हमारे मुल्क ने अपनी नैतिक दिशा खो दी है’

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– अरुंधति रॉय

हमारे वक्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग खुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं। वे मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं। वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण हैयह आधुनिक दुनिया का मीठा जहर है। जिसका तकनीक पर कब्जा है, उसका दुनिया पर कब्जा है। पर मैं मानती हूं कि अवाम पर अंतत: कब्जा नहीं किया जा सकता है और वे कब्जे में नहीं आएंगे।

– तिरुअनंतपुरम में दिया व्याख्यान, 13 दिसंबर, 2023

मुझे पी. गोविंद पिल्लई के नाम पर यह सम्मान देने के लिए शुक्रिया। वह केरल के माक्र्सवादी सिद्धांत के असाधारण विद्वानों में से थे। और इसलिए भी शुक्रिया कि आपने यह सम्मान मुझे देने के लिए एन. राम से आग्रह किया। मैं जानती हूं कि यह सम्मान पिछले साल उन्हें हासिल हुआ था, लेकिन कई मायनों में मेरे इस सम्मान में भी उनका हिस्सा है। सन 1998 में फ्रंटलाइन के संपादक के रूप में – और आउटलुक के संपादक विनोद मेहता के साथ – उन्होंने मेरा पहला राजनीतिक निबंध ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशनÓ (कल्पना का अंत) प्रकाशित किया था, जो भारत के परमाणु परीक्षणों के बारे में था। और इसके बाद कई बरसों तक वह मेरे लेख प्रकाशित करते रहे। सत्य यह है कि उनका जैसा संपादक होने के कारण ही, जो सटीक, पैना, लेकिन निडर संपादक था, मुझे एक ऐसा लेखक बनने का भरोसा दिया जैसी मैं आज मैं हूं।

मैं भारत में आजाद प्रेस के अंत के बारे में नहीं बोलने जा रही हूं। यहां मौजूद हम सभी इसके बारे में जानते हैं। न ही मैं इस बारे में बोलने जा रही हूं कि उन सभी संस्थानों का क्या हश्र हुआ है, जिनको हमारे लोकतंत्र को चलाने और उसे सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए कायम किया गया था। बीस बरस से मैं यह करती आ रही हूं और मुझे यकीन है कि यहां मौजूद आप सभी मेरे नजरियों से वाकिफ होंगे।

उत्तर भारत से केरल आने, या किसी भी दक्षिणी राज्य में आकर मैं वैसा ही सुकून भी महसूस करती हूं और बेचैनी भी कि उत्तर में रहने वाले हममें से अनेक लोगों को रोजमर्रा के जीवन में जिस दहशत के साथ जीना पड़ता है, उससे लगता है कि मैं कितनी दूर हूं।

यह उतना दूर नहीं है जितना कि हम सोचते हैं। अगर मौजूदा हुकूमत अगले साल फिर से सत्ता में आती है, तब 2026 में परिसीमन की कार्रवाई के तहत मुमकिन है कि संसद में हम जितने सांसद भेजते हैं, उनकी तादाद घटा कर पूरे दक्षिण भारत की ताकत छीन ली जाए। हमारे विविधता भरे मुल्क की रीढ़ ‘फेडरलिज्मÓ (संघवाद) भी खतरे में है। केंद्रीय सरकार जिस तरह से खुद बेलगाम ताकत हासिल करती जा रही है, उसमें हम विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के चुने हुए मुख्यमंत्रियों की बेबसी को भी देख रहे हैं। उन्हें सार्वजनिक कोष में से अपने राज्यों के हिस्से के लिए शब्दश: भीख में मांगनी पड़ रही है। फेडरलिज्म को लगी सबसे ताजा चोट सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है, जिसमें उसने संविधान के अनुच्छेद 370 के अंत को मंजूरी दे दी है। इस अनुच्छेद में जम्मू-कश्मीर राज्य को अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया है। भारत में विशेष दर्जा रखने वाला यह अकेला राज्य नहीं है। यह कल्पना करना भयावह गलती होगी कि इस फैसले का संबंध सिर्फ कश्मीर से है। इसका असर हमारी राज्य व्यवस्था के बुनियादी ढांचे तक पर पड़ता है।

 

पर आज की बात

लेकिन आज मैं एक ऐसी चीज पर बात करना चाहती हूं जो कहीं अधिक फौरी और जरूरी है। हमारे मुल्क ने अपनी नैतिक दिशा खो दी है। सबसे घिनौने अपराध, सामूहिक जनसंहार(जेनोसाइड) और नस्ली सफाए (एथनिक क्लीन्जिंग) के सबसे खौफनाक ऐलानों पर तारीफें मिल रही हैं, राजनीतिक इनाम दिए जा रहे हैं। सारी की सारी दौलत जहां कुछेक हाथों में सिमटती जा रही है, वहीं गरीबों को कुछ टुकड़े फेंक देने भर से वही ताकतें सत्ता हासिल करने में कामयाब हो रही हैं जो गरीब अवाम की बदहाली को और बढ़ाती हैं।

हमारे वक्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग खुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं। वे मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं। वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण है – यह आधुनिक दुनिया का मीठा जहर है। जिसका तकनीक पर कब्जा है, उसका दुनिया पर कब्जा है। पर मैं मानती हूं कि अवाम पर अंतत: कब्जा नहीं किया जा सकता है और वे कब्जे में नहीं आएंगे। मेरा विश्वास है कि नई पीढ़ी बगावत में उठ खड़ी होगी। एक इनकलाब आएगा। मुझे माफ कीजिए। मैं इसे सुधार कर कहती हूं। इनकलाब आएंगे। कई सारे इनकलाब। बहुवचन में।

जैसा कि मैंने कहा है कि एक मुल्क के रूप में हमने अपनी नैतिक दिशा खो दी है। सारी दुनिया में लाखों यहूदी, मुसलमान, ईसाई, हिंदू, कम्युनिस्ट, ईश्वर को न माननेवाले, एग्नॉस्टिक लोग सड़कों पर जुलूस निकाल रहे हैं, गाजा पर तुरंत हमला बंद करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन हमारे मुल्क की सड़कें आज खामोश हैं, हमारा वही मुल्क जो कभी गुलाम, उपनिवेश अवाम का सच्चा दोस्त था। जो फलस्तीन का एक सच्चा दोस्त था। जहां इन पर कभी लाखों लोगों के जुलूस निकले होते, वहां की सड़कें आज खामोश हैं। कुछ को छोड़ कर हमारे ज्यादातर लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी भी खामोश हैं। कितना शर्मनाक है। और तंगनजरी का कैसा अफसोसनाक प्रदर्शन। जब हम देख रहे हैं कि किस तरह हमारे लोकतंत्र का ढांचा व्यवस्थित रूप से तबाह किया जा रहा है, और असाधारण विविधता वाले हमारे वतन पर एक झूठा, सबको एक साथ जकड़ देने वाला, संकीर्ण राष्ट्रवाद थोपा जा रहा है, तब कम से कम जो लोग खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि गुस्सा और सांप्रदायिकता हमारे मुल्क में भी तबाही ला सकती है।

अगर हम इजराइल के हाथों फलस्तीनी लोगों के खुलेआम कत्लेआम पर कुछ नहीं बोल रहे हैं, जबकि यह हमारी निजी जिंदगियों के सबसे अंतरंग कोनों तक में ‘लाइव स्ट्रीमÓ (सीधे प्रसारित)हो रहा है, तब हम इस कत्लेआम के भागीदार बन जाते हैं।

क्या हम बस चुपचाप देखते रहेंगे, जबकि घरों, अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, संग्रहालयों पर बम गिराए जा रहे हैं, दस लाख से अधिक लोग बेघर हो चुके हैं, और मलबों के नीचे से मरे हुए बच्चों की लाशें निकल रही हैं? गाजा की सरहदें बंद हैं। लोग कहीं नहीं जा सकते। उनके पास छुपने के लिए जगह नहीं है, खाना नहीं है, पानी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि आधी से ज्यादा आबादी भुखमरी का सामना कर रही है। इस सबके बावजूद उन पर लगातार बम गिराए जा रहे हैं। क्या हम फिर से इसे चुपचाप देखते रहेंगे कि एक पूरे के पूरे अवाम को इस कदर कमतर इंसान बना दिया जाए उसका खात्मा एक बेमानी, मामूली बात बन जाए?

फलस्तीनियों को इंसानों से कमतर समझने की शुरुआत बेन्जामिन नेतन्याहू और उनकी मंडली से नहीं हुई थी। इसकी शुरुआत दशकों पहले हो गई थी।

 

सितंबर का साया

11 सितंबर 2001 की पहली बरसी पर 2002 में मैंने संयुक्त राज्य में एक व्याख्यान दिया था ‘कम सेप्टेंबरÓ (‘सितंबर का सायाÓ नाम से हिंदी में प्रकाशित)। इसमें मैंने 11 सितंबर की अन्य बरसियों के बारे में बात की थी। इसी तारीख को 1973 में चिली के राष्ट्रपति साल्वादोर आय्येंदे के खिलाफ सीआईए के समर्थन से तख्तापलट हुआ था। और फिर इसी तारीख को 1990 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश सीनियर ने संसद के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए इराक के खिलाफ युद्ध के सरकारी फैसले की घोषणा की थी। और फिर मैंने फलस्तीन के बारे में बात की थी। मैं वह हिस्सा पढ़ कर सुनाती हूं, और आप देखेंगे कि अगर मैंने आपको यह नहीं बताया होता कि इसे 21 साल पहले लिखा गया था, तो आपको लगता कि यह आज के बारे में है।

”11 सितंबर की एक त्रासद गूंज मध्यपूर्व में भी मिलती है। 11 सितंबर, 1922 को अरब लोगों की नाराजगी की अनदेखी करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने फलस्तीन में एक ‘मैंडेटÓ (फरमान) का ऐलान किया। यह 1917 के बालफोर घोषणा का अगला कदम था, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य ने तब जारी किया था जब गाजा की सीमाओं पर उसकी फौज तैनात थी। बालफोर घोषणा ने यूरोपीय जायनिस्टों से यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्र का वादा किया था। (उस वक्त साम्राज्य, जिसका सूरज कभी नहीं डूबता था, लोगों के वतन को छीनने और बांटने के लिए आजाद था, जैसा कि स्कूल में कोई दबंग बच्चा कंचे-गोलियां-बांटता है)। साम्राज्यों ने कितनी बेपरवाही के साथ प्राचीन सभ्यताओं की काट-छांट की है। फलस्तीन और कश्मीर खून में लथपथ गहरे जख्म हैं, जो ब्रिटेन द्वारा आधुनिक दुनिया को दिए हुए हैं। आज दोनों ही उग्र अंतरराष्ट्रीय टकरावों का केंद्र हैं। ”

सन 1937 में विंस्टन चर्चिल ने फलस्तीनवासियों के बारे में क्या कहा था, उसे उद्धृत कर रही हूं,

”मैं इससे सहमत नहीं हूं कि नांद में रहने वाले किसी कुत्ते का उस नांद पर अंतिम अधिकार होता है, भले ही वह उसमें लंबे अर्से से क्यों न रह रहा हो। मैं उदाहरण के लिए नहीं मानता कि अमेरिका के रेड इंडियनों या ऑस्ट्रेलिया के काले लोगों के साथ कोई अन्याय किया गया है। मैं स्वीकार नहीं करता कि इन लोगों पर एक शक्तिशाली प्रजाति ने, ऊंचे स्तर की प्रजाति ने, कह सकते हैं कि सांसारिक रूप से एक अधिक बुद्धिमान प्रजाति ने, आकर उनके स्थान पर अपना कब्जा जमा कर कोई अन्याय किया है।”

”फलस्तीनियों के बारे में इजराइली राज्य का रवैया यहीं से जन्म लेता है। 1969 में इजराइली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने कहा था, ‘फलस्तीनियों का कोई अस्तित्व नहीं है।Ó उनके बाद प्रधानमंत्री बने लेवी एशॉल ने कहा, ”फलस्तीनी क्या हैं? जब मैं यहां (फलस्तीन) आया, यहां 2, 50, 000 गैर यहूदी थे, अधिकतर अरब और बद्दू लोग। यह मरुस्थल था, किसी पिछड़े हुए क्षेत्र से भी खराब। कुछ भी नहीं था।” प्रधानमंत्री मेनाचेम बेजीन ने फलस्तीनियों को ‘दोपाया जानवरÓ कहा था। प्रधानमंत्री यित्जाक शामिर ने उन्हें ‘टिड्डेÓ बताया था जिन्हें कुचला जा सकता है। यह देश के हुक्मरानों की जबान है, आम अवाम के शब्द नहीं।”

 

एक खौफनाक मिथक

इस तरह बिना वतन वाले एक अवाम के लिए बिना अवाम वाले एक वतन का खौफनाक मिथक शुरू हुआ।

”1947 में संयुक्त राष्ट्र ने औपचारिक रूप से फलस्तीन का बंटवारा कर फलस्तीनी जमीन का 55 फीसदी हिस्सा जायनिस्टों को सौंप दिया। लेकिन एक साल के भीतर उन्होंने 76 फीसदी फलस्तीन पर कब्जा कर लिया। 14 मई, 1948 को इजराइल राज्य की स्थापना हुई। घोषणा के कुछ मिनटों के भीतर संयुक्त राज्य ने इसे मान्यता दे दी। जोर्डन ने वेस्ट बैंक (पश्चिमी तट) पर कब्जा कर लिया। गाजा पट्टी मिस्र की फौज के नियंत्रण में आ गई, और फलस्तीन का औपचारिक वजूद खत्म हो गया, सिवाय उन लाखों फलस्तीनी अवाम के दिलो-दिमाग के, जो अब उजड़ कर शरणार्थी बन चुके थे। 1967 में इजराइल ने वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर भी कब्जा कर लिया। दशकों तक बगावतें, जंगें और इंतफादा होते रहे हैं। दसियों हजार लोग जान गंवा चुके हैं। समझौतों और करारनामों पर दस्तखत किए जाते रहे हैं। युद्धविराम की घोषणाएं हुई और उनका उल्लंघन हुआ। लेकिन खूनखराबा खत्म नहीं हुआ है। फलस्तीन पर अभी भी गैरकानूनी कब्जा जारी है। यहां के निवासी अमानवीय हालात में जीते हैं, बंटुस्तानों में (नस्ली भेदभाव पर आधारित वे अफ्रीकी लावारिस बस्तियां जो गोरों ने अफ्रीका में स्थानीय लोगों के घर जमीन घेर कर उनके लिए बनाईं-सं।), जहां उन पर सामूहिक सजाएं थोपी जाती हैं, जहां कफ्र्यू कभी खत्म नहीं होता है, जहां रोज उन्हें अपमानित किया जाता है, बेरहम कार्रवाइयों का निशाना बनाया जाता है। उन्हें नहीं पता कि कब उनके घर गिरा दिए जाएंगे, कब उनके बच्चों को गोली मार दी जाएगी, कब उनके बेशकीमती दरख़्तों को काट दिया जाएगा, कब उनकी सड़कें बंद कर दी जाएंगी, कब उन्हें खाना और दवाइयां खरीदने के लिए बाजार जाने की इजाजत दी जाएगी। और कब नहीं दी जाएगी। वे बिना किसी सम्मान के जीते हैं। और बिना किसी उम्मीद के। अपनी जमीन पर, अपनी हिफाजत पर, अपनी आवाजाही पर, अपने संचार, अपनी पानी की सप्लाई पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। तो जब समझौतों पर दस्तखत किए जाते हैं, और ‘स्वायत्तताÓ और ‘राज्य का दर्जाÓ जैसे शब्दों के परचम लहराए जाते हैं, तब सदा यह सवाल पूछना जरूरी हो जाता है कि किस किस्म की स्वायत्तता? किस किस्म का राज्य? किस किस्म के अधिकार इसके नागरिकों के पास होंगे?

वे फलस्तीनी नौजवान जो गुस्से पर काबू नहीं कर पाते खुद को इंसानी बमों में बदल देते हैं और इजराइल की सड़कों और गलियों को निशाना बनाते हैं। वे खुद को उड़ा लेते हैं, आम लोगों की जानें लेते हैं, उनके रोजमर्रा के जीवन में दहशत भर देते हैं, और आखिरकार दोनों समाजों के संदेहों और एक दूसरे के बारे में आपसी नफरत को ही मजबूती देते हैं। हरेक बम धमाका एक बेरहम पलटवार को दावत देता है, फलस्तीनी अवाम की मुश्किलों को और बढ़ाता है। लेकिन फिर सच्चाई यह है कि खुदकुश बम हमले निजी हताशा की कार्रवाई होते हैं, कोई क्रांतिकारी कदम नहीं। फलस्तीनी हमले इजराइली नागरिकों में दहशत जरूर भरते हैं, लेकिन वे फलस्तीनी इलाके में इजराइली सरकार की रोजाना की दखलंदाजियों के लिए एक सटीक बहाना बन जाते हैं। वे पुराने चलन वाले, उन्नीसवीं सदी के औपनिवेशवाद का एक सटीक बहाना बन जाते हैं, जिसे 21वीं सदी के नए चलन के ‘युद्धÓ का जामा पहना दिया गया है। इजराइल का सबसे कट्टर राजनीतिक और सैनिक सहयोगी संयुक्त राज्य अमेरिका है और हमेशा से रहा है। ”

”*संयुक्त राज्य अमेरिकी सरकार ने इजराइल के साथ मिल कर संयुक्त राष्ट्र के हर उस प्रस्ताव को रोका है, जिसमें इस टकराव के एक शांतिपूर्ण, न्यायोचित हल की मांग की जाती है। इसने इजराइल की करीब-करीब हर जंग, जो उसने लड़ा है का समर्थन किया है। जब इजराइल फलस्तीन पर हमला करता है, तब फलस्तीनी घरों को तबाह करने वाली मिसाइलें हैं अमेरिकी होती हैं। और हर साल इजराइल कई अरब डॉलरों की रकम संयुक्त राज्य से हासिल करता है, जो वहां के करदाताओं का पैसा है।”

 

इजराइल बम, अमेरिकी नाम

आज आम जनता पर इजराइल जो भी बम गिरा रहा है, उस पर संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम लिखा है। हर टैंक पर। हर गोली पर। ऐसा कुछ नहीं हो रहा होता, अगर अमेरिका पूरे दिल से इसका समर्थन नहीं कर रहा होता। आठ दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की बैठक में जो कुछ हुआ उसे हम सबने देखा। परिषद के 13 सदस्य राष्ट्रों ने युद्ध विराम के लिए वोट डाला और संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसके खिलाफ। वह वीडियो देखना परेशान कर देने वाला था, जिसमें अमेरिकी उप राजदूत, जो एक ब्लैक अमेरिकी हैं, का हाथ प्रस्ताव पर वीटो लगाने के लिए उठा। हमारे जेहन पर इसके निशान हमेशा रहेंगे। सोशल मीडिया पर कुछ नाराज लोगों ने कड़वाहट में इसे ‘इंटरसेक्शनल इम्पीरियलिज्मÓ (मोटे तौर पर साम्राज्यवाद/सत्ता का वह रूप जो अपने स्वार्थ के लिए सिद्धांतों को वर्ग, लिंग, रंग और जाति जैसे आधार तक सीमित करता है) कहा है।

नौकरशाही कार्रवाइयों को देखें तो ऐसा लगता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका का कहना है: जो करना है कर दो। लेकिन रहमदिली के साथ।

”इस त्रासद टकराव से हमें कौन से सबक सीखने चाहिए? जिन यहूदी लोगों ने खुद इतनी क्रूरताएं झेली हैं – शायद इतिहास में किसी भी अवाम सेे ज्यादा – उनके लिए क्या ऐसे लोगों के जोखिम और ख्वाहिशों को समझ पाना सचमुच में असंभव है जिन्हें उन्होंने विस्थापित कर रखा है? क्या भयावह तकलीफें हमेशा बेरहमी को जन्म देती हैं? इंसानियत के लिए इससे क्या उम्मीद बचती है? किसी जीत के मौके पर फलस्तीनी लोग कैसा बर्ताव करेंगे? राज्य से महरूम एक राष्ट्र जब एक राज्य बनेगा, तब वह किस किस्म का राज्य होगा? इसके परचम के साए में किस तरह का खौफ अंजाम दिया जाएगा? क्या हमें एक अलग राज्य के लिए लडऩा चाहिए, या फिर हमें हरेक के लिए आजादी और सम्मान से भरे जीवन के अधिकार के लिए लडऩा चाहिए, चाहे किसी की जातीय पहचान या धर्म कुछ भी हो? फलस्तीन किसी समय मध्यपूर्व में धर्मनिरपेक्षता का एक मोर्चा था। लेकिन आज उसी जगह हमास एक कमजोर, अलोकतांत्रिक, हर किस्म से भ्रष्ट लेकिन घोषित रूप से असंकीर्ण पीएलओ की जगह लेता जा रहा है, जो खुलेआम एक संकीर्ण विचारधारा, और इस्लाम के नाम पर लडऩे का दावा करता है। उनका घोषणापत्र कहता है: ”हम इसके सिपाही होंगे और इसकी आग के लिए लकड़ी, जो दुश्मनों को जला डालेगी।ÓÓ दुनिया से मांग की जाती है कि वह आत्मघाती बमबारों की निंदा करे। लेकिन क्या हम उस लंबे सफर की अनदेखी कर सकते हैं जिससे होकर वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं? 11 सितंबर,  1922 से 11 सितंबर, 2002 तक – एक जंग को जारी रखने के लिए 80 साल बहुत लंबा समय होता है। क्या दुनिया फलस्तीन के अवाम को कोई सलाह दे सकती है? क्या उन्हें सीधे-सीधे गोल्डा मायर की सलाह मान लेनी चाहिए, और सचमुच में इसके लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए वे अपना वजूद मिटा डालें?ÓÓ

 

नस्ली जनसंहार के इरादे का सार्वजनिक रूप

फलस्तीनी लोगों को मिटा देने, उनको पूरी तरह खत्म कर देने के विचार को इजराइली राजनीतिक हुक्मरान और सैनिक अधिकारी साफ साफ कह रहे हैं। बाइडेन प्रशासन के खिलाफ ”नस्ली सफाये -जेनोसाइड- को न रोकपाने के लिएÓÓ – जो कि अपने आप में अपराध है, मुकदमा दायर करने वाले एक अमेरिकी वकील का कहना है कि नस्ली जनसंहार के इरादे को इस तरह साफ-साफ और सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने का मामला शायद ही कहीं देखने को मिले। एक बार इस मकसद को हासिल कर लेने के बाद, शायद इन हुक्मरानों का इरादा यह हो कि ऐसे संग्रहालय बनाए जाएं जिनमें फलस्तीनी संस्कृति और हस्तशिल्पों की नुमाइश हो। असली फलस्तीनी खाना परोसने वाले रेस्तरां हों। शायद नए गाजा बंदरगाह पर इस बात को लेकर एक ‘लाइट एंड साउंड शोÓ भी हो कि पुराना गाजा कितना रंगीन हुआ करता था। मुमकिन है कि यह बंदरगाह बेन गुरियन नहर परियोजना के मुहाने पर बनाया जाए, जिसे स्वेज नहर के पैमाने पर बनाने की योजना तैयार की जा रही है। कहा जा रहा है कि समंदर में खुदाई के ठेकों पर दस्तखत किए जा रहे हैं।

बीस साल पहले, जब न्यू मैक्सिको में मैंने अपना ‘कम सेप्टेंबरÓ व्याख्यान दिया था, तब संयुक्त राज्य में फलस्तीन को लेकर एक किस्म के ‘ओमेरताÓ (अपराधियों की आपसी समझ की चुप्पी) का माहौल था। इसके बारे में जो लोग बोलते थे वे इसकी भारी कीमत चुकाते थे। आज नौजवान सड़कों पर हैं। अगले मोर्चे पर उनकी रहनुमाई यहूदी और फलस्तीनी कर रहे हैं, जो अपनी सरकार, अमेरिका की सरकार की करतूतों पर गुस्से में हैं। विश्वविद्यालयों में उथल-पुथल है। सबसे एलीट कैंपसों में भी। उन्हें चुप कराने के लिए पूंजीवाद तेजी से आगे आ रहा है। दानदाता फंड रोक देने की धमकी दे रहे हैं, और इस तरह इस बात का फैसला कर रहे हैं कि अमेरिकी छात्र क्या कह सकते हैं और क्या नहीं, और उन्हें कैसे सोचना चाहिए और कैसे नहीं। यह एक तथाकथित उदारवादी शिक्षा के बुनियादी उसूलों के मर्म पर ही चोट है। उत्तर-उपनिवेशवाद, बहु-संस्कृतिवाद, अंतरराष्ट्रीय कानून, जेनेवा कन्वेन्शन, मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र की दिखावेबाजी का अंत हो चुका है। बोलने की आजादी या सार्वजनिक नैतिकता का दिखावा भी खत्म हो चुका है। अंतरराष्ट्रीय वकील और विद्वान जिसे सभी कसौटियों पर एक नस्ली जनसंहार बता रहे हैं, वह ‘युद्धÓ जारी है जिसमें अपराध करने वाले मुजरिम खुद को पीडि़त बता रहे हैं, एक नस्लभेदी राज्य चलाने वाले उपनिवेशवादी, उत्पीडि़तों के किरदार में हैं। अमेरिका में इस पर सवाल उठाने का मतलब होगा एंटी-सेमेटिक होने का आरोप लगना। चाहे सवाल करने वाले लोग खुद यहूदी ही क्यों न हों।

आप होश खो बैठेंगे। यहां तक कि इजराइल भी उस तरह आवाजों को नहीं कुचलता जितना अमेरिका कुचलता है, जहां गिडियन लेवी जैसे असहमत इजराइली नागरिक इजराइली कार्रवाइयों के सबसे जानकार और सबसे तीखे आलोचक हैं (हालांकि हालात वहां भी तेजी से बदल रहे हैं)। संयुक्त राज्य में तो इंतिफादा की बात करने को यहूदियों के नस्ली जनसंहार का आह्वान मान लिया जाता है। जबकि इंतिफादा का मतलब है बगावत, प्रतिरोध, जो फलस्तीन के मामले में एक नस्ली जनसंहार का विरोध है। इसका मतलब है अपने को मिटा दिए जाने का विरोध। ऐसा लगता है कि फलस्तीनी लोगों के पास नैतिक रूप से करने के लिए सिर्फ एक ही काम है कि वे मर जाएं। हम सबके सामने कानूनी रूप से एक ही रास्ता है कि हम उन्हें मरते हुए देखें। और चुप रहें। अगर हम ऐसा नहीं करते, तब हम अपने स्कॉलरशिप, ग्रांट, लेक्चर फीस और अपनी आजीविकाओं को जोखिम में डालेंगे। 11 सितंबर के बाद अमेरिकी ‘वार ऑन टेररÓ (‘आतंक के खिलाफ युद्धÓ) ने दुनिया भर की हुकूमतों को अपने नागरिक अधिकारों को खत्म कर देने का, और एक जटिल, आक्रामक निगरानी व्यवस्था कायम करने का बहाना दे दिया। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें हमारी सरकारें हमारे बारे में हर चीज जानती हैं, और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते। इसी तरह अमेरिका के नए मैकार्थीवाद की छतरी तले पूरी दुनिया के देशों में खौफनाक चीजें पनपेंगी। बेशक हमारे अपने देश में यह बरसों पहले शुरू हो गया था। लेकिन अगर हम इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे तो यह और तेज होगा और हम सबको बहा ले जाएगा। कल ही खबर आई कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने, जो किसी समय भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से था, छात्रों के लिए बर्ताव के नए नियम जारी किए हैं। उनके तहत धरना या भूख हड़ताल करने वाले हर छात्र पर 20, 000 रुपयों का जुर्माना होगा। ‘राष्ट्र-विरोधी नारेÓ लगाने के लिए 10, 000 रुपए। अभी इसकी कोई सूची नहीं है कि ये कैसे नारे हैं – लेकिन हम यकीन से कह सकते हैं कि मुसलमानों के नस्ली जनसंहार और सफाए की मांग करने वाले नारे इस फेहरिश्त का हिस्सा नहीं होंगे। यानी फलस्तीन की लड़ाई हमारी लड़ाई भी है।

 

जो बचा है

कहने के लिए जो बचा है उसे साफ-साफ कहना और दोहराना जरूरी है। वेस्ट बैंक पर इजराइल का कब्जा और गाजा की घेरेबंदी मानवता के खिलाफ अपराध हैं। इस कब्जे को धन और मदद देने वाले संयुक्त राज्य और दूसरे देश इस अपराध के भागीदार हैं। आज हम जिस दहशत को देख रहे हैं, हमास और इजराइल द्वारा नागरिकों का विवेकहीन कत्लेआम, वह इस घेरेबंदी और कब्जे का नतीजा है।

चाहे दोनों ही पक्षों द्वारा की जाने वाली क्रूरता का कैसा भी ब्योरा दिया जाए, उनकी ज्यादतियों की कितनी भी निंदा की जाए, उनके अत्याचारों में एक बराबरी का चाहे जितना भी झूठ गढ़ा जाए, वे हमें किसी समाधान तक नहीं पहुंचा सकते।

इस भयावहता को जन्म देने वाली चीज है कब्जा। कब्जा ही वह चीज है जो अपराध करने वालों और उस अपराध का निशाना बनने वालों, दोनों पर हिंसा कर रही है। इसके शिकार बनने वाले मर रहे हैं। और इन अपराधियों को अब अपने जुर्म के साथ जीना पड़ेगा। उनकी आने वाली उनकी पीढिय़ों को भी।

इसका हल किसी फौजी कार्रवाई से नहीं निकल सकता। यह सिर्फ राजनीतिक हल ही हो सकता है, जिसमें इस्राएलियों और फलस्तीनियों, दोनों को ही, एक साथ या एक दूसरे के साथ-साथ रहना पड़ेगा। सम्मान के साथ, और समान अधिकारों के साथ। इसमें दुनिया का दखल देना जरूरी है। इस कब्जे का अंत जरूरी है। फलस्तीनियों को सचमुच का एक मुल्क मिलना जरूरी है। और फलस्तीनी शरणार्थियों को वापस लौटने का अधिकार मिलना जरूरी है।

अगर नहीं तो पश्चिमी सभ्यता की नैतिक इमारत ढह जाएगी। हम जानते हैं कि यह हमेशा ही एक दोमुंही चीज थी, लेकिन उसमें भी एक किस्म की पनाह मिलती थी। वह पनाह हमारी आंखों के सामने से खत्म हो रही है।

इसलिए, फलस्तीन और इजराइल की खातिर, जो जिंदा हैं उनकी खातिर, और जो मारे गए उनके नाम पर, हमास के हाथों बंधक बनाए गए लोगों की खातिर, और इजराइली जेलों में बंद फलस्तीनियों की खातिर, सारी इंसानियत की खातिर, यह कत्लेआम फौरन बंद हो।

इस सम्मान के लिए मुझे चुनने के लिए आपका एक बार फिर से शुक्रिया। इस पुरस्कार के साथ मिलने वाले तीन लाख रुपयों के लिए भी आपका शुक्रिया। ये रुपए मेरे पास नहीं रहेंगे। वे उन एक्टिविस्टों और पत्रकारों के काम आएंगे जो भारी कीमत चुकाते हुए भी विरोध में डटे हुए हैं।  ठ्ठ

अनु.: रेयाजुल हक

 

लोकतंत्र

व्यक्तिवादी ‘तानाशाही’का साया

यूसुफ किरमानी

 चुनाव आयोग से संबंधित विधेयक जल्द ही कानून बन जाएगा। इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर जो व्यवस्था थी, उसमें चयन समिति में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी सदस्य होते थे। लेकिन अब प्रधान न्यायाधीश को चयन समिति से हटा दिया गया है। सारा फैसला प्रधानमंत्री, उनकी कैबिनेट का कोई नामित मंत्री और नेता विपक्ष करेंगे।

 

भारत में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए एकमात्र संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग है। 12 दिसंबर को राज्यसभा में और 21 दिसंबर 2023 को लोकसभा के शीतकालीन अधिवेशन में मोदी सरकार एक विधेयक लाई और उसके जरिए केंद्रीय चुनाव आयोग में केंद्रीय चुनाव आयुक्त (सीईसी) और आयुक्तों के चयन का अधिकार प्रधानमंत्री, सरकार का कोई मंत्री और नेता विपक्ष को मिल गया। इतना ही नहीं चुनाव आयुक्तों का दर्जा और वेतन सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर कर दिया गया। नियमों में एक और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ कि अगर कोई मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्त अपने कार्यकाल में जो भी फैसले लेगा, उसके खिलाफ न तो कोई एफआईआर दर्ज होगी और न ही उसे किसी अदालत द्वारा उसके पूर्व के फैसलों के लिए दोषी ठहराया जाएगा। इस अकेले विधेयक ने पूरी भारतीय चुनावी राजनीति को भ्रष्ट तरीके से बदलने, एकल पार्टी व्यवस्था लाने और व्यक्तिवादी तानाशाही के सारे रास्ते खोल दिए। हालांकि दूरसंचार विधेयक, तीन आपराधिक संहिता विधेयक के दूरगामी नतीजे तो अलग ही आने वाले हैं। हमारा विषय निष्पक्ष चुनाव और व्यक्तिवादी तानाशही के खतरों से आगाह करने पर है।

चुनाव आयोग से संबंधित विधेयक जल्द ही कानून बन जाएगा। इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर जो व्यवस्था थी, उसमें चयन समिति में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी सदस्य होते थे। लेकिन अब प्रधान न्यायाधीश को चयन समिति से हटा दिया गया है। सारा फैसला प्रधानमंत्री, उनकी कैबिनेट का कोई नामित मंत्री और नेता विपक्ष करेंगे। अब कल्पना कीजिए कि चयन समिति के सामने सीईसी के रूप में कोई ऐसा नाम आता है, जिस पर नेता विपक्ष को आपत्ति है और प्रधानमंत्री और उनका नामित मंत्री अगर उस नाम पर राजी हैं तो उस सीईसी का चयन आसानी से हो जाएगा। क्योंकि नेता विपक्ष के एकमात्र वोट का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यानी सत्ता पक्ष जिस भी कठपुतली को चाहेगा, उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बना देगा। हालांकि पिछले दस वर्षों में चुनाव आयुक्त मनमाने तरीके से ही नियुक्त किए जा रहे थे। लेकिन अब वही काम नियम बनाकर होगा।

चयन समिति में सरकार की मनमानी चलाने की एक और भी वजह है। चुनाव आयोग में आयुक्त अनूप चंद्र पांडे, फरवरी 2024 में चुनाव आयोग से रिटायर होने वाले हैं। यह विधेयक तब तक कानून बनकर लागू हो जाता है तो अनूप चंद्र पांडे को आयोग में फिर से नामित करने में सरकार को कोई परेशानी नहीं होगी। फरवरी, 2025 में जब मौजूदा सीईसी राजीव कुमार का कार्यकाल खत्म हो जाएगा तो उसके बाद पांडे को अगला सीईसी बनाने में भी कोई विवाद खड़ा नहीं होगा। इस तरह केंद्र सरकार ने तमाम दूरगामी नतीजों पर विचार करके पूरी चयन प्रक्रिया ही बदल दी है।

इसी तरह एक अन्य बदलाव जो चुनाव आयुक्तों को बचाने के लिए किया गया है, वह है फैसलों की कोई जवाबदेही न होना। यह बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, उसी में भविष्य के चुनाव निष्पक्ष न होने की तहरीर भी छिपी है। अभी तक मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त की जवाबदेही होती थी और उसे बाद में भी उसके गलत नतीजों की वजह से जवाब देना पड़ता था।

अभी तक चुनाव आयोग में सारे फैसले इस तरह होते रहे हैं कि उन्हें बाद में अदालत में न चुनौती दी जा सके और न ही किसी सीईसी या चुनाव आयुक्त को जिम्मेदार ठहराया जा सके। कल्पना कीजिए कि सत्ता पक्ष चुनाव को प्रभावित करने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करे और चुनाव आयोग उस पर कोई कार्रवाई न करे। या चुनाव आयोग चुनाव के दौरान विपक्ष को हराने की रणनीति को लागू करने में सत्ता पक्ष की मदद करे। क्योंकि चुनाव के बाद ऐसे मामलों की एफआईआर हो सकती है, तो आयुक्तों को बचाने के लिए यह नियम बदला गया है। मोदी राज में एक देश एक चुनाव की मांग भाजपा नेताओं की ओर से की जा रही है, उसके लागू होने पर उसमें चुनाव आयोग की सबसे बड़ी भूमिका होने वाली है। एक चुनाव की स्थिति में वो और भी शक्तिशाली हो जाएगा। एक तरह से केंद्र की सत्ता के बाद चुनाव आयोग सबसे बड़ा शक्ति का केंद्र होगा, चूंकि चयन समिति के जरिए सीईसी से लेकर सारे आयुक्त कठपुतली होंगे तो कुल मिलाकर सत्ता पक्ष ही अप्रत्यक्ष ढंग से चुनाव आयोग को संचालित करेगा।

चुनाव आयोग को लेकर किए गए ये सारे फैसले चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी होने में बाधा डालेंगे। लेकिन और भी कई वजहें हैं, जिनके कारण निष्पक्ष चुनाव अब दूर की कौड़ी होने वाले हैं। इन वजहों में ईवीएम (इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन), चुनावी बॉन्ड के भ्रष्ट तरीके के जरिए होने वाली फंडिंग शामिल है।

 

ईवीएम, भाजपा और खामोशी

भारत के पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए। तीन दिसंबर को नतीजे आए। नतीजे आने के दो-चार दिन बाद ही ये सूचनाएं आने लगीं कि तीन राज्यों में ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की गई है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यह कहते हुए इस आरोप को खारिज कर दिया कि फिर तेलंगाना में कांग्रेस कैसे जीत गई। भाजपा ने यह भी कहा कि कांग्रेस जब भी चुनाव हारती है तो ईवीएम का रोना लेकर बैठ जाती है। लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है।

ईवीएम का सबसे पहला विरोध 2009 में भाजपा के धुरंधर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। उस साल भाजपा कई राज्यों में चुनाव हार गई थी और आडवाणी ने ईवीएम को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया था। भाजपा के मौजूदा राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने उसी साल ईवीएम किताब लिखी, जिसका शीर्षक था- डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन। 2014 में जब भाजपा की जबरदस्त जीत हुई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो ईवीएम पर सवाल उठाने वाली भाजपा ने एकदम से चुप्पी साध ली। जीवीएल नरसिम्हा राव से अब जब सवाल किया जाता है तो वह कन्नी काट जाते हैं। लेकिन ईवीएम का वह सवाल जो उठा था, खत्म नहीं हुआ है। हर चुनाव के बाद वह जिंदा हो जाता है।

 

जलते और गायब होते ईवीएम

देश में ईवीएम को लेकर सवाल पर सवाल हो रहे हैं। चुनाव आयोग के नियमों की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं लेकिन इसी बीच 20 दिसंबर,  2023 को उत्तर प्रदेश के फरुर्खाबाद से खबर आई है कि वहां एक गोदाम में रखी 800 ईवीएम जल गईं यानी उनमें जो रेकॉर्ड होगा, सब नष्ट हो गया। जिला प्रशासन के अधिकारियों ने पुष्टि की है कि जिस गोदाम में ईवीएम जलीं हैं, वहां बिजली का कनेक्शन नहीं था यानी वहां शॉर्ट सर्किट का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता। सारे घटनाक्रम से साफ है कि किन्ही रेकॉर्ड को नष्ट करने के लिए उन्हें जलाया गया है। 2024 लोकसभा चुनाव की तैयारी भाजपा युद्धस्तर पर कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा का शासन है। ऐसे में संदेह नहीं होगा तो क्या होगा।

19 लाख ईवीएम गायब हैं और आज तक चुनाव आयोग अपनी सफाई ठीक से नहीं दे पाया है। मई 2019 में यह खबर आरटीआई के जरिए सामने आई थी कि करीब 19 लाख ईवीएम गायब हैं। इन ईवीएम का निर्माण दो सरकारी कंपनियों बीईएल और ईसीआईएल ने किया था। जब इस मामले को विपक्षी दलों ने उठाया तो केंद्रीय चुनाव आयोग ने अपनी सफाई में कहा कि एक भी ईवीएम गायब नहीं हुई लेकिन राज्यों के चुनाव दफ्तरों पर उसका नियंत्रण नहीं है। यानी अगर वहां गायब हुई हों तो इस बारे में केंद्रीय चुनाव आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं है। पर केंद्रीय चुनाव आयोग को फ्रंलाइन पत्रिका के रिपोर्टर ने चुनौती देते हुए कहा था कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने ईवीएम का ऑर्डर दोनों सरकारी कंपनियों को दिया था। चुनाव आयोग के ऑर्डर और उन कंपनियों की सप्लाई में अंतर है। यानी जितनी मशीनें आयोग को मिलनी थीं, वो कहीं और पहुंच गईं।

यह बहुत बड़ा मामला था और फ्रंलाइन ने बताया कि 2016-2018 के बीच ये ईवीएम गायब हुई थीं। कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद इस मामले को हल्का-फुल्का उठाया लेकिन बाद में सारा मामला रफा-दफा हो गया। लेकिन वह सवाल रह-रहकर सामने आता है कि आखिर 19 लाख ईवीएम कहां गईं और 2019 के लोकसभा चुनाव से उसका क्या संबंध था। अब उ.प्र. में 800 ईवीएम के जलने की सूचना आई है। विपक्ष फिर इसको हल्केफुल्के ढंग से उठाएगा और बाद में सब शांत हो जाएगा।

 

बीबीसी की रिपोर्ट

भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में 2009 में चुनाव आयोग को ज्ञापन देकर ईवीएम पर सवाल उठाए थे। 2010 में बीबीसी (ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कार्पोरेशन) की एक रिपोर्ट आई, जिस पर अब भाजपा चर्चा नहीं करना चाहती। भारतीय गोदी मीडिया भी बीबीसी की 2010 की रिपोर्ट पर बात नहीं करती। बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मिशीगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने भारतीय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को हैक करने की एक तकनीक विकसित की है। एक घरेलू उपकरण को मशीन से जोडऩे के बाद, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मोबाइल से टेक्स्ट संदेश भेजकर परिणाम बदलने में कामयाब हुए। हालांकि, भारतीय चुनाव अधिकारियों का कहना है कि उनकी मशीनें अचूक हैं और उनके साथ छेड़छाड़ करने वाली मशीन को पकडऩा भी बहुत मुश्किल होगा। बहरहाल, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा इंटरनेट पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में कथित तौर पर उन्हें घर में बने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को भारत में इस्तेमाल होने वाली वोटिंग मशीनों में से एक से जोड़ते हुए दिखाया गया है। प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर जे एलेक्स हैल्डरमैन ने कहा कि ‘डिवाइसÓ (उपकरण) ने उन्हें मोबाइल फोन से संदेश भेजकर मशीन पर परिणाम बदलने की अनुमति दी। उन्होंने बीबीसी को बताया, ”हमने एक नकली डिस्प्ले बोर्ड (सूचना पट्ट) बनाया जो बिल्कुल मशीनों में लगे असली डिस्प्ले जैसा दिखता है। बोर्ड के कुछ कंपोनेंट के नीचे, हमने एक माइक्रोप्रोसेसर और एक ब्लूटूथ रेडियो छिपा दिया है। हमारा हमशक्ल डिस्प्ले बोर्ड उन वोट जोड़ को पकड़ लेता है जिन्हें मशीन दिखाने की कोशिश कर रही है और उन्हें गलत योग (टोटल) से बदल देता है।ÓÓ

इसके अलावा, उन्होंने एक छोटा माइक्रोप्रोसेसर जोड़ा जिसके बारे में उनका कहना है कि यह चुनाव और मतगणना सत्र के बीच मशीन में संग्रहीत वोटों को बदल सकता है। बीबीसी की यह रिपोर्ट अपनी जगह है। लेकिन इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 के बाद कांग्रेस नेता और पूर्व सीएम कमलनाथ से लेकर दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि कई बूथों पर कांग्रेस को एक वोट मिला, जबकि सारे वोट भाजपा को चले गए। यह कैसे संभव है। इसी तरह की शिकायतें तमाम विधानसभा क्षेत्रों से मिलीं। ईवीएम को लेकर ये आरोप अपनी जगह हैं। लेकिन बहुत सारे लोगों ने समय-समय पर ईवीएम को लेकर अपनी आपबीती की जानकारी चुनाव आयोग को दी है। लेकिन आयोग ने शिकायतों का संज्ञान ही नहीं लिया।

 

मुस्लिम मतदाताओं को रोका जाना

निष्पक्ष चुनाव में एक नई बाधा यह भी आ गई है कि हर चुनाव में पुलिस, प्रशासन सांप्रदायिक होती जा रही है। वो जानते हैं कि मुस्लिम वोट कहां जाएंगे, इसलिए मुस्लिम मतदाताओं को अब वोट डालने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। अगर एक उदाहरण हो तो इस सवाल को पूर्वाग्रह माना जाएगा लेकिन अब यह पैटर्न बन गया है तो इस मुद्दे पर बात करना जरूरी है। इसकी शुरुआत मतदाता सूचियों में मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने से होती है। सितंबर 2023 में घोसी उपचुनाव हुआ था। न्यूज क्लिक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि सैकड़ों मुस्लिम मतदाता अपना आधार और मतदाता पहचान पत्र लेकर वोट डालने पहुंचे लेकिन उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे। जिनके नाम मतदाता सूची में थे, उनके वोट पहले ही डाले जा चुके थे। न्यूज क्लिक ने कई मतदाताओं से इंटरव्यू करके रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसी रिपोर्ट में पुलिस के एक सीईओ विनीत का नाम आया था, जिन्होंने कई मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से अजीबोगरीब कारण बताकर रोका और मतदान केंद्र से वापस कर दिया। चूंकि मुस्लिम महिलाएं अपने घर के पुरुषों के साथ वोट डालने आई थीं तो काफी लोगों को भीड़ जमा करने के नाम पर भगा दिया गया।

दिसंबर 2022 में रामपुर उपचुनाव हुआ। उस समय की टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि रामपुर में हजारों मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोका गया। उस रिपोर्ट में तमाम वीडियो के हवाले से बताया गया था कि मुस्लिम मतदाताओं को मतदान केंद्रों के बाहर पुलिस द्वारा पीटे जाने के भी आरोप लगे। यहां पर उसी सीईओ विनीत की ड्यूटी चर्चा के केंद्र में रही, जिनकी सेवाएं बाद में घोसी उपचुनाव में भी ली गई थीं। समाजवादी पार्टी ने रामपुर उपचुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोके जाने के मामले को चुनाव आयोग में ज्ञापन देकर उठाया। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

2018 में कर्नाटक और तमिलनाडु में लाखों मुस्लिम मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब होने की खबरें अखबारों में सुर्खियां बनीं। तमिलनाडु में 12 लाख और कर्नाटक में आठ लाख मुस्लिम नाम मतदाता सूची से गायब मिले। विपक्षी दल इन मामलों को ठीक ढंग से उठा ही नहीं पाए। कर्नाटक में अब कांग्रेस की सरकार है, वो 2018 में आठ लाख मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने की जांच अब क्यों नहीं कराती। उसे कौन रोक रहा है। यही हाल तमिलनाडु में डीएमके का है। वह भी 12 लाख मतदाताओं के नाम गायब होने पर चुप होकर बैठ गई। नवंबर, 2023 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान तमाम शहरों में मुस्लिम मतदाताओं को रोकने की सूचनाएं आईं। लेकिन कांग्रेस ने इस मामले को उठाया ही नहीं। म.प्र. में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व को डर था कि मतदान वाले दिन अगर वे लोग उस पर बोले तो हिंदू मतदाता संगठित होकर भाजपा को वोट दे देंगे। लेकिन कांग्रेस के सॉप्ट हिंदुत्व वाले कमलनाथ को यह नहीं मालूम था कि हिंदुत्व के नाम पर जिन लोगों का वोट भाजपा को जाना है, वो जाएगा ही, मुसलमानों को रोके जाने का मुद्दा उठाने पर मतदाता प्रभावित होने वाले नहीं थे। बहरहाल, सॉफ्ट हिंदुत्व खेलने वाली कांग्रेस अब शायद इस पर विचार करे।

 

चुनावी बॉन्ड: चुनावी भ्रष्टाचार का खुला खेल

चुनावी बॉन्ड योजना शुरू होने के बाद पिछले पांच वर्षों में बॉन्ड के जरिए आधे से अधिक यानी करीब 57 फीसदी पैसा भाजपा के खाते में गया है। भाजपा ने खुद चुनाव आयोग को जानकारी दी है कि 2017-2022 के बीच बॉन्ड के जरिए भाजपा को 5, 271.97 करोड़ रुपए मिले। इसी अवधि में कांग्रेस को चुनावी बॉन्ड से सिर्फ 952.29 करोड़ रुपए मिले। यानी भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े पांच सौ फीसदी ज्यादा चंदा मिला। जिन्हें नहीं पता, उन्हें बता दें कि चुनावी बॉन्ड एक तरह से चुनावी चंदा है जो किसी भी व्यक्ति या संस्था के किसी भी पार्टी को देने पर देनेवाले का नाम गुप्त रहता है। पहले क्या होता था कि पार्टियों को बताना पड़ता था कि किस उद्योग घराने से या संस्था से कितना पैसा उन्हें मिला है। भाजपा जब 2014 में सत्ता में आई तो उसने इस पर बाकायदा काम किया और 2018 नया कानून लेकर आई कि कोई भी व्यक्ति या संस्था गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को दान कर सकता है। लेकिन यह आजाद भारत में सबसे बड़ी राजनीतिक रिश्वत बनकर रह गई है। साल दर साल आंकड़े बता रहे हैं कि कॉरपोरेट जमकर भाजपा को चुनावी बॉन्ड के जरिए पैसा पहुंचा रहा है। कांग्रेस 70 साल सत्ता में रही लेकिन ऐसी अनोखी रिश्वत की योजना पेश नहीं कर पाई, जबकि सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी पार्टी का तमगा उसे भाजपा ने दे रखा है। वही भाजपा जो इस देश की सबसे बड़ी और अमीर पार्टी, कॉरपोरेट रिश्वतखोरी से बन गई है। ताजा आंकड़ों की जानकारी जो यहां दी जा रही है पाठकों की आंखें खोलने के लिए काफी हैं और इससे सारा खेल समझ में आ जाता है।

पांच राज्यों में नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव हुए। ये राज्य हैं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम। तीन दिसंबर को नतीजे आए। 7 दिसंबर 2023 को भारतीय स्टेट बैंक के चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सामने आए। आरटीआई के जरिए आए इन आंकड़ों में एसबीआई को बताना पड़ा कि चुनाव के दौरान 6 नवंबर से 20 नवंबर तक सबसे ज्यादा चुनावी बॉन्ड मिजोरम को छोड़कर चार राज्यों में खरीदे गए। एसबीआई के मुताबिक इस अवधि में 1006.03 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड बेचे गए। 2018 के मुकाबले इन चार राज्यों में 400 गुणा ज्यादा रकम राजनीतिक दलों के पास पहुंची। 2018 में चुनावी बॉन्ड इसी अवधि में 184.20 करोड़ के बेचे गए थे। 2018 में इन्हीं पांच राज्यों में चुनाव हुए थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि मिजोरम में किसी भी राजनीतिक दल को एक धेला भी चुनावी बॉन्ड के जरिए नहीं पहुंचा।

इन चुनावी बॉन्डों को सभी राजनीतिक दलों को भुनाना पड़ता है। यानी पैसा आपके खाते में तभी आएगा, जब आप इसे भुनाएंगे। एसबीआई ने बताया कि नवंबर में राजनीतिक दलों ने लगभग सारे बॉन्ड दिल्ली और हैदराबाद में भुनाए। जाहिर है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में हैं तो बॉन्डों को दिल्ली में भुनाया गया। दूसरे नंबर पर हैदराबाद इसलिए रहा कि वहां के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) का दफ्तर है, उसने वहां बॉन्ड भुनाए।

यहां सर्वोच्च न्यायालय की एक हरकत का जिक्र भी जरूरी है। न्यायालय में चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती दी गई है। मोदी सरकार इसके पक्ष में एड़ी से चोटी तक जोर लगा रही है। सरकार ने दो नवंबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और सरकार ने चार नवंबर को चुनावी बॉन्ड की 29वीं किस्त जारी कर दी। नवंबर में ही पांच राज्यों के चुनाव हो रहे थे। पढऩे वाले समझ गए होंगे कि इन तथ्यों का आपस में क्या तालमेल है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की ‘हरकतÓ शब्द का इस्तेमाल यहां किया गया है। बहरहाल 2018 से अब तक कुल 29 किस्तें चुनावी बॉन्ड की जारी की गई हैं। जिनमें कॉरपोरेट ने 15, 922.42 करोड़ रुपए राजनीतिक दलों के खाते में पहुंचाए। इसमें भाजपा नंबर एक पर और ममता बनर्जी की त्रिणमूल दूसरे नंबर पर है। उसके बाद कांग्रेस का नंबर है। यह गुप्त रिश्वत है। सर्वोच्च न्यायाल में इसके खिलाफ तमाम दलीलें दी जा चुकी हैं और पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की मांग की गई है। लेकिन व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कहां सुनवाई होनी है! सारी संवैधानिक संस्थाएं एक जगह गिरवी हैं।

कांग्रेस ने 18 दिसंबर,  2023 को जनता से चंदा लेने के लिए एक सार्वजनिक योजना ‘देश के लिए दान देंÓ (डोनेट फॉर नेशन) की घोषणा की। जनता से कांग्रेस पार्टी ने अपील की है कि वो कम से कम 138 रुपए का दान कांग्रेस को दे। यह एक तरह से कांग्रेस का चुनावी बॉन्ड योजना और कॉरपोरेट को जवाब है। अगर योजना सफल हुई तो कॉरपोरेट के हाथों के तोते उड़ जाएंगे, क्योंकि जनता का पैसा कांग्रेस के खाते में बड़े पैमाने पर पहुंचा तो कांग्रेस को फिर जनता के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा। कॉरपोरेट उसे वैसे भी चंदा नहीं दे रहा है। अडाणी समूह पर जब से राहुल गांधी ने हमला शुरू किया, तब से उद्योगपतियों से कांग्रेस को मिलने वाला चंदा लगातार कम होता जा रहा है। क्राउड फंडिंग की यह योजना अगर सफल रही तो कांग्रेस देश की राजनीति को बदल सकती है, बशर्ते की जनता के प्रति उसकी जवाबदेही और ईमानदारी उसके बाद भी बनी रहे। जब मैं यह रिपोर्ट लिख रहा हूं तो करीब तीन करोड़ रुपए का जनता दान कांग्रेस के पास पहुंच चुका था।

 

निष्कर्ष और समाधान

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि जनता अगर नहीं जागी तो भारत में निष्पक्ष चुनाव नामुमकिन है, भारत के लोकतंत्र को गंभीर खतरा है। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि केंद्रीय चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को शामिल किया जाए। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि ईवीएम की जगह कागज के मतपत्र वाला जमाना वापस लाया जाए। यह मुमकिन नहीं है तो ईवीएम से निकलने वाली वीपीपैट पर्ची की गणना की जाए। इसके लिए सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग बेवकूफी वाले तर्क पेश कर रहा है। सभी विपक्षी दल मिलकर ईवीएम के मुद्दे पर जनता को सड़कों पर आने के लिए कहें, निष्पक्ष चुनाव के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कांग्रेस से यह वादा लिया जाए कि अगर वो जब भी सत्ता में आएगी तो ईवीएम से चुनाव पर रोक लगा देगी या फिर वीवीपैट पर्चियों की सौ फीसदी गिनती कराएगी। इंडिया गठबंधन ने वैसे भी अब सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग की है। विपक्ष के राजनीतिक दलों का ही काम जनता को जागरूक करना है। उन्हें जनता को जगाने के लिए नए तरीके खोजने होंगे। एक सुझाव यह भी है कि अगर चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और सरकार सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग को स्वीकार नहीं करते हैं तो विपक्ष 2024 के चुनाव का पूरी तरह बहिष्कार कर दे। वैसे भी व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष चुनाव कराने में नाकाम साबित होने वाली हैं। राजनीतिक दलों के पूरी तरह बहिष्कार करने पर जनता को कम से कम ये तो पता चलेगा कि जो पार्टी सत्ता में आने वाली है, वो किस तरह बनी है, जिसमें विपक्ष कहीं नहीं है। अगर 2024 के चुनाव में भाजपा की फिर से सरकार बनती है तो निश्चित रूप से भाजपा एक देश एक चुनाव का कानून लाएगी और पास भी करा लेगी, क्योंकि व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कुछ भी संभव है। जनता और राजनीतिक दलों के पास शांतिपूर्ण संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

 

व्यक्तिवादी तानाशाही का अर्थ

इस रिपोर्ट में कई जगह व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। उसको स्पष्ट करना जरूरी है। अपनी पुस्तक डिक्टेटर्स एंड डिक्टेटरशिप्स: अंडरस्टैंडिंग ऑथरिटेरियन रेजीम्स एंड देयर लीडर्स में लेखिका नताशा एम. एज्रो और एरिका फ्र ांत्ज ने पांच प्रकार की तानाशाही बताई है:1. सैन्य तानाशाही, 2. राजशाही, 3. व्यक्तिवादी तानाशाही, 4. एकदलीय तानाशाही और 5. हाइब्रिड तानाशाही।

लेखिका नताशा और एरिका ने व्यक्तिवादी तानाशाही को परिभाषित करते हुए लिखा है- ”ऐसे नेता को किसी पार्टी द्वारा समर्थित किया जा सकता है। सत्ता का भारी बहुमत ऐसे नेता के पास रहता है। विशेष रूप से किसे किस सरकारी भूमिका में रखना है यह व्यक्तिवादी तानाशह तय करता है। सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए अपने स्वयं के करिश्मे पर बहुत अधिक निर्भर रहता है। इस तरह की तानाशाही के नेता अक्सर अपने प्रति वफादार लोगों को सत्ता में ऊंचे पदों पर रखते हैं, चाहे वो योग्य हों या नहीं। जनता की राय को अपने पक्ष में करने के लिए व्यक्तित्ववादी तानाशाह आकर्षक और लुभावने नारे, कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हैं। अधिकांश तानाशाहों की तरह, व्यक्तिवादी तानाशाह भी आलोचकों को चुप कराने के लिए अक्सर गुप्त पुलिस (खुफिया और जांच एजेंसी) और हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। यहां पर भारतीय संदर्भ में व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। अगर हम अन्य चार तानाशाही का जिक्र इस रिपोर्ट में करेंगे तो यह लेख ज्यादा लंबा हो जाएगा। इसलिए उसे किसी और मौके पर पेश करने के लिए रोक लेते हैं।

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