बरास्ता चंद्रमा, मानवता का भविष्य

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ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान के प्रति किस तरह का रुख अपनाता है।

 

”मैं इस सीधे से स्पष्टीकरण पर यकीन करता हूं कि ईश्वर नहीं है। ब्रह्मांड को किसी ने नहीं बनाया और कोई हमारी नियति को निर्देशित नहीं करता है।‘’ – स्टीफेन हॉकिंग

चंद्रमा की सतह पर सफलता पूर्वक चंद्रयान उतारने के लिए देश के उन वैज्ञानिकों, तकनीशियनों को हार्दिक बधाई, जो इस परियोजना से जुड़े हैं। इसके जो वैज्ञानिक और राजनीतिक लाभ हैं वे तो खैर हैं ही, पर हमारे समाज के लिए, जो पिछले एक दशक से धार्मिकता की जकड़ में है, इसका संदेश कहीं ज्यादा बड़ा है। उसे रेखांकित करना भारत ही नहीं बल्कि, विशेषकर तीसरी दुनिया के लिए भी, उतना ही जरूरी है। इस दुर्योग के बावजूद कि इसरो के वर्तमान प्रमुख श्रीधर पणिकर सोमनाथ ने कुछ माह पहले ही कहा था कि आधुनिक विज्ञान के सिद्धांत वेदों से आए हैं और बीजगणित से लेकर अंतरिक्ष तक में पश्चिम ने हमारी नकल की है।

यहां सिर्फ  याद दिलाना काफी है कि ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान के प्रति किस तरह का रुख अपनाता है। एक तरफ वह समाज है, जो यह मानता है कि ”वह सब कुछ पहले से ही जानता है। उसके यहां सब कुछ पहले से ही था, तो निश्चित है कि उस समाज की समझ में कोई आधारभूत गड़बड़ है। ज्ञान उसका है जो इसका इस्तेमाल करता है और आगे बढ़ाता है। किसी भी ज्ञान को अंतिम मानकर चलने वाले समाज में विज्ञान का विकास होना तो रहा दूर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी विकास होना संभव नहीं है। ज्ञान के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ज्ञान की कोई शाखा कहां से चली, महत्वपूर्ण यह है कि वह कहां तक पहुंची। यानी किसी समाज ने उसे किस गति से अपनाया और कितना आगे बढ़ाया। दूसरे शब्दों में यह एक सतत प्रक्रिया है इसलिए यह, यानी ज्ञान, उन सबका है, जो भी इस प्रक्रिया में शामिल हैं। कहना गैरजरूरी है कि हमारे पड़ोसी एशियाई देश जापान, चीन और कोरिया में जो प्रगति आज नजर आ रही है, उसके मूल में यही दृष्टि है।

यह रेखांकित करना आवश्यक है कि आज हमारे देश ने जो हो पाया है, उसका संबंध आजाद भारत के नेताओं के आधुनिक दृष्टिकोण और इस दिशा में उनके द्वारा उठाए गए उन कदमों से है, जिनकी स्वाभाविक परिणति के रूप में हमारे सामने, सारी अड़चनों और वैचारिक जड़ता के बावजूद बहुत सारे संस्थान और परंपराएं अभी भी सक्रिय हैं। यानी देश में आज जो कुु छ इतनी सरलता और सफलता से हो रहा है वह, पिछले सात दशक पहले शुरू हुए ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के कारण ही संभव हुआ है। स्वयं श्रीधर सोमनाथ इसरो नामक संस्थान के दसवें प्रमुख हैं।

इस उपलब्धि का संबंध उन नीतियों से भी है जिन्होंने देश में शिक्षा को सार्वजनिक बनाया और ज्ञान के मंदिर के द्वार सब के लिए खोले। अगर ऐसा न होता तो यह अचानक नहीं है कि आज दक्षिण से लेकर उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक, देश के आम सरकारी/अद्र्ध सरकारी स्कूलों और अपरिचित दूरदराज के कालेजों के विज्ञान के छात्र चंद्रयान जैसे मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। यह कम अजूबा नहीं है कि ये युवा मथुरा, मुजफ्फरनगर, खतौली, भिवाणी, हिसार जैसे ‘काउ बैल्टÓ के शहरों के हैं और वहीं के सरकारी स्कूलों और कालेजों से शिक्षा पाए हैं। कुछ आइआइटी के भी हैं, तो कुछ जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे सरकारी विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कालेज से पढ़े हैं, पर इनमें से अधिकांश की पृष्ठभूमि मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की है। सरकारी कालोनियों और रेलवे जैसे संस्थानों की कालोनियों के सरकारी स्कूलों से निकले बच्चों की भी इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उदाहरण के तौर पर वीर मुतुवेल जो रेलवे के एक तकनीशियन के सुपुत्र हैं और विल्लुपुरम, तमिलनाडु की रेलवे कालोनी के स्कूल में जिन्होंने शुरुआती शिक्षा पाई है, आज चंद्रयान- 3 परियोजना के निदेशक हैं।

यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस मिशन की सफलता में सौ से अधिक मध्य और निम्न-मध्यवर्गी महिलाएं वैज्ञानिकों और तकनीशियनों के रूप में जुड़ी हैं। इनमें से कई देश के ऐसे राज्यों और समाजों से हैं जहां औरतों को कुछ ही दशक पहले तक बिना घूंघट के निकलने तक नहीं दिया जाता था। आज इन्हें किसी भी रूप में पौराणिक-धार्मिक स्त्रियों की मिथकीय छवि या परंपरा से नहीं जोड़ा जा सकता है, अपने सोहाग चिह्नों के बावजूद, ये आनंदी बाई जोशी, जानकी अम्माल और कमला सोहिनी जैसी वैज्ञानिकों की जीवंत परंपरा की उत्तराधिकारिणी हैं।

धर्म-धर्म का जाप करनेवाले भूल जाते हैं कि अगर यह समाज सिर्फ परंपराओं और मान्यताओं तक ही सीमित रहा होता तो जो आज हम कर पा रहे हैं, और जिसका श्रेय वर्तमान सरकार बढ़-चढ़ कर ले रही है, क्या संभव होता? या फिर इस शृंखला में जो आगे होना है, वह सब हो पाता या हो पायेगा? ये आइआइटी, इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज, प्रयोगशालाएं, विश्वविद्यालय आदि अगर नहीं बनाए गए होते और इन में पढऩे के रास्ते सब के लिए खुले नहीं होते तो क्या ये निम्न और निम्न-मध्यवर्ग से आनेवाले लोग श्रीहरिकोटा में जिस आत्मविश्वास और स्वाभिमान से भरे नजर आ रहे थे, नजर आ पाते? संभव है तब वहां काम करनेवाला भी कोई न मिलता क्योंकि उच्च व उच्च मध्यवर्ग के हमारे युवा सीधे ही अमेरिका पहुंच जाते हैं और असंभव नहीं कि नासा और एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स में सेवा प्रदान कर रहे हों।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण और निजी क्षेत्र का हर चीज में दखल अंतत: इस देश के अधिसंख्य निम्न और निम्न-मध्यवर्ग के लिए भविष्य के सारे रास्ते बंद करने जा रहा है। अभी तो ग्रेजुएशन कर बच्चे डिलिवरीमैन बन पा रहे हैं, वह समय दूर नहीं जब उन्हें ऐसे काम के लिए भी दर-दर भटकना पड़ेगा। पर तब इस देश में प्रतिभा का अकाल भी हो जाएगा। यह बात और है तब शासकों की सेवा एआई यानी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस कर रहा होगा। खैर…

 

दूसरा पक्ष

कुछ सवाल भी हैं?  सबसे बड़ा यह कि आखिर ऐसा देश जहां आज भी लगभग 12 प्रतिशत जनता को दो जून की रोटी नसीब न हो, वहां अंतरिक्ष अनुसंधान पर खरबों रुपए क्यों खर्च किए जा रहे हैं? क्यों सोचा नहीं जा रहा है कि यह पूंजी समाज के सम्यक विकास के काम लगे? यह सवाल एक मायने में दुनिया के विकसित देशों, विशेषकर अमेरिका से भी पूछा जाना चाहिए कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जब दुनिया में भुखमरी हर दिन बढ़ रही हो?

अगर हमें मनुष्य की आधारभूत प्रवृत्तियों को समझना है तो यह भुलाया नहीं जा सकता कि मनुष्य भी अंतत: पृथ्वी के अन्य प्राणियों की तरह का एक प्राणि है। उसकी आधारभूत जरूरतें वही हैं जो किसी भी प्राणि की होती हैं। उसके और भी बहुत से काम, जैसे रोटी की तलाश करना भी, ठीक वैसा ही है जैसा इस पृथ्वी के अन्य प्राणि करते हैं–पेट भरने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना। इसके बावजूद कि मानव ने अपने जीवनयापन के लिए कई तरीके निकाल लिए हैं और वह लगभग स्थायी हो गया है पर उसकी तलाश की प्रवृत्ति यथावत है। इस आदिम प्रवृत्ति का ही भयावह रूप हम उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के रूप में आज तक देख रहे हैं। स्पष्ट है मानव, अपने पूर्वजों की तरह, अब सिर्फ पेट भरने से संतुष्ट हो जानेवाला प्राणि नहीं रहा है बल्कि किसी हिंस्र पशु से भी बद्दतर हो चुका है।

मानव नाम के प्राणि ने अन्य प्राणियों को ही अपने कब्जे में नहीं किया बल्कि अपनी ही तरह के अन्य मानवों को भी अपना गुलाम बनाया। इसका सबसे भयावह उदाहरण योरोपीयों द्वारा एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के अनेकों देशों के संसाधनों की निर्मम लूट और वहां का औपनिवेशीकरण भी है। अफ्रीका से गुलाम बनाकर लाखों लोगों को जानवरों की तरह रस्सियों और जंजीरों से बांध कर जहाजों में ठूंसकर महीनों की समुद्री यात्रा के बाद अमेरिका और लातीनी अमेरिका ले जाया गया और वहां के निवासियों का कत्लेआम कर उनकी जमीन पर अफ्रीकी और एशियाई गुलामों से खेती करवाई गई। ऐसा ही कत्लेआम आस्ट्रेलिया में हुआ जिसे ब्रिटेन ने अपने अपराधियों से मुक्ति पाने के लिए पूरी तरह अपने समाज के अवांछित लोगों को सौंप दिया था।

पृथ्वी के संसाधनों का जिस गति से आज मशीनों के माध्यम से शोषण हो रहा है वैसा मानव के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। इसके चलते जो प्राकृतिक उथल-पुथल मची हुई है- कहीं आग है तो कहीं अतिवृष्टि; कहीं खानें जल रही हैं तो कहीं पहाड़ ढह रहे हैं और कहीं समुद्र तथा नदियां प्रलय मचा रही हैं। यह बात और है कि जिन लोगों ने यह तबाही मचाई है अब उनके दरवाजों पर भी आग व पानी अपने प्रचंड रूप में पहुंच गया है। मौसम की सारी जानकारी के बावजूद ये लोग भी अब अपने को असुरक्षित पा रहे हैं। अब वही लोग अंतरिक्ष में जाने के लिए आतुर हैं। जो विश्वव्यापी हड़बड़ाहट नजर आ रही है उससे साफ है कि अंतरिक्ष की खोज का संबंध मूलत: उन लोगों की इस लालसा से जुड़ा है कि और जो हो, सो हो, हमारी और हमारे संतानों की सुरक्षा किसी भी कीमत पर हो।

मनुष्य के एक हिस्से ने अपनी सुविधाओं के लिए दुनिया में जिस तरह की उथल-पुथल मचाई हुई है उस सबके चलते लगता नहीं कि पृथ्वी अब ज्यादा देर तक रहने योग्य रह पाएगी। यह बात उन सब लोगों को अच्छी तरह पता है जो इस विनाश के जिम्मेदार हैं। वे शातिर लोग हैं जो अब दूसरे ग्रहों में बसने की तैयारी कर रहे हैं। पृथ्वी के हर संभव संसाधनों का उपयोग कर दूसरे ग्रहों को तलाशने में लगाया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर अंतरिक्ष के नए ठिकानों की तलाश क्यों हो रही है? दूसरा रास्ता भी तो है, जो पृथ्वी को बचाने का है। पर तब विशेषकर उन लोगों को जो धरती के अंधाधुंध दोहन के लिए जिम्मेदार हैं, अपने रहन-सहन और तौर तरीकों में बदलाव करना होगा। स्पष्ट है कि यह उन्हें गवारा नहीं है। लगता है सारी दुनिया का सत्ताधारी वर्ग अब पृथ्वी से उम्मीद छोड़ चुका है। चंद्रयान-दो के चंद्रमा पर उतरने के दो दिन बाद ही एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स और अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करनेवाली अमेरिकी सरकारी कंपनी नासा ने मिल कर जो अंतरिक्षयान छोड़ा उसमें अमेरिका के अलावा डेनमार्क, रूस और जापान के अंतरिक्ष यात्री (एस्ट्रोनॉट) हैं जो वहां रह रहे यात्रियों की जगह लेंगे और स्वयं अगले छह माह इंटरनेशनल स्टेशन में रहेंगे। महत्वपूर्ण यह है कि यह स्टेशन 1998 से अंतरिक्ष में है और इसमें परीक्षण किए जा रहे हैं। यह क्रम 2030 तक जारी रहेगा।

आदमी ने जिस हद तक पृथ्वी का दोहन और उसका विनाश कर लिया है ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं के सिलसिले का रुक पाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में दुनिया में शांति रह पाएगी यह भी शंकास्पद है। ये बातें दुनिया का शासकवर्ग अच्छी तरह से जानता है। ऐसी स्थिति में जो विकल्प रह गया है वह यही कि इस पृथ्वी की जनसंख्या का एक भाग चांद या मंगल या फिर और किसी ग्रह में चला जाएगा। बाकी जो इस भूखी, प्यासी आपदाओं से ग्रस्त पृथ्वी पर रह जाएंगे, वे अंतरिक्ष की कक्षाओं में आये दिन प्रवेश कर रहे यानों को देखते ही रह जाएंगे।

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1 Comment

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