीला और पीला। हरे और नीले खाने में वे तमाम सब्सिडी आती हैं जो मुख्यत: अमीर विकसित देशों में दी जाती हैं और इन्हें व्यापार को ‘विकृत’ करने वाला नहीं माना गया है। इनके ऊपर कोई सीमा नहीं लगायी गई है। इनमें कृषि और ग्रामीण समुदाय की सेवा और लाभ के लिए खर्च, खाद्य सुरक्षा के लिए सार्वजनिक भंडारण पर खर्च, घरेलू खाद्य सहायता कार्यक्रमों पर खर्च और उत्पादन में कटौती इत्यादि के लिए प्रत्यक्ष सहायता इत्यादि शामिल हैं। पीले खाने की सब्सिडी व्यापार को विकृत करने वाली मानी गई है जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद जैसे उपाय शामिल हैं। समझौता होते ही इन देशों ने चतुराई से अपनी अधिकांश सब्सिडी को हरे खाने की सब्सिडी में बदल दिया। उदाहरण के लिए अमरीका ने अपने किसानों को दी जाने वाली 88 प्रतिशत सब्सिडी को हरे खाने की सब्सिडी में बदल दिया और इस तरह उसने 1995 की अपनी कुल कृषि सब्सिडी, 61 अरब डालर को 2015 में 139 अरब डालर तक पहुंचा दिया यानी लगभग 128 प्रतिशत की भारी वृद्धि की। इसके बरक्स भारत की हरे खाने की सब्सिडी 2014-15 में 20.8 अरब डालर से घटकर 2015-16 में केवल 18.3 अरब डालर रह गई। इसमें से खाद्य सुरक्षा के लिए भंडारण का खर्च 17.1 अरब डालर था, 2015-16 में घटकर 15.6 अरब डालर रह गया। 2008-18 के बीच अमरीका की कृषि सब्सिडी के 10 सबसे बड़े प्राप्तकर्ताओं को सालाना औसतन 18 लाख डालर (लगभग 13 करोड़ रुपए) की सब्सिडी दी गई जो एक अमरीकी परिवार की औसत आय का 30 गुना था।

इस तरह अमरीका और अन्य विकसित देश अपनी कारपोरेट खेती को भारी सब्सिडी देकर दुनिया के कृषि बाजार पर कब्जा करना चाहते हैं जबकि भारत जैसे देशों पर, जहां बहुतायत में छोटे और सीमांत किसान हैं और आधी से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है, अपनी पहले से ही न्यूनतम स्तर पर मौजूद सब्सिडी को खत्म करने के लिए दबाव डाल रहा है। इसके अलावा मुद्राकोष और विश्व बैंक के जरिए सूदखोर वित्तीय पूंजी भी वित्तीय घाटा कम करने और सब्सिडी खत्म करने का दबाव बनाये हुए है।

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे सूदखोर कभी नहीं चाहेंगे कि किसानों की आय बढ़े। सूदखोर पूंजी का हित ज्यादा से ज्यादा सूद वसूलने में होता है, उत्पादन बढ़ाने में नहीं और इसके लिए वे चाहते हैं कि वास्तविक ब्याज दरें बढ़ें (ब्याज दर-मुद्रास्फीति की दर)। अगर ब्याज दरें 5 प्रतिशत हैं और मुद्रास्फीति की दर भी 5 प्रतिशत है तो उनकी वास्तविक आय में कोई वृद्धि नहीं होती। इसलिए वे हमेशा मुद्रास्फीति को कम करने और बजट घाटा संतुलित करने पर जोर देते हैं और तथाकथित ‘मितव्ययिता  के उपायों’ पर बल देते हैं। हालांकि मांग के अनुरूप कृषि उत्पादन को बढ़ा कर भी मुद्रास्फीति को कम किया जा सकता है लेकिन इसमें उनकी कोई रूचि नहीं होती। बेरोजगारी बढऩे के बावजूद वे सरकारों से सार्वजनिक खर्चों का बजट घटाने के लिए कहते हैं क्योंकि खर्च बढ़ाने से रोजगार बढ़ते हैं जिससे मांग बढ़ जाती है और मुद्रास्फीति बढऩे का खतरा रहता है।

इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि हमारी अपनी चुनी हुई सरकारें, हमारे प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, हमारे अर्थशास्त्री और हमारे नीति आयोग के सदस्य ही देश की कृषि अर्थव्यवस्था को तबाह करके खेती के साम्राज्यवादी पुनगर्ठन की कारपोरेट परियोजना को लागू करने में लगे हैं। कहना मुश्किल है कि वे विदेशी वित्तीय संस्थाओं द्वारा फैलाए गए भ्रामक तर्कों और सिद्धांतों के जाल में फंसकर अपनी मति भ्रष्ट कर चुके हैं या इस विराट साम्राज्यवादी परियोजना में एक छोटे पार्टनर की तरह शामिल होने की महत्वाकांक्षा उन्हें ऐसा करने पर आमादा कर रही है। कारण जो भी हो इतना तो तय है कि वे कृषि के संकट को डॉ. स्वामीनाथन की तरह छोटे और सीमांत किसानों और खेत मजदूरों की जीविका की समस्या और उसके समाधान की नजर से नहीं देखते,  बल्कि कृषि के संकट को कृषि-व्यवसाय से जुड़े कारपोरेट के मुनाफे और निवेश के संकट के तौर पर समझते हैं जिसका समाधान है- और मुक्त व्यापार, ठेका खेती, बड़े पूंजी निवेश की बाधाओं को हटाना और कृषि बाजार को चंद निगमों के हवाले करना। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट क्योंकि छोटे और गरीब किसानों की जीविका के एक साधन के तौर पर खेती को विकसित करने की परियोजना पेश करती है, इसलिए उसकी नीति निर्माताओं की नजर में कोई कीमत नहीं।

 

पंजाब: पिछले तीन दशक के अनुभव

खेती के संकट के समाधान के लिए सरकारों द्वारा पिछले 30 सालों में लागू की गई नीतियों की भयावहता को समझने के लिए देश के एक समृद्ध इलाके पंजाब में इनके गंभीर परिणामों की चर्चा करना ही पर्याप्त होगा। पंजाब वह इलाका है जिसकी हरित क्रांति के जमाने से ही देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पंजाब के पास देश की केवल 2.5 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि है लेकिन अपनी मेहनत के दम पर यहां के किसान देश के केंद्रीय गेहूं भंडार में एक तिहाई का योगदान करते हैं।

लेकिन आज जबकि देश में सबसे ज्यादा मात्रा में पंजाब से गेहूं और धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद होती है, उसके बावजूद पंजाब में खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान खेती छोडऩे के लिए बाध्य हो रहे हैं। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के आने और कृषि लागत को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती होते जाने से पिछले तीस सालों में जहां एक ओर कृषि उत्पादन की लागत महंगी होती गई है, वहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार के साथ गैरबराबरी पूर्ण प्रतियोगिता और कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ावों (खासकर गैर एमएसपी फसलों जैसे कपास, टमाटर इत्यादि में) के कारण खेती में बराबर घाटा हो रहा है। निजीकरण के कारण बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, दवा-इलाज और शादी-ब्याह के खर्चे भी बढ़ते चले गए हैं। जिसके चलते बड़ी संख्या में किसान कर्ज के बोझ से दबते चले गए हैं और पंजाब में भी किसानों की आत्महत्याएं बहुत बढ़ गई हैं। इस संकट को समझने के लिए पंजाब सरकार द्वारा करवाए गए एक अध्ययन में, जिसे पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा 2000-2018 के बीच तीन चरणों में पूरा किया गया- संकट की एक भयावह तस्वीर उभरती है।

20 साल पहले पंजाब के कुल 10 लाख किसान परिवारों के आधे छोटे और सीमांत किसान थे लेकिन अब उनकी संख्या घटकर केवल दो लाख रह गई है जबकि आमतौर पर, जैसा कि पूरे देश का रूझान है, परिवारों के टूटने और बंटवारे के चलते छोटी जोतों की संख्या बढती है। स्पष्ट है कि तीन लाख से ज्यादा छोटे और सीमांत किसान खेती से बाहर कर दिए गए हैं। एक किसान परिवार की औसत आय पंजाब में करीब छह लाख रुपए सालाना है जबकि उन पर 10 लाख रुपये से ज्यादा का औसत कर्जा है। छोटे किसानों की स्थिति और बुरी है जिन पर उनकी आय से तीन से चार गुना तक कर्ज है। इनमें 20 प्रतिशत से ज्यादा दीवालिया हो चुके हैं। पिछले चार दशकों में 12 प्रतिशत किसानों ने खेती छोड़ दी है और एक तिहाई से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर बन चुके हैं। रोजाना 3 किसान या खेत-मजदूर आत्महत्या करने के लिए विवश हैं।

पिछले 17 सालों में सामने आये आत्महत्या के मामलों में से 9,300 किसान और 7,300 खेत मजदूर थे। इनमें से 88 प्रतिशत ने कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों का 77 प्रतिशत छोटे किसान और एक तिहाई अकेले कमाने वाले थे। 11 प्रतिशत परिवारों के बच्चों की पढ़ाई छूट गई और साढ़े तीन प्रतिशत परिवारों में लड़कियों की शादियां नहीं हो सकीं। अधिकांश परिवारों में कोई न कोई सदस्य दुष्चिंता या अवसाद से ग्रस्त पाया गया।

पंजाब में, खेती का बहुत ज्यादा मशीनीकरण हुआ है जिसके चलते खेती में काम की कमी होती गई। राज्य के उद्योग-धंधों में इस अतिरिक्त आबादी के लिए काम नहीं है। टमाटर और कपास की खेती से ग्रामीण कृषि रोजगारों के अवसर बढ़े थे लेकिन खरीद की गारंटी न मिलने और पेप्सी से धोखा खाने के बाद इसका विस्तार रूक गया। अगर सरकार एमएसपी पर खरीदी जाने वाली फसलों की संख्या बढ़ा दे तो किसान खुद-ब-खुद विविधीकरण अपना लेंगे, लेकिन विकल्पों के अभाव में वे परंपरागत फसलों की खेती के लिए मजबूर हैं। खेती में आये ठहराव और बेरोजगारी के दबाव के चलते और पंजाब के किसान संगठनों द्वारा एमएसपी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए किये गए संघर्षों की बदौलत उनमें जागरूकता आई है। किसानों के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि जब एमएसपी पर खरीद के दौर में उनकी यह हालत है तो इन तीन कानूनों के लागू होने के बाद कारपोरेट कारोबारी उनका क्या हाल करेंगे। एक किसान के शब्दों में, ”बिहार में जब मंडी टूटी तो वहां का गरीब और छोटा किसान मजदूरी के लिए पंजाब आया, हम कहां जाएंगे?’’

पंजाब के उदाहरण से स्पष्ट है कि पिछले 30 सालों से देश की कृषि अर्थव्यवस्था जिन नीतियों से संचालित है, वे समस्या का समाधान नहीं बल्कि और कारण हैं। मौजूदा तीन कानून इस कोढ़ में खाज की तरह हैं।

 

किसानों का संघर्ष ही देश का भविष्य तय करेगा

भारत सरकार और देश के नीति-निर्माता खेती को बड़े कृषि व्यवसायियों और कारपोरेटों की नजर से देख रहे हैं जबकि खेती कभी भी व्यापार नहीं हो सकती। किसान का कोई भी उत्पाद (अनाज, दालें, तिलहन) सीधे नहीं खाया जा सकता। किसान खेत में मेहनत करता है- वह व्यापारी नहीं है। एक जमाने से व्यापारी उसे धोखा देते रहे हैं। मुनाफे का लालच देकर कर्ज के जाल में फंसाकर लूटते रहे हैं। औपनिवेशिक लूट और तबाही के गवाह किसान अभी जिंदा हैं और धरनों पर बैठे हैं। कम आय और संसाधनों की कमी के शिकार 99.47 प्रतिशत किसानों के पास बड़ी कारपोरेट कंपनियों और डब्ल्यूटीओ के दबाव का सामना खुद-ब-खुद कर लेने की ताकत नहीं है। उन्हें सरकार के समर्थन और सहयोग की जरूरत है।

लेकिन सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया है। 1991 के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, डब्लूटीओ और कृषि समझौतों से बंधी सरकारें उनके साथ तरह-तरह के छल करके इन विनाशकारी नीतियों को थोपती जा रही हैं जिनका ताजा उदाहरण तीन नए कृषि कानून हैं। सब्सिडी की जगह उपभोक्ताओं और किसानों के खातों में सीधे लाभ का हस्तांतरण भी एक ऐसा ही धोखा है। इसके तहत पहले किसान खाद या बीज को बाजार भाव पर खरीदेगा और बाद में सब्सिडी की रकम उसके खातों में भेजी जाएगी। इस व्यवस्था को लागू करने की वजह दरअसल सीधी सब्सिडी की डब्लूटीओ में मनाही है, लेकिन यह बताने के बजाय आम लोगों को इसके फायदे गिनाये जाते हैं और इसे एक सौगात की तौर पर पेश किया जाता है। जबकि दरअसल इसका फायदा सरकार को यह होगा कि किसान को बाजार भाव पर खाद और दूसरी लागतें खरीदने की आदत पड़ जाएगी और फिर एक दिन केंद्र एक नियामक आयोग बनाकर राज्यों के ऊपर इसकी जिम्मेदारी डाल देगा और इसे वैकल्पिक कर दिया जाएगा कि अगर राज्यों के पास पैसा है तो दें अन्यथा न दें। इस तरह धीरे-धीरे सब्सिडी कम होते-होते बंद हो जाएगी क्योंकि नोटबंदी, जीएसटी और कोविड के मारे राज्यों के पास पैसे की पहले से ही किल्लत है।

देश के शासक, हमारी सरकार और नीति निर्माता ही, नहीं मध्य वर्ग के शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों का एक अच्छा खासा हिस्सा भी इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि वैश्वीकरण, मुक्त बाजार, दक्षता, विविधीकरण जैसे सिद्धांत और नीतियां किसी परोपकार से प्रेरित नहीं हैं बल्कि एक बड़ी साम्राज्यवादी परियोजना के खूबसूरत नाम हैं। यह साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के बढ़ते प्रभाव का एक नया चरण है जिसमें अमरीका और योरोप की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकासशील और गरीब देशों की खेती को पुनर्गठित किया जा रहा है। विदेशी और देश की बड़ी कारपोरेट कंपनियों और विश्व बैंक और मुद्राकोष की वित्तीय पूंजी का यह गठजोड़ देश की खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भरता को नष्ट करके हमें उसके लिए इन कंपनियों और अमीर देशों का मुहताज बना देगा। कोविड जैसी किसी महामारी के समय, या जब किसी दिन ग्रीन पीस आंदोलन के प्रभाव में अमीर देश और शासक वर्ग ये तय कर लेंगे कि अब हम अतिरिक्त अनाज से एथेनाल बनाएंगे, तो देश की 90 प्रतिशत गरीब और मेहनतकश आबादी, छोटे किसानों और खेत-मजदूरों के सामने भुखमरी के सिवाय कोई और रास्ता नहीं होगा। बजट पूर्व जारी अपने आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने घोषणा कर दी है कि विकास के इस दौर में आय के बराबरीपूर्ण वितरण की बात नहीं होनी चाहिए।

अभी जबकि खेती के क्षेत्र में पुरानी व्यवस्था काफी हद तक कायम है, पिछले 30 सालों की नीतियों के परिणामस्वरूप निर्यात के बाद देश की प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 1990 के दशक में 174 किलो/व्यक्ति के स्तर से गिरकर 2008 में 159 किलो हो गई थी जो कि 7 दशक पहले 1930 के दशक में होता था और हम अब अपनी जरूरत का 70 प्रतिशत खाद्य तेल आयात करने लगे हैं जबकि 1996 में आत्मनिर्भर होते थे। वैश्विक भुखमरी सूचकांक के हिसाब से बनायी गई 2020 की 107 देशों की सूची में भारत 94 नंबर पर था और दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित लोग भारत में थे। जब इन कानूनों के जरिए और विश्व बैंक और डब्लूटीओ के दबाव में देश की खाद्य सुरक्षा का मौजूदा ढांचा टूट-बिखर जाएगा, उस समय हमारी स्थिति क्या होगी, सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

लेकिन देश की सरकार और नीति-निर्माता किसानों और आम जनता की इन आशंकाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं और उन्हें गुमराह बता रहे हैं। वे बहुराष्ट्रीय निगमों- जिनके प्रतीक आज देश में अंबानी और अडाणी बन गए हैं- के मैनेजर और लठैत बनकर किसान आंदोलन को भटकाने और बल प्रयोग करके तोड़ देने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें मध्यवर्ग के ऊपरी अच्छे खासे हिस्से का भी उन्हें समर्थन मिल रहा है। मेहनत से कटा हुआ यह वर्ग अपनी तात्कालिक सुख सुविधाओं के लालच में अंधा हो गया है और यह समझता है कि खाद्य पदार्थ डिपार्टमेंटल स्टोर की सेल्फ में मिलते हैं, उनको पैदा करने वाले और उनकी मुसीबतें उसकी नजरों से ओझल हैं। अखबारों, टीवी और विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए उसके दिमाग में जो तर्क घुसाए जाते हैं, अपनी भौतिक स्थिति और जातिवादी और औपनिवेशिक प्रभाव वाली मानसिकता के कारण वह उनके जाल से निकल पाने में असमर्थ हैं।

देश के किसान दिल्ली की सीमा पर जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, पूरी दुनिया के लोग उनकी ओर आशा भरी नजर से देख रहे हैं। यह केवल भारत के किसानों की तीन कानूनों के खिलाफ लड़ाई नहीं है बल्कि दुनिया भर के किसानों और मेहनतकश वर्ग की इस साम्राज्यवादी परियोजना से मुक्ति की लड़ाई है। यह लड़ाई जीती जाती है या हारी जाती है, दोनों ही स्थितियों में इसके गहरे और व्यापक परिणाम होंगे। ठ्ठ

अद्यतन 5 फरवरी

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