क्या स्वास्थ्य हमारे लिए अब भी प्राथमिकता नहीं है?

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– शैलेश

स्वास्थ्य विशेषज्ञ बहुत पहले से हमारे तबाहहाल स्वास्थ्य ढांचे के प्रति चेतावनी देते रहे हैं, लेकिन उनकी सबसे निराशाजनक भविष्यवाणियों में भी इतनी बदतर हालत की कल्पना नहीं की गई थी। इसने हमारे शासकों की हद दर्जे की संवेदनहीनता और खुदगर्जी को तो बेनकाब कर ही दिया है, साथ ही समस्या को कमतर आंकने वाली उनकी शुतुरमुर्गी दृष्टि और खोखले अहंकार को भी चकनाचूर किया है।

यह महामारी भारत में एक मानव-निर्मित तबाही का रूप ले चुकी है। इस महामारी ने यूं तो पूरे तंत्र को बेनकाब किया है, लेकिन स्वास्थ्य व्यवस्था की तो इसने कलई खोल कर रख दी है। पहले से रोगग्रस्त चल रहा हमारा स्वास्थ्य ढांचा कोरोना महामारी की इस दूसरी लहर के दबाव में पूरी तरह से चरमरा गया है। अप्रैल-मई में महामारी के विकराल रूप ने न केवल अस्पतालों, बिस्तरों, वेंटिलेटरों, जीवन रक्षक दवाओं, चिकित्सकीय उपकरणों, ऑक्सीजन कंसेंट्रेटरों, टेस्ट किटों और टीकों की व्यवस्था की असलियत को उजागर कर दिया, बल्कि डॉक्टर, नर्स, वार्डब्वाय, लैब टेक्नीशियन, फार्मासिस्ट और सफाईकर्मियों की मौजूदा संख्या को भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित कर दिया।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ तो बहुत पहले से हमारे तबाहहाल स्वास्थ्य ढांचे के प्रति चेतावनी देते आ रहे हैं, लेकिन उनकी सबसे निराशाजनक भविष्यवाणियों में भी इतनी बदतर हालत की कल्पना नहीं की गई थी। चारों तरफ हाहाकार, रुदन, चीख-पुकार और गंगा किनारे फेंकी-दफनाई गई लाशों को नोंचते हुए कुत्तों के दृश्यों ने हमारे जज्बात को कभी न भरने वाले जख्म दे दिए हैं। इसने हमारे शासकों की हद दर्जे की संवेदनहीनता और खुदगर्जी को तो बेनकाब कर ही दिया है, लेकिन इसी के साथ समस्या को कमतर आंकने वाली उनकी शुतुरमुर्गी दृष्टि और उनके खोखले अहंकार को भी इसने चकनाचूर किया है, जिसे घडिय़ाली आंसुओं की कोई भी मात्रा फिर से वापस नहीं ला सकती।

स्वास्थ्य मंत्रालय के दावों के अनुसार, महामारी के दौर में 2, 084 कोविड अस्पताल बनाए गए हैं जिनमें से 89 केंद्र तथा 1, 995 राज्यों ने बनवाए हैं जिनमें कुल 4, 68, 974 बेड हैं। लेकिन इन दावों के बावजूद नगरों से लेकर महानगरों तक मरीजों को भर्ती कराना लगभग असंभव हो गया था। ऐसे में सबसे कठिन हालत का सामना स्वास्थ्यकर्मियों को करना पड़ रहा है। गिनती के संसाधनों वाले, और मरीजों से ठुंसे हुए अस्पतालों में काम करना एक भयावह अनुभव है। हर जगह अफरा-तफरी का माहौल है। सीमित बेड हैं, किसे भर्ती किया जाए, किसे मना कर दिया जाए, किसे इंजेक्शन दिया जाए, किसे बाजार से खरीद कर लाने के लिए बोला जाए, किस मरीज को वेंटिलेटर पर रखा जाए और किसे हटा दिया जाए, सर चकरा देने वाले ऐसे असमंजस तात्कालिक नैतिक आघात से भी ज्यादा, आने वाले दिनों में डॉक्टरों के साथ ही सभी स्वास्थ्यकर्मियों के जेहन में ताउम्र रिसते रहने वाले नासूर साबित होंगे।

महाशक्ति और विश्वगुरु का ताज सर पर पहनने को बेताब भारत अपने जीडीपी का इतना कम प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, कि इसमें वह अपने नाचीज पड़ोसियों, बांग्लादेश, और यहां तक कि नेपाल से भी पीछे है। चरमराती हुई रुग्ण स्वास्थ्य व्यवस्था को इस समय ठीक कर पाना आग लगने पर कुंआ खोदने जैसा असंभव है, इसलिए इस पर दबाव कम करने के लिए लॉकडाउन का वही पुराना नुस्खा फिर आजमाया गया, जो अंतत: अर्थव्यवस्था और रोजी-रोटी का फिर से बंटाधार करने वाला साबित होगा।

कोविड की पहली लहर ने भी हमारे स्वास्थ्य ढांचे की जर्जरता को उजागर कर दिया था, लेकिन जैसे ही वह लहर कमजोर पड़ी, इससे कोई भी जरूरी सबक लेकर उस दिशा में काम करना शुरू करने की बजाय हीनताग्रंथि के चिररोगी हमारे वर्तमान नेतृत्व ने फिर से आत्ममुग्धता का शिकार होकर डींगें हांकना शुरू कर दिया और अत्यंत कीमती वक्त को गंवा दिया। यही नहीं, यह आशंका निराधार नहीं है कि वर्तमान लहर के हल्का पड़ते ही (जो राम भरोसे भी धीर-धीरे हल्की पड़ ही जाएगी), फिर से सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति न केवल ये लोग उदासीनता बरतने लगेंगे, बल्कि उसमें अपने कॉरपोरेट आकाओं की क्रमिक घुसपैठ की तिकड़मों में लग जाएंगे।

 

स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च

भारत ने 2020-21 में स्वास्थ्य पर अपने जीडीपी का 1.26 प्रतिशत खर्च किया और सरकार ने बजट भाषण में 2021-22 के लिए 2.5 से तीन प्रतिशत खर्च करने का वादा किया गया है, जिसे हासिल करना मौजूदा प्रयासों को देखते हुए असंभव सा दिखता है। अगर 2025 तक भी 2.5 प्रतिशत का लक्ष्य हासिल करना हो तो स्वास्थ्य बजट में कम से कम 0.35 प्रतिशत सालाना इजाफा करना होगा, जबकि हकीकत यह है कि 2015-16 से 2020-21 के बीच मात्र 0.02 प्रतिशत का औसत सालाना इजाफा हुआ है। हम स्वास्थ्य पर दुनिया में सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च के मामले में भारत दुनिया के 191 देशों में 184वें स्थान पर है। पहले स्थान पर अमेरिका (जीडीपी का 17.06 प्रतिशत खर्च) और दूसरे स्थान पर क्यूबा (11.74 प्रतिशत) है। लेकिन चूंकि अमेरिका ने स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से निजीकरण का रास्ता अपनाया है इस वजह से वहां बीमा कंपनियों तथा अस्पतालों की मिलीभगत के कारण आम आदमी को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिल पाता है। जबकि क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से सार्वजनिक, समान और सर्वसुलभ है। क्यूबा के बाद फ्रांस (11.31 प्रतिशत), जर्मनी(11.25 प्रतिशत) और यूनाइटेड किंगडम (9.63 प्रतिशत) खर्च करते हैं। इनकी तुलना में भारत का खर्च नगण्य सा है। जापान, कनाडा और स्विट्जरलैंड भी 10 प्रतिशत से ज्यादा तथा नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, फिनलैंड और आस्ट्रेलिया, सभी अपने जीडीपी का 9 प्रतिशत से ज्यादा स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। यहां तक कि ब्राजील 8 प्रतिशत और बांगलादेश तथा पाकिस्तान तक 3 प्रतिशत से ज्यादा खर्च करते हैं। स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च के लिहाज से भी भारत दुनिया के अन्य देशों की तुलना में बहुत निचले स्तर पर है। 2018-19 में भारत द्वारा स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च 1657 रुपए था जबकि पड़ोस में ही श्रीलंका इसका तीन गुना और इंडोनेशिया दोगुना खर्च करता है।

क्यूबा में मरीज/डॉक्टर का अनुपात दुनिया में सबसे अच्छा है। वहां 155 मरीजों पर एक डॉक्टर है जबकि अमरीका में 396 मरीजों पर और और भारत में 1700 मरीजों पर एक डॉक्टर है। ‘नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2019Ó के आंकड़ों के हिसाब से भारत में 10926 लोगों पर मात्र एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है। देश की बहुसंख्या के आर्थिक स्तर के लिहाज से उपलब्ध सरकारी एलोपैथिक डॉक्टरों की संख्या बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि प्राइवेट क्षेत्र के पांचसितारा अस्पताल बहुसंख्यक भारतीयों की पहुंच से बाहर की चीज हैं।

देश में 152794 स्वास्थ्य उपकेंद्र, 20069 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 5685 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1234 उप-प्रभागीय अस्पताल, 756 जिला अस्पताल और 1415 मोबाइल मेडिकल यूनिटें हैं। इनमें से बेड की सुविधा वाले कुल 40883 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें कुल 818396 बेड हैं, जो सरकारी क्षेत्र में 1700 लोगों पर एक बेड का अनुपात है। इसी तरह से नर्सों, फार्मेसिस्टों, लैब टेक्नीशियनों, आईसीयू टेक्नीशियनों, वार्ड ब्वायों और सफाई कर्मचारियों का भी सभी अस्पतालों में टोटा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के हिसाब से 10000 की आबादी पर कम से कम 44.5 स्वास्थ्यकर्मी होने चाहिए, जबकि भारत में इसके आधे ही हैं, और उनकी उपलब्धता में भी गांव-शहर और उत्तरी राज्यों-दक्षिणी राज्यों के लिहाज से भारी अंतर है। आईसीयू टेक्नीशियनों के भारी अभाव का मामला तो पिछले महीने से पहले चर्चा में ही नहीं था। कोविड की दूसरी लहर से पहले पीएम केयर फंड से खरीद कर अस्पतालों में भेजे गए वेंटिलेटरों में से यूं तो रिपोर्टों के अनुसार, 90 प्रतिशत तक मशीनें घटिया क्वालिटी की हैं, लेकिन जो सही भी हैं, उन्हें चलाने वाले आईसीयू टेक्नीशियनों की भर्ती न होने के कारण लगभग पूरी की पूरी शेष मशीनों की भी पैकिंग तक नहीं खोली गई है, जबकि इसी बीच वेंटिलेटर सुविधा न मिलने के कारण हजारों लोग काल के गाल में समा गए।

 

 

राज्यों में अंतर

जो सुविधाएं हैं उनमें भी न केवल महानगरीय, नगरीय, कस्बाई तथा ग्रामीण क्षेत्रों में, बल्कि केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों और यूपी, बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में भी उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी अंतर है। नीति आयोग की जून 2019 में प्रस्तुत 21 बड़े राज्यों की स्वास्थ्य-सुविधाओं की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश 21वें स्थान पर सबसे नीचे है और बिहार इससे ठीक ऊपर 20वें स्थान पर है। उत्तर प्रदेश और बिहार के 10 प्रतिशत उपकेंद्रों पर सहायक नर्सें भी नहीं हैं। 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के 60 प्रतिशत एचसी में केवल एक डॉक्टर हैं और 8 प्रतिशत में तो एक भी नहीं, 39 प्रतिशत पर लैब टेक्नीशियन नहीं हैं और 18 प्रतिशत पर तो फार्मासिस्ट ही नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो 70 प्रतिशत पीएचसी में एक ही डॉक्टर है। इस तरह से, दुनिया के पैमाने पर इतनी खराब सुविधाओं वाले भारत में भी तमाम इलाके ऐसे हैं, जहां इन सुविधाओं का और भी ज्यादा अकाल है।

हमारी मौजूदा हालत सार्वजनिक स्वास्थ्य की दशकों से जारी उपेक्षा का नतीजा है। हर श्रेणी के स्टाफ की संख्या में भारी कमी है। इन्हीं लोगों को टेस्टिंग और टीकाकरण से लेकर इलाज तक सब कुछ करना है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, भारत में कोविड जांच की सुविधा वाली कुल 2, 449 प्रयोगशालाएं हैं, जिनमें से आधी निजी क्षेत्र के पास हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने के लिए तथा कई अन्य जगहों पर निगेटिव रिपोर्ट की अनिवार्यता के कारण भी प्रयोगशालाओं पर बोझ बढ़ गया। टेस्टिंग की प्रयोगशालाएं अपनी क्षमता से बाहर काम कर रही हैं, फिर भी टेस्ट रिपोर्ट आने में कई-कई दिन लग जा रहे हैं। इससे उचित इलाज शुरू करने तथा मरीज को आइसोलेट करने का निर्णय लेने में काफी कीमती वक्त निकल जाता है और बहुत सी जानें नहीं बचायी जा पा रही हैं। इस वजह से ऐसे मरीजों के संपर्क में कितने लोग आए थे, उनकी ट्रेसिंग भी संभव नहीं थी। देहातों में तो और भी बुरा हाल है। हजारों की संख्या में कोविड के मरीजों का टेस्टिंग के बिना ही वायरल, सीजनल या टॉयफायड मान कर झोला छाप डॉक्टरों द्वारा इलाज होता रहा और वे चल बसे। बीमारी की सही जानकारी न होने के कारण ऐसे मरीजों को आइसोलेट ही नहीं किया गया और परिजन तथा अन्य लोग ऐसे मरीजों के संपर्क में बने रहे। गांवों में इस महामारी के भयावह रूप ले लेने का एक कारण यह भी है।

उत्तर प्रदेश में महामारी के दौरान ही जबरदस्ती कराए गए पंचायत चुनावों की ड्यूटी में संक्रमित होकर जान गंवाने वाले 1621 शिक्षकों की सूची प्राथमिक शिक्षक संघ ने सरकार को सौंपी, जिनमें से सरकार केवल तीन शिक्षकों को चुनाव ड्यूटी के दौरान कोविड से मृत्यु वाली श्रेणी में स्वीकार कर रही है, क्योंकि ये शिक्षक ड्यूटी स्थल पर ही मर गए थे। हो सकता है कि सरकार मुआवजे की वजह से आंकड़ों को कम दिखाना चाह रही हो, या यह भी हो सकता है कि इनमें से कुछ शिक्षकों की मृत्यु कुछ अन्य कारणों से हुई हो, और यूं भी कोविड से हुई मृत्यु साबित करने के लिए उनमें से बहुतों के परिवारों के पास आवश्यक प्रमाण नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन यह रस्साकशी पूरे तंत्र की हृदयहीनता को उजागर करने वाली है। उत्तर प्रदेश में ऐसी खबरें भी आ रही थीं जिनमें बुखार से तप रहे शिक्षकों की सारी गुजारिशों को नजरअंदाज करते हुए उन्हें चुनाव ड्यूटी करने को मजबूर किया गया। कुछ मामलों में, जहां पति-पत्नी दोनों शिक्षक थे और उनके छोटे बच्चे थे, उन बच्चों की देखरेख के लिए कम से कम एक को चुनाव ड्यूटी से मुक्त करने की फरियादें तक ठुकरा दी गईं। एक अहंकारी और कट्टर राजनीतिक नेतृत्व के नीचे काम करने वाला प्रशासनिक अमला भी वैसा ही व्यवहार करने लगता है। इतना तो तय है कि अगर इन शिक्षकों के प्रति संवेदना और सरोकार दिखाया गया होता, और इनकी टेस्टिंग और चिकित्सकीय देखरेख अगर उचित तरीके से हुई होती तो इन्हें मौत से बचाया जा सकता था। लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक संवेदनहीनता, लोगों के प्रति ‘यूज एंड थ्रोÓ (इस्तेमाल करके फेंक देने) का रवैया और तार-तार हो चुका सरकारी चिकित्सकीय ढांचा, इन सबने मिल कर असंख्य जिंदगियों को लील लिया।

 

सरकारी बनाम निजी

जहां एक तरफ सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र का विस्तार नहीं हो रहा है, जिसके कारण इस क्षेत्र में नौकरियों के अवसर कम हैं, वहीं निजी अस्पतालों अत्यंत कम वेतन और अत्यधिक कार्यभार के कारण हमारे स्वास्थ्य कर्मियों की बड़ी संख्या विदेशों में नौकरियों के अवसर खोजते रहते हैं। यह भी एक तरह का प्रतिभा-पलायन है। कोविड के दौर में अपने अस्पतालों में काम करने के लिए विदेशी स्वास्थ्यकर्मियों को लुभाने के लिए अमीर देशों ने अनेक प्रोत्साहनों की घोषणा कर रखी है। भारत जैसे उपेक्षित स्वास्थ्य ढांचे वाले देश इस तरह से अपने यहां के योग्य लोगों से ही वंचित हो जाते हैं। एक आंकड़े के अनुसार, 2017 में अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा और आस्ट्रेलिया, केवल इन्हीं 4 देशों में भारत में पढ़े-लिखे 69000 डॉक्टर तथा 56000 नर्सें काम कर रही थीं। दुनिया के अन्य देशों में भी भारी संख्या में भारतीय स्वास्थ्यकर्मी काम कर रहे हैं। देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च बढ़ाकर और रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध करा कर हम देश में ही इनकी सेवाएं ले सकते हैं।

स्वास्थ्य का रास्ता विज्ञान का रास्ता है। सही व्यवस्था की बुनियाद सही आंकड़ों पर निर्भर करती है। भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, जिसके आंकड़ों की विश्वसनीयता दुनियाभर में स्थापित थी, पिछले कुछ वर्षों में सरकारी दबाव के कारण उसकी विश्वसनीयता पर भी दाग लगने लगे हैं। जाहिर है कि संदिग्ध आंकड़ों के बल पर हम भविष्य के लिए सही रास्ता नहीं निकाल सकते। कोई भी देश केवल बीमारियों से लड़कर अपने नागरिकों को स्वस्थ नहीं रख सकता। खान-पान, साफ-सफाई, साफ पर्यावरण और शुद्ध पेयजल के साथ ही सभी लोगों के स्वास्थ्य की समय-समय पर जांच-पड़ताल, संबंधित आंकड़ों का उचित रखरखाव, उनके विश्लेषण के आधार पर संभावित रोगों की रोकथाम के लिए पहले से ही जरूरी उपाय, इन सभी चीजों से स्वास्थ्य का सीधा संबंध होता है। आजकल रक्तचाप, हृदय रोगों, डायबिटीज तथा थायरॉयड जैसी बहुत सारी ऐसी बीमारियों, जो आगे चलकर अनेक समस्याओं का कारण बनती हैं, उनकी पहचान तथा उन्हें नियंत्रित रखने के उचित बंदोबस्त करके भी हम भविष्य बहुत सारी आकस्मिकताओं से लोगों को बचा सकते हैं।

हमें उच्चशिक्षा और शोध पर जोर देना होगा। क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक वैज्ञानिकों, समाजवैज्ञानिकों, चिकित्साविदों, पर्यावरणविदों और पशु-पक्षियों के अध्ययनकर्ताओं-शोधार्थियों के बीच नियमित विचार-विमर्श के निश्चित ढांचे होने से समुदायों, पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं व वनस्पतियों में हो रहे नए परिवर्तनों और उनकी संवेदनशीलताओं पर निगाह रखना आसान होता है। इससे अन्य प्राणियों में तथा उनसे मनुष्यों में फैलने वाली बीमारियों-महामारियों की समय रहते रोकथाम की जा सकती है। इसके लिए उच्चशिक्षा के संस्थानों और ज्ञान-विज्ञान तथा शोध पर भी खर्च बढ़ाना स्वास्थ्य क्षेत्र का काम होता है। सभी बच्चों को समान, सर्वसुलभ और मुफ्त शिक्षा का प्रबंध किसी भी समाज के लिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में निवेश जैसा होता है। समुदायों में, और खास करके सभी बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टि और चेतना तथा पूर्वाग्रहों से मुक्त सकारात्मक जीवनशैली की नींव डालना पूरे समाज के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होगा। इस तरह के निवेश तात्कालिक परिणाम भले न दे सकें, लेकिन एक स्वस्थ भविष्य इन्हीं निवेशों की निरंतरता के बल पर गढ़ा जा सकता है, अन्यथा महामारियों के आकस्मिक विस्फोटों की स्थिति में उठाए गए हमारे कदम आग लगने पर कुंआ खोदने जैसे ही साबित होंगे।

भावनात्मक मुद्दों के आधार पर हथियाए हुए बहुमत के बल पर वर्तमान राजनीतिक सत्ता खुल कर कॉरपोरेट-परस्त नीतियों को अपना रही है। वे खुलेआम लोक कल्याणकारी प्रतिबद्धताओं को त्याग रहे हैं और जनविरोधी नीतियों को अपना रहे हैं और उनमें जनता से न किसी तरह का डर रह गया है न ही लिहाज। नव उदारवादी नीतियों को अपनाते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों को खरीदने-बेचने वाली चीजों की श्रेणी में डालकर बहुसंख्यक गरीब और मध्यवर्गीय आबादी के भविष्य को कॉरपोरेट पूंजीपतियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जा रहा है। एक-एक करके सभी सार्वजनिक ढांचों को तोड़कर उन्हें लगभग मुफ्त में पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। लोकतंत्र में नियंत्रण और संतुलन के लिए बनाई गई सभी संस्थाओं पर न केवल चुने हुए राजनीतिक नेतृत्व का, बल्कि कुछ ही व्यक्तियों, सत्ताधारी पार्टी तथा उनके मातृ संगठन जैसी संविधानेतर शक्तियों का शिकंजा कसता जा रहा है। अब तो विश्व भर में लोकतंत्र की हालत पर निगाह रखने वाली एक संस्था भारत को ‘एलेक्टरल ऑटोक्रेसीÓ की संज्ञा तक दे चुकी है। श्रम कानूनों और कृषि कानूनों में कॉरपोरेट शक्तियों को फायदा पहुंचाने वाले बदलाव सारे विरोधों के बावजूद जबर्दस्ती कर दिये गए हैं। मीडिया को खरीद कर या धमका कर सत्ता की सेवा में लगा दिया जा रहा है। लंपट ट्रॉल्स की भीड़ खड़ी करके ‘धर्मनिरपेक्षताÓ, ‘समाजवादÓ और ‘बुद्धिजीवीÓ जैसे शब्दों को गाली बना दिया गया है। विरोध करने वाली सभी खिड़कियों को एक-एक करके बंद कर दिया जा रहा है। किसी भी विरोध का लिंक राष्ट्र के विरोध और राजद्रोह से जोड़ दिया जा रहा है।

हालत यह है कि कोविड-19 के पिछले एक साल के इस भयावह दौर में, जब देश की अर्थव्यवस्था अपने रिकॉर्ड निचले स्तर, ऋणात्मक में चली गई और करोड़ों लोग अपनी रोजी-रोटी से हाथ धो बैठे, बहुत सारे लोग अपनी छोटी बचतों के बल पर अपना जीवन निर्वाह करने को मजबूर हो गए, बहुत सारे उद्यमी और छोटे व्यापारी अपनी पूंजी गंवा बैठे और बरबाद हो गए, उस दौर में भी कुछ कॉरपोरेट घरानों की संपत्ति में कई गुना की बढ़ोत्तरी हुई। हमें इस बात का बोध होना जरूरी है कि हम लगातार जनपक्षधर नीतियों के रास्ते से हटकर कॉरपोरेट परस्त जनविरोधी नीतियों की ओर उन्मुख हैं, जो अंतत: एक बड़ी आबादी को वंचना, बदहाली और हताशा के गर्त में धकेलता रहेगा।

 

जनविमुख होती स्वास्थ्य व्यवस्था

डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को मर रहे इंसानों में सांस और जीवन भरने का प्रशिक्षण दिया जाता है। एक मर रहे और जनविमुख होते जा रहे स्वास्थ्य ढांचे में जान फूंकने का काम तो वे कर नहीं सकते। यह काम तो जीवन और स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाने तथा सबके लिए समान, उत्कृष्ट, मुफ्त और अनिवार्य स्वास्थ्य प्रणाली की मांग करने वाला एक सशक्त जनांदोलन ही कर सकता है। एक ऐसी प्रणाली की मांग करने की जरूरत है जिसकी शुरुआत सबके स्वास्थ्य की नियमित जांच और बीमारियों के इलाज से पहले ही उनकी रोकथाम की व्यवस्था से हो, और आवश्यकता के हिसाब से सामान्य देखभाल का, तथा उसके आगे जरूरत पडऩे पर विशिष्ट देखभाल के लिए उच्च और सुपर स्पेशलिटी केंद्रों तक मरीजों को भेजने का, किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त एक अंतर्निहित ढांचा हो, जिसके बारे में मरीजों या उनके परिजनों को चिंता करने की कोई जरूरत न हो। जाहिर है कि ऐसी मांगों वाला जनांदोलन ही आगे चल कर गैरबराबरी और शोषण-उत्पीडऩ के सभी रूपों के खात्मे के आंदोलन का भी रूप ले सकता है।

इस लहर में जिस तरह से हमारे शासक निरुपाय दिख रहे हैं और उन्होंने अपने हाथ खड़े कर लिए हैं और आम लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है, वह आपराधिक है। इस बार तो हालत यह रही है कि इस सत्ता-व्यवस्था में सीधे-सीधे हिस्सेदारी करने वाले पदों पर विराजमान लोग और आम इंसान को नाचीज समझने वाले रुतबेदार लोग, जैसे आईएएस, पीसीएस अधिकारी, न्यायधीश, मंत्री, सांसद, विधायक और बड़े-बड़े पत्रकार तक अपने लोगों को अस्पतालों में बेड नहीं दिला पाए और उन्हें मरते हुए असहाय देखते रहे। क्या सत्ता के चरणामृत में ही मगन रहने वाले और ऐंठे-ऐंठे चलने वाले ये सभी लोग कल सरकार पर सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में निवेश बढ़ाने और सबके लिए समान, उत्कृष्ट और नि:शुल्क स्वास्थ्य को अधिकार घोषित करने का दबाव डालने वाला कोई आंदोलन छेड़ेंगे? या ऐसे किसी आंदोलन का खुलकर समर्थन करेंगे? हम सबके दिलों में पीड़ा, वेदना, आंसुओं, बेबसी और लाचारी की असंख्य गाथाएं पेबश्त हैं, फिर भी यह मन:स्थिति भी शायद ही कोई ऐसा आंदोलन खड़ा करने के लिए पर्याप्त हो, क्योंकि हमारी स्मृतियों की उम्र बहुत छोटी होती है, जो हमारे लिए फायदेमंद है तो नुकसानदेह भी है।

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