‘गागर में सागर-सा पानी’

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– योगेंद्र दत्त शर्मा

शैलेंद्र के संदर्भ में चकित करने वाली बात यह है कि फिल्म की चाक्षुक विधा ने उनकी सर्जनात्मकता को नए आयाम दिए।

 

साहित्य-जगत में प्रगतिशील कवि के तौर पर शैलेंद्र की पहचान किसी भी रूप में कम नहीं है। इसके बावजूद इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जन साधारण के बीच उनकी ख्याति फिल्मों से संबंधित गीतकार के तौर पर कहीं अधिक है। फिल्मों के लिए लिखे गए उनके गीतों के कारण शैलेंद्र की एक विशिष्ट पहचान बनी और वह जन-जन के बीच लोकप्रिय हुए।

शैलेंद्र में अद्भुत सर्जनात्मक प्रतिभा थी। कथा के पात्र, विषय और परिस्थितियों की सारी विशेषताएं बहुत कम शब्दों में समेट लेने में वह सिद्धहस्त थे। साहित्यिक भाषा पर उनका पूरा अधिकार था ही, ब्रज और भोजपुरी भाषाओं में भी वह पारंगत थे। हिंदी कविता की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के समर्थ वाहक तो वे थे ही। महत्वपूर्ण यह है कि आम बोलचाल की भाषा और लोक संस्कृति में उनकी गहरी पैठ थी। रेखांकनीय यह प्रतिभा उनके फिल्मी गीतों में दार्शनिकता के पुट से समृद्ध कर देती है।

शैलेंद्र ने फिल्मी गीतों में क्रांति का सूत्रपात किया। फिल्मों में उनके पदार्पण से पहले ठेठ उर्दू का बोलबाला था। उन्होंने सहज, सरल हिंदी का एक नया मुहावरा विकसित किया, जो आम लोगों की जबान पर चढ़ सके। यही कारण है कि हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी फिल्मों में भी उनके लिखे गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए। इस मामले में जनता के बीच जाकर उसकी ही भाषा में कविताएं लिखकर सुनाने का उनका अनुभव बहुत काम आया। भाषा की संप्रेषणीयता पर उनकी मजबूत पकड़ का रहस्य यही है।

शैलेंद्र के गीतों के शब्द ऊपरी तौर पर भले ही सीधे, सरल लगते हों, लेकिन वे अर्थगर्भित होते हैं। कई बार तो उनकी अर्थ-भंगिमाएं भी बहुआयामी होती हैं। कहीं-कहीं वह दो परस्पर-विरोधी पदबंधों के माध्यम से उलटबांसी का चमत्कार पैदा करने की कोशिश करते हैं। मधुमती  फिल्म का गीत इसका उदाहरण है, जिसमें एक पंक्ति है – मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/ भेद ये गहरा बात जरासी!’ इसी तरह गाइड की एक पंक्ति है ‘आज फिर जीने की तमन्ना है /आज फिर मरने का इरादा है!

इस तरह की उक्तियां गहरे अंतद्र्वंद्व का परिणाम होती हैं। गाइड की नायिका रोजी नृत्यांगना है। वह अपने पुरातत्ववेत्ता पति मार्को की उपेक्षा की घुटन से त्रस्त है और बाहर निकलने के लिए बेचैन है। फिल्म का नायक राजू गाइड उसे पायल लाकर देता है। वह उमंगों से भर जाती है और अपनी गृहस्थी को दांव पर लगाकर घुटन की बेडिय़ां तोड़ देने के लिए व्याकुल हो उठती है। जीने तमन्ना और मरने का इरादा जैसी अभिव्यक्ति इसी अंतद्र्वंद्व की परिणति है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस तरह की अभिव्यक्ति शैलेंद्र ही कर सकते थे।

इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय प्रसंग है। गाइड के गीत पहले हसरत जयपुरी से लिखवाये जा रहे थे। उक्त स्थिति पर उन्होंने जो गीत लिखा, वह निर्देशक विजय आनंद को पसंद नहीं आया। इस पर हसरत जयपुरी कुछ झल्लाकर बोले: ”एक नाचने वाली तवायफ के लिए मैं और क्या लिखूं?’’ इस पर विजय आनंद ने कहा, ”अगर रोजी को आपने इतना ही समझा है, तो रहने दीजिये। हम किसी और से लिखवा लेंगे!’’ इसके बाद गीत लिखने का काम शैलेंद्र को सौंपा गया।….

गीत में रोजी के अंतद्र्वंद्व और मुक्ति के अहसास की शुरुआत ही इन पंक्तियों से होती है: कांटों से खींच के ये आंचल / तोड़ के बंधन बांधी पायल / कोई रोको दिल की उड़ान को / दिल वो चला / हा हा …!’

गाइड  फिल्म के गीत एक से बढ़कर एक हैं। फिल्म की सफलता में इसके गीतों की भूमिका के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। ये गीत फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में ही सहायक नहीं हैं, बल्कि उसे रचनात्मकता के चरम धरातल पर पहुंचा देते हैं। अपनी गहनता और सघनता के बल पर ये सामान्य-से कथानक को दार्शनिक आयाम प्रदान कर देते हैं। गाता रहे मेरा दिल/ तू ही मेरी मंजिल’, ‘पिया तोसे नैना लागे रे / जाने क्या हो अब आगे रे’, ‘दिन ढल जाए हाए रात जाए/ तू तो आए तेरी याद सताये’, ‘क्या से क्या हो गया/ बेवफा, तेरे प्यार में’, ‘वहां कौन है तेरा / मुसाफिर जाएगा कहां जैसे गीत किसी भी पैमाने से साधारण की श्रेणी में नहीं आते।

”दिन ढल जाए…’’ गीत के अंतरे में पंक्तियां आती हैं : ‘तेरेमेरे दिल के बीच अब तो सदियों के फासले हैं / यकीन होगा किसे कि हमतुम इक राह संग चले हैं!’ इस तरह की अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है।

गाइड फिल्म की शुरुआत राजू गाइड के जेल से छूटने के दृश्य से होती है। उसके पास प्रेम और परिवार से मिले तिक्त अनुभवों का ढेर है। प्रश्न यह है कि जेल से छूटकर वह जाए कहां! उसका परिसर और परिवेश ही अब उसका नहीं रहा। दृश्यों के पाश्र्व में सचिन देव बर्मन का गाया गीत चल रहा है:

वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां!/ दम ले ले घड़ीभर, ये छैंया पाएगा कहां!…/ बीत गए दिन, प्यार के पलछिन, सपना बनी वो रातें /भूल गए वो, तू भी भुला दे / प्यार की वो मुलाकातें / सब दूर अंधेरामुसाफिर जाएगा कहां!…/ कोइ भी तेरी, राह देखे/ नैन बिछाये कोई /दर्द से तेरे, कोई तड़पा/ आंख किसी की रोई/ कहे किसको तू मेरामुसाफिर जाएगा कहां!… /तूने तो सबको राह बताई/ तू अपनी मंजिल क्यों भूला/ सुलझाके राजा औरों की उलझन / क्यों कच्चे धागों में झूला/क्यों नाचे सपेरा….मुसाफिर जाएगा कहां! / कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी / पानी पे लिखी लिखाई/ है सबकी देखी, है सबकी जानी/ हाथ किसीके आई / कुछ तेरा ना मेरा….मुसाफिर जाएगा कहां!….

इस तरह की दार्शनिक अभिव्यक्ति विरल ही कही जाएगी। आमतौर पर फिल्मों में यह सब नहीं था, न ही आज है। यह शैलेंद्र की ही सामथ्र्य है कि वह सामान्य संदर्भों को ऊध्र्व धरातल पर पहुंचा देते हैं। ‘क्यों नाचे सपेराÓ तो अद्भुत और अकल्पनीय अभिव्यक्ति है।

शैलेंद्र का कवि-व्यक्तित्व अत्यंत असाधारण था। यह असाधारणता उनके फिल्मी कैरियर के आरंभ में ही नजर आने लगती है। ‘आवारा हूंगर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’  लिखकर जैसे वह अपनी साधारणता में भी असाधारणता की घोषणा ही कर डालते हैं। यही ठसक उनके श्री 420 के इस गीत में भी दिखाई देती है, जिसमें वह जूता और पतलून जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने का साहस दिखलाते है:

मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/ सिर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिंदुस्तानी! …होंगे राजे, राजकुंवर, हम बिगड़े दिल शहजादे/हम सिंहासन पर जा बैठें, जबजब करें इरादे/चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी/सिर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिंदुस्तानी !’’

अपने गीतों में शैलेंद्र ने नए-नए भावों और नई-नई कल्पनाओं के जरिये नए-नए प्रयोग किये और फिल्मी गीत-विधा को सृजनात्मकता के चरम पर पहुंचाया। उदाहरण के लिए फिल्म दिल एक मंदिर की ये पंक्तियां देखी जा सकती हैं : दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख लेता/पालता उनको जतन से, मोती के दाने देता/ सीने से रहता लगाए!’’

इसी तरह का एक प्रयोग शैलेंद्र ने फिल्म आम्रपाली में भी किया है- नील गगन की छांव में/ दिन, रैन गले से मिलते हैं/ दिन पंछी बन उड़ जाता है/ हम खोयेखोये रहते हैं!

आम्रपाली में ही उलटबांसी का एक प्रयोग देखिए : ज्ञान की कैसी सीमा ज्ञानी/ गागर में सागरसा पानी!’’

वैसे यह पूरा ही गीत दार्शनिकता से लबरेज है:

जाओ रे, जोगी तुम जाओ रे!/ये है प्रेमियों की नगरी, यहां प्रेम ही है पूजा!/प्रेम की पीड़ा सच्चा सुख है /प्रेम बिना ये जीवन दुख है! …जाओ रे … /जीवन से कैसा छुटकारा, है नदिया के साथ किनारा! / ज्ञान की कैसी सीमा ज्ञानी/गागर में सागरसा पानी

फिल्म अनाड़ी के इस प्रसिद्ध गीत ”सब कुछ सीखा हमने…’’ की एक पंक्ति में एक उलटबांसी इस तरह है, ”हमने हर जीने वाले को/ धनदौलत पे मरते देखा!’’

उलटबांसी का आधार वचनवक्रता है। इसमें बात को सीधे-सीधे न कहकर कुछ टेढ़े ढंग से कहा जाता है। कई बार दुनिया के रंग-ढंग ही टेढ़े नजर आने लगते हैं। फिल्म मुसाफिर में शैलेंद्र ने इस टेढ़ेपन का चित्र कुछ इस तरह खींचा है:

टेढ़ीटेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया!’’

हर कोई नजर बचाके चला जाए देखो/ जाने काहे हमसे कटे सारी दुनिया!…!/गलीगली हैं रूप के रसिया/ घूम थके, मिला मनबसिया/ प्यार में सौदा करे सारी दुनिया!…/ मुंह में राम, बगल में छुरी है/ बात ये देखो प्यारे, कितनी बुरी है/ क्यों हमसे छल करे सारी दुनिया!/सांस का कौन ठिकाना है राजा/ कल आए, कल चले जाना है राजा/ तेरामेरा फिर क्यों करे सारी दुनिया!…/टेढ़ीटेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया!

फिल्म मुसाफिर में ही बाल-मानसिकता के प्रसंग में शैलेंद्र ने एक अनोखी ही कल्पना कर डाली है: मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा/ कोई कहे चांद, कोई आंख का तारा /हंसे तो भला लगे, रोये तो भला लगे/ अम्मी को उसके बिना कुछ भी अच्छा लगे /…इक दिन वो मां से बोला :/ क्यों फूंकती है चूल्हा/ क्यों रोटियों का पेड़ हम लगा लें/आम तोड़ें, रोटी तोड़ें, रोटीआम खा लें/ काहे करे रोजरोज तू ये झमेला/…!’’

इसी तरह की एक और अनोखी कल्पना उजाला फिल्म के एक गीत में सुनने को मिल जाती है: ”सूरज, जरा , पास /आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम/ आसमां, तू बड़ा मेहरबां/आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम!…/ चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है/ गरमागरम रोटियां, कितना हसीं ख्वाब है…/आलू टमाटर का साग, इमली की चटनी बने /रोटी करारी सिके, घी उसपे असली लगे…/बैठें कहीं छांव में, आज पिकनिक सही/ ऐसी ही दिन की सदा, हमको तमन्ना रही/ सूरज, जरा पास !

शैलेंद्र ने फिल्मी गीतों में अनेक रोचक प्रयोग किये हैं। इन गीतों में अद्भुत कल्पनाशीलता है। लेकिन ये प्रयोग भी वायवीय अथवा आकाशीय नहीं हैं। ये जन-सरोकारों और जनाकांक्षाओं से संचालित हैं।

शैलेंद्र की रचनात्मकता के संदर्भ में चकित करने वाली बात यह है कि फिल्म की चाक्षुक विधा ने उनकी सर्जनात्मकता को नए आयाम दिए। यह सही है कि फिल्मों में आने से पहले शैलेंद्र के पास सुदृढ़ और सशक्त साहित्यिक पृष्ठभूमि थी। वह त्वरित-बुद्धि थे और आशुकविता रच देने में महारत भी उन्हें हासिल थी। तब उनके इर्द-गिर्द देश-प्रेम, श्रमिकों का शोषण, गरीबी, भूख, बेकारी, बेरोजगारी और नवनिर्माण की समस्याएं थीं। भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उनके सामने एक सीमित रचना-फलक था। पर फिल्मों में प्रवेश के साथ ही इस फलक का विस्तार होता गया। नए-नए चरित्र, नए-नए कथानक, नई-नई कथा-स्थितियों के साथ-साथ अलग-अलग संगीतकारों से संपर्क, उनकी बनाई धुनों पर गीत-लेखन की निर्विकल्पता ने उनकी रचनात्मकता के सामने संभावनाओं के नए क्षितिज उपस्थित कर दिए। इन नए अवसरों और संभावनाओं ने शैलेंद्र की सर्जनात्मक क्षमता को शान पर चढ़ाया, उनकी प्रतिभा निखरती चली गई और उनके गीता में चमत्कृत करनेवाली बहुआयोमिता जगमगाने लगी।

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