फिलिस्तीनियों के नरसंहार में नजरिया तलाशती दुनिया

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– यूसुफ किरमानी

 

कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत कम लोग होंगे जो यह मान रहे होंगे कि फिलिस्तीन के लोग जुल्म कब तक और कहां तक बर्दाश्त करते। उनके पास खोने के लिए क्या था, जो इस युद्ध में उनसे छीन लिया जाएगा। आज शव गिने जा रहे हैं, मलबों में दबे लोग खोजे जा रहे हैं। लेकिन पिछले 70 वर्षों में फिलिस्तीन तिल-तिल कर मरता रहा है।

इजराइल-हमास युद्ध आप किस नजरिए  से देखना चाहते हैं। क्योंकि पश्चिमी मीडिया के प्रभाव ने आपको कोई न कोई नजरिया दे ही दिया होगा। क्या पता आप हमास की पहल को इस पूरे युद्ध का जिम्मेदार मानते हों। क्या पता आप उन साजिशों को जिम्मेदार मानते हों कि इजराइल बेचारे देश को मिटाने की कोशिश 56 मुस्लिम देश कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत कम लोग होंगे जो यह मान रहे होंगे कि फिलिस्तीन के लोग जुल्म कब तक और कहां तक बर्दाश्त करते। उनके पास खोने के लिए क्या था, जो इस युद्ध में उनसे छीन लिया जाएगा। आज शव गिने जा रहे हैं, मलबों में दबे लोग खोजे जा रहे हैं। लेकिन पिछले 70 वर्षों में फिलिस्तीन तिल-तिल कर मरता रहा है। 70 वर्षों से अब तक इजराइली पुलिस की टुकड़ी हर दिन गाजा में कहीं भी पहुंचती थी, घर खाली कराती या सामान फेंक देती और अगले दिन कोई इजराइली वहां कब्जा ले लेता। इजराइली इन्हें ‘सेटलर्सÓ यानी बसने वाले कहते हैं। पिछले तीन महीने से गाजा पट्टी में इजराइली हुकूमत का जुल्म सारी हदें पार कर गया था। विश्व मीडिया में फिलिस्तीन की खबरें बंद हो गईं। इजराइल के जुल्म-सितम को सामान्य मान लिया गया।

अगस्त महीने में समयांतर के संपादक ने आग्रह किया, फिलिस्तीन में जो हो रहा है, उस पर आंखें नहीं मूंद सकते, इसलिए इस बार फिलिस्तीन पर लिखिए। मैंने उनके कहे को टाल दिया। मेरी नजर में उस समय भारतीय राजनीति के घटनाक्रम ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उन्हें दर्ज किया जाना जरूरी था। लेकिन सात अक्टूबर को मैं बहुत पछताया। चूक हो गई। संपादक जी ने अगस्त में फिलिस्तीन की जो नब्ज टटोली थी, वह सात अक्टूबर को हमास के हमले से सामने आ गई। हमास और फिलिस्तीन के सब्र का पैमाना छलक गया। सात अक्टूबर को हमास ने इजराइल पर पांच हजार रॉकेट दागे और इजराइल में घुसकर 1,400 लोगों को मार डाला। इस हत्या को कौन वाजिब ठहरा सकता है। लेकिन इसके पीछे 70 साल से जो कहानी चल रही थी, उसे कोई याद नहीं करना चाहता। सात अक्टूबर के हमले के लिए हमास की निन्दा होनी ही थी। लेकिन पश्चिमी देशों, और खासकर अमेरिका, ब्रिटेन और इजराइल ने इसे अवसर के रूप में लिया। अवसर था, पश्चिम एशिया (जो पश्चिम के लिए मध्य पूर्व यानी मिडिल ईस्ट है) को कमजोर करना। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना। इजराइल ने सात अक्टूबर को ही युद्ध का ऐलान कर दिया। सोचता हूं अगर अगस्त में फिलिस्तीन पर अपनी रिपोर्ट लिख देता तो आज हमास के हमले को जायज ठहराने के तर्क नहीं देने पड़ते। समयांतर शायद भारत की पहली दस्तावेजी पत्रिका होती जो तीन महीने पहले ही गाजा पट्टी में छलक रहे सब्र के पैमाने को बता देती। अगस्त से शुरू हुए इजराइल के जुल्म-ओ-सितम को कलमबंद करके आज फिलिस्तीन के साथ खड़े होने को सही ठहराने की कोशिश करती।

युद्ध में मौत का जवाब मौत ही होता है। लेकिन कहां तक, कब तक? इजराइल की बमबारी में गाजा पट्टी में मारे गए लोगों की मौत को इजराइल इसी आधार पर जायज ठहरा रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इन सब के पिछलग्गू देश भी जायज ठहरा रहे हैं। अभी तक इजराइल का हौसला बढ़ाने के लिए जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋ षि सुनाक, फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रां तेल अवीव पहुंचे और इजराइल के प्रधानमंत्री के गलबहियां डाल कर मंच से घोषणा की कि हम इजराइल के साथ खड़े हैं। ये चार बड़े देश दुनिया के चौधरी बने हुए हैं। इन सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हमास को जड़ से मिटाने का संकल्प दोहराया। हमास को खत्म करने का मतलब फिलिस्तीन को दुनिया के नक्शे से मिटाना। ताकि नए ‘वल्र्ड ऑर्डरÓ के रास्ते में आगे कोई अरब देश रुकावट न बने। इन देशों ने बड़ी निर्लज्जता से ‘होलोकास्टÓ को याद किया, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने जर्मनी और योरोपीय देशों में रहने वाले 60 लाखों यहूदियों का 1941 से 1945 के दौरान कत्ल-ए-आम कराया था। यानी योरोप के दो तिहाइ यहूदियों का सफाया कर दिया था। आज इजराइल और वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के मौजूदा युद्ध अपराधों को छिपाने के लिए होलोकास्ट में यहूदियों के नरसंहार को याद कराया जा रहा है लेकिन 70 साल से फिलिस्तीन में हो रहे नरसंहार का कोई नाम नहीं दिया गया है। फिलिस्तीन के तमाम इलाकों में कई लाख योरोपीय यहूदी सेटलर्स बसा दिए गए, गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, रामल्लाह, खान यूनिस, अल अक्सा मसजिद के आसपास, पूर्वी जेरूसलम में इजराइली कब्जे को होलोकास्ट जैसा कोई नाम नहीं दिया गया। इन इलाकों में फिलिस्तीनी लोगों की पीढिय़ां इजराइल से लड़ती हुईं खत्म हो गईं लेकिन उनके नरसंहारों का कहीं कोई संदर्भ तक नहीं मिलता।

गाजा में जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ आम नरसंहार नहीं बल्कि जातीय नरसंहार हैं। यानी किसी मजहब के खास समुदाय को खात्मे के लिए निशाना बनाया जा रहा हो। जातीय नरसंहार में मानसिकता एक जैसी है। जातीय नरसंहार में मानसिकता ही काम करती है। जर्मनी में हिटलर की नाजी मानसिकता जिस तरह यहूदियों का नरसंहार कर रही थी, उसी मानसिकता के साथ आज इजराइल फिलिस्तीनियों का खात्मा कर रहा है। लेकिन इजराइल के जुल्म ओ सितम को जातीय नरसंहार कोई नहीं कह रहा है। यूक्रेन में रूस के हमले के लिए पश्चिमी मीडिया ने पुतिन को युद्ध अपराधी कहा। लेकिन बेंजामिन नेतन्याहू युद्ध अपराधी नहीं है, इजराइल की बमबारी को आत्म रक्षा के आत्मरक्षा का अधिकार घोषित किया जा रहा है।

 

क्या यह दूसरा ‘नकबा’ नहीं है?

फिलिस्तीन में 1948 में जब वहां के लोगों को इजराइल ने बड़े पैमाने पर उजाड़ा था, तो उसे पहला (नकबा माने तबाही/विध्वंश) कहा गया। लेकिन मौजूदा इजराइल-हमास युद्ध में फिलिस्तीनियों का कत्ल-ए-आम और बेघर होने को दूसरा नकबा कहा जाए? फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से युद्ध बंद कराने की अपील करते हुए इसे दूसरा नकबा कहा है। अब्बास ने यह भी कहा कि फिलिस्तीनी अपनी जमीन छोड़कर नहीं जाएंगे।

पश्चिम एशिया के प्रमुख टीवी चैनल और इस युद्ध की बेबाक रिपोर्टिंग करने वाले अल जजीरा ने भी इसे दूसरा नकबा कहा है। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के आंकड़े बता रहे हैं कि यह हर हाल में दूसरा नकबा है। गाजा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने युद्ध के 18वें दिन 24 अक्टूबर को जो आंकड़ा जारी किया था, उसके मुताबिक 5,795 फिलिस्तीनी नागरिक गाजा में मारे जा चुके थे। जिनमें 2,360 बच्चे, 1,292 महिलाएं और 295 बुजुर्ग शामिल हैं। 18,000 से ज्यादा लोग घायल हैं। मलबे के नीचे 1,500 लोग दब गए हैं या गायब हैं। यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) के मुताबिक अभी तक करीब पांच हजार फिलिस्तीनी नागरिक इजराइली बमबारी में मारे जा चुके हैं। साढ़े चार लाख लोग बेघर हो चुके हैं। करीब 11,000 घर नेस्तोनाबूद करके मलबे में बदल दिए गए हैं। पर अभी भी यह सिलसिला जारी है।

लाखों लोगों का अपनी जमीन छोडऩा, संपत्ति छोड़कर जाना दूसरा नकबा नहीं तो क्या है। पहले 14 दिनों तक गाजा में कोई मदद नहीं पहुंची। वहां फिलिस्तीनी लोग दाने-दाने के लिए तरस गए। मिस्र-फिलिस्तीन सीमा पर राफा सीमा के जरिए इजराइल ने दुनिया भर के हल्ले का बाद, सीमित मात्रा में राहत सामग्री भेजने की अनुमति दी। संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) की राहत एजेंसियों ने इसे ऊंट के मुंह में जीरा बताया। सीमित राहत भेजने के लिए बहाना यह बनाया गया कि इसे हमास के लड़ाके लूट लेंगे।

सात अक्टूबर को युद्ध शुरू होने पर इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि इस युद्ध को हमास ने शुरू किया था, लेकिन इसे इजराइल खत्म करेगा। यानी इजराइल जब तक चाहेगा, इस युद्ध को लड़ेगा। नेतन्याहू का कहना है कि हमास को खत्म करके ही हम रुकेंगे। अब इजराइल लगातार गाजा में अपनी फौज को भेजकर जमीनी कार्रवाई की धमकी दे रहा है। अभी तक हवाई बमबारी हो रही है। अगर जमीनी लड़ाई छिड़ती है तो गाजा में और भी बर्बादी होगी। लेकिन इसके पीछे इजराइल की वही नीति काम कर रही है कि फिलिस्तीन को अपने एक उपनिवेश में बदल दिया जाए। 1962 की लड़ाई के बाद से फिलिस्तीन के क्षेत्र वेस्ट बैंक पर इजराइल का अनधिकृत कब्जा है। उसने वहां फिलिस्तीनियों की जमीन पर यहूदी बस्तियां बसा दी हैं जो लगातार बढ़ती जा रही हैं।

जमीनी युद्ध छेडऩे के बाद वह गाजा पट्टी में स्पेशल जोन यानी कुछ और क्षेत्रों को अपने कब्जे में लेते हुए वहां नई सुरक्षा व्यवस्था लागू कर देगा। आसान शब्दों में कहें तो इजराइल का यह हमला गाजा को और सिकोड़ देगा। जो सूचनाएं आ रही हैं, वे चिन्ताजनक हैं। अमेरिका के दो युद्धपोत इजराइल के समुद्री क्षेत्र तैनात हो चुके हैं और खाड़ी के देशों में युद्धक विमान। 22 अक्टूबर को अमेरिका ने खाड़ी देशों में अपना डिफेंस एयर सिस्टम सक्रिय करने की घोषणा की है। इस सिस्टम को सक्रिय करने का आशय यह है कि अगर फिलिस्तीन या हमास की मदद के लिए ईरान या अन्य कोई देश हमला करता है तो उसे बीच में ही काबू कर लिया जाएगा।

 

अस्पतालों पर बम वर्षा

इस युद्ध के दौरान 17 अक्टूबर को गाजा के अल अहली अरब अस्पताल पर बमबारी की गई। उस समय अस्पताल में बड़ी तादाद में लोगों ने शरण ले रखी थी। गाजा में बमबारी के बाद लोगों ने अस्पतालों और चर्चों में शरण ले रखी थी। क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि मस्जिदें तो बच नहीं रही हैं, लेकिन अस्पताल और चर्च पर शायद इजराइल हमले न करे। लोगों का भ्रम टूटते देर नहीं लगी। 17 अक्टूबर को अस्पताल पर हमला हुआ और 19 अक्टूबर को चर्च पर हमला। संयोग से अल अहली अरब अस्पताल एक ईसाई मिशन चलाता है। फिलिस्तीन के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि अस्पताल में करीब 471 लोग मारे गए। इनमें मरीजों और बच्चों की तादाद ज्यादा थी। लेकिन इजराइल जानता था कि अस्पताल में मारे गए लोगों की संख्या की वजह से दुनिया में बवाल मचेगा। उसके खिलाफ प्रदर्शन होंगे। उसने फौरन बयान जारी कर कहा कि अस्पताल में उसने बमबारी नहीं की है। इसे हमास से जुड़े इस्लामिक जिहाद संगठन ने अंजाम दिया है। इजराइल के इस बयान के बाद पूरा पश्चिमी मीडिया इजराइल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) के सूत्रों के हवाले से साबित करने में जुट गया कि यह काम इजराइल का नहीं बल्कि हमास से जुड़े संगठन का है।

18 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इजराइल पहुंचे और उन्होंने भी इजराइल को क्लीन चिट दे दी कि अस्पताल पर हमला इजराइल ने नहीं किया। लेकिन अस्पताल के डॉक्टरों और अस्पताल संचालित करने वाली ईसाई मिशनरी ने कहा कि पिछले तीन दिनों से इजराइली सेना फोन करके अल अहली अरब अस्पताल को खाली करने का निर्देश दे रही थी। सेना ने अस्पताल के प्रबंधन से कहा था कि बमबारी के दौरान अस्पताल टारगेट हो सकता है, इसलिए इसे फौरन खाली कर दिया जाए।

पश्चिमी मीडिया जब 17 अक्टूबर के अस्पताल हमले में हमास का हाथ होना साबित करने में जुटा था कि 19 अक्टूबर को गाजा में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स सेंट पोर्फिरियस चर्च पर बमबारी कर दी गई। चर्च ने गाजा के सैकड़ों ईसाइयों और मुसलमानों को हमले से बचने के लिए शरण दे रखी थी। इस हमले में 19 फिलिस्तीनी ईसाई मारे गए। इस हमले की जिम्मेदारी पूरी निर्लज्जता के साथ इजराइली डिफेंस फोर्स ने ली। सफाइ यह थी कि निशाना हमास था लेकिन गलती से चर्च पर बमबारी हो गई। अमानुषिकता यह कि इजराइल ने इस कथित ‘गलतीÓ (कुकृत्य) के लिए माफी नहीं मांगी। उसने चर्च के अधिकारियों से कहा कि वे चर्च खाली कर दें, क्योंकि आसपास की बिल्डिंगों को निशाना बनाया जा सकता है। पर उनका जवाब था कि हम चर्च छोड़कर नहीं जाएंगे, बेशक जान देनी पड़े। यह उनकी जमीन है, वे यहीं मरना चाहते हैं। शर्मनाक यह है कि किसी भी साम्राज्यवादी देश की सरकार ने चर्च पर इजराइली आतंकवादी हमलों की निन्दा नहीं की। हमास बुरा कर रहा है, यह माना जा सकता है, लेकिन एक ‘सभ्यÓ देश होने के बावजूद इजराइल क्या कर रहा है? इस सवाल को पूछने वालों को मूर्ख साबित किया जा रहा है। हिटलर के यहूदी नरसंहार के सामने इजराइल के फिलिस्तीन के नरसंहार के मुद्दे को उठाना अब बेमानी होता जा रहा है।

इजराइली हरकतें इस हद तक बर्बर हैं कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी समेत दुनिया के कई देशों में न्यायप्रेमी जनता के अस्पताल के हमले के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। किसी ने यह स्वीकार नहीं किया कि इजराइल और अमेरिका जो कहानी बता रहे हैं, वह सही है। इस घटना का एक नतीजा यह भी हुआ कि बाइडेन जो 18 अक्टूबर को इजराइल की यात्रा के बाद वहां से अरब लीग के नेताओं के साथ मुलाकात के लिए जोर्डन जाने वाले थे, उन्होंने बाइडेन के साथ मुलाकात रद्द कर दी। फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने बाइडेन से मिलने से मना कर दिया। प्रतिक्रया इतनी विकट थी कि अरब लीग के देशों ने बाइडेन के साथ बैठक टाल दी।

19 अक्टूबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनाक इजराइल पहुंचे और उन्होंने भी अमेरिका की तर्ज पर इजराइल का हौसला बढ़ाया। बाइडेन और सुनाक के पहुंचने से पहले 15 अक्टूबर को जर्मनी के चांसलर ओलाफ शुल्ज भी इजराइल का हौसला बढ़ाकर आए थे। 24 अक्टूबर को फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रां ने भी तेल अवीव जाकर नेतन्याहू की पीठ थपथपाई। इजराइल-हमास युद्ध में बड़े देशों की खेमेबंदी इस बार पूरी निर्लज्जता के साथ है। इससे पहले भी इजराइल और हमास लड़ते रहे हैं लेकिन ये बड़े देश प्रतिक्रिया देने में संतुलन रखते थे। फिलिस्तीन से भी हमदर्दी जताते थे। लेकिन इस बार इस दुविधा को ताक पर रख दिया गया है।

 

युद्ध का दोषी कौन है?

अगर कोई इस युद्ध के लिए इजराइल को दोषी नहीं मानता है तो उसे इजराइल के मौजूदा दौर के इतिहासकार इलान पप्पे की टिप्पणी को सुनना चाहिए। इजराइल-हमास युद्ध के दौरान  इलान पप्पे ने अल जजीरा को जो इंटरव्यू दिया उसमें महत्वपूर्ण बात कही। पप्पे ने कहा: ”मैं वर्तमान युद्ध के लिए इजराइल को दोषी मानता हूं क्योंकि हमें उस संदर्भ को कभी नहीं भूलना चाहिए, जिसमें हमास का हमला हुआ था। और वह है गाजा की घेराबंदी है जो 2006 में शुरू हुई थी। इस हिंसा का स्रोत फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जा और उसे इजराइल का उपनिवेश बनाने की कोशिश है। इजराइल पिछले आठ साल से सीरिया पर लगातार बमबारी कर रहा है। पश्चिम के आदर्श दोहरे मानकों पर आधारित हैं। संप्रभुता, नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था, युद्ध अपराध, मानवाधिकार… ये सभी शर्तें सिर्फ गैर-श्वेत और गैर-पश्चिमी देशों पर लागू होती हैं।ÓÓ

 

मुस्लिम देशों की समझदारी या बेवकूफी

इजराइल हमास युद्ध में मुस्लिम देशों को लेकर किसी पूर्वाग्रह से लिखने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए उन्हें समझदारी और बेवकूफी के संदर्भ में ही परखा जाना चाहिए। इस युद्ध में मुस्लिम देश एकजुट होने के बावजूद दो खेमों में बंट हुए हैं। एक तरफ ईरान है और दूसरा खेमा अरब देश हैं। अमेरिका पर सऊदी अरब का प्रभाव है। इसलिए अमेरिका ने सऊदी अरब और इजराइल की दोस्ती कराई और दोनों देश राजनयिक संबंध बहाल करने पर राजी हो गए ोि। सात अक्टूबर को जब मध्य पूर्व की स्थिति एक हमले से बदल गई, ठीक उससे पहले इजराइल और सऊदी अरब में शांति समझौता होने जा रहा था। जिसके तहत सऊदी युवराज (क्राउन प्रिंस) को इजराइल आना था। अमेरिका और इजराइल की नजर पिछले 45 वर्षों से ईरान पर है। ईरान इस क्षेत्र का एक ऐसा देश है, जो इजराइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने की बात कहता रहा है। इजराइल और ईरान के बीच हिजबुल्लाह, हमास और यमन के जरिए अप्रत्यक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वॉर) लंबे समय से चल रहा है। इजराइल और अमेरिका इससे परेशान हैं।

दूसरी तरफ सऊदी अरब और ईरान में भी नहीं बनती है। इसके धार्मिक और ऐतिहासिक कारण हैं। वह इस लेख का विषय भी नहीं हैं। इजराइल-सऊदी अरब शांति समझौता सिरे चढ़ता, उससे पहले ही सात अक्टूबर को हमला हुआ और जवाब में इजराइल ने जब गाजा में तबाही मचाई तो न सिर्फ ईरान बल्कि सऊदी अरब भी भड़क गया। ईरान ने फौरन 56 देशों के मुस्लिम संगठन ओआईसी की बैठक बुलाने की मांग कर दी। सऊदी युवराज सलमान ने तत्काल ही ईरान के राष्ट्रपति से बात की। 56 देशों की बैठक हुई तो उसमें ईरान ने प्रस्ताव रखा कि पूरा मिडिल ईस्ट और सभी मुस्लिम देश इजराइल का आर्थिक बहिष्कार करें। इस प्रस्ताव का विरोध नहीं हुआ, लेकिन कई किन्तु-परंतु से यह पास नहीं हो पाया। सऊदी अरब, तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, कतर, मिस्त्र, जॉर्डन से जिस तल्खी की उम्मीद या किसी कार्रवाई की उम्मीद की जा रही थी, वह उन्होंने नहीं की। कोलंबिया जैसे छोटे से देश ने इजराइल से सारे संबंध तोड़ लिए लेकिन ईरान को छोड़कर कोई भी मुस्लिम देश यह साहस नहीं दिखा सका। ईरान-इजराइल संबंध कई दशक से नहीं हैं।

25 अक्टूबर को दो घटनाक्रम हुए। जो इस सिलसिले में महत्वपूर्ण हैं। ईरान समर्थित हिजबुल्लाह के प्रमुख सैयद हसन नसरल्लाह ने हमास की टॉप लीडरशिप के साथ बेरूत में बैठक की और इजराइल की ओर से गाजा पर जमीनी हमला होने पर जवाबी कार्रवाई का फैसला हुआ। यानी अगर गाजा के अंदर इजराइली टैंक घुसे तो हिजबुल्लाह, हमास, हूती उसका जवाब देंगे। हालांकि यह अलग बात है कि ये सारे चरमपंथी लड़ाके इजराइल-अमेरिका की ताकत के सामने ठहर नहीं पाएंगे। वक्त पर इसका जवाब मिलेगा। लेकिन जो प्रत्यक्ष है वो यह कि अगर ऐसा हुआ तो तमाम मुस्लिम देशों में वहां की जनता अपनी सरकारों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाएंगी और विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाएगी। तमाम मुस्लिम देशों में वहां का अवाम अपनी हुकूमत पर हमास की खुलकर मदद करने और इजराइल से संबंध तोडऩे की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तरह पूरे मिडिल ईस्ट की शांति व्यवस्था भंग हो सकती है। इसमें सबसे ज्यादा सऊदी अरब और बहरीन डरे हुए हैं, क्योंकि वहां की जनता पहले भी अपनी हुकूमत के खिलाफ दूसरे मुद्दों पर सड़कों पर आ चुकी है।

मुस्लिम देश समझदारी से काम ले रहे हैं। इसलिए वे मिडिल ईस्ट की शांति भंग करने को बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं हैं। लेकिन अगर उनका रवैया ऐसा ही ढीलाढाला रहा तो इजराइल गाजा के और हिस्सों पर कब्जा कर लेगा और फिलिस्तीन का नक्शा एक बार फिर बदल जाएगा। इसलिए मुस्लिम देशों को समझदारी के साथ-साथ इजराइल को सबक सिखाने के लिए कुछ न कुछ कदम तो उठाना ही चाहिए। इसमें ईरान ने जो आर्थिक नाकेबंदी का जो प्रस्ताव पेश किया था, वो ज्यादा बेहतर था। उसके दूसरे चरण में इजराइली राजदूतों को पश्चिम एशिया के सभी देशों से हटाने की कार्रवाई होनी थी। बहरहाल, ईरान का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। इन सारे हालात में सऊदी अरब सबसे ज्यादा घाटे में रहने वाला है। क्योंकि वहां की जनता यह मानती है कि आल-ए-सऊद खानदान अमेरिका परस्त हैं। उनकी सारी दौलत अमेरिकी बैंकों में रखी हुई है या फिर वहां की कंपनियों में निवेश है। सऊदी अरब में मामूली चिंगारी भी खतरनाक साबित हो सकती है। इस युद्ध के बाद दुनिया में जहां-जहां भी मुस्लिम रहते हैं, उनमें अमेरिका और सऊदी अरब को लेकर गलत संदेश गया है।

हिजबुल्लाह और हमास नेताओं की 25 अक्टूबर की मुलाकात के दिन तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयिब इर्दोगान ने वहां की संसद में बहुत महत्वपूर्ण बयान दिया। राष्ट्रपति इर्दोगान ने कहा, ”तुर्की हमास को आतंकी संगठन नहीं मानता वह फिलिस्तीन के लोगों के लिए लड़ रहा है। तुर्की पूरी तरह से हमास के समर्थन में है। मैं इजराइल की यात्रा पर इस युद्ध से पहले जाने वाला था लेकिन अब मैं इजराइल नहीं जाऊंगा।ÓÓ

तुर्की के राष्ट्रपति का यह बयान युद्ध के 19वें दिन आया है। लेकिन महत्वपूर्ण है। क्योंकि शुरुआत में तुर्की ने जब अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं दी तो उसे लेकर तमाम संशय उठ रहे थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि हिजबुल्लाह, हमास और हूती, संयुक्त राष्ट्र, इजराइल और अमेरिका सहित उसके पिछलग्गू देशों के लिए आतंकी संगठन घोषित हैं। लेकिन हिजबुल्लाह लेबनान की सुरक्षा करता है और वहां की ईसाई सरकार में शामिल है। इसी तरह हमास फिलिस्तीनियों के लिए खड़ा होता है और गाजा पट्टी में वह प्रशासन संचालित करता है। इसी तरह हूती भी यमन में सऊदी अरब-अमेरिका समर्थक शासक को उखाड़ फेंकने के बाद सत्ता में आए हैं।

 

पहला नकबा और इजराइल का उदय

2 नवंबर, 2023 बहुत दूर नहीं है। उस दिन जायोनी आंदोलन को अपना देश मिला था। इसे बाल्फोर घोषणा भी कहा जाता है, जिसे जायोनिस्ट यानी अल्ट्रा इजराइली राष्ट्रवादी हर साल त्यौहार के रूप में, जीत के रूप में मनाते हैं। बाल्फोर घोषणा 2 नवंबर, 1917 के जरिए ही इजराइल नामक देश को अमली जामा पहनाया गया था। 2 नवंबर 1917 फिलिस्तीनी लोगों की जिन्दगी को हमेशा के लिए एक नासूर दे गया।

ब्रिटेन ने 1917 में ओटोमन साम्राज्य की सेना के साथ खूनी लड़ाई के बाद फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया और इजराइल राज्य की स्थापना के लिए काम शुरू कर दिया। इतिहास ने दर्ज किया है कि 2 नवंबर, 1917 की घोषणा में, तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर ने लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड – जो उस समय जायोनी आंदोलन के नेता थे – से कहा कि ब्रिटिश सरकार ”फिलिस्तीन में एक देश की स्थापना के पक्ष में विचार कर रही है। यह यहूदी लोगों का अपना देश होगा।ÓÓ

यहां रेखांकित करना गैर जरूरती नहीं होगा कि ये वही रोथ्सचाइल्ड हैं जिनका परिवार रोथ्सचाइल्ड बैंकर के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर है। दुनिया में कहीं भी सरकारी या निजी बैंक जब खुलते हैं तो उनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में रोथ्सचाइल्ड परिवार का हाथ होता है। यानी दुनिया की बैंकिंग पर रोथ्सचाइल्ड का कब्जा बरकरार है। यह यहूदी परिवार आज भी अमेरिका की सत्ता को बैंकिंग व्यवस्था पर अपने कब्जे के जरिए प्रभावित करता है। अगर तमाम अपुष्ट कहानियों पर यकीन किया जाए तो उसके मुताबिक दुनिया में जो नई विश्वव्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) बन रही है, उसके पीछे रोथ्सचाइल्ड परिवार है। लेकिन इस कहानी की पुष्टि के लिए तथ्य नहीं हैं। इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं। फिर भी एक बात साफ हो गई की जिस जायोनी आंदोलन से इजराइल देश हासिल हुआ है, उस आंदोलन का अगुआ रोथ्सचाइल्ड परिवार है।

जायोनी आंदोलनकारियों को ही जायोनिस्ट कहा जाता है। जायोनिस्ट या जायोनिज्म की पूरी विचारधारा अंध राष्ट्रवाद है। जर्मनी में जिस हिटलर के नाजी आंदोलन के खिलाफ जिन यहूदी राष्ट्रवादियों ने जायोनी आंदोलन शुरू किया था, बाद में वह स्वयं नाजी जैसे आंदोलन में बदल गया है। गाजा में जो कुछ हो रहा है, क्या वो किसी नाजीवाद से कम है?

2 नवंबर 1917 को जब बाल्फोर ने यह घोषणा की थी तो उसमें एक महत्वपूर्ण पंक्ति थी: ”ब्रिटिश सरकार वादा करती है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है…।ÓÓ लेकिन इजराइल की जायोनिस्ट सरकार आज गाजा में बाल्फोर घोषणा के खिलाफ काम कर रही है।

खैर, फिलिस्तीन के इतिहास पर लौटते हैं। 1917 में यह साफ हो गया था कि अलग इजराइल देश के लिए तैयारी शुरू हो गई है। बाल्फोर घोषणा की चर्चा उस समय कोई नहीं करता था। लेकिन फिलिस्तीन के लोग उस घोषणा के वादों को टूटता हुआ देख रहे थे। 1948 में ब्रिटेन फिलिस्तीन से चला गया और जायोनी समूहों ने फिलिस्तीनी लोगों की जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। उन्होंने हजारों फिलिस्तीनियों को उनकी जमीनों से भगा दिया और इजराइल देश की घोषणा की। इसी को फिलिस्तीनी लोग ‘नकबाÓ बोलते हैं। यह पहला नकबा था। नकबा यानी किसी को उजाडऩा, दर बदर कर देना।

इस तरह 1948 में ऐतिहासिक फिलिस्तीन का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा इजराइली नियंत्रण में आ गया, जबकि पड़ोसी जॉर्डन ने फिलिस्तीनी वेस्ट बैंक पर नियंत्रण कर लिया और गाजा पट्टी मिस्र (इजिप्ट) प्रशासन के तहत आ गई।

इस दौरान इजराइल की कब्जे की कार्रवाई जारी रही। 1967 में, इजराइल ने पूर्वी येरुशलम, मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के साथ गाजा पट्टी और सीरियाई गोलान हाइट्स सहित वेस्ट बैंक पर कब्जा कर लिया। दरअसल, 1967 में मिश्र और सऊदी अरब ने इजराइल पर हमला किया था। लेकिन इजराइल उस युद्ध में इन देशों पर भारी पड़ा।

अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा तो 1993 में इजराइल ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के साथ ओस्लो में समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत वेस्ट बैंक (जेरूशलम को छोड़कर) और गाजा पट्टी के मुख्य शहरों को फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण को सौंप दिया गया। बाद में वहां चुनाव हुए तो हमास एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरा। दूसरी पार्टी फतह पार्टी कहलाती है। हमास को यूएन, अमेरिका-इजराइल खेमा आतंकवादी गुट मानता है लेकिन फिलिस्तीनी लोगों का कहना है कि हमास ही उनकी भावनाओं का नेतृत्व करता है।

 

एक ऐतिहासिक माफीनामा

1917 में द गार्जियन ब्रिटेन का प्रमुख अखबार था और ब्रिटेन की सरकार तक उसकी आलोचना को गंभीरता से लेती थी। 1917 में गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का जबरदस्त समर्थन किया था और ब्रिटिश हुकूमत के साथ खड़ा था। लेकिन वक्त बीतता रहा। इजराइल के कब्जे की कार्रवाई गाजा में बढ़ती जा रही थी। 7 मई 2021 को उसी गार्जियन अखबार ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन करने के लिए माफी मांगी, खेद जताया। यानी सौ साल बाद एक अखबार को अपनी गलती का एहसास हुआ। गार्जियन ने लिखा, ”1917 के गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन किया, जश्न मनाया और यहां तक कि कहा जा सकता है कि इसने इसे सुविधाजनक बनाने में मदद की।ÓÓ यह भी कहा कि तत्कालीन संपादक, सीपी स्कॉट, जायोनीवाद के समर्थन के कारण फिलिस्तीनी अधिकारों के प्रति ‘अंधेÓ हो गए थे। यानी तत्कालीन संपादक ने फिलिस्तीन लोगों के अधिकार के बारे में जरा भी नहीं सोचा, जो वहां के मूल बाशिंदे थे। अपने माफीनामे में गार्जियन ने लिखा: ”और कुछ भी कहा जा सकता है, इजराइल आज वह देश नहीं है जिसका गार्जियन ने अनुमान लगाया था या उस समय चाहता रहा होगा।ÓÓ

अखबार का यह माफीनामा इतिहास में दर्ज है और बहुत पुराना इतिहास नहीं है। भारतीय मीडिया और उसके कुछ ढपलीबाज संपादक, एंकर, पत्रकार खोजकर इस घटना के बारे में पढ़ लें। क्या भारत के किसी अखबार का संपादक या चैनल गार्जियन जैसा साहस दिखा सकता है। भारत में तो असंख्य घटनाएं हैं, जिनके लिए भारत के दरबारी और भजनिए पत्रकारों/एंकरों को माफी मांगनी चाहिए। कोरोनाकाल, बाबरी मसजिद पर अदालत का फैसला, पुलवामा हमला, निष्पक्ष मीडिया और समुदाय विशेष पर दमनचक्र आदि …। फेहरिस्त लंबी है।

 

क्या मिट जाएगा फिलिस्तीन..

इस साल दो नवंबर को बाल्फोर घोषणा की वर्षगांठ ऐसे समय में आई है जब फिलिस्तीनी अब तक के सबसे बड़े नाजी जैसे नरसंहार का सामना कर रहा है। दरअसल, जिस होलोकास्ट (जनसंहार) की बात यहूदी करते रहे हैं, पूरे फिलिस्तीन के लिए वह यही ‘होलोकास्टÓ है। जर्मनी में जब हिटलर ने यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया तो जायोनिस्टों ने उसे होलोकास्ट नाम दिया था।

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सात अक्टूबर को कहा था कि वह हमास को खत्म करने की कसम खाते हैं, लेकिन नेतन्याहू यह भूल गए कि हमास फिलिस्तीनी लोगों को जायोनिस्टों के कब्जे से आजाद करने की विचारधारा का नाम है। विचारधारा कभी खत्म नहीं होती। पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को मिटाने की कोशिश हुई, सोवियत संघ खंड-खंड हो गया लेकिन कम्युनिस्ट विचारधारा आज भी जिंदा है।

 

जायोनीवाद का जन्म

इस लेख में बार-बार जायोनीवाद और जायोनिज्म का जिक्र आया है। इजराइल का फिलिस्तीनी लोगों के साथ जो संघर्ष चल रहा है, उसका इससे गहरा संबंध है। जैसा कि कहा जा चुका है, बाल्फोर घोषणा के समय तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर को लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड ने अलग इजराइल देश बनाने की सलाह दी थी। बैंकर रोथ्सचाइल्ड जायोनीवाद का सबसे बड़ा अगुआ था। बहरहाल, मौजूदा दौर के तमाम इजराइली इतिहासकार इस युद्ध से सहमत नहीं हंै। जैसे ही सात अक्टूबर को इजराइल ने घिरे गाजा पर युद्ध की घोषणा की, पश्चिमी देश अपने पसंदीदा मध्य पूर्वी देश इजराइल के पीछे एकजुट हो गए। सबसे उत्साहपूर्ण समर्थन ब्रिटेन और अमेरिका से मिला। हालांकि अन्य पश्चिमी देशों ने भी इजराइल के प्रति फौरन सहानुभूति और समर्थन दिखाया, लेकिन ब्रिटेन का समर्थन अलग तरह का था। बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋ षि सुनाक ने इजराइल का युद्ध के दौरान दौरा भी किया। सुनाक भारतीय मूल के दक्षिणपंथी नेता हैं। बेंजामिन नेतन्याहू भी दक्षिणपंथ के प्रबल समर्थकों में हैं।

दरअसल, इजराइल केवल ब्रिटेन का सहयोगी नहीं है। यह ब्रिटिश पैदाइश है। मौजूदा दौर के इजराइली इतिहासकार इलान पप्पे का तर्क है कि जायोनीवाद वास्तव में एक ऐतिहासिक ईसाई प्रक्रिया का परिणाम है, यह उस यहूदीवाद के खिलाफ है, जो यूरोप में पला-बढ़ा था। अमेरिका और ब्रिटेन बेशक खुद को नस्लवाद के खिलाफ मानते हैं, लेकिन उनका इस्लाम विरोधी रवैया अपने आप में बताता है कि पश्चिमी देश आज इस्लाम के संबंध में क्या राय रखते हैं। जायोनीवाद या जायोनिज्म का पूरा प्रोजेक्ट इस्लाम विरोध के इर्द-गिर्द घूमता है। फिलिस्तीनी चूंकि इस्लाम को मानने वाले हैं तो जायोनीवाद का पूरा प्रोजेक्ट कट्टरपंथी यहूदी या जायोनिस्ट उसे परवान चढ़ा रहे हैं। इलान पप्पे कहते हैं- जायोनीवाद ने ही 1948 के नकबा को जन्म दिया। यह फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से उजाडऩे की औपनिवेशिक परियोजना थी। यह जातीय सफाया आज भी जारी है, और मूल रूप से पश्चिम में एक मजबूत गठबंधन ने फिलिस्तीनियों को बेदखल करने के लिए बुनियादी ढांचा मुहैया कराया था। उनके अनुसार यह आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है कि जायोनीवाद मूल रूप से एक ईसाई परियोजना थी।

जायोनीवाद की इस वंशावली को आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है जब इतिहासकार इस बात पर विचार करते हैं कि आखिर ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को उपनिवेश बनाने और वहां एक यहूदी राज्य बनाने की यहूदी जायोनी परियोजना का समर्थन करने का फैसला क्यों किया। वे ये काम अपनी किसी भी कॉलोनी में कर सकते थे। 1917 से हो रही घटनाओं को इस संदर्भ में देखें तो ब्रिटिश हुकुमतों ने जायोनिज्म की सफलता के लिए काम किया।

इतिहासकार इलान पप्पे लिखते हैं, और भी ऐसे कई कारण थे जिन्होंने जायोनीवाद की सफलता और नवगठित जायोनी देश इजराइल को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन दिलाया। होलोकास्ट, जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार का पश्चिमी अपराधबोध, इस्लामोफोबिया, पूंजीवादी और उद्योगपति समर्थक अमेरिकी समर्थन, सभी ने जायोनीवाद और इजराइल को मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभाई। उन के अनुसार यह सब कुछ एक रिले रेस की तरह है, जिसमें अंतिम दौडऩे वाले अपने आगे वाले को बैटन थमा देते हैं। जायोनीवाद सत्तर साल की ब्रिटिश जद्दोजेहद का नतीजा है। नकबा यानी 1948 की फिलिस्तीनी तबाही, सिर्फ फिलिस्तीन पर कब्जा करने के ब्रिटेन के फैसले का नतीजा नहीं था, बल्कि फिलिस्तीन को एक जायोनी राज्य बनाने का फैसला था।

इलान पप्पे के बारे में यहां थोड़ी-सी जानकारी देना जरूरी है। इलान पप्पे एक्सेटर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वह पहले हाइफा यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ प्रोफेसर थे। द एथनिक क्लींजिंग ऑफ फिलिस्तीन (फिलिस्तीन की नस्ली सफाई) उनकी मशहूर किताब है। द मॉडर्न मिडिल ईस्ट, ए हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न फिलिस्तीन:वन लैंड, टू पीपल्स, और टेन मिथ्स अबाउट इजराइल भी उन्होंने लिखी हैं। पप्पे को इजराइल के ‘नए इतिहासकारोंÓ में खास दर्जा हासिल है। पश्चिम एशिया के तमाम प्रकाशनों में उनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं।

 

इजराइल-अमेरिका का हथियार उद्योग

अमेरिका और इजराइल में सबसे बड़ी हथियार लॉबी है। हर युद्ध अमेरिका और इजराइल की कंपनियों को फायदा पहुंचाता है। कोरोना हो या युद्ध, मुनाफा कमाने की साम्राज्यवादी सोच इसके पीछे काम करती है। अमेरिका में अधिकांश हथियार कंपनियों के मालिक यहूदी हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से वे कंपनियां किसी न किसी यहूदी समूह से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह इजराइल की हथियार कंपनियां कई देशों में सरकारों तक को प्रभावित कर रही हैं। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हथियार लॉबी के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। भारत में पेगासस स्पाईवेयर को लोग शायद भूल गए हैं। पेगासस सॉफ्टवेयर का निर्माण इजराइल की कंपनी एनएसओ करती है। पेगासस को भारत में कई विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मोबाइल और कंप्यूटर में डालकर उनकी जासूसी की गई। पेगासस भारत में बेंजामिन नेतन्याहू के जरिए पहुंचा था। इस जासूसी साफ्टवेयर को दुनिया के उन देशों को बेचा गया, जहां सत्तारूढ़ पार्टी विपक्षी नेताओं और विरोधियों पर नजर रखना चाहती हैं। भारत में पेगासस का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अदालत इस मामले में केंद्र सरकार की जवाबदेही तय नहीं कर सकी। जबकि कोई भी विदेशी हथियार या ऐसा सॉफ्टवेयर बिना सरकारी अनुमति भारत में इस्तेमाल नहीं हो सकता है।

अमेरिकी दैनिक न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 तक, दुनिया के हथियारों के निर्यात का अनुमानित 45 फीसदी अमेरिका नियंत्रित कर रहा था या इस पर उसका कब्जा था। जो किसी भी अन्य देश की तुलना में लगभग पांच गुना अधिक था। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अमेरिकी सैन्य विभाग पेंटागन ने अमेरिकी कांग्रेस यानी वहां की संसद को सूचित किया है कि साल 2023 के पहले नौ महीनों में $90.5 बिलियन से अधिक हथियारों की बिक्री हो गई है, जो पिछले दशक की तुलना में लगभग $65 बिलियन के वार्षिक औसत की गति से अधिक है। ये सारे हथियार सरकार से सरकार के बीच बेचे गए हैं यानी अमेरिका ने उन देशों की सरकारों को बेचा है। यूक्रेन इन में नंबर एक पर है।

यूक्रेन-रूस युद्ध अभी भी जारी है। अमेरिका ने इजराइल-हमास युद्ध शुरू होने के बाद कहा है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश दोनों युद्ध में मदद करने की ताकत रखते हैं। अब आप इस बयान के निहितार्थ लगाते रहिए। पोलैंड जैसे देश ने यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद बड़े पैमाने पर अमेरिका से हथियार खरीदे हैं। रूस के नजदीक आसपास जितने भी नाटो सदस्य देश या अमेरिकी खेमे के देश हैं, वहां हथियारों की खरीद बढ़ गई है। समझा जा सकता है कि यह सब क्यों हो रहा है और किस लिए हो रहा है।

 

हथियारों के बारोबार में इजराइल

इसी तरह इजराइल के हथियारों का कारोबार नई ऊंचाइयां छू रहा है। ब्रितानवी समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने बताया है कि इजराइली रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में इजराइली हथियारों की बिक्री 12.5 बिलियन डॉलर के नए रिकॉर्ड पर पहुंच गई। अधिकारियों ने यूक्रेन पर रूस के युद्ध के कारण इजराइल निर्मित हथियारों की मांग और हाल ही में इजराइल के साथ संबंध सामान्य करने वाले अरब देशों की रुचि में बढ़ोतरी पर ध्यान दिया। हालांकि गाजा पर ताजा हमले के बाद अरब देश इजराइल के खिलाफ हो गए हैं। ड्रोन और एयर डिफेंस सिस्टम में इजराइल बाजी मार रहा है। भारत में सेना इजराइल के एयर डिफेंस सिस्टम का इस्तेमाल कर रही है। एशिया में इजराइल के हथियार सबसे ज्यादा बिकते हैं, जो कुल बिक्री का 30 फीसदी हैं। यूरोप में 29 फीसदी, अब्राहम समझौते वाले देशों में 24 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। उत्तरी अमेरिका में 11 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। अब्राहम समझौते वाले देशों में सऊदी अरब, बहरीन, यूएई, सूडान वगैरह हैं। लेकिन गाजा पर हमलों के बाद इन देशों ने इजराइल से सारा कारोबार फिलहाल रद्द कर दिया है।

हाल ही में अमेरिका ने इजराइल को हमास से युद्ध को देखते हुए करीब सौ अरब डॉलर की मदद करने के लिए अमेरिकी संसद से अनुमति मांगी है। अमेरिका की घोषणा के बाद रूस ने युद्ध को एक स्मार्ट निवेश बताया है। रूस ने यह बात यूक्रेन और इजराइल को अमेरिकी मदद के संदर्भ में कही। लेकिन अगर हथियार बिक्री के आंकड़ों को देखें तो यह भयावह सच सामने आता है। यूक्रेन इस समय हथियार खरीदने का सबसे बड़ा ग्राहक है। रूस ने कहा कि अमेरिका और यूरोपीय देश एक भी युद्ध अपने क्षेत्र या अपनी धरती पर नहीं लड़ रहे हैं। सभी युद्ध उन क्षेत्रों में हुए हैं या हो रहे हैं, जहां इनके हथियार बिकते हैं।

 

भारत का रवैया

इजराइल-हमास युद्ध में भारत की अजीबोगरीब स्थिति है। सात अक्टूबर को जब हमास ने हमला किया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फौरन ट्वीट करके हमले की निन्दा कर दी और लिखा कि भारत इजराइल के साथ इस दुख की घड़ी में खड़ा है। मोदी की पूरी प्रतिक्रिया एकतरफा थी। तब तक अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने अगले ही दिन बयान देकर बता दिया कि सरकार में तालमेल का कितना अभाव है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने साफ शब्दों में कहा कि फिलिस्तीन में बेगुनाह लोगों का खून नहीं बहाया जाना चाहिए। भारत फिलिस्तीन को एक संप्रभु राष्ट्र मानता है। फिलिस्तीन समस्या का हल निकाला जाना चाहिए। दो देश (टु नेशन) ही इस समस्या का हल है। इसके बाद 17 अक्टूबर की घटना हो गई। गाजा के अस्पताल पर बमबारी में 500 लोगों के मारे जाने के बाद प्रधानमंत्री का दिल भी पसीजा और उन्होंने अपने पिछले बयान को एकदम से भूलते हुए नया बयान दिया। फौरन फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से बात की। पीएम मोदी गाजा के अल अहली अस्पताल में नागरिकों की हत्या पर अपनी संवेदना व्यक्त की। मोदी ने यह भी कहा कि हम फिलिस्तीनी लोगों के लिए मानवीय सहायता भेजना जारी रखेंगे। क्षेत्र में आतंकवाद, हिंसा और बिगड़ती सुरक्षा स्थिति पर अपनी गहरी चिंता साझा की। उन्होंने इजराइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर भारत की लंबे समय से चली आ रही सैद्धांतिक स्थिति को दोहराया। इसके बाद भारत ने 22 अक्टूबर को 6.2 टन मेडिकल सहायता और 32 टन राहत सामग्री गाजा यानी फिलिस्तीन के लोगों के लिए रवाना कर दी।

प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे ट्वीट और 22 अक्टूबर को राहत सामग्री भेजने से साफ हो गया कि फिलिस्तीन को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, डॉ मनमोहन सिंह की जो नीति रही है, भारत वही नीति जारी रखेगा। बेशक इजराइल के हैफा में अडाणी पोर्ट बन रहा हो या इजराइल भारत में अडाणी की कंपनियों में निवेश कर रहा हो। भारत की विदेश नीति अडाणी के लिए नहीं बदलेगी। भारत के लिए यही बेहतर भी है। क्योंकि जिस तरह से एशियाई देशों में अमेरिका अपनी नीतियों को चीन के खिलाफ लागू करना चाहता है, उसमें उसे भारत की जरूरत है। जबकि रूस-चीन गठजोड़ अमेरिका, इजराइल और बाकी साम्राज्यवादी देशों के हस्तक्षेप को एशिया में रोकना या सीमित करना चाहता है। संक्षेप में एक और झटके का जिक्र जरूरी है। दिल्ली में सितंबर में जब जी20 सम्मेलन हुआ तो उसमें भारत-अरब-इजराइल-यूरोप कॉरिडोर को लेकर एक समझौता हुआ। इसमें भारत और सऊदी अरब मुख्य भागीदार थे। इस कॉरिडोर के जरिए सड़क और रेल मार्ग भारत से यूरोप तक जाना था। जिसमें बीच में सऊदी अरब और इजराइल की भी भूमिका थी। यह पूरा मामला भारत के उद्योग जगत से लेकर सऊदी अरब के युवराज के निवेश और इजराइल के सामरिक महत्व से जुड़ा था। लेकिन यह डील अब ठंडे बस्ते में चली गई है। यह भारत के लिए झटका है।

संभवत: इसमें पश्चिम एशिया के देशों से व्यापारिक संबंध भी महत्वपूर्ण हैं और उन में भी तेल के कारोबार को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। n

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