बेरोजगारी की छाया में

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ये मरने वाले बच्चे इंजीनियरिंग या एमबीबीएस करने के उम्मीदवार थे। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती।

यह वह समय  है, जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव की घंटी घनघना चुकी है। राजनीतिक दल स्याह-सफेद में बातें कर रहे हैं। समाचार-तंत्र, इलेक्ट्रानिक हो या प्रिंट, सत्ता से सत्ता तक की दौड़ का रस ले रहा है कि अटलांटिक के दूसरे छोर पर बैठे ‘बॉस’ ने गड़बड़ कर दी। बोला, और जो बोला, बेहाल करने वाला था। उसने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर ही आपत्ति नहीं की, बल्कि कांग्रेस पार्टी के बैंक खाते पर रोक लगाने पर भी अहसमति जताई। इस अमेरिकी स्वर में जर्मनी ने ही नहीं, ब्रिटेन ने भी स्वर मिलाया। उनके लिए यह देश एक नमूना है सबसे बड़ा, लोकतंत्र की दुकान चलाने का। यानी उनकी पूंजी और उद्योगों के लिए सुरक्षित, भविष्य का निवेश। वे नहीं चाहते की नमूना, और वह भी वोट के माध्यम से, नए ‘महाराजा’ राज्य में बदल जाए और इस तरह तीसरी दुनिया को विफल लोकतंत्र का एक और तमगा मिल जाए।ये मरने वाले बच्चे इंजीनियरिंग या एमबीबीएस करने के उम्मीदवार थे। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती।

तभी डॉक्टर-इंजीनियर बनाने वाले, शायद दुनिया के सबसे बड़े केंद्र, को लेकर दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में आधे पेज का विज्ञापन छपा। 25 मार्च के इस विज्ञापन का शीर्षक था ‘कोटा कॅरियर सिटी या सुसाइड सिटी…?’ विज्ञापन का अतिरिक्त आकर्षण इसके पाठ का प्रांजल हिंदी में होना था। लिखा था :

– आत्महत्या: राष्ट्रीय स्तर पर कोटा की स्थिति -देश में कुल आत्महत्याएं हुईं 1,70,924, जिनमें सर्वाधिक 30 वर्ष तक के 69314 (करीब 40 प्रतिशत से अधिक) युवा हैं।

– देश में 10 लाख से अधिक आबादी के 53 शहरों में प्रति लाख आत्महत्या का औसत 16.4 व्यक्ति है।

– विजयवाड़ा में यह दर सर्वाधिक 42.6 है। टॉप-दस शहरों में यह औसत दर 28 से 42 व्यक्ति प्रति लाख तक है। टॉप 53 शहरों में कोटा 45 नंबर पर आता है। कोटा में यह दर 14.1 एक व्यक्ति प्रति लाख है जो राष्ट्रीय औसत से भी कम है। दस लाख की आबादी के शहर कोटा में दो लाख कोचिंग स्टूडेंट्स की संख्या को जोडऩे पर यह दर और भी कम हो जाती है। (स्रोत: एसीआरवी ताजा रिपोर्ट)’

इसके बाद विज्ञापन में चार और उप-शीर्षक थे, जिनके तहत देश में छात्रों की आत्महत्या से संबंधित अन्य आंकड़े थे। बीच में ही प्रधानमंत्री को उद्धृत करते हुए लिखा गया था कि उन्होंने ‘कोटा को शिक्षा की काशी कहा है। यह संयोग ही है कि काशी हिंदुओं के लिए अंतिम संस्कार स्थल भी कम बड़ा नहीं है। जो भी हो, इस में शंका नहीं कि वर्तमान में युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति, एक शहर या एक प्रदेश की ही नहीं वरन अखिल भारतीय चुनौती का रूप धारण कर चुकी है। स्कूल, कालेजों में पढ़ रहे युवाओं से लेकर कॅरियर बना चुके युवाओं तक, आत्महत्या कर रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ‘आत्महत्या की प्रवृत्ति भावनात्मक एवं मानसिक मनोविकार है’ और इसे समझने की जरूरत है। पर यह निष्कर्ष अंतिम नहीं है। यह इसके अलावा भी है। और वह है, भविष्य का अंधकारमय हो जाना!

‘समझने की ये जरूरतें’ कब पूरी होगीं, वे सवाल अपनी जगह हैं। पर इस बहाने कुछ तथ्यों पर नजर तो डाली ही जा सकती है। कोटा को लेकर उपरोक्त विज्ञापन के प्रकाशित होने से एक दिन पूर्व ही इस कोचिंग फैक्टरी वाले शहर से समाचार था कि एक 20 वर्ष के, नीट (नेशनल एलिजीबिलिटी कम ऐंट्रेंस टेस्ट यानी राष्ट्रीय पात्रता सह प्रेवश परीक्षा) की तैयारी कर रहे छात्र, मोहम्मद उरूज ने फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली। यह कोटा में इस वर्ष की छठवीं घटना थी। अभी एक रात नहीं गुजरी कि अगले सुबह सौम्या नाम की छात्रा भी फंदे पर लटकी मिली। वह भी बीस बरस की ही थी। बेचारा प्रशासन यह जांच करने में जुट गया कि बच्चों को फंदा लगाने की जगह मिल कैसे गई। गत वर्ष के अनुभव के बाद यह तय हुआ था कि किसी भी कमरे में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए जहां छात्र फंदा लगा सकें। यहां याद करना जरूरी है कि गत वर्ष इस शहर में, इस तरह आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या रिकार्ड तोड़ 27 रही थी। क्या यह वर्ष और भयानक होने जा रहा है?

जनवरी से अब तक के तीन महीनों में नीट प्रत्याशियों की यह सातवीं आत्महत्या थी। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती। सवाल है, वे इसे छोड़ कर भाग क्यों नहीं रहे हैं? इसलिए कि जाएं भी तो कहां जाएं? घर में उनके लिए जगह नहीं है। दूसरी ओर उन में इतनी हिम्मत भी नहीं है कि वे महत्वाकांक्षी मां-बापों की उम्मीदों को अपनी आंखों से मिट्टी में मिलते देख सकें।

दूसरा सवाल यह भी है क्या मां-बाप देख नहीं रहे हैं कि नीट के कारण हो क्या रहा है? जो बच्चे मर रहे हैं वो तो मर ही रहे हैं पर जो टूट और बिखर रहे हैं उनका क्या हो रहा है? क्या और रास्ते नहीं हैं?

व्यावसायिक शिक्षा का पहुंच से बाहर हो जाना

मेडिकल और इंजीनियरिंग में निजी क्षेत्र की पढ़ाई इस कदर महंगी है कि उच्च मध्यवर्ग भी उस कीमत को आसानी से नहीं चुका सकता, निम्नमध्य की तो बात ही छोड़ें। एक और रास्ता भी है, चीन और यूक्रेन जैसे देशों में पढऩे का, पर वह भी कम महंगा नहीं है, बल्कि खतरे से भी भरा है। तथ्य यह है कि महत्वाकांक्षी निम्न मध्य व मध्य वर्ग के लिए, ये परीक्षाएं ही एकमात्र रास्ता रह गई हैं, जो उनके बच्चों को एक सम्मानजनक आजीविका प्रदान करा सकती हैं और जिसके लिए वे अपना पेट काट कर भी बच्चों को पढ़ा रहे हैं। या कहिए अपने लाडलों को इस जोखिम में डाल रहे हैं। दूसरी ओर सरकार है कि हर चीज का निजीकरण करने में लगी है। नतीजा यह है अच्छी शिक्षा, विशेषकर व्यावसायिक, आम आदमी के सामथ्र्य के बाहर हो गई है।

ये सामाजिक और आर्थिक संकट अचानक पैदा नहीं हो रहे हैं। सरकार हर सामाजिक जिम्मेदारी से हाथ खेंच रही है। पिछले दस सालों में सरकारी नौकरियां लगभग खत्म कर दी गईं हैं। यहां तक कि सेना की नौकरी भी ठेके में बदल दी गई है। बदनाम भारतीय निजी क्षेत्र, ऑटोमेशन के अलावा भी, कर्मचारियों को न्यूनतम संख्या में, न्यूनतम सुविधाओं और तनख्वाहों के साथ ही अनुबंध पर रख रहा है। यानी इन नौकरियों की भी कोई गारंटी नहीं रही है। इसके अलावा भी अधिकांश काम सरकारी स्तर पर ठेके पर किया जा रहा है। (देखें: संपादकीय ‘कंपनी सरकारÓ, समयांतर, फरवरी, 2024) यह अचानक नहीं है कि वर्तमान सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरियों पर कोई आधारभूत चर्चा ही नहीं करती, इन पर निवेश करना दूरकी बात है। यह बताने में जरूर उस्ताद है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था कितने अरब-खरब की होने वाली है। अर्थव्यवस्था बढ़ रही है ठीक है, पर सवाल है उससे समाज का कौन-सा वर्ग लाभान्वित हो रहा है? किसे सुरक्षा मिल रही है और कथित बढ़ती अर्थव्यवस्था की वह आय, किस की जेब में जा रही है! जिनकी जेबों में जा रही है वे 80 करोड़ का लहंगा और 60 करोड़ की नाचनेवाली को नचा रहे हैं। लेकिन इन सब बेहूदगियों के बीच भी सरकार मगन है? या फिर वह मंदिर बना रही है और जनता ऊपर वाले की कृपा की प्रतीक्षा में है दंडवत है।

यह अचानक नहीं है कि भारतीय दुनिया के शीर्ष पूंजीपतियों में भी गिने जाने लगे हैं। ये चमत्कार रातों रात हो रहे हैं। फिलहाल जो भी हो, इस माह से देश में लोकसभा चुनावों का दौर शुरू हो रहा है। वोट आम जन का एकमात्र हथियार है जिसका उसे इस्तेमाल करना है।

रोजगार का परिदृश्य

रोजगार देने की चुनौती कितनी बड़ी है, इस पर अंग्रेजी दैनिक द हिंदू (29 मार्च) का संपादकीय ‘जॉब्स आउटलुक ब्लीक’ (रोजगार का निराशाजनक परिदृश्य) देखने लायक है। अखबार ने ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैन डवलेपमेंट/इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन की नवीनतम रिपोर्ट ‘द इंडियन एमप्लयमेंट रिपार्ट 2024’ को उद्धृत करते हुए लिखा है, ‘अनुमानत: 70 से 80 लाख युवा हर वर्ष श्रम बाजार में आता है, जिसमें देश के कुल बेरोजगारों में युवाओं की संख्या लगभग 83 प्रतिशत है। इससे भी ज्यादा निराशाजनक यह है कि बेरोजगारों में उन शिक्षितों का अनुपात, जो सेकेंड्री स्तर या उससे ज्यादा शिक्षित थे की संख्या 2000 में जहां 35.2 प्रतिशत थी, वह सन 2022 में बढ़कर लगभग दो गुना, 65.7 प्रतिशत हो चुकी थी। यही नहीं बेरोजगारों में युवा स्नाातकों की संख्या अनपढ़ों (3.4) की संख्या से नौ गुना ज्यादा (29.1) हो चुकी थी।

स्पष्ट तौर पर यह रिपोर्ट बतलाती है कि शिक्षितों में बेरोजगारों की संख्या आतंककारी स्थिति तक पहुंच गई है। यह उस दौर के आंकड़े हैं, जब मोदी सरकार ताल ठोंक कर कह रही थी कि देश जगमगा रहा है। इससे कम से कम, यह बात समझी जा सकती है कि नौकरी के लिए शिक्षित युवाओं और अभिभावकों की चिंता क्यों चरम पर है और क्यों प्रतियोगी परीक्षाएं प्रतिभा का नहीं, बल्कि आंकड़ों और सूचनाओं को घोट लेने की प्रतिभाओं की ऐसी शरण स्थली में परिवर्तित हो चुका है जो जीवन और मृत्यु के दोराहे से गुजरता गिरता पड़ता आगे बढ़ रहा है।

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