स्टेडियम से अखाड़े तक

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देश के, ओलंपिक जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में, पदक जीतनेवाले सर्वश्रेष्ठ खिलाडिय़ों के साथ, आज जो हो रहा है, वह शर्मनाक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस साल से जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के शंकास्पद चरित्रों के राजनीतिक नेता, जिस तरह से खेलों के संगठनों का राजनीतिक और निजी स्वार्थों के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं, विशेषकर नाबालिग खिलाडिय़ों का यौन उत्पीडऩ और शोषण, वह भयावह तो है ही, देश के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। पहलवान साक्षी मलिक के कुश्ती छोड़ देने और बजरंग पूनिया के अपने पद्मश्री पुरस्कार को लौटाने के बाद एशियाई और कामेनवैल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली विनेश फोगट ने अपने मेजर ध्यानचंद खेलरत्न और अर्जुन पुरस्कार कर्तव्य पथ पर छोड़ दिए। वह ये पुरस्कार प्रधानमंत्री को लौटाना चाहती थीं जिसकी उन्हें इजाजत नहीं मिली।

कुश्ती संघ और इसके कर्ताधर्ताओं के जो कारनामे सामने आ रहे हैं, यद्यपि अपवाद नहीं हैं, पर यह संभवत: पहली बार है जब उनका इतने सार्वजनिक तौर पर विरोध और खुलासा हुआ है। यद्यपि इन संघों से राजनीतिकों का संबंध और उनके द्वारा इनके दुरुपयोग के किस्से नए नहीं हैं पर इस बार आश्चर्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व जिस तरह से कुश्ती संघ के अध्यक्ष को बचाने में लगा है, वह सब कुछ के बावजूद परेशान करनेवाला तो है ही।

इसका कारण है। देश का शीर्ष नेतृत्व जिस तरह से खेलों, उनकी लोकप्रियता और उनकी राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर की उपलब्धियों से लेकर उनके संगठनों की कमाई तक का, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोहन करता नजर आ रहा है, उसे समझना और याद रखना जरूरी है।

अहमदाबाद क्रिकेट स्टेडियम इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस को लेकर जो हुआ उसे याद किया जा सकता है। पिछले कई दशक से सरदार पटेल के नाम से जाना जानेवाले इस स्टेडियम का दो वर्ष पहले विस्तार करा कर नाम बदल दिया गया। शासकों द्वारा स्थानों का नाम बदलना अनोखी बात नहीं है पर इस क्रिकेट स्टेडियम का नाम जिस तरह बदला गया, वह निश्चित रूप से हैरान करनेवाला है।

स्वाधीनता संग्राम के अग्रगणीय नेताओं में एक और देश के पहले गृहमंत्री, जिनका भजन-कीर्तन भाजपावाले सुबह से शाम तक करना नहीं भूलते हैं, इस क्रिकेट स्टेडियम का नाम उन्हीं सरदार पटेल के नाम पर था। यद्यपि नाम कांग्रेस के शासन काल में रखा गया था पर वर्तमान कर्ताधर्ताओं को स्टेडियम का नाम बदलने के लिए गुजरात से ही जो बड़ा, संभवत: पटेल से भी बड़ा, नाम जिस आसानी से मिला, वह देखने लायक है। कहने की जरूरत नहीं आज वह नाम, नरेंद्र मोदी के अलावा और कौन हो सकता था! वैसे भी ओहदे के हिसाब से पटेल तो गृहमंत्री ही रह गए थे! सो ‘दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम (1,33,000 दर्शकों की क्षमता) का नाम दुनिया के ‘सबसे बड़े Ó लोकतांत्रिक देश के वर्तमान प्रधानमंत्री के नाम से सुशोभित है!

इसकी जो थोड़ी बहुत आलोचना मीडिया में हुई, वही इतने दबे स्वर में थी की किसीने परवाह तक नहीं की। न खिलाडिय़ों ने, न भाजपा भक्तों ने और न ही उसकी विचारधारा के स्रोत, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने। जहां तक खिलाडिय़ों का सवाल है, क्रिकेट खिलाडिय़ों को तो पैसे कमाने से फुर्सत कहां रहती है, वे स्टेडियम जैसी छोटी-मोटी चीज के लिए अपना कैरियर क्यों बर्बाद करते। औरों का तो कहना ही क्या? वैसे क्या आपने कपिल देव को या महेंद्र सिंह धौनी को इसी स्टेडियम में हुए विश्वकप के फाइनल में देखा? कपिल देव ने तो शिकायत भी की पर धौनी ने तो एक शब्द बोलना से भी परहेज किया। मजे से पहाड़ों में घूमते रहे। इन दोनों कप्तानों का स्थान भारतीय क्रिकेट के इतिहास में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि नवानगर के राजा रणजीतसिंहजी का। पर अगर महत्व क्रिकेट का होता तो इन तीनों खिलाडिय़ों का वहां नाम होता। या कम से कम स्टेडियम का नाम रणजीतसिंहजी नवानगर के नाम पर तो होना ही चाहिए था, क्योंकि वह क्रिकेट की दुनिया को गुजरात की सबसे बड़ी देन थे। पर यह सब तब होता जब क्रिकेट बहाना नहीं होता।

अगर देखने की कोशिश करें तो इस संदर्भ में मोटेरा के मैदान में विश्वकप फाइनल में हुई भारतीय टीम की हार निश्चित रूप से रोहित शर्मा और उसकी टीम के सदस्यों की हार थी। हां, अगर जीत होती तो भारत के प्रधानमंत्री की होती, जिनके नाम पर अब यह स्टेडियम है। पर जैसा कि माक्र्सवादी कहते हैं, हर चीज में राजनीति है, क्रिकेट में भी राजनीति है और उसी स्तर पर है जिस स्तर पर उस की लोकप्रियता है। उससे भी बड़ी बात, जितना उसमें पैसा है, उसे कैसे भुलाया जा सकता है।

देखने लायक है कि भारतीय क्रिकेट संघ दुनिया का सबसे समृद्ध संघ है। इस खेल में, कम से कम भारत में सत्ताधारियों और राजनीतिकों की जितनी दखल है वैसी शायद ही किसी और देश में हो। उदाहरण के लिए वर्तमान बीसीसीआई के सचिव देश के गृहमंत्री के बेटे हैं। अमित शाह स्वयं 2019 तक गुजरात क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के राजीव शुक्ला एक अर्से से बीसीसीआई से जुड़े हैं और फिलहाल भी उपाध्यक्ष हैं। सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के भाई अरुण धूमल आईपीएल के अध्यक्ष हैं। दिल्ली क्रिकेट संघ से भाजपा नेता अरुण जेटली मृत्युपर्यंत जुड़े रहे थे। फिलहाल फिरोजशाह कोटला स्टेडियम का नाम जेटली के नाम पर रख दिया गया है। इसलिए अगर इस में नरेंद्र मोदी की दिलचस्पी है तो क्या गलत है।

लोकप्रियता का माध्यम होने के अलावा खेलकूद की संस्थाएं वित्त का तथा देश-विदेश के सैर सपाटे का भी माध्यम होने की वजह से राजनीतिक वर्ग के लिए आकर्षण का अतिरिक्त कारण हैं। इधर लड़कियों के खेलों में बड़ी संख्या में भाग लेने से, एक और लाभ हमारे मूल्यहीन, कुंठित और चरित्रहीन राजनीतिकों को नजर आ गया है। यौन शोषण लगता है, कुश्ती संघों में चरम पर पहुंच गया है जहां विशेषकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा के खेतिहर परिवारों के लड़के-लड़कियां, अपने शौक और कैरियर के कारणों से आते हैं। अगर ऐसा न होता तो मामला इस हद पर नहीं पहुंचता और दर्जनों खिलाड़ी अपने भविष्य को दांव पर नहीं लगाने को उठ खड़े होते।

इसलिए सवाल कई तरह के हो सकते हैं। जैसे कि आखिर एक ऐसे क्षेत्र का आदमी, जहां कुश्ती की लोकप्रियता वैसी न हो जैसी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में है, आखिर कैसे पिछले एक दशक से भी ज्यादा से, कुश्ती संघ का प्रमुख बना हुआ था? दूसरा, इस दौरान उत्तर प्रदेश कुश्ती के क्षेत्र में कहां पहुंचा है? और पिछले एक साल से इतनी सारी सार्वजनिक शिकायतों, उनमें भी यौन उत्पीडऩ और वह भी नाबालिगों के उत्पीडऩ के गंभीर आरोपों के बावजूद, ऐसा आदमी नैतिकतावादी, देशभक्त, रामभक्त भाजपा की डबल इंजन सरकार के दौर में संघ के अध्यक्ष पद पर चलता रहा और अगर बदला तो भी अपने पद पर ऐसे आदमी को बैठाने में सफल रहा जो उसका मोहरा था! ऐसा हुआ क्यों? क्यों कि ब्रजभूषण भाजपा के सांसद हैं। वह पांच बार से भगवा झंडा फहराते हुए संसद की शोभा बढ़ाते रहे हैं और एक बार समाजवादी पार्टी के सांसद भी रह चुके हैं। समझा जा सकता है कि उनका असर कितना है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अगला आम चुनाव अब से सिर्फ चार माह बाद है। दूसरे शब्दों में देश का सत्ताधारी वर्ग अपनी सत्ता को बचाने के लिए किस हद तक वोट जुगाड़ुओं को, फिर चाहे वे किसी भी कोटि के अपराधी हों या ठग, बचाने के लिए जा सकता है, यह प्रसंग उसका उदाहरण है।

यहां गंभीर मसला यह है कि बृजभूषण के खिलाफ महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ के कई आरोप हैं। इसी के मद्दे नजर विश्व के पहलवानी के संगठन वल्र्ड रेसलिंग फैडरेशन ने भारतीय कुश्ती संघ को प्रतिबंधित कर रखा था। पहलवानों ने सन 2023 के शुरू में नई दिल्ली में इस के खिलाफ प्रदर्शन किया था। इस पर खासे हंगामे के बाद, सरकार ने पहलवानों को आश्वासन दिया कि ब्रजभूषण के खिलाफ जांच की जाएगी। पर जांच में क्या पाया गया, सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया मानो मसला देश की सुरक्षा से जुड़ा हो जबकि यह वोटों से जुड़ा है। खैर, जो हुआ सो हुआ, पर ब्रजभूषण को पद से हटा दिया। यानी मसला साफ तौर पर गंभीर था। वरना ये नेतृत्व ‘कामÓ के लोगों को आसानी से सान पर नहीं चढ़ाता है। सरकार जिस तरह से ब्रजभूषण के मामले में टालमटोल कर रही है, उससे यह तो सिद्ध हो रहा है कि आगामी चुनावों को देखते हुए उसकी उपयोगिता कम नहीं हुई है।

पिछले एक वर्ष से खिलाड़ी लगातार बृजभूषण ‘जीÓ के कारनामों के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए एडिय़ां रगड़ रहे थे, यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का दरवाजा तक खटखटा चुके थे। यह ‘खटखटÓ व्यंजना में है। वर्ना यथार्थ में पहलवानों को उस सड़क पर खड़े भी मुश्किल से होने दिया गया था जो इधर ‘कर्तव्य पथÓ कहलाता है।

यह भी गजब का संयोग है कि तोकियो ओलंपिक के पदक प्राप्त बजरंग पूनिया को अपना पद्मश्री पुरस्कार ‘कर्तव्य पथÓ उर्फ खुली सड़क पर यों ही नहीं छोडऩा पड़ा था। स्पष्ट है कि किसी भी रास्ते का कोई भी नाम हो सकता है पर उसकी सार्थकता उस पथ पर चलनेवाले की ईमानदारी और प्रतिबद्धता से निर्धारित होती है, न कि मात्र आने-जाने से। इसलिए सबक यह है कि हार नहीं माननी है। जनता इस संघर्ष को देख रही है। पहलवानों का काम और उनकी ईमानदारी छिपी नहीं है। लोकतंत्र में अंतत: जनता सर्वोपरी है। इसलिए अब अंतिम फैसला जनता की अदालत में ही हो सकता है उसी की तैयारी भी होनी चाहिए।

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