– आरती
मणिपुर के पूरे कैनवास पर बात करना चाहती हूं। वहां जो कुछ घट रहा है – एक जाति दूसरे जाति को खत्म कर रही है, एक धर्म दूसरे धर्म को नष्ट करने पर आमादा है और इसी का खामियाजा है कि एक लिंग का मनुष्य दूसरे लिंग के मनुष्य को हथियार की तरह उपयोग कर रहा है, उसके अपमान का जश्न मना रहा है।
कुछ साल पहले देखी एक फिल्म याद आ रही है, नाम याद नहीं। कलाकारों के नाम भी याद नहीं। याद रह गया तो सिर्फ उसका लब्बोलुआब कि इस फिल्म में एक बहन अपने बलात्कारी छोटे भाई को, जिसने उसकी ही दोस्त के साथ बलात्कार किया था, पीट-पीटकर सिर्फ जिंदा रहने लायक ही छोड़ती है और अंतत: पुलिस के हवाले कर देती है। वह मां की दुहाइयां भी नहीं सुनती। और कोर्ट से कड़ी सजा की अपील करती है। बलात्कार पर इस ट्रीटमेंट के साथ बनी यह अलहदा फिल्म है और शायद अकेली भी। इस फिल्म में नायिका यानी बलात्कारी की बहन कराटे चैंपियन होती है। इसलिए वह भाई की जी तोड़ पिटाई कर सकी लेकिन जो मांएं, जो बहनें चैंपियन नहीं वे एक चांटा तो मार ही सकती हैं। बहिष्कार कर सकती हैं। कम से कम उनके बेकसूर होने की दुहाइयां तो न दें।
फिलहाल मेरी बातों के केंद्र में मणिपुर में हुई बर्बर घटना है। वैसे तो मैं समूल रूप से तीन महीने से जलते हुए मणिपुर के पूरे कैनवास पर बात करना चाहती हूं। वहां जो कुछ घट रहा है – एक जाति दूसरे जाति को खत्म कर रही है, एक धर्म दूसरे धर्म को नष्ट करने पर आमादा है और इसी का खामियाजा है कि एक लिंग का मनुष्य दूसरे लिंग के मनुष्य को हथियार की तरह उपयोग कर रहा है, उसके अपमान का जश्न मना रहा है।
हालांकि इस पूरे दृश्य को खोलते हुए अब तक के सामाजिक ताने-बाने को खोलने की जरूरत है, और उसी से पैदा हुए राजनीतिक वर्चस्व को उधेडऩे की भी जरूरत है, और इन दोनों को हवा देने वाले, आधार देने वाले धार्मिक ग्रंथों के एक-एक दुराग्रहवादी शब्द को लिखने में काम आई स्याही का डीएनए टेस्ट करने की भी जरूरत है, लेकिन यह सब तो हम कब से करते आ रहे हैं!
सभ्यता (सिविलाइजेशन) और संस्कृति जैसे शब्दों को हम आंखें चौड़ाकर, होठों को फैला-फैलाकर बोलते हैं। ये शब्द आखिर हैं क्या! और इन तीनों ही चीजों में औरत कहां हैं, उसकी जगह कहां है? हर सिविलाइजेशन में औरतें बलात्कृत होती रहीं। हर संस्कृति उनके प्रति दुराग्रही सोच और आचरण से लबालब है।
दुनिया भर के समाजशास्त्रियों ने अलग-अलग शब्दों में अक्सर यही कहा कि किसी समाज का मानदंड वहां की औरतों की हैसियत से आंका जा सकता है। इतिहास में चलते हैं – एक औरत द्रोपदी के चीरहरण ने पूरे महाभारत काल को कटघरे में खड़ा कर दिया। मिथक ही सही, पूरा इतिहास भी नहीं है। लेकिन रामराज्य में एक स्त्री को घर से निकाला गया, वह पूरा काल ही प्रश्नांकित है/रहेगा। मणिपुर के नाम से यह घटना भी चस्पां हो गई।
देश के किसी कोने में जब भी इस तरह की घटनाएं होती हैं तो सवाल नई शक्लों में उठने लगते हैं। 2022 की बीबीसी की रिपोर्ट कहती है कि भारत में औसतन 87 बलात्कार की घटनाएं रोज होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के हिसाब से पिछले साल के मुकाबले इस साल देश में बलात्कार की घटनाओं में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसे राज्यवार भी समझा जा सकता है। दुनिया के अन्य देशों के साथ इसकी तुलना की जा सकती है। बेशक घट-बढ़ होगी। यह भी होगा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे देशों के आंकड़ों के साथ इसे मिलाकर हम तालियां बजा लेंगे, खुश हो जाएंगे लेकिन इस सबसे ज्यादा जरूरी है सामाजिक मानदंड के आधार पर इस पूरी लैंगिक द्वेष की ग्रंथि को समझना। मनुष्य की गरिमा के लिहाज से नापना कि आखिर अब तक के तमाम नैतिक, सभ्यतागत, कानूनी प्रयासों में चूक कहां हो रही है कि आदमी बेहतर आदमियत की ओर बढऩे की बजाय हिंसक पशुता की ओर वापस लौट रहा है।
अक्सर मुझे लगता है मनुष्य नाम का दोपाया प्राणी सिर्फ अपने दो पैरों पर चलना ही सीख सका। तमाम तरह के धर्म, विचार, नैतिकता, कानून उसे जानवर की जद से बाहर नहीं निकाल पाए। यदि ऐसा हो सका होता तो वह जब तब अपनी बर्बरता का प्रदर्शन यूं नहीं करता। यहां यह बात कहते हुए मेरे मन में जानवरों के लिए घृणा नहीं है। वे मनुष्य से बेहतर जीव हैं, इसलिए कि उन्होंने कोई धार्मिक-कानूनी जकडऩ अपने लिए नहीं बनाई, सुसंस्कृत होने का दावा नहीं ठोंका। पर मनुष्य ने समाज बनाया। वहां रहने के नियम बनाए। हर जगह की नैतिकता के अलग रूप हो सकते हैं लेकिन वह है। हर कहीं, किसी न किसी रूप में। मनुष्यों की दुनिया में नियमों के तोडऩे की हमेशा आलोचना हुई है, सजाएं भी मिली हैं। लेकिन गहराई से पूरे समाज का अध्ययन किया जाए तो लैंगिक द्वेष किन्हीं भी और दूर्भावनाओं से ज्यादा गहरा है। दो जातियां आपस में लड़ती हैं तो एक दूसरे की स्त्रियों को भोगने/ रौंदने की बात करती हैं। दो धर्म अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के लिए विजातीय धर्म की स्त्रियों को बलत्कृत करते हैं। एक घर में स्त्री और पुरुष रहते हैं, स्त्री को नीचा दिखाने के लिए कितनी लोकोक्तियां, कितनी गालियां, कितने ही तौर तरीके इस्तेमाल में लिए जाते हैं। उसका सब कुछ अधीन होता है, देह भी। तो क्या हमेशा स्त्री-पुरुष संबंध ऐसे ही रहेंगे? उन्हें बेहतर बनाने के उपाय कोई नहीं?
स्त्री-पुरुष संबंधों को बेहतर बनाने की व्याख्या करते हुए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ कहते हैं कि – ”स्त्री की आत्मा को कुचलकर पुरुष ने अपनी आत्मा को भी कुचल दिया है।‘’ पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के प्रति हिंसा और अपमान की इतनी घटनाएं भरी पड़ी हैं, रोज घटित होती हैं कि लगता नहीं कि कभी पुरुष ने अपनी आत्मा को कुचलने से बचाने की कोशिश की। हां अपने आसपास की सगी, पराई तमाम तरह की स्त्रियों की आत्मा को कुचलने की कोशिश में जरूर लगा रहा। हिंसा और द्वेष के हजारों रूप होते हैं। वे इसे जानने समझने की कोशिश करके देखें!
इसी खाई को पाटने की निरंतर कोशिश की जाती रही – शिक्षा के द्वारा, विचार के द्वारा, नैतिकता के द्वारा। इन दोनों लिंगों के बीच में समरसता स्थापित हो, समानता स्थापित हो और एक दिन फिर कोई ऐसी ही घटना घटती है और हमारे तमाम प्रयासों पर पानी फिर जाता है। औरतों को नंगा करना, उसका सामूहिक प्रदर्शन और एक औरत का सामूहिक भोग। इंसानी समाज में तो सेक्स बहुत ही निजी और एकांतिक क्रिया है। क्या ऐसे भी पुरुष सत्ता की वीरता साबित होती है, उनकी जीत निर्धारित होती है? पितृसत्तात्मक समाज के वे वही नुमाइंदे हैं जो औरत के लिए नैतिकता का निर्धारण करते हैं। याद रहे स्त्री के संबंध में नैतिकता हमेशा यौन शुचिता ही होती है। यही वह मानदंड है जिससे कोई औरत जीवनभर बलात्कृत किए जाने के डर से जीती है। प्रसिद्ध नारीवादी समाजकर्मी कमला भसीन कहती हैं कि ”मैंने समाज से नहीं कहा कि तुम अपनी इज्जत मेरी योनि में रख दो!’’ समाज ने तो स्त्री से कुछ भी नहीं पूछा। अपने ‘कंफर्ट’ के लिए ही उसे जैसी वह है, वैसा बनाया। सवाल यह भी उठता है कि क्या ‘गैंगरेप’ (सामुहिक बलात्कार) यौन सुख के लिए किया जाता है? किसी स्त्री के आकर्षण में गिरफ्त हो, किया जाता है? यदि ऐसा भी है तो आज के समाज में ‘जबरदस्ती’ शब्द पर पर्याप्त बहस होनी चाहिए। लेकिन घटनाएं बिल्कुल भी ऐसी नहीं है। खालिस भेड़ की तरह नंगी हांकी जा रही औरतें जमीन हैं, हथियार हैं, युद्ध हैं, विजित हैं, धर्म और सत्ता भी हैं, वे कमजोर हैं जिसे छीना जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है, मिटाया जा सकता है; ठीक उसी तरह जैसे युद्ध के बाद विजित राज्यों के साथ सुलूक किया जाता रहा है।
ऐसी किसी घटना के बाद चारों ओर एक सन्नाटा पसर जाता है। कोलाहल के बीच सन्नाटा बहुत खतरनाक लगता है। मन के भीतर भी वह सन्नाटा पसर जाता है। अभी भी मैं बहुत कुछ कहना चाहती हूं लेकिन एक ऐसा भूचाल भीतर भरा है कि शब्द उसमें खो जा रहे हैं। बस सोचती हूं कि उस भीड़ में शामिल पुरुषों के घर की औरतों के मन में भी और संवेदनशील पुरुषों के मन में भी शायद इसी तरह का सन्नाटा फैला हो। और वे उस तथाकथित फिल्म की नायिका की भांति अपने भाई-बेटों को एक थप्पड़ लगा सकें। उन्हें कोर्ट के सामने खड़ा कर सकें और कह सकें कि इसे मनुष्य बनाने में हमसे गलती हुई है।
आज देश में इस घटना के बाद लोग औरतों को हथियार उठाने की समझाइश दे रहे हैं। वह अपनी रक्षा खुद करें, वाले अंदाज में। यदि ऐसा होने लगा तो फिर स्टेट (राज्यसत्ता) की क्या जरूरत रहेगी! व्यवस्था, प्रशासन, सत्ता यह किस चीज के लिए है, सिर्फ चुनाव करवाने के लिए!
मुझे लगभग 100 साल पहले लिखी सीवी कवाफी की कविता ‘बर्बर लौट रहे हैं’ याद आ रही है:
हम इस जगह इकट्ठे होकर किसका इंतजार कर रहे हैं?
–आज बर्बरों का यहां आना तय है।
संसद में कुछ भी क्यों नहीं चल रहा है?
जनप्रतिनिधि कोई कानून नहीं बना रहे हैं
फिर वे वहां क्यों बैठे हैं?
–क्योंकि आज बर्बर आ रहे हैं।
अब जनप्रतिनिधि कोई कानून बनाएं भी
तो उसका क्या मतलब?
एक बार जब बर्बर यहां आ जाएंगें
–तो वे ही कानून बना लेंगे।*
वे तमाम लोग स्त्री और पुरुष भी, जो ऐसी किसी घटना को ‘जस्टिफाई’ करते हैं, उन्हें उस भीड़ में शामिल समझिए जो दो औरतों को नंगा करके खेत की ओर हांके लिए जा रहे थे। ऐसी कोई भी घटना बर्बर युग की वापसी की छाती पर एक ठप्पा और लगाती है।
*अनु. कुमार अंबुज कानून बना लेंगे।
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